दोस्तों.. हवाओं से शब्द चुराकर उन्हें क़लम की जुबां से बोल लेता हूॅ. . कुछ इस अंदाज से हज़ूर अपने राज-ए-दिल खोल लेता हूॅ.. अब आप सोचेंगे कैसे..? पढ़िेए सरकार वो ऐसे..!! रिश्ते जुबां के रह गए हैं आज दिल से कौन निभाता है..! मेरे शब्द दिल की जुबां होते हैं कोई कोई समझ पाता है..! मुझे न अदावत लिखने का शौक़ है न मोहब्बत लिखने का..! इन हवाओं से जो महसूस करता *कमल* वहीं लिख जाता हैं..! वो जो कहता था ताउम्र निभाएंगे प्रीत का बंधन ये मीत..! तनिक उल्टी हवा क्या चली वो बात करने से घबराता है..! कई सिरफिरे मुझे कहते हैं मैं धर्म विशेष पर क्यो नही लिखता..! हर धर्म मेरे लिए ईश्वर ईश रब खुदा और मेरा दाता हैं..! नफ़रतो से कभी नफरतें नहीं मिटती ये इतिहास बताता है..! मोहब्बत के दरख़्त जो बोता हैं वो मोहब्बत के फल पाता है.. कमल सिंह सोलंकी रतलाम मध्यप्रदेश |
क़लम की जुबां
नवरात्र का माहात्मय : भाषा-विज्ञान और प्रतीकों के परिप्रेक्ष्य में !
नवरात्र का माहात्मय : भाषा-विज्ञान और प्रतीकों के परिप्रेक्ष्य में ! कमलेश कमल ************************ शब्द को ब्रह्म यूँ ही नहीं कहा गया है; विश्व की समस्त शक्तियाँ शब्दों से निःसृत होकर शब्दों में ही समाहित हो जाती हैं । ध्यातव्य है कि शब्द शक्ति है । इस शक्ति को विज्ञान “ऊर्जा के उपयोग से कार्य करने की क्षमता” के रूप में परिभाषित करता है । अध्यात्म तो, सम्यक् रूप से देखते हुए कहता है कि बिना शक्ति के आपकी ऊर्जा किसी काम की नहीं और ऊर्जा के ऊर्ध्वगमन से ही शक्ति संचित होती है । माँ दुर्गा को आदिशक्ति कहा गया है अर्थात् सभी शक्तियाँ उन्हीं से निःसृत होती हैं । लेकिन इस आदि शक्ति और इनके नामों की क्या व्याख्या हो ? अलग-अलग संदर्भों में भक्त, साधक, शोधार्थी , जिज्ञासु , ज्ञानी और अर्थार्थी इस आदि शक्ति के नामों और संबध्द उपासना पद्धति के अलग-अलग अर्थ व्याख्यायित करते हैं । मनोभिलषित वस्तु या स्थिति की प्राप्ति के लिए वर्ष की चारों ऋतु-संधियों (चैत्र, आषाढ़, आश्विन, माघ) पर शुक्ल प्रतिपदा से नवमी तक मनाया जाने वाला, आदिशक्ति की आराधना का यह महान् पर्व नवरात्र भाषा-विज्ञान के दृष्टिकोण से भी अत्यंत ही रोचक है । इनमें भी शारदीय नवरात्र का विशेष महत्त्व है। शाक्त संप्रदाय में दुनिया की पराशक्ति, सर्वोच्च देवी के रूप में अधिष्ठित श्री दुर्गा की आराधना का यह पर्व अपने में भारतीय संस्कृति, धर्म और जीवन-दर्शन के विविध पहलुओं को समाहित किए हुए हैं । अगर दुर्गा शब्द को ही लें, तो वेदों में दुर्गा का उल्लेख नहीं है । उपनिषदों में उमा या हेमवती शब्द हैं, जबकि पुराण में आदिशक्ति की चर्चा की गई है। दुर्गा शब्द ‘दुर्ग’ में ‘आ’ प्रत्यय जोड़कर बना है । इसका एक अर्थ है - जो शक्ति दुर्ग की रक्षा करती हैं, दुर्गा हैं । यह ‘दुर्ग’ साधक के लिए उसका शरीर हो सकता है, उसकी चेतना हो सकती है । भक्त के लिए सर्वशक्तिस्वरूपिणी दुर्गतिनाशिनी ही दुर्गा है । पर्यावरणविद् के लिए यही ‘दुर्ग’ ( कठिनता से जाए जा सकने योग्य) पृथ्वी के लिए उसका पर्यावरण हो सकता है, जिसमें जीवन है । तो, व्यष्टि से समष्टि तक की रक्षा करने वाली दुर्गा ही हैं । व्युत्पत्तिगत दृष्टिकोण से ‘दुर्गा’ शब्द दुर् और गः या दुर् और गम से बना है । दुर् का अर्थ मुश्किल, कठिन आदि है । गः या गम् का अर्थ जाना या गमन करना है । इस तरह दुर्गा का अर्थ हुआ जहाँ जाना कठिन हो, या जिसे पाना कठिन हो । यह किसी साधक के लिए सर्वोच्च चेतना हो सकती है, भक्तों के लिए भगवत्ता की प्राप्ति हो सकती है, तो किसी योगी के लिए मूलाधार से सहस्रार की यात्रा हो सकती है । देखा जाए तो पृथ्वी पर सबसे दुर्गम स्थान ऊँचे-ऊँचे पर्वत होते हैं, और यह अनायास ही नहीं है कि माँ दुर्गा के लगभग सभी मंदिर ऊँचे-ऊँचे पर्वतों पर हैं , दुर्गम जगहों पर हैं ; जहाँ जाने के लिए साधना करनी पड़ती है । यही कारण है कि दुर्गा को ‘पहाड़ों वाली माँ’ भी कहा जाता है । माँ दुर्गा को ‘महिषासुर मर्दिनी’ भी कहा गया है । 'महिषासुर' सामान्य जनों के लिए एक भैंसे की आकृति वाला राक्षस है, लेकिन भाषा-विज्ञान की दृष्टि से महिषासुर शब्द ‘महिष’ और ‘असुर’ के योग से बना है । महिष शब्द ‘मह्’ धातु से बना है जिसका अर्थ महान् , बलवान्, शक्तिमान् आदि होता है । इस तरह से ‘महिष’ का अर्थ महान् होता है और इसी का स्त्रीलिंग रूप महिषी है । राजमहिषी राज्य की प्रथमस्त्री या महारानी होती है । तो, महिषासुर का अर्थ हुआ ‘महान् असुर’ । असुर को राक्षस भी कहा जाता है और अ(बिना) सुर का भी कहा जा सकता है। तो, हमारी चेतना का ताल या सुर का बिगड़ना ही अंदर का ‘अ-सुर है । दूसरे शब्दों में विकार का आना ही आसुरी वृत्ति का आना है । इस प्रकार महिषासुर का अर्थ हुआ : महान् है जो असुर (जो हमारे अंदर ही होता है, कहीं बाहर नहीं ।) नवरात्र वस्तुतः अपने अंदर की इस आसुरी वृत्ति को समाप्त कर परम- चेतना की अवस्था को प्राप्त करने के लिए ही मनाया जाता है। दुर्गा को जगदंबा भी कहा जाता है जगदंबा बना है जगत् +अम्बा से । अर्थात् आदिशक्ति ही जगत् की अम्बा (माँ ) हैं (जगज्जननी भी ) ; क्योंकि सभी शक्तियों की स्रोत वही हैं । कहते हैं कि माँ ने धूम-राक्षस का वध किया । धूम नाम का कोई राक्षस शायद नहीं रहा हो, लेकिन इतना तो तय है की धूम या धुँआ अज्ञानता का प्रतीक है । तो, प्रतीक में निहितार्थ यह है कि माँ दुर्गा की उपासना से अज्ञानता रूपी- राक्षस का नाश होता है । इसे रक्त-बीज का वध करने वाली भी कहा गया है । रक्त और बीज हमारे भौतिक रूप हमारी जडता के प्रतीक हैं, न कि रक्त और बीज नाम के दो राक्षस थे । आदमी रक्त और बीज से ही तो बनता है । रक्तबीज का वध करने वाली माँ का अर्थ जडत्व का नाश कर अमृत देने वाली होता है ; इसलिए ही तो माँ को अमृत-फल-दायिनी कहा गया है । चंड-मुंड का वध करना भी प्रतीकात्मक है । चंड हमारी चिंता या अज्ञानता है और मुंड हमारा सिर है और अहंकार का प्रतीक है । तो, माँ दुर्गा हमारे अहंकार का नाश करने वाली भी हैं । माता के रौद्र रूप में जो गले में मुंडमाला लटकी है, वह वस्तुतः हमारे अहंकार के विविध रूपों की माला है । माँ दुर्गा की उपासना से इस अहंकार रूपी माला का समूल नाश हो जाता है। इसी तरह माँ दुर्गा के हर नाम से ही उसका अर्थ उद्घाटित हो जाता है । यथा - भगवान् शिव पर प्रीति रखने वाली (भवप्रीता), भारी या महती तपस्या करने वाली (महातपा), जिस के स्वरूप का कहीं अंत न हो (अनंता), सब को उत्पन्न करने वाली (भाविनी), भावना एवं ध्यान करने वाली (भाव्या), जिससे बढ़कर भव्य कोई और नहीं हो (अभव्या), रेशमी वस्त्र पहनने वाली (पट्टाम्बरपरिधाना), असीम पराक्रम वाली (अमेय विक्रमा) आदि । नवरात्र की बात करें तो, माँ के नौ रूपों की पूजा होती है, लेकिन मूर्ति एक ही लगती है । यह एक मूर्ति दिखाती है कि नौ रूप नहीं हैं, एक ही रूप है । जैसे एक व्यक्ति कभी पिता, कभी भाई , कभी मित्र तो कभी पुत्र हो सकता है, वैसे ही माता का रूप एक ही है जो अलग-अलग समय में अलग-अलग साधना की अधिष्ठात्री बन जाती हैं ; तभी तो कहा गया है - “भेद सहित अभेद की निर्मात्री शक्ति ही दुर्गा है।” रात्रि अज्ञानता की प्रतीक है और उसमें जागरण अर्थात् साधना से अपने अंदर जाग्रति लानी होती है । इस जागरण हेतु , कालुष्य के नाश हेतु, एक दीपक चाहिए । अंतस-चेतना ही वह दीपक है । उपवास का अर्थ ‘समीप वास’ या ‘अपनी चेतना के पास रहना’ है। व्रत का अर्थ संकल्प है, जो चेतना की सिद्धि के लिए है, तभी तो वह व्रत है । तो आइए, इन नौ दिनों में हम माता के नौ रूपों के भाषाई और प्रतीकात्मक अर्थ को समझने की कोशिश करते हैं ! आपका ही, कमल |
