चारित्र चक्रवर्ती आचार्य शांतिसागर जी महाराज की दीक्षा शताब्दी वर्ष पर विशेष
चारित्र चक्रवर्ती आचार्य शांतिसागर जी महाराज पर तिर्यंचोंकृत उपसर्गों के प्रसंग
चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी (दक्षिण) पर बहुत उपसर्ग हुए और उन्होंने बहुत ही समता भाव से उन्हें सहा। उनकी सौम्य मुद्रा व उनके समभाव को देखकर उपद्रवी मनुष्य क्या तिर्यंच भी उन्हें अपना हितकारी समझकर अपना बैर छोड़ देते थे। यहां हम उन पर किये गये तिर्यंचों द्वारा उपसर्ग और उनका प्रभाव पर केन्द्रित होंगे।
चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी (दक्षिण) पर मकोडे़ ने, चीटियों ने उपसर्ग किये, कम से कम चार बार सेर उनके सम्मुख रहा। सर्प तो 6-7 बार उनके सम्मुख हुआ, उनके शरीर पर भी लिपटा रहा, किन्तु आप अपने ध्यान- सामायिक में तल्लीन रहे।
असंख्य चीटियों द्वारा उपसर्ग-
सुमेरचंद दिवाकर जी ने पूछा- महाराज! ऐसा भीषण उपसर्ग और भी तो आया होगा। प्रश्न के उत्तर में महाराज बोले- एक बार हम जंगल में मंदिर के भीतर एकांत स्थान में ध्यान करने बैठे। वहां पुजारी दीपक जलाने आया, दीपक में तेल डालते समय कुछ तेल भूमि पर बह गया। वर्षा की ऋतु थी। दीपक जलाने के बाद पुजारी अपने स्थान पर वापस चला गया।
महाराज ने कहा- ‘उस समय हम निद्राविजय तप का पालन करते थे। इससे हमने उस रात्रि को जागृत रहकर धर्मध्यान में काल व्यतीत करने का नियम कर लिया था। पुजारी के जाने के कुछ काल पश्चात् चींटियों ने आना प्रारंभ कर दिया। धीरे-धीरे असंख्य चींटियों का समुदाय इकट्ठा हो गया और वे हमारे शरीर पर आकर फिरने लगीं। कुछ काल के अनंतर उन्होंने हमारे शरीर के अधो भाग नितंब आदि को काटना प्रारंभ कर दिया। उन्होंने जब शरीर को खाना प्रारंभ किया तो अधो भाग से खून बहने लगा। उस समय हम सिद्ध भगवान का ध्यान कर रहे थे। रात्रिभर यही अवस्था रही। चींटियां नोचकर शरीर को खाती जा रही थीं।’
कभी शरीर में एकाध चींटी चिपक जाती है, तब उसके काटने से जो पीड़ा होती है उससे सारी देह व्यथित हो जाती है। जब शरीर में असंख्य चीटियां चिपकीं हों और देह के अत्यंत कोमल अंग गुप्तांग को सारी रात लगातार खाती रहें तथा नरदेह-स्थित आत्माराम बिना प्रतिकार किए एक दो घंटा नहीं, इस उपसर्ग को लगातार सारी रात ऐसा अलिप्त हो सहता रहे, देखता रहे, ऐसा एक महान साधक ही कर सकता है।
मकोड़े का उपसर्ग-
एक बार कोन्नूर के जंगल में महाराज बाहर बैठकर धूप में सामायिक कर रहे थे। इतने में एक बड़ा कीड़ा मकोड़ा उनके पास आया और उसने उनके पुरुष-चिह्न से चिपट कर वहां का रक्त चूसना शुरू कर दिया। रक्त बहता जाता था किंतु महाराज डेढ़ घंटे पर्यंत अविचलित ध्यान करते रहे।
