स्मित रेखा औ संधि पत्र 'आंसू से भीगे आंचल पर/ मन का सब कुछ रखना होगा/ तुझको अपनी स्मित रेखा से/ यह संधि पत्र लिखना होगा ' कामायनी की इन चार पंक्तियों में नारी जीवन की दशा-दिशा और उसके जीवन का यथार्थ परिलक्षित है। प्रसाद जी ने नारी के दु:खों की अनुभूति की तथा उसे,अपने दु:ख,पीड़ा व कष्टों को आंसुओं रूपी आंचल में समेट कर, मुस्कुराते हुए संधि-पत्र लिखने का संदेश दिया। यह संधि-पत्र एक- तरफ़ा समझौता है अर्थात् विषम परिस्थितियों का मुस्कराते हुए सामना करना... इस ओर संकेत करता है, क्योंकि उसे सहना है, कहना नहीं। यह सीख दी है, बरसों पहले प्रसाद जी ने, कामायनी की नायिका श्रद्धा को...कि उसे मन में उठ रहे ज्वार को आंसुओं के जल से प्रक्षालित करना होगा और अपनी पीड़ा को आंचल में समेट कर समझौता करना होगा। आज कामायनी के चार पद, जिन्हें कुमार विश्वास ने वाणी दी है, उस वीडियो को देख-सुनकर हृदय विकल-उद्वेलित हो उठा। मैं अपनी भावनाओं पर नियंत्रण नहीं रख पायी और मेरी लेखनी,नारी जीवन की त्रासदी को शब्दों में उकेरने को विवश हो गई। एक प्रश्न मन में कुनमुनाता है कि जब से सृष्टि का निर्माण हुआ है, उसे मौन रहने का संदेश दिया गया है...दर्द को आंसुओं के भीगे आंचल में छुपा कर, मुस्कराते हुए जीने की प्रेरणा दी गई है...क्या यह उसकी भावनाओं के साथ खिलवाड़ नहीं है?शायद! यह कुठाराघात है उसकी संवेदनाओं पर... समझ नहीं पाता मन… आखिर हर कसूर के लिए वह ही क्यों प्रताड़ित होती है और अपराधिनी समझी जाती है...हर उस अपराध के लिए, जो उसने किया ही नहीं। प्रश्न उठता है, जब कोर्ट-कचहरी में हर मुजरिम को अपना पक्ष रखने का अवसर-अधिकार प्रदान किया जाता है,तो नारी इस अधिकार से वंचित क्यों? चौंकिए मत ! यह तो हमारे पूर्वजों की धरोहर है, जिसे आज तक प्रतिपक्ष-पुरूष वर्ग ने संभाल कर रखा हुआ है और उसकी अनुपालना भी आज तक बखूबी की जा रही है। 'क्या कहती हो ठहरो! नारी/ संकल्प अश्रुजल से अपने/ तुम दान कर चुकी पहले ही/ जीवन के सोने से सपने' द्वारा नारी को आग़ाह किया गया है कि वह तो अपने स्वर्णिम सपनों को पहले ही दान कर चुकी है अर्थात् होम कर चुकी है। अब उसका अपना कुछ है ही नहीं,क्षक्योंकि दान की गयी वस्तु पर प्रदाता का अधिकार उसी पल समाप्त हो जाता है। स्मरण रहे,उसने तो अपने आंसुओं रूपी जल को अंजलि में भर कर संकल्प लिया था और अपना सर्वस्व उसके हित समर्पित कर दिया था। सो! नारी, तुम केवल श्रद्धा व विश्वास की प्रतिमूर्ति हो और तुम्हें जीवन को समतल रूप प्रदान करने हेतु पीयूष-स्त्रोत अर्थात् अमृत धारा सम बहना होगा। युद्ध देवों का हो या दानवों का, उसके अंतर्मन में सदैव संघर्ष बना रहता है...परिस्थितियां कभी भी उसके अनुकूल नहीं रहतीं और पराजित भी सदैव नारी ही होती है। युद्ध का परिणाम भी कभी नारी के पक्ष में नहीं रहता। इसलिए नारी को अपने अंतर्मन के भावों पर अंकुश रख, आंसुओं रूपी रूपी जल से उस धधकती ज्वाला को शांत करना होगा तथा उसे अपनी मुस्कान से जीवन में समझौता करना होगा। यही है नारी जीवन का कटु यथार्थ है...