क्या करें 21 दिन
तपस्वी भरतजी की तरह रहै 21 दिन -ब्र. त्रिलोक़ जैन धर्म मित्रों कल रात देश के राजा ने घोषणा की 21 दिन देश बंद रहेगा / प्रश्न है 21 दिन क्या करें , विचार करें कि हम सब जीवन की आपाधापी में संघर्षमय जीवन में व्यापार की उठापटक में ,नौकरी के चक्कर में ,जो काम नहीं कर पाते थे, उन कामों पर इन दिनों ध्यान दें /जैसे कि व्यस्तता के चलते आप अपने बच्चों को समय नहीं दे पा रहे थे ,संस्कार नहीं दे पा रहे थे वह इन दिनों दे / आप अपनी मां बाप की सेवा नहीं कर पा रहे थे वह इन दिनों करें /तुम्हारे अंदर कुछ लिखने का मन था उसी लिखें /आप व्यस्तता के चलते सामायिक ध्यान प्रार्थना से दूर थे चलो इन महान कार्यों को करें /कुल मिलाकर जैसे पांडवों ने अज्ञातवास में ,भगवान श्रीराम ने 14 वर्ष के वनवास में /उस अनुरूप जीवन शैली को अपनाया था /यदि हम सब ने भी इन 21 दिनों में समय के अनुरूप जीवनशैली को अपना लिया तो सच मानिए यह 21 दिन 21 फल से कट जाएंगे /आप देखो !भारतिय संस्कृति की महिमा राम को तो बनवास मिला और उन्होंने उस बनवास को भी हंसते हंसते स्वीकार कर लिया , तो क्या हम 21 दिन अपने घर में भी नहीं रह सकते, भारत को राज्य मिला था फिर भी भारत ने अपने आप को एक कुटिया में बंद कर लिया था, उन्होंने वनवासी जीवन राज्य के अंदर रहते हुए जिया था / जब राम अयोध्या लौटे थे तो यह पहचानना कठिन था बन मे राम रहे कि भरत रहे /हम ऐसे महान देश के नागरिक हैं / अपने अतीत को भी याद करें / समय का क्या है आता है चला जाता है /हर घटना, हर विपत्ति कुछ ना कुछ संपत्ति देकर जाती है /वशर्तें हम समय का, अपनी शक्ति का श्रेष्ठतम सदुपयोग करें / इस समय संपूर्ण मानवता का जीवन खतरे में है /यदि खतरे में नहीं होता तो सरकार अपनी राजस्व की हानि क्यों करती /हम अपनी हानि के बारे में तो विचार रहे है /जरा सोचो सरकार को भी कितनी बड़ी आर्थिक हानि है / आने वाला समय आपसे हमसे और त्याग की मांग करेगा /अतः इन दिनों संयमित जीवनशैली अपनाएं /मुझे प्रसंग याद आ रहा है जब भरत मिलाप के समय भरत जी एक ऋषि के आश्रम में रात्रि विश्राम को रुके ,तो वहां पर भरत जी ने सबको आज्ञा दी ,यह ऋषि का आश्रम है ,यहां वस्तुओं का उपयोग करें भोग नही, दुरुपयोग नहीं / प्रसाद की तरह ग्रहण करें /इन दिनों हम सब को भी यही करना है /जितने में मेरा जीवन चल जाए उतना ही ग्रहण करना है /अपने पड़ोसी का ध्यान रखना है /सड़क पर कोई भूखा है अपने दरवाजे के आसपास कुत्ते बिल्ली गाय आदि का भी ख्याल रखना है /जियो और जीने दो को चरितार्थ करना है /परहित सरस धर्म नहीं भाई यह याद रखना है / और आपस में दूरी बना कर रखना है /बहुत अच्छा हो इन दिनों को किसी बड़ी विपत्ति की पूर्व सूचना मान कर ,हम सब इन दिनों को संयम के साथ व्यतीत करें /अंसम का त्याग करें ,और अपने अपने इष्ट से सबके सुख की कामना करें /यही इस समय की मांग है /व्यर्थ के प्रलाप को छोड़े ,आओ मिलकर अपने अपने घर में एक तराना छेड़ें /हम होंगे कामयाब ,हम होंगे कामयाब , एक दिन एक दिन /जय भारत जय वंदे मातरम /हिंदू नव वर्ष की बहुत-बहुत शुभकामनाओं के साथ |
जैनोदय परिवार द्वारा विशेष आयुर्वेदिक पद्धति से घी तैयार
जैनोदय परिवार द्वारा आयुर्वेदिक पद्धति से घी तैयार जैसा कि आप सभी को विदित है कि जैनोदय परिवार द्वारा माघ महीने में विशेष आयुर्वेदिक पद्धति से घी तैयार किया गया था,जिसकी माँग पूरे भारतवर्ष में रही । जिन्होंने भी उपयोग किया उन सभी ने जैनोदय परिवार के श्रम की भूरि भूरि सराहना की । इस हेतु हम आप सब के बहुत बहुत आभारी हैं ।कुछ लोग अभी तक वही घी मांग रहे हैं । आप सभी को सूचित कर दूँ कि माघ माह का कुछ घी अभी स्टॉक में है । इच्छुक जन अतिशीघ्र सम्पर्क करें । ब्र. विनय भोपाल 9009631008
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कोरोना नहीं करुणा अवतार कहिये...!
कोरोना नहीं करुणा अवतार कहिये...!
दुनिया भर में हवा साफ हो रही है, सड़कों पर शोर कम है।
लोग यहाँ वहाँ यात्रा करना छोड़ परिवार के साथ समय बिता रहे हैं।
लक्जरी क्रूज जहाज समुद्र को गंदा नहीं कर रहे हैं।
लोग मांस खाना छोड़ रहे हैं और अपने हाथ धोने के लिए समय निकाल रहे हैं।
हाथ मिलाने की विदेशी कुसंस्कार को छोड़ लोग भारतीय संस्कृति के तर्ज पर हाथ जोड़ नमस्कार करना शुरू कर दिये।
जीवित रहने के लिए भगवान का आभारी महसूस कर रहे हैं, जीव हत्या काफी रुक गई है। जीव जन्तु सब प्रसन्न है, यह करुणा अवतार नही तो और क्या है, बताओ..
दु:खहर सुखकर हो मन की बात
दु:खहर सुखकर हो मन की बात
ब्र. त्रिलोक जैन
मन एक ऐसा समुद्र है ,जहां निरंतर अच्छे बुरे विचारों की तरंगे- लहरें उठती रहती हैं /लहरें मुख के तट से टकराकर ,बाहर निकलती है /लहरे जब प्रशंसा की फुहार बन अच्छे कार्यों की अनुमोदना करती है ,तो तट पर बैठे लोगों को सुकून देती है /लेकिन वही लहरे जब हित मित प्रिय वचन की सीमाएं लांग कर , सुनामी की तरह कहर बरपाने लगती हैं ,तो अभिशाप बन जाती है /अतः सोच समझकर हित मित प्रिय करना मेरे मनमीत, मन की बात
/जिससे ना हो किसी को दु:ख और संताप ,ऐसी कहना मन की बात /जिससे ना बिगड़े किसी की बात ,ऐसी करना मन की बात /
जिससे ना हो किसी की दुख भरी रात ,ऐसी करना मन की बात
/हो जाए सबका शुभ मंगल प्रभात ,ऐसी करना मन की बात /
अपने मुख से अपनी प्रशंसा का आए जब भाव, रोके रखना मन की बात /
माता-पिता और गुरुदेव से अकड़ दिखाने का हो जब भाव, तो कभी न करना मन की बात /
दुर्बल को दुर्वचन कहने का हो जब भाव, तो कभी न करना मन की बात /
झूठ फरेब कुविद्या का जब हो भाव, तो कभी ना करना मन की बात /
बड़ों बूढ़ों की सीख यही है ,ज्ञानी जनों की रीत यही है /सदा ही करना हितकारी बात /
अच्छे को अच्छा कहने का हो जब भाव, तो सदा ही करना मन की बात /
प्रभु गुरु स्तुति का हो जब भाव , तो सदा ही करना मन की बात /
किसी मुसीबत में पड़े को उठाने का हो जब भाव ,तो सदा ही करना मन की बात /
घायल को मरहम लगाने का हो जब भाव ,तो सदा ही करना मन की बात /
भूखे को भोजन ,प्यासे को पानी पिलाने का हो जब भाव, तो सदा ही करना मन की बात /
बेसहारों को सहारा देने का भाव, रोते को हसाने का भाव ,गिरते को उठाने आदि सत्कर्म की खुशबू फैलाने के जब -जब आए शुभ पावन मंगल हितकारी भाव ,
तो सदा ही करना "त्रिलोकी" मन की बात /
सदा ही करना ऐसी बात ,जिससे हो सुख शांति की, अमन चैन की, भाईचारे की बरसात
,ऐसी करना मन की बात, मन की बात
अकेलापन / एकांत
