ख़ुद को समेट लेना बंदे






ख़ुद को समेट लेना बंदे 

 

मानवीय जीवन के हर एक पहलु को चंद लाइनों में

कहने का दुस्साहस कर रहीं हैं

आज क़लम-ए-कमल..

ज़रुरत है बस एक उम्दा नज़र और समझ की..!!

 

ख़ुद को समेट लेना बंदे बिखरने से पहले..!

रिश्तों को जरा संभाल लेना दरकने से पहले..!

 

गरज की जमी पे कब उगते हैं रिश्तो के पौधे..!

ज़मींदोज़ हो जातें हैं सारे पनपने से पहले..!

 

ख्व़ाहिशे बारुद हैं जैसी हसरतें माचिस जैसी..!

दिल को समझा लेना जरा मचलने से पहले..!

 

खंजर व मरहम दोनों तासीर रखते हैं ये लफ्ज..!

तोल लेना तू लफ्ज़ो को कुछ कहने से पहले..!

 

किरदारों से जाना जाता हर एक शख़्स यहां..!

किरदार को महका जाना तू मरने से पहले..!

 

 

कमल सिंह सोलंकी

रतलाम 


 

 



 



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