सम्पादक की कलम से
*वैलेंटाइन डे और भारत*
भारतीय संस्कृति में उत्सव और पुरुषार्थ की एक लंबी श्रृंखला है । धर्म ,अर्थ ,काम, मोक्ष के लिए पुरुषार्थ ही मनुष्य का लक्ष्य है और इस पुरुषार्थ को आह्लादमय बनाना उसकी प्रवृत्ति है जो निरंतर जीवन भर बनी रहती है । यहां पर्व है प्रत्येक पक्ष में ,माह में ऋतु में । पर्व आते ही रहते हैं।भारत में सृष्टि का प्रवर्तन है। वर्जनाहीनता ,वासना,अश्लीलता व्याभिचार यहां काम नहीं है ,प्रेम की आराधना काम है।भारत में तो सदियों से ही वैलेंटाइन की परंपरा है ।शास्त्र विधान है। यहां कामशास्त्र ऋषि-मुनियों ने लिखे हैं ।उन ऋषि मुनियों ने गृह त्याग और ब्रह्मचर्य जिनके आभूषण रहे हैं, धर्म और नैतिकता के तटबंधो में उन्होंने काम को बांधा है।
बड़ी रोचक एवं स्पर्शी कथा है वैलेंटाइन डे की।संत वैलेंटाइन की संवेदना का प्रतिफल है वैलेंटाइन । रोमन सम्राट क्लॉडियस को कुँवारे नौजवान सिपाहियों की युद्ध के लिए आवश्यकता थी। सम्राट उन्हें अपने चंगुल में रखता था पर वे नौजवान भाग निकलकर वैलेंटाइन की शरण में आते थे, वैलेंटाइन उनकी शादी करवाते थे और जो सम्राट की कैद में फंसे थे उन्हें छुड़वाते थे । सम्राट ने 1 दिन इस प्रेम के मसीहा को मौत के घाट उतार दिया। पर मरने से पहले वैलेंटाइन डे एक पंक्ति जेलर की बेटी को लिखकर कार्ड भिजवाया -"तुम्हारे वैलेंटाइन की ओर से "।आज हजारों वर्ष बाद भी यह पंक्ति अमर है इस पवित्र दिन का दुरुपयोग होना अच्छा नहीं लगता उन्होंने विवाह करवाया था न कि उन्हें उच्श्रृंखल बनाया था। विवाह सूत्र में बांधकर उनको गृहस्थ जीवन में प्रवेश कराया था और इसी व्यवस्था से मनुष्य मनुष्य बना रहता है गृहस्थ धर्म का निर्वाह करता है, सृष्टि का संचालन करता है ।
हमारे पुराणों में राजाओं द्वारा अपनी रानियों के साथ बसंत उत्सव मदनोत्सव कुमुदोत्सव के अनेक प्रसंग पढ़ने को मिलते हैं जहां में गाते थे बजाते थे रंग रलिया लिया करते थे वन विहार करते थे यह ऋतु बसंत ऋतु है जहां प्रकृति को भी कामोद्दीपक माना गया है ।मादकता का सुवास पेड़-पौधों ,लता -पुष्पों से प्रस्फुटित होता है ।पूरी सृष्टि सौंदर्य की अंगड़ाई लेने लगती है। रंग बिरंगे फूल में भीग जाते हैं सृष्टि राधा कृष्णा हो जाती है। बसंत पंचमी तो सर्वत्र पीत ही पीत हो जाती है किंतु कामुकता नहीं होती सहज स्वाभाविक मधुमिता की अधिकता होती है। संत वैलेंटाइन वैलेंटाइन में न अनैतिकता थी, न अनाचार, न दुराचार था । वह तो युवक-युवतियों के लिए अंधेरे का दीपक था ,सहारा था । प्रतिबंध प्रताड़ना का तो कोई स्थान ही नहीं था उनके वैलेंटाइन में।
आज वैलेंटाइन अपनी मूल भावना के विपरीत है ,प्रेम प्रेमिका और प्रदर्शन का ऐसा रूप सम्मुख आ रहा है जिससे वितृष्णा हो रही है ।वैलेंटाइन डे जैसा पवित्र दिन व्यापार ,ब्राण्ड, बिजनेस बन गया है ।भारतीय संस्कृति में वैलेंटाइन डे नहीं मनाया जाता ।हमारे यहां तो वैलेंटाइन मनाते हैं अच्छी तरह से सात सात जन्मो तक , सात फेरों के द्वारा बंधन होते हैं ।जो मंत्रों के द्वारा पवित्र होते हैं उन्हें अपने प्रेम के लिए विज्ञापन की आवश्यकता नहीं होती भारतीय परिवेश में वैलेंटाइन डे का परिष्कृत रूप घर घर मे है। वैलेन्टाइन जैसे उदार संत के कृतित्व को महान रखने के लिए युवक-युवतियों को इस दिन प्यार के इजहार की अभिव्यक्ति के साधन नहीं ढूंढने चाहिए अपितु प्रेम के संस्कारों को संस्कृत करना चाहिए ।यह विवाह का प्रेम है विवाह की आवश्यकता का परिचायक है हमें चाहिए कि हम गंभीरता से किसी भी परम्परा को समझें ,अपने देश की संस्कृति के स्वभाव को परखें, तब होगा वैल एंड फाइन डे । अपने पाठकों पर गर्व है वे जिस गंभीरता एवं प्रेम से श्री देशना के संकल्प से जुड़े रहे हैं उसे निश्चित रूप से हम अपने विचारों का संसार विस्तृत करेंगे । सुझाव आपके ,प्रयोग हमारे ,जुड़े रहें । अपनी रचनाएं shreedeshna 77 @gmail.com पर प्रेषित करें। धन्यवाद
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