नेमिसागर जी महाराज ने चारित्रचक्रवती ग्रंथ लेखक को बताया, कि उस समय वे गृहस्थ थे, और चिंतित थे, कि इस समय क्या किया जाए?यदि कीड़े को पकड़कर अलग करते तो महाराज के ध्यान में विघ्न आएगा। अतः वे किंकर्तव्यविमूढ़ हो रहे थे। नेमिसागर जी ने यह भी कहा- ‘‘और भी छोटे-छोटे मकोड़े उस समय आते थे, उनको तो हम अलग कर देते थे किंतु बड़े मकोड़े की बाधा को हम दूर न कर सके। पुरुष चिह्न से रक्त बहता था, किंतु महाराज अपने अखंड ध्यान में निमग्न थे।
शेर का आगमन-
चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज के सम्मुख 5-6 बार शेर आया किन्तु आप विना बिचलित हुए ध्यानस्थ रहे।
श्री दिवाकर जी द्वारा आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज से पूछा गया कि आपके पास भी कभी कोई शेर आया तब उन्होंने कहा-
1. ‘हम मुक्तागिरी के पर्वत पर रहते थे, वहां शेर आया करता था और प्रतिदिन पास में बहने वाले झरने का पानी पीकर चला जाता था।
2. श्रवणबेलगोला की यात्रा में भी शेर मिला था।
3. सोनागिरि क्षेत्र पर भी वह आया था। इस तरह शेर आदि बहुत जगह आते रहे हैं।’ वे कहते हैं- इसमें महत्व की कौन सी बात है।
4. सतपुड़ा के निर्जन वन में जब शेर आया-
महाराज ने मुक्तागिरी से बड़वानी जाते हुए सतपुड़ा के निर्जन वन की एक घटना बतायी कि- ‘‘विहार करते समय उस निर्जन वन में संध्या हो गई। हम ध्यान करने को बैठ गए। साथ के श्रावक वहां डेरा लगाकर ठहर गए। उस समय जब शेर आया, तब श्रावक घबरा गए। एक शेर तो हमारी कुटी के भीतर घुस गया था। कुछ काल के पश्चात् वह शेर बिना हानि पहुंचाए जंगल में चला गया’
5. द्रोणगिरि में शेर बहुत काल तक महाराज के पास बैठना-
संघ वैशाख सुदी एकम् संवत् 1986 को द्रोणागिरी क्षेत्र तक पहुंचा यहां। यहां हजारों भाइयों ने दूर दूर से आकर गुरुदेव के दर्शन का लाभ लिया। महाराज पर्वत पर जाकर जिनालय में ध्यान करते थे। उनका रात्रि का निवास पर्वत पर होता था, प्रभात होते ही लगभग आठ बजे महाराज पर्वत से उतर कर नीचे आ जाते थे। एक दिन की बात है कि महाराज समय पर ना आए, सोचा गया कि संभवतः वे ध्यान में मग्न होंगे। दर्शनार्थियों की लालसा प्रबल हो चली। साढ़े आठ, नौ, साढ़े नौ बज गये और भी समय व्यतीत हो रहा था। जब विलंब हो गया, तब कुछ लोग पहाड़ पर गए। उसी समय महाराज वहां से नीचे उतर रहे थे। लोगों ने महाराज का जयघोष किया। चरणों को प्रणाम किया और पूछा- स्वामी ! आज तो बड़ा विलंब हो गया, क्या बात हो गई?’ वे चुप रहे कुछ उत्तर नहीं दिया। लोगों ने पुनः प्रार्थना की। एक बोला- महाराज, यहां शेर आ जाया करता है। कहीं शेर तो नहीं आ गया था?अंत में स्वामी जी का मौन खुल ही पड़ा और उन्होंने बताया कि ‘‘संध्या से ही एक शेर पास में आ गया। वह रातभर बैठा रहा। अभी थोड़ी देर हुई वह हमारे पास से उठकर चला गया।’’ प्रतीत होता है वनपति यतिपति के दर्शनार्थ आया था। उस घटना के विषय में विचार करते हुए हमारे तो रोंगटे खड़े हो जाते।
1. कोन्नूर गुफा में सर्प का उपद्रव-