अकेलापन / एकांत 'अकेलापन' इस संसार में सबसे बड़ी सज़ा है.! और 'एकांत' सबसे बड़ा वरदान.! ये दो समानार्थी दिखने वाले शब्दों के अर्थ में आकाश पाताल का अंतर है। अकेलेपन में छटपटाहट है, एकांत में आराम.! अकेलेपन में घबराहट है, एकांत में शांति। जब तक हमारी नज़र बाहरकी ओर है तब तक हम अकेलापन महसूस करते हैं.! जैसे ही नज़र भीतर की ओर मुड़ी, तो एकांत अनुभव होने लगता है। ये जीवन और कुछ नहीं, वस्तुतः अकेलेपन से एकांत की ओर एक यात्रा ही है.! ऐसी यात्रा जिसमें, रास्ता भी हम हैं, राही भी हम हैं और मंज़िल भी हम ही हैं प्रेषक,,,शैल जैन (गीता का अनुवाद ) |
मेरी सुनो
मेरी सुनो मैं मंदिर से तुम्हें पुकारुं, मस्जिद तुम आगाज करो। मैं कुराने पाक पढ़ लूं तुम, रामायण स्वीकार करो। गंगा जमुनी सभ्यता अपनी, देखो खत्म ना हो पावे। चलती रहे सियासत लेकिन, आंच ना हम पर आ पावे। संग संग चलते आए थे, आज भी ऐतबार करो। मैं मंदिर,,, होली ईद दिवाली सारे, मिलकर हम ही मनाते थे। गुजिया और सेवईंया संग, मिलजुल कर के खाते थे। ताजिया सजा जुलूस लाओ, शामिल हमको यार करो। मैं मंदिर,, कहती कुरान हराम शराब, लेना सूद उसूल खिलाफ। धर्म सिखाता ना किसी का, झगड़ा करे , करो माफ। हिंदू या मुस्लिम कोई धर्म हो धर्म का न अपमान करो। मैं मंदिर,, रश्मि लता मिश्रा बिलासपुर सी,जी |
अधूरा सर्वे
अधूरा सर्वे (टिंग-टॉन्ग.... दरवाजे पर घन्टी बजती है। ) बहु देखना कौन है? सोफे पर लेटकर टीवी देख रहे ससुर ने कहा। माया किचन से निकलकर दरवाज़ा खोलती है। हां जी, आप कौन? 'महिलाओं की स्थिति पर एक सर्वे चल रहा है। उसी की जानकारी के लिए आई हूँ।' दरवाज़े पर खड़ी महिला ने जवाब दिया। कौन है बहु? पूछते हुए ससुरजी बाहर आ जाते हैं। महिला- 'बाऊजी सर्वे करने आई हूँ।' घनश्याम जी- 'हां पूछिए' महिला- 'आपकी बहु सर्विस करती हैं या हाउस वाइफ हैं?' माया हाउस वाइफ बोलने ही वाली होती है कि उससे पहले घनश्याम जी बोल पड़ते हैं। घनश्याम जी- 'सर्विस करती है' 'किस पद पर हैं और किस कंपनी में काम कर रही हैं?' महिला ने पूछा। घनश्याम जी कहते हैं - वो एक नर्स है, जो मेरा और मेरी पत्नी का बखूबी ध्यान रखती है। हमारे उठने से लेकर रात के सोने तक का हिसाब बहु के पास होता है। ये जो मैं आराम से लेटकर टीवी देख रहा था ना वो माया की बदौलत ही है। -माया बेबीसीटर भी है। बच्चों को नहलाने, खिलाने और स्कूल भेजने का काम भी वही देखती है। रात को रो रहे बच्चे को नींद माँ की थपकी से ही आती है। -मेरी बहु ट्यूटर भी है। बच्चों की पढ़ाई की जिम्मेदारी भी इसी के कंधे पर है। - घर का पूरा मैनेजमेंट इसी के हाथों में है। रिश्तेदारी निभाने में इसे महारत हासिल है। - मेरा बेटा एयरकंडीशन्ड ऑफिस में चैन से अपने काम कर पाता है तो इसी की बदौलत। इतना ही नहीं ये मेरे बेटे की एडवाइजर भी है। - ये हमारे घर की इंजन है। जिसके बग़ैर हमारा घर तो क्या इस देश की रफ़्तार ही थम जाएगी। बाऊजी मेरे फॉर्म में इनमें से एक भी कॉलम नहीं है, जो आपकी बहु को वर्किंग कह सके। घनश्याम जी मुस्कुराते हुए कहते हैं, फिर तो आपका ये सर्वे ही अधूरा है। महिला- 'लेकिन बाऊजी इससे इनकम तो नहीं होती है ना। *घनश्याम जी कहते हैं, अब आपको क्या समझाएं। इस देश की कोई भी कंपनी ऐसी बहुओं को वो सम्मान, वो सैलरी नहीं दे पाएंगी। बड़ी शान से वो कहते हैं, मेरी हार्ड वर्किंग बहु की इनकम हमारे घर की मुस्कुराहट है* *ज्यादा सैलरी वाली बहू मत ढूंढिए....* *ज्यादा संस्कार वाली बहू ढूंढिए....* |
कार्यक्षेत्र में मिलने वाले दुःख - कुछ व्यावहारिक सूत्र
कार्यक्षेत्र में मिलने वाले दुःख - कुछ व्यावहारिक सूत्र
कार्यक्षेत्र में मिलने वाले दुःख - कुछ व्यावहारिक सूत्र !
( कमलेश कमल)
क्या आपने यह ग़ौर किया है कि कुछ लोग बुध्दि, वाक्-चातुर्य आदि में किसी से कम नहीं होते, उनका डील-डौल भी आकर्षक ही होता है...फ़िर भी वे कार्यस्थल में समान्यतया उखड़े-उखड़े या दुःखी रहते हैं, अलग-थलग और वंचित मिलते हैं। दूसरी तरफ़ उनसे कहीं कम प्रतिभासम्पन्न कर्मी होते हैं, जो आराम से सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ते रहते हैं और सुखी मिलते हैं। क्या आपने इसके कारणों पर कभी चिंतन किया है?
इसके मनोवैज्ञानिक और आध्यात्मिक पक्षों के विश्लेषण से कुछ बातें स्पष्ट उभरकर सामने आती हैं-
1.बात सिर्फ़ योग्यता की होती ही नहीं है, अपितु सामंजस्य की भी होती है। दुःखी कर्मी कहीं न कहीं सामंजस्य नहीं बिठा पाता है। जो उसकी जानकारी है, योग्यता है और जो उसकी मान्यता है, अपेक्षा है, उम्मीदें हैं; उनका वह अपने कर्म से या कार्य-क्षेत्र की पारिस्थितिकी से सामंजस्य नहीं बिठा पाता है। वह अपने को अपने पद से अधिक के योग्य मानेगा या माहौल को हीन मानेगा या अपने काम को, अपनी नौकरी को अपने सपनों की पूर्ति में बाधक समझेगा।
ध्यातव्य है कि जैसे ही यह सामंजस्य नहीं बैठेगा, व्यक्ति कार्य में मन रमाने की जगह द्वंद्व (conflicts) से भर जाएगा। उसका मन लाभ-हानि, मान-अपमान, सुख-दुःख आदि द्वंद्वों में उलझ जाएगा।
तथ्य यह है कि दुःख निरोध के लिए सामंजस्य बिठाने की आवश्यकता सबको रहती है और सदा बनी रहती है। ऐसा नहीं है कि ज़्यादा प्रतिभासंपन्न कर्मियों को नहीं होती या आरम्भ में होती है, बाद में नहीं होती। होने वाले बदलावों यथा बॉस एवं सहकर्मियों का बदलना, जवाबदेही का बदल जाना, स्वयं का स्थानांतरण या फ़िर नियम या तकनीकी बदलावों से भी शीघ्र सामजंस्य हो जाए ऐसी कोशिश होनी चाहिए। दुःख से तभी बचा जा सकता है।
2. दुःखी कर्मी अपनी प्रतिभा के बावजूद उत्पादकता से अधिक असुरक्षा, अव्यवस्था और असहजता उत्पन्न करते हैं। कार्यप्रणाली, नियमों आदि से ख़ुद को ढालने की जगह जब अपनी सुविधा के लिए इन्हें ही बदल देने की कोशिश होती है या इनसे शिकायत होती है तो विरोध, प्रतिरोध आदि मिलता है जो अन्ततः दुःख का कारण बनता है।
महत्त्वपूर्ण है कि ज्ञान के साथ कर्म तो होना ही चाहिए, कार्य से प्रेम भी होना चाहिए। आप IAS नहीं बन सके, इसलिए शिक्षक बनना पड़ा, तो बच्चों और विद्यालय को इसका फ़ायदा मिलना चाहिए न कि नुक़सान।
हो सकता है कि आपको योग्यता से कम मिला हो, पर जो मिला है उससे प्रेम नहीं करेंगे या उसके साथ न्याय नहीं करेंगे, तो आप निश्चित रूप से अपने लिए दुःख का चक्र निर्मित करेंगे।
मनोवैज्ञानिक रूप से देखें तो अपने काम को अपनी योग्यता से कम मानना कभी-कभी अचेतन मन में नफ़रत की परतें निर्मित कर सकता है। यह अपने सहकर्मियों के प्रति ईर्ष्या भी उत्पन्न कर सकता है कि उन्हें कम प्रयास से और कम योग्यता में ज़्यादा मिल गया। ऐसी मान्यता स्वयं के भविष्य के प्रति लालच और निराशा का एक मिश्रित भाव भी निर्मित कर सकता है।
ऐसी स्थिति में सुख और आनंद की प्राप्ति के लिए मन दुःख और बेचैनी के विपरीत जाल में फँस जाता है। हर कोई जानता है कि ये नकारात्मक और स्याह भावनाएँ हैं, जिनसे नकारात्मक ऊर्जा निर्मित होती है। ऐसे में, इसकी प्रतिक्रिया में क्या सकारात्मक और प्रेमपूर्ण ऊर्जा उसे प्राप्त हो सकती है? सम्भव ही नहीं है! इस सूक्ष्म नियम को शांत चित्त से ही समझा जा सकता है। अशांत चित्त से तो बस शिकायतें ही की जा सकती हैं।
