पाप का पछतावा

 

एक नर्तकी के कोठे से कुछ ही दूर एक महात्मा का आश्रम था।वहीं पर मंदिर भी था।महात्मा जी वहां रहकर भजन कीर्तन सत्संग करते थे।

 

  शाम के साथ ही जब उस कोठे पर नर्तकी के घुंघरू कि छम छम आवाज़ आती,उसी समय मंदिर में आरती होती।आरती के बाद श्रद्धालु आरती प्रसाद लेकर दान पात्र में  कुछ पैसे डाल कर अपने घर चले जाते।

 

  उधर कोठे पर आए लोग खूब पैसे लुटाते।मंदिर में श्रद्धालओं के जाने के बाद महात्मा जी एक तारा उठा कर मस्ती में भजन गाते।कोठे के अपने कमरे की खिड़की से नर्तकी आश्रम में भजन गाते महात्मा जी कोदेखती रहती थी।

 

उसे देख कर नर्तकी को लगता कि वो मुक्कदर वाली है,जो सामने ही महात्मा का आश्रम और मंदिर है।

मंदिर में घंटियां बजती लेकिन महात्मा जी के कान उस कोठे की तरफ ही रहते।

 

कुछ समय बाद महात्मा जी और नर्तकी दोनों की ही मृत्यु साथ ही हो गई।नृत्यांगना को लेने विष्णु दूत आए, और महात्मा जी को लेने यमराज आए। महात्मा जी ने यमराज जी से कहा,'' तुमसे कोई भूल हो गई है? मैं तो सत्संग करने वाला पूजा पाठ करने वाला और मुझे लेने आप आए हैं,और नृत्यांगना को लेने विष्णु दूत आए हैं  "।

 

यमराज तब बोले, महाराज आप देह से आश्रम में जरूर रहते थे पर आपका मन कोठे पर रहता था।घंटी यहां बजती थी,आरती आप यहां उतारते थे पर आपके कान नृत्यांगना के गीत संगीत पर लगे रहते थे। आपने भगवान की इतनी स्तुति नहीं की ,जितनी उस स्त्री के निंदा में डूबे रहते थे।

 

नृत्यांगना नाचती नाचती घनतनाड़की मधुर आवाज़ में इतना खो जाती ,जैसी वह मंदिर में ठाकुर जी के सामने नाच रही हो।वह लोगों के सामने नाचती थी पर अंतर्मन में पछताती थी।पुण्य के अभिमान कि अपेक्षा पाप का पछतावा कल्याण करने वाला होता है।इसलिए उसे विष्णु दूत लेने आए ।

 

सही में ईश्वर प्राप्ति का मार्ग वहीं से शुरू होता है जहां आप खड़े हो।