मेला
यह दुनिया एक मेला है
ज़िंदगी दो दिन का खेला है
इंसान जग में आया अकेला
अकेले ही उसे चले जाना है
कैसा अहं, यह कैसी खुद्दारी
फिर मैं-मैं की कैसी मारा-मारी
अपना नहीं जग में साथी-संगी
अंत समय मिट्टी में मिल जाना है
स्व-पर,राग-द्वेष में उलझ मानव
नष्ट करता हीरे-सा अनमोल जीवन
माया-मोह में फंस खुद पर इतराता
जबकि मुट्ठी-भर राख उसकी कहानी है
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दुनिया फॉनी
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