देख रही हूँ...बहुत दिनो से..

वीरान...सुनसान ..मेरा वृंदावन पार्क,

नहीं दिख रहा कोई..इसके आस पास।

जहाँ गाहे बगाहे ,अक्सर दिख जाते थे,

चहल क़दमी करते लोग...

कैसा आया ये रोग...?

जो लील गया इसकी सारी रौनक़,

खेलते बच्चों के नज़ारे...मनमोहक।

रंग बिरंगी पोशाकों में...

चहल क़दमी करती नारियाँ,

हाथों में हाथ लिए,बना कर टोलियाँ।

रोज़ कुछ नया करने का इरादा,

बाय बाय कर ...

कल फिर आने का वादा।

टहलना कम,बातें ज़्यादा।

त्योहारों की बातें,वो बाइयों के क़िस्से,

दावतों का इरादा,पकवानो के  हिस्से।

नहीं दिख रही,वो हँसी,चहचहाहट ,

सुनाई नहीं दे रही,खिलखिलाहट।

तितली सी उड़ती..नहीं दिखती बच्चियाँ,

बंद पड़ी हैं..आसपास की खिड़कियाँ।

मुरझाए से फूल...उदास सी कलियाँ,

सूनी पड़ी हैं...आस पास की गलियाँ।

सोच रही हूँ....बैठ बंद कमरों में,

इक दूजे को मिलने को तरस रहे है,

पर इन छोटी छोटी चीज़ों का...

मोल समझ रहे हैं।

ख़ाली पड़े बैंच...आज बेकार हैं,

उन्हें भी किसी का इंतज़ार है।

कुछ बैंचो पर ...पुरुषों का अधिकार है, 

राजनीति की बातें है,पूरा अख़बार हैं।

वो बुज़ुर्गों की बातें, ज़ोरों के ठहाके,

घरों में सब क़ैद...नज़र नहीं आते।

जो जी रहे हैं..वही सत्य है,

इस डर का अपना महत्व है।

ज़रूरी है अपने आप को रोकना,

जब तक ना हो कोई घोषणा।

क़ुदरत के आगे..हम कल भी ज़ीरो थे,

आज भी ज़ीरो हैं,समझनी होगी ये बात।

क़ुदरत ने दिखा दी,हमें अपनी ओकात।

विद्रोह,क्रोध,खीज की तीखी लहर,

पूरे शरीर को कपकपा रही है।

पर ये चुनौती भी हमें,कुछ सिखा रही है।

घरों में क़ैद हैं,पर सब अपने से लग रहे है,

कभी आत्मकेंद्रित थे....

अब सामाजिक हो गए है।

कहने को दूर हैं,पर परिवार बढ़ गया है,

जिनको भी जानते हैं....

घर का सा हो गया है।

ये सुख की जड़ें हैं,इनको ही सींचना है,

इम्तिहान का वक़्त है...

हमको ही जीतना है।

ज़िंदगी का पहिया....

फिर उसी रफ़्तार से घुमाने को,

रखना होगा दिल बड़ा..विश्वास कड़ा,

वक़्त  आया है, ख़ुद को समझाने को। 

आँख खुलने से लेकर,आँख बंद होने तक ,

रहना है मुस्तैद,बंद कमरों में क़ैद।

हर पल ठहरी हुई सी ज़िंदगी,

किसी भी क्षण ,मौत से सामना।

हे परमात्मा....सुन लो मेरी प्रार्थना।

संसार के सारे रोग हर लो,

मेरे देश को..रोग मुक्त,दोष मुक्त कर दो,

आशा टूटने ना पाए.,हर जीव में प्रेम भर दो।

हर जीव.....तुम्हारी ज़िम्मेवारी,

ख़त्म कर दो.....ये महामारी।

फिर चलें संग संग....

ज़िंदगी के बदलें रंग।

ए मेरे वृंदावन पार्क..मत हो उदास।

एक बार इस विषाणु पर विजय पाने दे,

फिर आएँगे,तेरा आँगन महकाएँगे।

हर त्योहार....वही मनाएँगे।

——.....———....कमलेश शर्मा..