आचार्यश्री ने कोन्नूर की पहाड़ी की एक अपरिचित गुफा में जाकर आनंद से ध्यान करने का विचार किया। प्रशांत गुफा में मध्याह्न की सामायिक के लिए गए और वहां सामायिक करने लगे। गुफा के पास में झाड़ी थी, उसमें सर्पादिक जीवों का भी निवास था। गुरुभक्त मंडली ने देखा कि महाराज ध्यान के लिए दूसरे स्थान पर गए हैं। अब उन्होंने उनको ढूंढ़ना प्रारंभ किया और कुछ समय के पश्चात् उस गुफा के समीप गए जिसमें महाराज सामायिक में तल्लीन थे। उस समय एक सर्प पहाड़ी में से निकला और गुफा के भीतर जाते हुए लोगों को दृष्टिगोचर हुआ। कुछ समय पश्चात् वह भीतर फिरकर बाहर निकलना ही चाहता था कि एक श्रावक ने गुफा के द्वार पर एक नारियल चढ़ा दिया। उसकी आहट से पुनः सर्प भीतर घुस गया। वहां पर महाराज के पास गया। उनके शरीर पर चढ़कर उसने उनके ध्यान में विघ्न डालने का प्रयत्न किया किंतु उसका उन पर कोई भी असर नहीं हुआ। वे भेद-विज्ञान की ज्योति द्वारा शरीर और आत्मा को भिन्न- भिन्न विचारते हुए अपने को चैतन्य का पंुज सोचते थे, अतः ‘शरीर पर सर्प आया है, वह यदि दंस कर देगा, तो मेरे प्राण ना रहेंगे’, यह बात उन्हें भयविह्वल ना बना सकी। वे वज्र की मूर्ति की तरह स्थिर रहे आए। शरीर में अचलता थी, भावों में मेरु की भांति स्थिरता थी। आत्मचिंतन से प्राप्त आनंद में अपकर्ष के स्थान में उत्कर्ष ही हो रहा था। वे सर्प, सिंह, व्याघ्र, अग्नि आदि की बाधा को अत्यंत तुच्छ जानते थे। उनकी दृष्टि मोहनीय कर्म, अंतराय कर्म, वेदनीय, ज्ञानावरणादि कर्मों के विनाश की ओर थीं। सर्प के उपद्रव से अविचलित होना उनके उत्कृष्ट आत्मविकास तथा अंतःनिमग्नता के प्रमाण हैं।
2. कोन्नूर में उड़ने वाले सर्प के द्वारा उपद्रव में भी स्थिरता-
एक दिन तारीख 23. 10. 1951 को पं. सुमेरचंद दिवाकर जी महाराज के साथ रहने वाले महान तपस्वी निग्र्रंथ मुनि 108 श्री नेमिसागर जी के पास बारामती बस्त्ती में पहुंचे और महाराज शांतिसागर जी के विषय में कुछ प्रश्न पूछने लगे। उनसे ज्ञात हुआ कि वे लगभग 28 वर्षों से पूज्यश्री के आश्रय में रहे हैं।
कोन्नूर में सर्पकृत परीषह के विषय में हमने पूछा, तब वे बोले- ‘‘कोन्नूर में वैसे तो 700 से अधिक गुफायें हैं किंतु दो गुफा मुख्य हैं। महाराज प्रत्येक अष्टमी-चैदस को गुफा में जाकर ध्यान करते थे। उस दिन उनका मौन रहता था। एक दिन की बात है। वे गुफा में घुसे उनके पीछे ही एक सर्प भी गुफा में चला गया। बड़ा चंचल था। वह सर्प उड़ान मारने वाला था। अनेक लोगों ने यह घटना देखी थी। जब लोग महाराज के समीप पहुंचते थे, तो वह सर्प उनकी जंघाओं के बीच में छुप जाता था। लोगों के दूर होते ही वह इघर-उघर घूमकर उपद्रव करता था।’’
‘यह मध्याह्न की बात थी, वह सर्प तीन घंटे तक वहां रहा, पश्चात् चला गया। लोग यदि उसे पकड़ते, तो इस बात का भय था, कि कहीं वह क्रुद्ध होकर महाराज को काट न ले। इससे वे सब किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाते थे।’