3.सम्भव है कि कर्मी प्रतिभाशाली हो, कई गुणों का स्वामी हो, पर जिस कार्य के लिए नियुक्त हुआ हो, उसके लिए अपेक्षित किसी योग्यता को न रखता हो। उदाहरण के लिए, हो सकता है कि कोई कर्मी गणित और इंग्लिश का विद्वान हो, पर उसमें उतना अपेक्षित धैर्य न हो कि वह लगातार कंप्यूटर पर बोरिंग प्रतीत होने वाले अपने कार्य को कर सके। अगर कर्मी व्यवहार में मूर्ख और जल्दबाज़ है, तो वह आक्रामक लक्षण प्रदर्शित करेगा। अगर कर्मी विनम्र और संकोची है तो घबड़ाहट और वंचित के लक्षणों को प्रदर्शित करेगा जबकि अगर निडर है तो उदासीनता प्रदर्शित करेगा।
उपर्युक्त उदाहरण में जो आक्रामक कर्मी है, वह अपनी अयोग्यता को छिपाने में व्यर्थ ही अपनी ऊर्जा व्यय कर देगा, जबकि उससे कम ऊर्जा में अल्प समय में ही अपेक्षित योग्यता अर्जित की जा सकती है। (इस उदाहरण में कंप्यूटर के उपयोग में धैर्य या ऐसा ही कुछ)।
देखा जाता है कि आक्रामक कर्मी कभी-कभी चिढ़कर अपने अधीनस्थ या सहकर्मियों का अपमान कर सकते हैं, जिसे भूलना सामान्य लोगों के लिए कठिन होता है। ध्यान देने वाली बात है कि इसकी जगह अगर वे बिना किसी का अपमान किए सिर्फ़ कोई ग़लती कर दें, तो लोग धीरे-धीरे उस ग़लती को भूल जाते हैं। सदा ही आक्रामक और अविनीत व्यक्ति की तुलना में निकम्मे और कम प्रतिभासंपन्न व्यक्ति ज़्यादा पसंद किए जाते हैं।
4. यह भी सम्भव है कि कोई कर्मी इतना प्रतिभाशाली हो कि बॉस और सहकर्मियों को ही असुरक्षा और हीन भावना से भर दे, अपनी प्रतिभा से उन्हें अभिभूत करने की बजाय आतंकित कर दे। ऐसे कर्मी तब दुःख पाते हैं, जब वे प्रतिभासंपन्न तो होते हैं, पर व्यवहारकुशल नहीं होते, विनयशीलत नहीं होते। वे अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाने के चक्कर में अपनी सदाशयता पर प्रश्न चिह्न लगा बैठते हैं।
ऐसे में दुःख से बचने का उपाय यही है कि वे अपनी महत्वाकांक्षा को दूसरे के निकट व्यक्त न करें, स्वयं तक सीमित रक्खें, आत्म-प्रदर्शन से बचें और विनयपूर्वक बॉस से कम चमकते हुए स्वयं को कार्यक्षेत्र के लिए अनिवार्य साबित कर लें। अपने कार्य का श्रेय बॉस को या अन्य सहकर्मियों को भी दें। कार्यक्षेत्र के लिए अनिवार्य बना लेने से आशय है कि आप समाधान प्रदाता हैं, किसी परेशानी में आपकी तरफ़ लोग देखें और कम से कम कुछ ऐसा हो जो आप ही सबसे अच्छी तरह कर सकते हैं।
जो ऐसा नहीं कर पाते पर प्रतिभा का दम्भ रखते हैं, वे बॉस के कोप और सहकर्मियों द्वारा पीठ-पीछे की आलोचना और उपेक्षा के शिकार होते हैं। ध्यान यह रखना होता है कार्यक्षेत्र के लिए आपकी योग्यता नहीं, अपितु आपका कार्य-निष्पादन और सहकर्मियों के लिए वे स्वयं महत्त्वपूर्ण होते हैं, आप नहीं।
5.आध्यात्मिक दृष्टिकोण से देखें तो किसी भी व्यक्ति का प्रसन्न या अप्रसन्न रहना उसके चरित्र, उसके स्वभाव, उसकी आदत, उसकी प्रकृति पर निर्भर करता है, न कि बाह्य परिस्थितियों पर।
जो विवेकसंपन्न हैं, वे घटित घटनाओं को समग्रता में देखते हैं- फ़ायदा क्या है या कभी भविष्य हो सकता है? सीख क्या मिली? आगे की संभावना क्या बनी? क्या-टूटा और क्या जुड़ सकता है, क्या बन सकता है? क्या बीत गया और क्या शुरू हो सकता है? वे समझते हैं कि दुपहरी ढल कर शाम और शाम बढ़कर रात भले हो जाए, इतना पक्का है कि रात बीतेगी, सुबह होगी और दुपहरी भी होगी ही।
निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि लोगों द्वारा स्वीकार्यता तभी मिलती है जब हम स्वयं को, अपनी परिस्थितियों को, अपने कार्यक्षेत्र को स्वीकार कर लें और विनयपूर्वक कर्म में जुटे रहें। साथ ही, बॉस और सहकर्मियों से उचित दूरी भी बनाए रक्खें। कोई दिक़्क़त आ भी जाए तो याद रक्खें कि समस्या उतनी ही बड़ी होती है, जितनी बड़ी हम उसे समझते हैं। आवश्कयता है- अंतःकरण की शांति के साथ इन नियमों के अवलोकन की, इन्हें समझने की और अमल में लाने की।
आपका ही,
कमल
कार्यक्षेत्र में मिलने वाले दुःख - कुछ व्यावहारिक सूत्र
कार्यक्षेत्र में मिलने वाले दुःख - कुछ व्यावहारिक सूत्र कमलेश कमल क्या आपने यह ग़ौर किया है कि कुछ लोग बुध्दि, वाक्-चातुर्य आदि में किसी से कम नहीं होते, उनका डील-डौल भी आकर्षक ही होता है...फ़िर भी वे कार्यस्थल में समान्यतया उखड़े-उखड़े या दुःखी रहते हैं, अलग-थलग और वंचित मिलते हैं। दूसरी तरफ़ उनसे कहीं कम प्रतिभासम्पन्न कर्मी होते हैं, जो आराम से सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ते रहते हैं और सुखी मिलते हैं। क्या आपने इसके कारणों पर कभी चिंतन किया है? इसके मनोवैज्ञानिक और आध्यात्मिक पक्षों के विश्लेषण से कुछ बातें स्पष्ट उभरकर सामने आती हैं- 1.बात सिर्फ़ योग्यता की होती ही नहीं है, अपितु सामंजस्य की भी होती है। दुःखी कर्मी कहीं न कहीं सामंजस्य नहीं बिठा पाता है। जो उसकी जानकारी है, योग्यता है और जो उसकी मान्यता है, अपेक्षा है, उम्मीदें हैं; उनका वह अपने कर्म से या कार्य-क्षेत्र की पारिस्थितिकी से सामंजस्य नहीं बिठा पाता है। वह अपने को अपने पद से अधिक के योग्य मानेगा या माहौल को हीन मानेगा या अपने काम को, अपनी नौकरी को अपने सपनों की पूर्ति में बाधक समझेगा। ध्यातव्य है कि जैसे ही यह सामंजस्य नहीं बैठेगा, व्यक्ति कार्य में मन रमाने की जगह द्वंद्व (conflicts) से भर जाएगा। उसका मन लाभ-हानि, मान-अपमान, सुख-दुःख आदि द्वंद्वों में उलझ जाएगा। तथ्य यह है कि दुःख निरोध के लिए सामंजस्य बिठाने की आवश्यकता सबको रहती है और सदा बनी रहती है। ऐसा नहीं है कि ज़्यादा प्रतिभासंपन्न कर्मियों को नहीं होती या आरम्भ में होती है, बाद में नहीं होती। होने वाले बदलावों यथा बॉस एवं सहकर्मियों का बदलना, जवाबदेही का बदल जाना, स्वयं का स्थानांतरण या फ़िर नियम या तकनीकी बदलावों से भी शीघ्र सामजंस्य हो जाए ऐसी कोशिश होनी चाहिए। दुःख से तभी बचा जा सकता है। 2. दुःखी कर्मी अपनी प्रतिभा के बावजूद उत्पादकता से अधिक असुरक्षा, अव्यवस्था और असहजता उत्पन्न करते हैं। कार्यप्रणाली, नियमों आदि से ख़ुद को ढालने की जगह जब अपनी सुविधा के लिए इन्हें ही बदल देने की कोशिश होती है या इनसे शिकायत होती है तो विरोध, प्रतिरोध आदि मिलता है जो अन्ततः दुःख का कारण बनता है। महत्त्वपूर्ण है कि ज्ञान के साथ कर्म तो होना ही चाहिए, कार्य से प्रेम भी होना चाहिए। आप IAS नहीं बन सके, इसलिए शिक्षक बनना पड़ा, तो बच्चों और विद्यालय को इसका फ़ायदा मिलना चाहिए न कि नुक़सान। हो सकता है कि आपको योग्यता से कम मिला हो, पर जो मिला है उससे प्रेम नहीं करेंगे या उसके साथ न्याय नहीं करेंगे, तो आप निश्चित रूप से अपने लिए दुःख का चक्र निर्मित करेंगे। मनोवैज्ञानिक रूप से देखें तो अपने काम को अपनी योग्यता से कम मानना कभी-कभी अचेतन मन में नफ़रत की परतें निर्मित कर सकता है। यह अपने सहकर्मियों के प्रति ईर्ष्या भी उत्पन्न कर सकता है कि उन्हें कम प्रयास से और कम योग्यता में ज़्यादा मिल गया। ऐसी मान्यता स्वयं के भविष्य के प्रति लालच और निराशा का एक मिश्रित भाव भी निर्मित कर सकता है। ऐसी स्थिति में सुख और आनंद की प्राप्ति के लिए मन दुःख और बेचैनी के विपरीत जाल में फँस जाता है। हर कोई जानता है कि ये नकारात्मक और स्याह भावनाएँ हैं, जिनसे नकारात्मक ऊर्जा निर्मित होती है। ऐसे में, इसकी प्रतिक्रिया में क्या सकारात्मक और प्रेमपूर्ण ऊर्जा उसे प्राप्त हो सकती है? सम्भव ही नहीं है! इस सूक्ष्म नियम को शांत चित्त से ही समझा जा सकता है। अशांत चित्त से तो बस शिकायतें ही की जा सकती हैं। 