कि उसे नील- कंठ की भांति हंसते-हंसते विष का आचमन करना ही होगा... यही है उसकी नियति। सतयुग से लेकर आज तक इस परंपरा को बखूबी सहेज-संजोकर रखा गया है,इसमें तनिक भी बदलाव नहीं आ पाया। नारी कल भी पीड़ित थी, आज भी है और कल भी रहेगी। जन्म लेने के पश्चात् वह पिता व भाई के सुरक्षा-घेरे में रहती है और विवाहोपरांत पति व उस के परिवारजनों के अंकुश में, जहां असंख्य नेत्र सी•सी•टी•वी• कैमरे की भांति उसके इर्दगिर्द घूमते रहते हैं और उसकी हर गतिविधि उन में कैद होती रहती है। दुर्भाग्यवश न तो पिता का घर उसका अपना होता है, न ही पति का घर... वह तो सदैव पराई समझी जाती है। इतना ही नहीं, कभी वह कम दहेज लाने के लिए प्रताड़ित की जाती है, तो कभी वंश चलाने के लिए, पुत्र न दे पाने के कारण उस पर बांझ होने का लांछन लगा कर, उसे घर से बाहर का रास्ता दिखला दिया जाता है। जीवन के अंतिम पड़ाव पर पहुंचने पर, केवल चेहरा बदल जाता है, नियति नहीं। हां! पिता और पति का स्थान पुत्र संभाल लेता है और उसका भाग्य-विधाता बन बैठता है। उस स्थिति में उसे केवल पुत्र का नहीं,पुत्रवधु का भी मुख देखना पड़ता है, क्योंकि अब उसकी ज़िन्दगी की डोर दो-दो मालिकों के हाथ में आ जाती है। आश्चर्य होता है,यह देख कर कि मृत्योपरांत उसे पति के घर का दो गज़ कफ़न भी नसीब नहीं होता, वह भी उसके मायके से आता है और भोज का प्रबंध भी उनके द्वारा ही किया जाता है। अजीब दास्तान है... उसकी ज़िन्दगी की, जिस घर से उसकी डोली उठती है, वहां लौटने का हक़ उससे उसी पल छिन जाता है और ससुराल की चौखट लांघने का हक़ उसे मिलता ही कहां है...वहां वह आजीवन परायी समझी जाती है। भ्रूण-हत्या के कारण आजकल लड़कियों को दूर-दराज़ से खरीद कर लाया जाता है, जहां वे 'मोलकी' के रूप में पहचान पाती हैं। वैसे भी जिस घर से अर्थी उठती है, वह घर तो उसका होता ही कहां है? इसी उधेड़बुन व असमंजस में वह पूरी उम्र गुज़ार देती हैं। प्रश्न उठता है,आखिर संविधान द्वारा उसे समानता का दर्जा क्यों प्रदत नहीं? अधिकार तो पुरूष के भाग्य में लिखे गये हैं और स्त्री को मात्र कर्त्तव्यों की फेहरिस्त थमा दी जाती है...आखिर क्यों? जब सृष्टि- नियंता ने सबको समान बनाया है तो उससे दोयम दर्जे का व्यवहार क्यों? यह प्रश्न बार-बार अंतर्मन को कचोटता है… हां!यदि अधिकार मांगने से न मिलें,तो उन्हें छीन लेने में कोई बुराई नहीं।श्रीमद्भगवत् गीता में भी अन्याय करने वाले से अन्याय सहन करने वाले को अधिक दोषी ठहराया गया है। एक लंबे अंतराल के पश्चात्, शायद! नारी की सुप्त चेतना जाग्रत हुई होगी और उसने समानाधिकार की मांग करने का साहस जुटाया होगा। सो!कानून द्वारा उसे अधिकार प्राप्त भी हुए, परंतु वे सब कागज़ की फाइलों तले दब कर रह गये। नारी शिक्षित हो या अशिक्षित,उसकी धुरी सदैव घर-गृहस्थी के चारों ओर घूमती रहती है।