3. शेडवाल में सर्प बाधा-
नेमिसागर महाराज ने सर्पसंबंधी एक घटना और बताई थी। उस समय शांतिसागर महाराज शेडवाल में थे। वे पट्टे पर बैठे थे। पट्टे के नीचे 5 फुट लंबा सर्प बैठा था। वह सर्प उस स्थान पर रात भर रहा। दिन निकलने पर उस जगह झाड़ने वाले जैनी से महाराज ने कहा ‘भीतर संभल कर जाना।’ जब वह भाई भीतर गया तो उसकी दृष्टि सर्पराज पर पड़ी। उसने बाहर आकर दूसरे लोगों से सर्प की चर्चा बताई।
4. सर्पराज का आचार्यश्री के मुख के समक्ष फन करके खड़ा रहना-
‘‘आचार्य महाराज एक दिन जंगल में स्थित एक गुफा में ध्यान कर रहे थे इतने में एक सात आठ हाथ लंबा और खूब मोटा लट्ठ सरीखा सर्प आया उसके शरीर पर बाल थे। वह आया और उनके मुंह के आगे अपना बड़ा फन फैलाकर खड़ा हो गया। उसके नेत्र लाल रंग के थे वह उन पर दृष्टि डालता था और अपनी जीभ निकालकर लप-लप करता था। उसके मुख से अग्नि के कण निकलते थे। वह बड़ी देर तक हमारे सिर और नेत्रों के आगे खड़ा होकर आचार्यश्री की ओर देखता था। वे भी उसको देखते थे।’’ यह घटना आचार्यश्री ने स्वयं सुनाई थी।
5. कोगनोली में विशाल विषधर सर्प उनके शरीर से लिपट गया-
महाराज कोगनोली में क्षुल्लक की अवस्था में आए थे। तब वहां सर्प कृत उपद्रव हुआ था। वहां के प्राचीन मंदिर में महाराज ध्यान के हेतु बैठे थे। ध्यान आरंभ करने के पूर्व कुछ जिन नाम स्मरण पाठ कर रहे थे कि एक विशाल विषधर वहां घुसा। कुछ समय मंदिर में यहां-वहां घूम कर इनके शरीर से लिपट गया। मानों वे उसके बड़े प्रेमी मित्र ही हों। बात यह है जब महाराज सामायिक पाठ पढ़ते हैं तब कहते हैं मेरा सर्व जीवों में समता भाव है ‘सामता मे सर्वभूतेषु’ मेरा किसी के भी साथ वैरभाव नहीं है मेरा सर्व जीवों के प्रति मैत्री भाव है ‘मित्ती मे सव्वभूदेसु।’
मालूम होता है सर्पराज इसीलिए इनके पास आया था कि उनके वचन सत्य हैं या नहीं देखें। ये समता भाव रखते हैं या नहीं। ये मेरे प्रति मैत्री रखते हैं या नहीं?सर्प ने वाणी के अनुरूप इनकी प्रवृत्ति पाई तो वह प्रेम के साथ शरीर में लिपट गया, मानो इनके प्रति वह स्नेह कर रहा हो। महाराज ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ के सिद्धांत को स्वीकार कर चुके थे। इससे ही वह सर्पराज आत्मीय भाव से कमर से चढ़कर गले में लिपटा हुआ था इतने में मंदिर में अखंड प्रकाश हेतु नंदादीप-अखंड दीपक सुधारने को वहां का उपाध्याय आया। महाराज के ऊपर सर्प लिपटा देखकर वह जान छोड़कर भागा। बहुत लोग वहां आ गए किंतु क्या किया जाए?यह समझ में नहीं आता था। यदि गड़बड़ी की अथवा सर्प को दूर करने में बल प्रयोग किया तो वह काट लेगा, तब क्या भयंकर स्थिति हो जाएगी। अतः सब के सब लोग घबरा रहे थे। बहुत समय के पश्चात् सर्प शरीर से उतरा और धीरे-धीरे मानो प्रसन्नतापूर्वक बाहर चला गया, कारण उसे सच्चे साधक महात्मा का परीक्षण करने का अवसर मिला था और परीक्षण में शुद्ध स्वर्ण निकले।