3.सम्भव है कि कर्मी प्रतिभाशाली हो, कई गुणों का स्वामी हो, पर जिस कार्य के लिए नियुक्त हुआ हो, उसके लिए अपेक्षित किसी योग्यता को न रखता हो। उदाहरण के लिए, हो सकता है कि कोई कर्मी गणित और इंग्लिश का विद्वान हो, पर उसमें उतना अपेक्षित धैर्य न हो कि वह लगातार कंप्यूटर पर बोरिंग प्रतीत होने वाले अपने कार्य को कर सके। अगर कर्मी व्यवहार में मूर्ख और जल्दबाज़ है, तो वह आक्रामक लक्षण प्रदर्शित करेगा। अगर कर्मी विनम्र और संकोची है तो घबड़ाहट और वंचित के लक्षणों को प्रदर्शित करेगा जबकि अगर निडर है तो उदासीनता प्रदर्शित करेगा। उपर्युक्त उदाहरण में जो आक्रामक कर्मी है, वह अपनी अयोग्यता को छिपाने में व्यर्थ ही अपनी ऊर्जा व्यय कर देगा, जबकि उससे कम ऊर्जा में अल्प समय में ही अपेक्षित योग्यता अर्जित की जा सकती है। (इस उदाहरण में कंप्यूटर के उपयोग में धैर्य या ऐसा ही कुछ)। देखा जाता है कि आक्रामक कर्मी कभी-कभी चिढ़कर अपने अधीनस्थ या सहकर्मियों का अपमान कर सकते हैं, जिसे भूलना सामान्य लोगों के लिए कठिन होता है। ध्यान देने वाली बात है कि इसकी जगह अगर वे बिना किसी का अपमान किए सिर्फ़ कोई ग़लती कर दें, तो लोग धीरे-धीरे उस ग़लती को भूल जाते हैं। सदा ही आक्रामक और अविनीत व्यक्ति की तुलना में निकम्मे और कम प्रतिभासंपन्न व्यक्ति ज़्यादा पसंद किए जाते हैं। 4. यह भी सम्भव है कि कोई कर्मी इतना प्रतिभाशाली हो कि बॉस और सहकर्मियों को ही असुरक्षा और हीन भावना से भर दे, अपनी प्रतिभा से उन्हें अभिभूत करने की बजाय आतंकित कर दे। ऐसे कर्मी तब दुःख पाते हैं, जब वे प्रतिभासंपन्न तो होते हैं, पर व्यवहारकुशल नहीं होते, विनयशीलत नहीं होते। वे अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाने के चक्कर में अपनी सदाशयता पर प्रश्न चिह्न लगा बैठते हैं। ऐसे में दुःख से बचने का उपाय यही है कि वे अपनी महत्वाकांक्षा को दूसरे के निकट व्यक्त न करें, स्वयं तक सीमित रक्खें, आत्म-प्रदर्शन से बचें और विनयपूर्वक बॉस से कम चमकते हुए स्वयं को कार्यक्षेत्र के लिए अनिवार्य साबित कर लें। अपने कार्य का श्रेय बॉस को या अन्य सहकर्मियों को भी दें। कार्यक्षेत्र के लिए अनिवार्य बना लेने से आशय है कि आप समाधान प्रदाता हैं, किसी परेशानी में आपकी तरफ़ लोग देखें और कम से कम कुछ ऐसा हो जो आप ही सबसे अच्छी तरह कर सकते हैं। जो ऐसा नहीं कर पाते पर प्रतिभा का दम्भ रखते हैं, वे बॉस के कोप और सहकर्मियों द्वारा पीठ-पीछे की आलोचना और उपेक्षा के शिकार होते हैं। ध्यान यह रखना होता है कार्यक्षेत्र के लिए आपकी योग्यता नहीं, अपितु आपका कार्य-निष्पादन और सहकर्मियों के लिए वे स्वयं महत्त्वपूर्ण होते हैं, आप नहीं। 5.आध्यात्मिक दृष्टिकोण से देखें तो किसी भी व्यक्ति का प्रसन्न या अप्रसन्न रहना उसके चरित्र, उसके स्वभाव, उसकी आदत, उसकी प्रकृति पर निर्भर करता है, न कि बाह्य परिस्थितियों पर। जो विवेकसंपन्न हैं, वे घटित घटनाओं को समग्रता में देखते हैं- फ़ायदा क्या है या कभी भविष्य हो सकता है? सीख क्या मिली? आगे की संभावना क्या बनी? क्या-टूटा और क्या जुड़ सकता है, क्या बन सकता है? क्या बीत गया और क्या शुरू हो सकता है? वे समझते हैं कि दुपहरी ढल कर शाम और शाम बढ़कर रात भले हो जाए, इतना पक्का है कि रात बीतेगी, सुबह होगी और दुपहरी भी होगी ही। निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि लोगों द्वारा स्वीकार्यता तभी मिलती है जब हम स्वयं को, अपनी परिस्थितियों को, अपने कार्यक्षेत्र को स्वीकार कर लें और विनयपूर्वक कर्म में जुटे रहें। साथ ही, बॉस और सहकर्मियों से उचित दूरी भी बनाए रक्खें। कोई दिक़्क़त आ भी जाए तो याद रक्खें कि समस्या उतनी ही बड़ी होती है, जितनी बड़ी हम उसे समझते हैं। आवश्कयता है- अंतःकरण की शांति के साथ इन नियमों के अवलोकन की, इन्हें समझने की और अमल में लाने की। आपका ही, कमल |
होली… रंगोत्सव
होली… रंगोत्सव
होली...रंगोत्सव,ग़िले-शिक़वे मिटाने,पारस्परिक मनो-मालिन्य व वैमनस्य मिटाने का सुंदर उपक्रम; दूर कर देता है सभी रंजो-ग़म,बरसाता असंख्य खुशियां व अलौकिक आनंद,जिसमें सराबोर हो जाता तन,मन।यह वह पावन पर्व है,जिसमें अहं स्वाह हो जाताहै;सामाजिक कुरीतियां व अंधविश्वास दफ़न हो जाते हैं।
होली अर्थात् हम भगवान के हो लिए।हमारा तन,मन,धन,समय,संकल्प व समस्त सांसें...सब भगवान के लिए हैं,क्योंकि वे उसी द्वारा प्रदत्त हैं।
होली का दूसरा अर्थ है, जो बात हो ली,सो होली अर्थात् अतीत-विगत लौट कर नहीं आता…पास्ट इज़ पास्ट।
होली अर्थात् पवित्रता ('प्यूरिटी' अथवा 'हिज़ होली नेस')ये तीनों अर्थ हमारे लिए बहुत कल्याणकारी हैं,अर्थवत्ता लिए हैं।सो!हम प्रभु-इच्छा को स्वीकार उसकी रज़ा को अपनी रज़ा स्वीकार,प्रसन्नता से जीवन जिएं। अतीत अथवा बीती बातों का चिंतन मत करें।जीवन को दिव्यता व अलौकिक ऊर्जा से भर, सत् मार्ग पर चलें।यही है...सच्ची पावन होली, जिसमें स्व-पर व राग-द्वेष का लेशमात्र भी स्थान नहीं होता।
होली के पावन त्योहार में,जिन तीन पात्रों का योगदान है,उनपर प्रस्तुत हैं मेरी तीन कविताएं... हिरण्यकशिपु,हिरण्याक्ष व प्रहलाद, जो 2007में प्रकाशित काव्य-संग्रह अस्मिता में प्रकाशित हुई हैं।प्रहलाद की बुआ होलिका का चित्रण प्रहलाद कविता में किया गया है।
योग विद्या के प्रवर्तक हैं ऋषभदेव
योग विद्या के प्रवर्तक हैं ऋषभदेव
भारत में प्रागैतिहासिक काल के एक शलाका पुरुष हैं- ऋषभदेव, जिन्हें इतिहास काल की सीमाओं में नहीं बांध पाता है किंतु वे आज भी भारत की सम्पूर्ण भारतीयता तथा जन जातीय स्मृतियों में पूर्णत:सुरक्षित हैं । इतिहास में इनके अनेक नाम मिलते हैं जिसमें आदिनाथ,वृषभदेव,पुरुदेव आदि प्रमुख हैं | भारत देश में ऐसा विराट व्यक्तित्व दुर्लभ रहा है जो एक से अधिक परम्पराओं में समान रूप से मान्य व पूज्य रहा हो । जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव उन दुर्लभ महापुरुषों में से एक हुए हैं। जन-जन की आस्था के केंद्र तीर्थकर ऋषभदेव का जन्म अयोध्या में हुआ था तथा इनका निर्वाण कैलाशपर्वत से हुआ था । आचार्य जिनसेन के आदिपुराण में तीर्थकर ऋषभदेव के जीवन चरित का विस्तार से वर्णन है।
भागवत पुराण में उन्हें विष्णु के चौबीस अवतारों में से एक माना गया है । वे आग्नीघ्र राजा नाभि के पुत्र थे । माता का नाम मरुदेवी था। दोनो परम्पराएँ उन्हें इक्ष्वाकुवंशी और कोसलराज मानती हैं । जैन परम्परा के चौबीस तीर्थकरों में ये एक ऐसे प्रथम तीर्थकर हैं, जिनकी पुण्य-स्मृति जैनेतर भारतीय वाड्.मय और परंपराओं में भी एक शलाका पुरुष के रूप में विस्तार से सुरक्षित है । यही तीर्थंकर ऋषभदेव आदि योगी भी माने जाते हैं जिन्होंने सर्वप्रथम योग विद्या मनुष्यों को सिखलाई |
‘योग’ सम्पूर्ण विश्व को भारतीय संस्कृति की एक विशिष्ट और मौलिक देन है । भारत में ही विकसित लगभग सभी धर्म-दर्शन अपने प्रायोगिक रूप में किसी न किसी रूप में योग साधना से समाहित हैं तथा वे सभी इसकी आध्यात्मिक,दार्शनिक,सैद्धान्तिक और प्रायोगिक व्याख्या भी करते हैं । अलग-अलग परम्पराओं ने अलग अलग नामों से योग साधना को भले ही विकसित किया हो, किन्तु सभी का मूल उद्देश्य आध्यात्मिक उन्नति पूर्वक शाश्वत सुखरूप मोक्ष की प्राप्ति ही है । अतः उद्देश्य की दृष्टि से प्रायः सभी परम्पराएँ एक हैं ।
