इंसान भी बड़ा अजीब है,

 














इंसान भी बड़ा अजीब है,

 

इस महामारी से गुजरते हुए भी,

अपनी गलतियों को परख ना पाया है।

कल रात ९ बजे हमने ऐसा कोविड फेस्टिवल मनाया है,

जैसे कोविड हमें कभी छू भी ना पाया है।

आखिर किस प्रकार ये धरती इंसान की गलतियों का विवरण दे..

स्वच्छ हवा, स्वच्छ पानी, स्वच्छ धरती और हर ओर हरियाली, कई चहकते हुए पक्षी, कई जानवर ,कई अद्भुत नज़ारे, वो उगते हुए सूरज की किरण, वो ढलती हुई चांदनी रात का मज़ा...

आखिर सब इंसान के पिंजरों में रहने से हो पाया है।

लेकिन हमें केवल ९ मिनट लगे प्रकृति के साथ खेलने के लिए।

वो खुला आसमां कहीं पटाखों की धूल से भर गया, तो कई जीवों को अपनी मीठी नींद तोड़ कर भागना पड़ा, वो हलकी हवा जिससे स्वास के रूप में अंदर ले रहे थे वो फिर भारी लगने लगी..

तब समझ आया, इंसानों को किसी ने वापिस खुला छोड़ दिया।

क्या हक है हमें जीने का, या प्रकृति से खिलवाड़ करने का, जानवर जो बोल नहीं सकते, उन्हें कैद करने का?

अरे जानवरों ने भी दिखा दिया, बिना दिमाग होते हुए भी, वो पिंजरों के बाहर सही है, और हम पिंजरों में कैद सही है।

 महावीर जयंती के शुभ पर्व पर हमें सिखाया जाता है कि जियो और जीने दो, 

पर देखिए ना, अपने ज़्यादा बलवान होने के कारण हम प्रकृति पर काबू करना सीखने लगे, जानवरों की हत्या करके, उनका मांस खाने लगे, हम क्रूर्रता का परिचय देकर अपनी गिरी हुई नज़रों में ही महान बन गए।

मांस खाने से कई बीमारियां आई लेकिन हम मनुष्यों में अक्ल ना आ सकी।

जानवरों को मारना हमने अभी भी नहीं छोड़ा, लेकिन जो मांस ना खाए उसका मज़ाक उड़ाना और "प्रोटीन इसी से मिलता है" ये बहाना सबको सुनाना ,काफी अच्छे से सीख लिया।

आखिर ऐसे लोगों को जीने का क्या हक है? 

इससे बेहतर तो पृथ्वी से हमारा नामोनिशान मिट जाना ही बेहतर है।

इससे हमारी धरती फिर से एक बार खिलखिला उठेगी, फिर से एक बार बिना रोए जी लेगी।

लोगो को समझाने के लिए यह महामारी काफी चोटी है और दूसरा कोई इलाज भी नहीं, आज भी लोग मांस खा रहे है, जिनके पास दिमाग नहीं उन्हें क्या कोई समझा पाएगा ,अरे उन्हें तो कोविड से आए कल हो ना हो का भय भी नही समझा पाया।

जिस धर्म में मैं जन्मी हूं उसके लिए में शुक्रगुजार हूं, ये मैं इसीलिए नहीं कह रही की में अपने धर्म को बहु त मानती हूं पर इसीलिए कह रही हूं क्योंकि यह धर्म जीना सिखाता है और बाकी जीवों को भी जीने की अनुमति देता है।

अहिंसा परमो धर्म हमारा मंत्र है और में मानती हूं बाकी धर्मो में भी यही बताया गया है..

धर्म की बात ना भी माने तो वैज्ञानिकों की ही मान लीजिए और वैज्ञानिकों की ना माननी हो तो अपने अंदर के मनुष्य की ही मान लीजिए जिसको आप बहुत  पहले खो चुके है।

अगर आपको अभी भी ये समझ ना आया हो तो एक बार स्लॉटर हाउस होकर आइए  और फिर भी अगर आपको दुख न हो तो आपके लिए पृथ्वी जैसी जगह पर कोई जगह नहीं है।

हां आज के दिन मैंने काफी हिंसक बातें बोली पर यह सत्य है ।

इन बातों को बोलकर मुझे पाप भी लग सकता है क्योंकि मैं किसी और जीव को मारने की बात कर रही हूं पर किसी को समझाने के लिए जब महामारी काम ना आए तो कड़वे वचन ही सही।

काश आप दूसरों का दर्द समझ पाए , देख पाए और एहसास कर सके की आप जो करते आ रहें है वो ग़लत है।

एहसास होना ही बहोत बड़ी बात है और सबसे पहला कदम।

जिए और जीने दे।।

नीरू जैन

 


 

 



 



 













 










 

 








 

 







 







 




 





 



 




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