अमृत और विष की भेंट-
दिवाकर जी ने पूछा- महाराज ऐसी स्थिति में आपको घबराहट नहीं हुई। महाराज ने कहा- ‘हमें कभी भय होता ही नहीं’ हम उसको देखते रहे, वह हमैं देखता रहा। एक दूसरे को देखते रहे। सर्पराज शांति के सागर को देखता था और शांति के सागर उस यमराज को भी अपनी अहिंसापूर्ण दृष्टि से देखते थे। यह अमृत और विष की भेंट थी।
दिवाकर जी ने पूछा महाराज उस समय आप क्या सोचते थे महाराज ने कहा हमने यही सोचा था यदि हमने जीव का कुछ बिगाड़ पूर्व में किया होगा तो यह हमें बाधा पहुंचाएगा, नहीं तो वह स्वयं चुपचाप चला जाएगा। महाराज का विचार यथार्थ निकला। कुछ काल के बाद सर्पराज महाराज को साम्य और धैर्य की मूर्ति तथा शांति का सिंन्धु देखकर अपना फण नीचा करके, मानों महामुनि के चरणों में प्रणाम करता हुआ, धीरे-धीरे गुफा के बाहर जाकर न जाने कहां चला गया।
जब उनसे पूछा गया कि वह तो साक्षात् यमराज की मूर्ति है, उसके आने पर घबराहट होना तो साधारण सी बात है। आचार्यश्री ने कहा- ‘डर किस बात का किया जाए। जीवन भर हमें कभी किसी वस्तु का डर नहीं लगा। जब तक कोई पूर्व का बैर न हो अथवा उस जानवर को बाधा ना हो तब तक वह नहीं सताता है।
उपसर्गों की प्रतिक्रिया स्वरूप आचार्य का कहना था कि ‘विपत्ति के समय हमें कभी भी भय-घबराहट नहीं हुई। सर्प आया, शरीर पर लिपट कर चला गया, इसमें महत्त्व की क्या बात है। उनसे पूछा गया कि उस मृत्यु के साक्षात् प्रतिनिघि को देखकर आपको भय न लगा यह आश्चर्य की बात है। महाराज- बोले हमें कभी भी भय नहीं लगता। यदि सर्प का हमारा पूर्व का बैर होगा तो वह बाधा करेगा अन्यथा नहीं। उसके साथ हमने कुछ बिगाड़ नहीं किया तो उसने हमारा कुछ भी बिगाड़ नहीं किया। उनसे पूछा गया कि उस समय आप क्या करते थे जब सर्प आपके शरीर पर लिपट गया था?महाराज बोले- उस समय हम भगवान का ध्यान करते थे। यह पूछने पर कि जब आपके शरीर पर चढ़ा तब उसके शरीर का स्पर्श होने से आपके शरीर को विशेष प्रकार का स्पर्श जन्य अनुभव होता था या नहीं?महाराज ने कहा हम ध्यान में थे, हमें बाहरी बातों का भान नहीं था।
सर्प उनके शरीर पर लिपटने की घटना सुनकर तो श्रद्धालुओं का हुजूम उमड़ पड़ा था। सर्प की इन्हीं घटनाओं के कारण आपके सर्प लिपटे हुए चित्र बने और वे बहुत प्रसिद्ध हुए। चारित्रचक्रवती आचार्य श्री शांतिसागर जी की जो प्रतिक्रितियां स्थापित हुई उनमें बहुत सी सर्पयुक्त भी हैं।
इस तरह आचार्यश्री के साक्षत् संपर्क में अनेक हिंसक तिर्यंच आये, कई ने उन पर उपसर्ग भी किये, किन्तु वे कभी विचलित नहीं हुए, सदा समता भाव धारण किया।
डाॅ. महेन्द्रकुमार जैन ‘मनुज’, इन्दौर
No comments:
Post a Comment