जैन परंपरा में आज तक के उपलब्ध साहित्य ,परंपरा और पुरातात्विक साक्ष्यों के आधार पर प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव योग विद्या के आदि प्रवर्तक माने जाते हैं । जैन आगम ग्रंथों के अनुसार इस अवसर्पिणी युग के वे प्रथम योगी तथा योग के प्रथम उपदेष्टा थे । उन्होंने सांसारिक (भौतिक)वासनाओं से व्याकुल ,धन-सत्ता और शक्ति की प्रतिस्पर्धा में अकुलाते अपने पुत्रों को सर्वप्रथम ज्ञान पूर्ण समाधि का मार्ग बताया ,जिसे आज की भाषा में योग मार्ग कहा जाता है ।
श्रीमद्भागवत में प्रथम योगीश्वर के रूप में भगवान् ऋषभदेव का स्मरण किया गया है - ‘भगवान् ऋषभदेवो योगेश्वरः’ । (श्रीमद्भागवत ५/४/३)
वहां बताया है कि भगवान् ऋषभदेव स्वयं विविध प्रकार की योग साधनाओं का प्रयोगों द्वारा आचरण करते थे - ‘नानायोगश्चर्याचरणे भगवान् कैवल्यपतिऋषभः’ । ( ५/२/२५ )
आज तक प्राचीन से प्राचीन जितनी भी जैन तीर्थंकरों की प्रतिमाएं मिलती हैं वे सभी या तो खड्गासन मुद्रा में मिलती हैं या पद्मासन मुद्रा में । अन्य किसी भी आसन में प्रतिमाएं कहीं नहीं मिलती और न ही नयी बनायीं जाती हैं | ये जैन योग की प्राचीनता और प्रामाणिकता दर्शाता है ।
सिन्धु घाटी की मोहनजोदड़ो(मुर्दों का टीला) नाम से विख्यात सभ्यता ऐतिहासिक रूप से मानव की प्राचीनतम सभ्यता मानी जाती है । विद्वानों की मान्यता है कि इस सभ्यता का जीवनकाल ई.पू. ६००० से लेकर २५०० ई.पू. वर्ष तक रहा है । मोहनजोदड़ो का काल प्राग्वैदिक माना जाता है ।
मोहनजोदड़ो के अवशेषों में नग्न पुरुषों की आकृतियों से अंकित मुद्राएं बहु संख्या में मिलती हैं। सर जानमार्शल के अनुसार वे प्राचीन योगियों की मुद्राएं हैं । इस सम्बन्ध में अन्य विद्वानों के भी समान मत प्राप्त होते हैं कि मोहनजोदड़ो की खुदाई से प्राप्त एक मुद्रा पर अंकित चित्र में त्रिशूल, मुकुट विन्यास, नग्नता, कायोत्सर्ग मुद्रा, नासाग्र दृष्टि एवं ध्यानावस्था में लीन मूर्तियों से ऐसा सिद्ध होता है कि ये मूर्तियां किसी मुनि या योगी की हैं जो ध्यान में लीन हैं । सुप्रसिद्ध इतिहासकार रामप्रसाद चांदा जी का कहना है कि “सिन्धु घाटी की अनेक मुद्राओं में न केवल बैठी हुई देवमूर्तियां योग मुद्रा में हैं बल्कि खड्गासन देवमूर्तियां भी कायोत्सर्ग मुद्रा में हैं और वे उस सुदूर अतीत में सिन्धु घाटी में योगमार्ग के प्रचार को सिद्ध करती हैं । वह कायोत्सर्ग ध्यान मुद्रा विशिष्टतया जैन हैं ।”
भारतीय इतिहास के विशेषज्ञ डॉ ज्योति प्रसाद जी ने अपनी पुस्तक ‘भारतीय इतिहास एक दृष्टि’ में अनेक प्रमाणों तथा विद्वानों के मतों के आधार पर यह निश्चित किया है कि योग की मूल अवधारणा प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव से प्रारंभ होती है । वे लिखते हैं कि ‘सिन्धु घाटी की अनेक मुद्राओं में वृषभ युक्त कायोत्सर्ग योगियों की मूर्तियाँ अंकित मिली हैं जिससे यह अनुमान होता है कि वे वृषभ लांछन युक्त योगीश्वर ऋषभ की मूर्तियाँ हैं |’
इसी बात की पुष्टि करते हुए सुप्रसिद्ध विद्वान् राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर जी अपनी सुप्रसिद्ध पुस्तक संस्कृति के चार अध्याय में लिखते हैं कि ‘मोहनजोदड़ो की खुदाई में योग के प्रमाण मिले हैं और जैन मार्ग के आदि तीर्थंकर ऋषभदेव थे ,जिनके साथ योग और वैराग्य की परंपरा उसी प्रकार लिपटी हुई है जैसे कालांतर में वह शिव के साथ समन्वित हो गयी । इस दृष्टि से जैन विद्वानों का यह मानना अयुक्ति युक्त नहीं दिखता कि ऋषभदेव वेदोल्लिखित होने पर भी वेदपूर्व हैं’ ।
भारतीय जनता योगीश्वर ऋषभदेव के महान उपकारों के प्रति इतनी ज्यादा समर्पित हुई कि कृतज्ञता वश उनके ज्येष्ठ चक्रवर्ती पुत्र भरत के नाम पर इस देश का नाम भारतवर्ष करके गौरव माना –
‘भरताद्भारतं वर्षम्’
इस बात को इस कृतज्ञ देश ने इतनी बार दुहराया कि इस नामकरण वाली बात को काल्पनिक कहकर ठुकराया नहीं जा सकता। भारतीय संस्कृति के इतिहास में ऋषभदेव ही एक ऐसे आराध्यदेव हैं जिसे वैदिक संस्कृति तथा श्रमण संस्कृति में समान महत्व प्राप्त है।
निःसंदेह बाद में अनेक तीर्थंकरों ने , जैन ,वैदिक और बौद्ध आचार्यों ऋषियों ने योग विद्या को पुष्पित पल्लवित किया और आज तक कर रहे हैं किन्तु पहला योगी तो पहला ही होता है सभी का दादा गुरु , अतः ऋषभदेव का उपकार हम कभी विस्मृत नहीं कर सकते जिन्होंने भारत में सबसे पहले योग विद्या की शुरुआत की |
*हिंदी लेखिका संघ मध्य प्रदेश,शुजालपुर, स्थापना दिवस ,महिला उद्यमी मेला, पुस्तक विमोचन कार्यक्रम संपन्न*
*हिंदी लेखिका संघ मध्य प्रदेश,शुजालपुर, जिला शाजापुर द्वारा अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस13 वाँ स्थापना दिवस एवं 5 वाँ महिला उद्यमी मेला, पुस्तक विमोचन कार्यक्रम तीन चरणों में संपन्न*
5वाँ उद्यमी मेला 21 से ज्यादा स्टॉल के साथ सफलतापूर्वक संपन्न। तत्पश्चात् महिला गोरव, महिला रत्न एवं विशेष सम्मान उपाधियां प्रदान कर सम्मान समारोह एवं स्थापना दिवस मनाया गया । शुजालपुर शाखा अध्यक्ष श्रीमती राजकुमारी जी अग्रवाल की काव्य पुस्तिका "काव्य कुंज"का विमोचन माननीय विधायक महोदय इंदर सिंह जी परमार एवं गजेंद्र सिंह जी सिसोदिया के कर कमलों द्वारा किया गया ।
होली की हिलोर
होली की हिलोर
होली की हिलोर हिलग गयी हृदय में। दिल्ली के दंगल ने दिल दहला दिया।
*सत्ताकेंद्रों केअधिपतियों ने ,बड़े बड़े बोलों, औ कटु उद्गारों से ।
योगक्षेम विनष्ट कर , जन-मानस में अराजकता का लावा बिखरा दिया।
होली की हिलोर, हिलग गयी हृदय में। दिल्ली के दंगल ने दिल दहला दिया।
*हिन्दू मुसलमान,जन-समाज को भ्रमित कर ,मानवता के अरमानों को पथभ्रष्ट कर दिया ।
बौरायेआम्र विपिन, सौरभ सने उपवन,कोयल की अलाप को अनसुना कर दिया।
होली की हिलोर, हिलग गयी हृदय में। दिल्ली के दंगल ने दिल दहला दिया।
*जन-धन विभीषिका, खून खराबे के बीच, होली के रंग को बदरंग कर दिया।
किसी की दुकान जली, किसी का मकान जला,मां ने अपना लाल खोया ,प्रियतमा का सिंदूर छिन गया।
होली की हिलोर, हिलग गयी हृदय में। दिल्ली के दंगल ने दिल दहला दिया।
*छायी है बहार ,चहुंओर बासन्तिक छटा ,क्रूर कारनामों ने मौसम के मिजाज को बदल दिया।
समाज और देश में, एकता की बात कैसे करें, पग-पग पर क्रूर कंस, कौरवों ने घेर लिया।
होली की हिलोर, हिलग गयी हृदय में। दिल्ली के दंगल ने दिल दहला दिया।
ड़ॉ सरोज गुप्ता
जीवन भी रंगो का त्यौहार
दोस्तों..
हर कोई कह रहा होली रंगों का त्योहार..पर हमारा इंसानी जीवन तो सिर्फ़ दो रंगों का मेल है..
और वो रंग हैं ख़ुशी और ग़म..हम तो इस होली फकत इतना कहेंगे..!!
कभी खुशी तो कभी ग़म भिगोने को तैयार हैं..!
कम्ब़ख्त ये जीवन भी तो एक रंगों त्योहार है..!
जलतीं है हर एक के दिलों में हसरतों की होली..!
किसी की हसरत मुकम्मल हैं तो कोई बेकरार है..!
वक़्त की पिचकारी बस दो रंगों से भरी रहती हैं..!
रंग खुशी या ग़म का भिगोना इसका कारोबार है..!
आपकों तो सदा ही खुशियों के रंग मिलें जीवन में..!
*कमल* की उस परवरदीगार से बस यही दरकार है..!
