मेला

मेला

 

यह दुनिया एक मेला है

ज़िंदगी दो दिन का खेला है

इंसान जग में आया अकेला

अकेले ही उसे चले जाना है

 

कैसा अहं, यह कैसी खुद्दारी

फिर मैं-मैं की कैसी मारा-मारी

अपना नहीं जग में साथी-संगी

अंत समय मिट्टी में मिल जाना है

 

स्व-पर,राग-द्वेष में उलझ मानव 

नष्ट करता हीरे-सा अनमोल जीवन

माया-मोह में फंस खुद पर इतराता

जबकि मुट्ठी-भर राख उसकी कहानी है

■■■

 

दुनिया फॉनी

 

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