दोनों की नियति एक समान होती है। उनकी तक़दीर में तनिक भी अंतर नहीं होता। वे सदैव प्रश्नों के घेरे में रहती हैं। पुरूष का व्यवहार औरत के प्रति सदैव कठोर ही रहा है, भले ही वह नौकरी द्वारा उसके समान ही वेतन क्यों न प्राप्त करती हो? परंतु परिवार के प्रति समस्त दायित्वों के वहन की अपेक्षा उससे ही की जाती है। यदि वह किसी कारणवश उनकी अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतर पाती,तो उस पर आक्षेप लगाकर, प्रताड़ित कर असंख्य ज़ुल्म ढाये जाते हैं। सो!उसे पति व परिजनों के आदेशों की अनुपालना सहर्ष करनी पड़ती है। हां!वर्षों तक पति के अंकुश व उसके न खुश रहने के पश्चात् उसके हृदय का आक्रोश फूट निकलता है और वह प्रतिकार व प्रतिशोध की राह पर पर चल पड़ती है। आजकल लड़कों की भांति जींस कल्चर को अपना कर, क्लबों में नाचना गाना, हेलो हाय करना, सिगरेट व मदिरापान करना व ससुरालजनों को अकारण जेल के पीछे पहुंचाना, उसके शौक बन कर रह गए हैं। विवाह के बंधनों को नकार,वह लिव- इन की राह पर चल पड़ी है,जिसके भयंकर परिणाम उसे आजीवन झेलने पड़ते हैं। 'तुमको अपनी स्मित-रेखा से/ यह संधि पत्र लिखना होगा।'यह पंक्तियां समसामयिक व सामाजिक हैं, जो कल भी सार्थक थीं,आज भी हैं और कल भी रहेंगी। परंतु नारी को पूर्ण समर्पण करना होगा, प्रतिपक्ष की बातों को हंसते-हंसते स्वीकारना होगा...यही ज़िन्दगी की शर्त है। वैसे भी अक्सर महिलाएं,बच्चों की खुशी व परिवार की मान-मर्यादा के लिए अपने सुखों को तिलांजलि दे देती हैं... अपने मान-सम्मान व प्रतिष्ठा के लिए अपने सुखों को तिलांजलि दे देती हैं। अपनी अस्मिता व प्रतिष्ठा को दांव पर लगाकर, शतरंज का मोहरा बन जाती हैं। कई बार अपने परिवार की खुशियों व सलामती के लिए अपनी अस्मत का सौदा तक करने को विवश हो जाती हैं, ताकि उनके हंसते- खेलते परिवार पर कोई आंच ना आ पाए। इतना ही नहीं, वे बंधुआ मज़दूर तक बनना स्वीकार लेती हैं, परंतु उफ़् तक नहीं करतीं। आजकल अपहरण व दुष्कर्म के किस्से आम हो गए हैं...दोष चाहे किसी का हो, अपराधिनी तो वह ही कहलाती है। 'ज्ञान दूर, कुछ क्रिया भिन्न है/ इच्छा क्यों पूरी हो मन की/एक दूसरे से मिल ना सके/यह विडंबना है जीवन की।' कामायनी की अंतिम पंक्तियां मन की इच्छा- पूर्ति के लिए ज्ञान व कर्म के समन्वय को दर्शाती हैं। इनका विपरीत दिशा की ओर अग्रसर होना, जीवन की विडम्बना है... दु:ख व अशांति का कारण है।सो! समन्वय व सामंजस्यता से समरसता आती है और यह अलौकिक आनंद-प्रदाता है। इसके लिए निजी स्वार्थों के त्याग करने की दरक़ार है, इसके द्वारा ही हम परहितार्थ हंसते-हंसते समझौता करने की स्थिति में होंगे और पारिवारिक व सामाजिक सौहार्द बना रहेगा। डॉ• मुक्ता, माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।
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स्मित रेखा औ संधि पत्र
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