रसोई डॉ ममता जैन रसोई बनाना ही नहीं रसोई में बनना भी सीखती है औरत दाल -चावल ,सब्जी- रोटी तरह-तरह के व्यंजनों के बीच ढलता है /बनता है /पकता है उसका व्यक्तित्व भी सांचे में इन बर्तनों को नापते-तौलते हाथ में लेते लेते जान गई हैं देखते ही पहचानना किसी भी धारिता /क्षमता और उपादेयता आग से खेलना उसे सहज लगता हैं आँच झेलने में उसे तपिश नहीं लगती अकेले सुनसान में भी रम जाती है रसोई घर में एक औरत यही उसके अंतरंग में दाल की तरह प्रेशर कुकर में चुपचाप खदबदाती रहकर उसकी भावनाएं पकती है पर जानती है वह तपिश जब एक निश्चित तापमान ले लेगी तब देगी एक सीटी और जगा देगी पूरा परिवेश पूरा परिवार उबलते चावलों के भिगोने में उसने हमेशा एक चावल देखा है और पूरे भिगोने के चावलों की नीयत भाँप ली है /पहचान ली है इसलिए रसोई के बीच बैठी औरत को असहाय /अबला / अशक्त समझना नितांत भूल है रसोई में उसने खड़ा होना भी सीख लिया है और अपने जीवन का नया इतिहास स्वयं अपनी कलम से लिख दिया है। |
रसोई
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