क्या सच ही अंगद ने सीता को हारने की शर्त रख दी थी?

 

 






कमलेश कमल

 

 

मानस के कुछ प्रसंग जिनको लेकर शंका या विवाद की संभावना रहती है, उनमें एक के केंद्र में अंगद का यह अभिकथन है- 

"जौं मम चरन सकसि सठ टारी। फिरहिं रामु सीता मैं हारी॥"

 

इसका एक अर्थ तो यह निकलता है कि यदि तू मेरा पाँव हटा सके, तो श्रीराम लौट जाएँगे, मैं सीताजी को हार जाऊँगा!

 

ऊपरी तौर पर तो यही अर्थ निकलता है, लेकिन क्या यह निष्पत्ति उचित है? क्या अंगद को यह अधिकार था कि वे सीता जी को हार जाने की शर्त लगा सकें? क्या यह दूतोचित था? और इन सबसे पूर्व यह कि क्या इस कथन को दूसरी तरह से भी पढ़ा, देखा और विचारा जाना चाहिए??

 

समग्रता में देखने पर बात कुछ और ही निकल कर सामने आती है। वस्तुतः, हलन्त चिह्न के लोप से यह भ्रांति उद्भिद हुई है। इसे "फिरहिं रामु-सीता, मैं हारा" पढ़ा जाना चाहिए, न कि "फिरहिं रामु, सीता मैं हारा।"

 

यहाँ देरिदा की विखण्डन (deconstruction) विधि से मानस के प्रसंगों को देखें, या अन्तर्पाठीय (intertextuality) विधि से देखें, तो बात एकदम साफ हो जाती है। 

 

सबसे पहले वह प्रसंग देखें, जिसमें अंगद के नायकत्व में वानरों का एक दल माता सीता का पता लगाने निकलता है। सागर तट पर पहुँच जब इसे लाँघने का प्रश्न उठता है, तब अंगद ने जो कहा है, वह अति महत्त्वपूर्ण है- 

 

अंगद कहइ जाऊँ मैं पारा।

जियँ संसय कछु फिरती बारा।।

जामवंत कह तुम्ह सब लायक।

पठइअ किमि सबही कर नायक।।

 

अर्थात् सब तरह से योग्य होने के उपरांत भी वालिकुमार अंगद के मन में संशय उत्पन्न होता है। वह कहता है- "सागर मैं पार तो हो जाऊँगा, परन्तु लौटने को लेकर संशय है।" इसके पाश्चात् जामवंत जी कहते हैं कि तुम सब तरह से योग्य हो, प्रत्युत तुम्हीं इस दल के नायक हो और इस निमित्त तुम्हें नहीं भेजा जा सकता। इससे स्पष्ट हो जाता है कि अंगद अति-आत्मविश्वासी नहीं हो सकता था। वह कुछ कहने के पूर्व भली-प्रकार सोचता था।

 

अगर सीता को शर्त पर रखने की निष्पत्ति लेते हैं, तो यह ग्रंथकार की सीमा होगी कि पाठ में तार्किक सुसम्बद्धता (logical coherence) नहीं रख सके।

 

इसी क्रम में यह भी विचार करें कि जब दूत के रूप में रावण की सभा में भेजने का प्रश्न उठा तब उसी धीर-गम्भीर जामवंत जी ने अंगद का नाम सुझाया-

 

"सुनु सर्बग्य सकल उर बासी। बुधि बल तेज धर्म गुन रासी॥

मंत्र कहउँ निज मति अनुसारा। दूत पठाइअ बालि कुमारा॥"

 

अर्थात् हे सर्वज्ञ (सब कुछ जानने वाले)! हे सबके हृदय में बसने वाले (अंतर्यामी)! हे बुद्धि, बल, तेज, धर्म और गुणों की राशि! सुनिए! मैं अपनी बुद्धि के अनुसार सलाह देता हूँ कि वालिकुमार अंगद को दूत बनाकर भेजना सबसे उचित होगा।

 

दूत को अपने मन की कहने, अतिकथन, मितकथन या मिथ्या-संभाषण करने का अधिकार नहीं होता अपितु स्वामी के मन्तव्य को प्रस्तुत करना होता है। अंगद सीता को दाँव पर लगा दे- यह किसी प्रकार उचित प्रतीत नहीं होता।

 

विवेच्य प्रसंग में अगर यह निष्पत्ति लें कि अंगद ने कहा कि अगर तुम मेरा पाँव हटा सको तो राम लौट जाएँगे और सीता को मैं हार जाऊँगा तब कितने दोष उत्पन्न होते हैं वह सोचें- स्वामी के मंतव्य से इतर संभाषण, अतिकथन, अतिआत्मविश्वास, उद्देश्य से विपथन, चारित्रिक विसंगति आदि।

 

अन्तरपाठ-विधि में हम देखते हैं कि किसी पाठ्यसामग्री को निरपेक्ष रूप से नहीं, वरन् अन्य संगत पाठों के सापेक्ष ही देखा और परखा जाना चाहिए। जिस अंगद को सामर्थ्य होते हुए भी सागर पार कर लौटने का संशय है, यह उसका कथन तो कदापि नहीं हो सकता। 

 

एक और प्रसंग देखें- जब श्रीराम ने अंगद को इस उद्देश्य के लिए चुना, तब अंगद से कहा- हे बल, बुद्धि और गुणों के धाम वालिपुत्र! हे तात! तुम मेरे काम के लिए लंका जाओ-

"बालितनय बुधि बल गुन धामा। लंका जाहु तात मम कामा।"

 

साथ ही उन्होंने कहा- तुमको बहुत समझाकर क्या कहूँ! मैं जानता हूँ, तुम परम चतुर हो। शत्रु से वही बातचीत करना, जिससे हमारा काम हो और उसका कल्याण हो-

"बहुत बुझाइ तुम्हहि का कहऊँ। परम चतुर मैं जानत अहऊँ॥

काजु हमार तासु हित होई। रिपु सन करेहु बतकही सोई।"

 

इस चौपाई से भी स्पष्ट है कि स्वयं प्रभु श्रीराम अंगद को इतना योग्य समझते हैं कि बहुत समझाकर कुछ कहने की आवश्यकता नहीं समझते।

 

इस पर अंगद पुनः अपने विनयशील स्वभाव का परिचय देते हुए कहते हैं कि जिनपर राम की कृपा हो जाह, वही गुणसागर हो जाता है-

"प्रभु अग्या धरि सीस चरन बंदि अंगद उठेउ।

सोइ गुन सागर ईस राम कृपा जा कर करहु॥"

 

निष्कर्षतः हम देखते हैं कि अंगद ने यह नहीं कहा कि अगर तुम मेरे पाँव को हटा दो, तो श्री राम लौट जाएँगे और मैं सीता जी को हार जाऊँगा, प्रत्युत अंगद ने यह कहा कि राम-सीता को तो लौटना ही है, जो विधि का विधान है, हाँ मैं तुमसे अपनी हार अवश्य मान लूँगा। जो वीर मेरे पाँव को डिगा दे, उससे स्वयं हार मान लेने में कोई दोष नहीं। 

 

सियावर रामचन्द्र की जय!