कमल सिंह सोलंकी
रतलाम मध्यप्रदेश
स्व. रमेश वर्मा पुरस्कार प्रतियोगिता -2020
स्व. रमेश वर्मा पुरस्कार प्रतियोगिता -2020
विषय: वर्तमान परिप्रेक्ष्य में साहित्यकारों का दायित्व
परिणाम
प्रथम:
संगीता सेठी,जोधपुर
द्वितीय:
प्रणु शुक्ला,जयपुर
तृतीय
:डॉ.घमंडी लाल अग्रवाल
हरियाणा
सांत्वना पुरस्कार
1.अनुपमा तिवारी,जयपुर
2.रितु सिंह,जयपुर
3.डॉ. प्रगति गुप्ता,जोधपुर
4. प्रीति अज्ञात,गुजरात
5.मल्लिका मुखर्जी,अहमदाबाद
6.डॉ. उरुक्रम शर्मा,
7.डॉ. घनश्याम नाथ कच्छावा, सुजानगढ़ (चूरू)
8.राजेंद्र मोहन शर्मा,जयपुर
9.राजकुमार जैन,अकोला
10.अंजलि खेर,भोपाल
11.हिमाद्री वर्मा ,जयपुर
प्रतियोगिता संयोजक-
रेनू शब्दमुखर
फागुनी दोहे....।
फागुनी दोहे....।
केसरिया है ओढनी, और गुलाबी गाल।
पायल बाजे प्रेम की, रस टपकाती चाल।।
तीखे- तीखे नयन हैं , काजल करे धमाल।
अधरों की मुस्कान ने , भरा प्रेम का ताल।।
महकी-महकी है हवा, उङता लाल गुलाल।
बचना मुश्किल हो गया , फागुन फेंके जाल।।
सुबह सुनहरी हो गई, संध्या लाल गुलाल।।
किया प्रेम का आचमन, हो गई मालामाल।।
इस फागुन के सामने , डाले जब हथियार।
जीवन में मधुरस घुला, मिला प्रेम उपहार।।
फागुन तेरे देश में , जित देखूँ उत लाल।
पिय ने पिचकारी भरी, हाल हुआ बेहाल।।
जिनके पिय घर पर नहीं , उनको रहा मलाल।
ठंडी आहे भर रहे , जैसे हो कंगाल।।
डॉ पूनम गुजरानी
सूरत
स्मित रेखा औ संधि पत्र
स्मित रेखा औ संधि पत्र 'आंसू से भीगे आंचल पर/ मन का सब कुछ रखना होगा/ तुझको अपनी स्मित रेखा से/ यह संधि पत्र लिखना होगा ' कामायनी की इन चार पंक्तियों में नारी जीवन की दशा-दिशा और उसके जीवन का यथार्थ परिलक्षित है। प्रसाद जी ने नारी के दु:खों की अनुभूति की तथा उसे,अपने दु:ख,पीड़ा व कष्टों को आंसुओं रूपी आंचल में समेट कर, मुस्कुराते हुए संधि-पत्र लिखने का संदेश दिया। यह संधि-पत्र एक- तरफ़ा समझौता है अर्थात् विषम परिस्थितियों का मुस्कराते हुए सामना करना... इस ओर संकेत करता है, क्योंकि उसे सहना है, कहना नहीं। यह सीख दी है, बरसों पहले प्रसाद जी ने, कामायनी की नायिका श्रद्धा को...कि उसे मन में उठ रहे ज्वार को आंसुओं के जल से प्रक्षालित करना होगा और अपनी पीड़ा को आंचल में समेट कर समझौता करना होगा। आज कामायनी के चार पद, जिन्हें कुमार विश्वास ने वाणी दी है, उस वीडियो को देख-सुनकर हृदय विकल-उद्वेलित हो उठा। मैं अपनी भावनाओं पर नियंत्रण नहीं रख पायी और मेरी लेखनी,नारी जीवन की त्रासदी को शब्दों में उकेरने को विवश हो गई। एक प्रश्न मन में कुनमुनाता है कि जब से सृष्टि का निर्माण हुआ है, उसे मौन रहने का संदेश दिया गया है...दर्द को आंसुओं के भीगे आंचल में छुपा कर, मुस्कराते हुए जीने की प्रेरणा दी गई है...क्या यह उसकी भावनाओं के साथ खिलवाड़ नहीं है?शायद! यह कुठाराघात है उसकी संवेदनाओं पर... समझ नहीं पाता मन… आखिर हर कसूर के लिए वह ही क्यों प्रताड़ित होती है और अपराधिनी समझी जाती है...हर उस अपराध के लिए, जो उसने किया ही नहीं। प्रश्न उठता है, जब कोर्ट-कचहरी में हर मुजरिम को अपना पक्ष रखने का अवसर-अधिकार प्रदान किया जाता है,तो नारी इस अधिकार से वंचित क्यों? चौंकिए मत ! यह तो हमारे पूर्वजों की धरोहर है, जिसे आज तक प्रतिपक्ष-पुरूष वर्ग ने संभाल कर रखा हुआ है और उसकी अनुपालना भी आज तक बखूबी की जा रही है। 'क्या कहती हो ठहरो! नारी/ संकल्प अश्रुजल से अपने/ तुम दान कर चुकी पहले ही/ जीवन के सोने से सपने' द्वारा नारी को आग़ाह किया गया है कि वह तो अपने स्वर्णिम सपनों को पहले ही दान कर चुकी है अर्थात् होम कर चुकी है। अब उसका अपना कुछ है ही नहीं,क्षक्योंकि दान की गयी वस्तु पर प्रदाता का अधिकार उसी पल समाप्त हो जाता है। स्मरण रहे,उसने तो अपने आंसुओं रूपी जल को अंजलि में भर कर संकल्प लिया था और अपना सर्वस्व उसके हित समर्पित कर दिया था। सो! नारी, तुम केवल श्रद्धा व विश्वास की प्रतिमूर्ति हो और तुम्हें जीवन को समतल रूप प्रदान करने हेतु पीयूष-स्त्रोत अर्थात् अमृत धारा सम बहना होगा। युद्ध देवों का हो या दानवों का, उसके अंतर्मन में सदैव संघर्ष बना रहता है...परिस्थितियां कभी भी उसके अनुकूल नहीं रहतीं और पराजित भी सदैव नारी ही होती है। युद्ध का परिणाम भी कभी नारी के पक्ष में नहीं रहता। इसलिए नारी को अपने अंतर्मन के भावों पर अंकुश रख, आंसुओं रूपी रूपी जल से उस धधकती ज्वाला को शांत करना होगा तथा उसे अपनी मुस्कान से जीवन में समझौता करना होगा। यही है नारी जीवन का कटु यथार्थ है...कि उसे नील- कंठ की भांति हंसते-हंसते विष का आचमन करना ही होगा... यही है उसकी नियति। सतयुग से लेकर आज तक इस परंपरा को बखूबी सहेज-संजोकर रखा गया है,इसमें तनिक भी बदलाव नहीं आ पाया। नारी कल भी पीड़ित थी, आज भी है और कल भी रहेगी। जन्म लेने के पश्चात् वह पिता व भाई के सुरक्षा-घेरे में रहती है और विवाहोपरांत पति व उस के परिवारजनों के अंकुश में, जहां असंख्य नेत्र सी•सी•टी•वी• कैमरे की भांति उसके इर्दगिर्द घूमते रहते हैं और उसकी हर गतिविधि उन में कैद होती रहती है। दुर्भाग्यवश न तो पिता का घर उसका अपना होता है, न ही पति का घर... वह तो सदैव पराई समझी जाती है। इतना ही नहीं, कभी वह कम दहेज लाने के लिए प्रताड़ित की जाती है, तो कभी वंश चलाने के लिए, पुत्र न दे पाने के कारण उस पर बांझ होने का लांछन लगा कर, उसे घर से बाहर का रास्ता दिखला दिया जाता है। जीवन के अंतिम पड़ाव पर पहुंचने पर, केवल चेहरा बदल जाता है, नियति नहीं। हां! पिता और पति का स्थान पुत्र संभाल लेता है और उसका भाग्य-विधाता बन बैठता है। उस स्थिति में उसे केवल पुत्र का नहीं,पुत्रवधु का भी मुख देखना पड़ता है, क्योंकि अब उसकी ज़िन्दगी की डोर दो-दो मालिकों के हाथ में आ जाती है। आश्चर्य होता है,यह देख कर कि मृत्योपरांत उसे पति के घर का दो गज़ कफ़न भी नसीब नहीं होता, वह भी उसके मायके से आता है और भोज का प्रबंध भी उनके द्वारा ही किया जाता है। अजीब दास्तान है... उसकी ज़िन्दगी की, जिस घर से उसकी डोली उठती है, वहां लौटने का हक़ उससे उसी पल छिन जाता है और ससुराल की चौखट लांघने का हक़ उसे मिलता ही कहां है...वहां वह आजीवन परायी समझी जाती है। भ्रूण-हत्या के कारण आजकल लड़कियों को दूर-दराज़ से खरीद कर लाया जाता है, जहां वे 'मोलकी' के रूप में पहचान पाती हैं। वैसे भी जिस घर से अर्थी उठती है, वह घर तो उसका होता ही कहां है? इसी उधेड़बुन व असमंजस में वह पूरी उम्र गुज़ार देती हैं। प्रश्न उठता है,आखिर संविधान द्वारा उसे समानता का दर्जा क्यों प्रदत नहीं? अधिकार तो पुरूष के भाग्य में लिखे गये हैं और स्त्री को मात्र कर्त्तव्यों की फेहरिस्त थमा दी जाती है...आखिर क्यों? जब सृष्टि- नियंता ने सबको समान बनाया है तो उससे दोयम दर्जे का व्यवहार क्यों? यह प्रश्न बार-बार अंतर्मन को कचोटता है… हां!यदि अधिकार मांगने से न मिलें,तो उन्हें छीन लेने में कोई बुराई नहीं।श्रीमद्भगवत् गीता में भी अन्याय करने वाले से अन्याय सहन करने वाले को अधिक दोषी ठहराया गया है। एक लंबे अंतराल के पश्चात्, शायद! नारी की सुप्त चेतना जाग्रत हुई होगी और उसने समानाधिकार की मांग करने का साहस जुटाया होगा। सो!कानून द्वारा उसे अधिकार प्राप्त भी हुए, परंतु वे सब कागज़ की फाइलों तले दब कर रह गये। नारी शिक्षित हो या अशिक्षित,उसकी धुरी सदैव घर-गृहस्थी के चारों ओर घूमती रहती है।दोनों की नियति एक समान होती है। उनकी तक़दीर में तनिक भी अंतर नहीं होता। वे सदैव प्रश्नों के घेरे में रहती हैं। पुरूष का व्यवहार औरत के प्रति सदैव कठोर ही रहा है, भले ही वह नौकरी द्वारा उसके समान ही वेतन क्यों न प्राप्त करती हो? परंतु परिवार के प्रति समस्त दायित्वों के वहन की अपेक्षा उससे ही की जाती है। यदि वह किसी कारणवश उनकी अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतर पाती,तो उस पर आक्षेप लगाकर, प्रताड़ित कर असंख्य ज़ुल्म ढाये जाते हैं। सो!उसे पति व परिजनों के आदेशों की अनुपालना सहर्ष करनी पड़ती है। हां!वर्षों तक पति के अंकुश व उसके न खुश रहने के पश्चात् उसके हृदय का आक्रोश फूट निकलता है और वह प्रतिकार व प्रतिशोध की राह पर पर चल पड़ती है। आजकल लड़कों की भांति जींस कल्चर को अपना कर, क्लबों में नाचना गाना, हेलो हाय करना, सिगरेट व मदिरापान करना व ससुरालजनों को अकारण जेल के पीछे पहुंचाना, उसके शौक बन कर रह गए हैं। विवाह के बंधनों को नकार,वह लिव- इन की राह पर चल पड़ी है,जिसके भयंकर परिणाम उसे आजीवन झेलने पड़ते हैं। 'तुमको अपनी स्मित-रेखा से/ यह संधि पत्र लिखना होगा।'यह पंक्तियां समसामयिक व सामाजिक हैं, जो कल भी सार्थक थीं,आज भी हैं और कल भी रहेंगी। परंतु नारी को पूर्ण समर्पण करना होगा, प्रतिपक्ष की बातों को हंसते-हंसते स्वीकारना होगा...यही ज़िन्दगी की शर्त है। वैसे भी अक्सर महिलाएं,बच्चों की खुशी व परिवार की मान-मर्यादा के लिए अपने सुखों को तिलांजलि दे देती हैं... अपने मान-सम्मान व प्रतिष्ठा के लिए अपने सुखों को तिलांजलि दे देती हैं। अपनी अस्मिता व प्रतिष्ठा को दांव पर लगाकर, शतरंज का मोहरा बन जाती हैं। कई बार अपने परिवार की खुशियों व सलामती के लिए अपनी अस्मत का सौदा तक करने को विवश हो जाती हैं, ताकि उनके हंसते- खेलते परिवार पर कोई आंच ना आ पाए। इतना ही नहीं, वे बंधुआ मज़दूर तक बनना स्वीकार लेती हैं, परंतु उफ़् तक नहीं करतीं। आजकल अपहरण व दुष्कर्म के किस्से आम हो गए हैं...दोष चाहे किसी का हो, अपराधिनी तो वह ही कहलाती है। 'ज्ञान दूर, कुछ क्रिया भिन्न है/ इच्छा क्यों पूरी हो मन की/एक दूसरे से मिल ना सके/यह विडंबना है जीवन की।' कामायनी की अंतिम पंक्तियां मन की इच्छा- पूर्ति के लिए ज्ञान व कर्म के समन्वय को दर्शाती हैं। इनका विपरीत दिशा की ओर अग्रसर होना, जीवन की विडम्बना है... दु:ख व अशांति का कारण है।सो! समन्वय व सामंजस्यता से समरसता आती है और यह अलौकिक आनंद-प्रदाता है। इसके लिए निजी स्वार्थों के त्याग करने की दरक़ार है, इसके द्वारा ही हम परहितार्थ हंसते-हंसते समझौता करने की स्थिति में होंगे और पारिवारिक व सामाजिक सौहार्द बना रहेगा। डॉ• मुक्ता, माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।
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डी ए वी कॉलेज में अंर्तराष्ट्रीय संगोष्ठी
करनाल के डीएवी पोस्ट ग्रेजुएट कॉलेज में आयोजित अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी,जो हरियाणा सरकार के उच्चशिक्षा विभाग के तत्वावधान में सम्पन्न हुई, में समापन सत्र के मुख्य अतिथि के रूप में डॉ योगेन्द्र नाथ शर्मा "अरुण" ने "श्रीमद भगवदगीता में कर्मयोग,ज्ञानयोग और भक्तियोग" पर सारगर्भित व्याख्यान दिया।मंच पर करनाल की मेयर श्रीमती रेणु गुप्ता, संस्था के प्राचार्य डॉ रामपाल सैनी, जे वी जैन कॉलेज,सहारनपुर के राजनीतिशास्त्र विभाग के प्रोफेसर डॉ वीरेंद्र शर्मा 'शम्मी',संगोष्ठी की संयोजिका डॉ राज्यश्री एवं संचालिका डॉ पूनम विद्यमान रहीं।कवि डॉ "अरुण" ने इस अवसर पर अपना गीत "मौत ने मुझसे कहा,मैं तुमको लेने आ रही हूँ। ज़िन्दगी बोली,डरो मत, मैं अभी मुस्करा रही हूँ।" सुनाया तो सभागार तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा।
नारी
"नारी धरती का फर्ज निभाती है ,और अपने अंक में,
समुद्र सी विशाल ममता समेटे आकाश हो जाती है।"
डॉ सरोज गुप्ता
होली ...
होली ...
ऋतुओं की रानी आई अलबेली
आया फागुन लाई संग होली
मन्द सुगंधित चले पुरवैया
मस्त बहारें महके रे भैया
रंग अबीर गुलाल उड़े रे
भर उमंग मनुवा बहके रे
केसर क्यारी,चोबा महके
रंग रंगीली फुहारें बरसे रे
छल, छद्म,कपट,विषबेल
तन मन से दूर करो रे भैया
भक्त प्रहलाद की गाथा गाना
सद्भाव मिलन को अपनाना
चटक चटीली राधे रंगीली
बांका कृष्णा छैल छबीला
केसर कस्तूरी भरी तलैया
राधे संग कृष्णा खेलें ता थैया
देखो,कहीं छन रही ठंडाई
कहीं हो रही भांग घुटाई
पीकर मस्त मलंग हुरियारे
चनिया चोली रंगीं कर डारे
सरररर देवर ने भरी पिचकारी
अरररर भौजाई रंग देखके भागी
पकड़ कलाई पिया ने अंग लगाई
मतवारी रतनारी गोरी ले अंगड़ाई
मुदित नयना सजनी शरमाई
अधर गुलाबी जिया में हर्षाई
मिले नयन जब धड़कन जागी
प्रीत पिया की रंग ली अनुरागी
तेरी प्रीत की ओढूंगी चुनरिया
सप्तसुरों पे गाऊँगी सरगम
हमदम तेरे अंग,संग चलूँगी
सांवरिया तोरे रंग में रंगूँगी ।
✍ सीमा गर्ग मंजरी, मेरठ
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नारी ईश्वरीय वरदान है ....
नारी ईश्वरीय वरदान है ....
त्रिदेवों की अनुपम कृति नारी है
सृष्टि की अद्भुत सृजन शक्ति नारी है
नारी हिरण्यगर्भा सी प्रकृति है
नारी दैवीय वरदान की युक्ति है
नारी मृदुल ह्रदय की मिठास है
दिवस की पावन शुरुआत है
जग में नारी ईश्वरीय अनुकृति है
निष्ठा,प्रेम,त्याग की प्रतिमूर्ति है
नारी मन का उपवन महकाती है
पुष्प पराग सौरभ सा खिलाती है
उत्फुल्ल कुसुमित हो दिल मिलते हैं
मर्यादित उमंग तरंग से रिश्ते बनते हैं
जहाँ में सप्तरंगीन सी नारी है
दिव्य नव शक्ति रुपा वारी है
ना कहो कि नारी बेचारी है
नारी सबला शक्ति रुप धारी है
जल थल वायुसेना की
कमान संभालती नारी है
सुकर्मों की सुगंध फैलाती
नारी काली रुप भी धारी है
नारी ने आत्मरक्षा के गुण हैं सीखे
ये कूंगफू मार्शल आर्ट जैसे हैं तीखे
नारी सम्मान का करे यदि कोई हरण
त्वरित हो फिर उस दुष्ट का मरण
नारी हिय तराजू तौलती है
नित प्रगति के सोपान चढती है
कुत्सित दृष्टि डालने वाले को
सबक सिखाये साहसी नारी है ॥
✍ सीमा गर्ग मंजरी, मेरठ
तू देवी धरती की प्यारी,तूँ परमातम रूप है.
*विश्व अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर प्रस्तुत...*
*गीत*
तू देवी धरती की प्यारी,तू परमातम रूप है.
महिमा तेरी कैसे गाऊँ,रूप तुम्हारा अनूप है।।टेक।।
1).धरती-अम्बर-नभ से ऊंचा,मान तुम्हारा जग में हैं.
है पुरुषार्थ अलौकिक तेरा,गाते सारे जग जन है।
धरती की सुंदर काया का,तूँ सच्चा प्रारूप है।।
तूँ...............................।।1।।
2).तूँ ही राम की जननी है, अरु कृष्ण की प्यारी मैया है.
सब सेजो में माँ की गोदी,सबसे महँगी सैया है।
सृष्टिकर्ता ब्रम्हा जैसा,अद्भुत तेरा स्वरूप है।।
तूँ.............................।।2।।
3).माँ-बहिना-पत्नि के रूप में,तेरा पूर्ण समर्पण है.
मेरा तुझको सब कुछ अर्पण,तूँ ही प्यार का दर्पण है।
है संसार में श्रेष्ठ नारी तो,"ध्रुव" को ये सुखरूप है।।
तूँ............................।।3।।
--शास्त्री दीपक "ध्रुव"
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