दादी पोती

















*दादी पोती*

 

*"अम्मा मैं सुषमा और डॉली के साथ मॉल जा रहा हूं तुम घर का ख्याल रखना*

 

*" ठीक है बेटा.  तुम जाओ वैसे भी मेरे पैर में दर्द हो रहा है मैं मॉल में नही जाना चाहती तुम लोग जाओ* 

 

*" दादी आपको भी मॉल चलना पड़ेगा" 10 साल की पोती डॉली बोली ...*

 

*" तुम्हारी दादी मॉल में सीढियां नही चढ़ सकती उन्हें escalator चढ़ना भी नही आता.  और कयुंकि वहां कोई मंदिर नही है इसलिए दादी का मॉल जाने में कोई interest नही है वो सिर्फ मंदिर जाने में interested रहती हैं"  बहू सुषमा अपनी बेटी डॉली से बोली।* 

 

*इस बात से दादी सहमत हो गई पर उनकी पोती डॉली जिद पर अड़ गई की वो भी मॉल नही जाएगी अगर दादी नही चली, यद्यपि दादी कह चुकी थीं कि वो मॉल जाने में interested नही है।*

 

*अंत मे 10 साल की पोती के सामने दादी की नही चली और वो भी साथ जाने को तैयार हो गई, जिसपर पोती डॉली बहुत खुश हो गई*

 

*पिता ने सबको तैयार हों जाने को कहा। इससे पहले की मम्मी पापा तैयार होते सबसे बुजुर्ग दादी और सबसे छोटी लड़की तैयार हो गए।* 

 

*पोती दादी को बालकनी में ले गई और  पोती ने एक फिट की दूरी से दो लकीर चाक से बना दी*  

 

*पोती ने दादी से कहा कि ये एक गेम है और आपको एक पक्षी की acting करनी है*

 

 *आपको एक पैर इन दो लाइन्स के बीच मे रखना है और दूसरा पैर 3 ऊंच ऊपर उठाना है* 

 

*ये क्या है बेटी?, दादी ने पूछा, ये bird game है मैं आपको सिखाती हूं*

 

*जब तक पापा कार लाये तब तक दादी पोती ने काफी देर ये गेम खेला*

 

*वो मॉल पहुंचे और जैसे ही वो escalator के पास पहुंचे, मम्मी पापा परेशान हो गए कि दादी कैसे escalator में चलेंगी।*  

 

*पर मम्मी पापा आश्चर्यचकित रह गए जब उन्होंने देखा कि दादी आराम से escalator में सीढ़ियां चढ़ रही थी और बल्कि पोती दादी escalator में बार बार ऊपर नीचे जाकर खूब मज़े ले रहे थे (दरअसल पोती ने दादी से कह दिया था कि यहां पर दादी को वोही Bird Game खेलना है दादी ने अपना दायां पैर उठाना है और एक चलती हुई सीढी पर रखना है और फिर बायां पैर 3 इंच उठाकर चलती हुई अगली सीढ़ी पर रखना है)* 

 

*इस तरह दादी आसानी से escalator पर चढ़ पा रही थी और दादी पोती खूब बार escalator में ऊपर नीचे जाकर मज़े भी ले रही थीं*  

 

*उसके बाद वो पिक्चर हॉल गए जहां अंदर ठंडा था तो पोती ने चेहरे पर एक शरारतपूर्ण मुस्कान के साथ अपने बैग से एक शाल निकालकर दादी को उढ़ा दिया की वो पहले से तैयारी के साथ आई थी* 

 

*Movie के बाद सब रेस्टारेंट में खाना खाने गए. बेटे ने अपनी माँ (डॉली की दादी) से पूछा कि आपके लिए कौन सी डिश order करनी है*  

 

*पर डॉली ने पापा के हाथ से menu झपटकर जबरन अपनी दादी के हाथ मे  दे दिया कि आपको पढ़ना आता है आप ही पढ़ कर deside कीजिये कि क्या खाना order करना है दादी ने मुस्कुराते हुए items फाइनल किये की क्या order करना है*

 

*खाने के बाद दादी और पोती ने video games खेले जो घर मे वो पहले ही खेलते थे*

 

*घर के लिए निकलने के पहले दादी वॉशरूम गई तो उनकी अनुपस्तिथि का फायदा उठा कर पापा ने बेटी से पूछ लिया कि तुम्हे दादी के बारे में इतना कैसे पता है जो बेटा होते हुए मुझे पता नही है?*

 

*तपाक से जवाब आया कि पापा जब आप छोटे से थे तो आपको घर मे नही छोड़ते थे और आपको घर से बाहर ले जाने के पहले आपकी मां कितनी तैयारी करती थीं? दूध की बोतलें, diapers, आपके कपड़े, खाने पीने का समान??*     

 

*आप क्यों सोचते हैं कि आपकी मां को सिर्फ मंदिर जाने में रुचि है उनकी भी वोही साधारण इच्छाएं होती हैं कि मॉल में जाएं सबके साथ खूब मज़ा करे खाएं पियें, पर बुजुर्गों को लगता है कि वो साथ जाकर आपके मज़े को किरकिरा करेंगे, इसलिए वो खुद पीछे हट जाते हैं और अपने दिल की बात ज़ुबा पर नही ला पाते।* 

 

*पिता का मुंह खुला का खुला रह गया हालांकि वो खुश थे कि उनकी 10 साल की बिटिया ने उन्हें कितना नया और सुंदर पाठ पढ़ाया* 

 

*कृपया ये पाठ अपने परिवार और दोस्तो में ज़रूर प्रेषित कीजिये अगर आप उन्हें चाहते हैं* 

 

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कोरोना और हमारे अनुभव






कोरोना और हमारे अनुभव

 

 

                कोरोना वायरस के कारण पूरी दुनिया संक्रमित हो गई है ।इस कारण भारत में लॉक डाउन से जिंदगी जिससे ठहर सी गई है ।जो जहां है वहीं रुक गया है। ऐसा लगता है कि यही वास्तविक जीवन है  ।लोग पता नहीं क्यों  जीवन को जीने के लिए इतनी भागम भाग करते हैं  । हर समय यही शिकायत रहती थी कि हमारे पास में समय ही नहीं है ना किसी को फोन करने का ,ना किसी से बात करने का, ना किसी से मिलने का। मैं स्वयं भी नौकरी होने के कारण हमेशा  यही अनुभव करती कि अपने पास में समय ही नहीं है  अपने लोगों के लिए  परंतु अब हम सब अपने घरों में कैद हो गए हैं मैंने अनुभव किया कि अपने घरों में रहकर तथा सामाजिक दूरी बनाकर ही कोरोनावायरस को हराया जा सकता है ।घर में रहकर मुझे भी कुछ इस प्रकार के रचनात्मक अनुभव हुए यही वह मौका है और समय है जब हम अपने अपनों को समय दे सकते हैं ।जैसे पहले कभी अपने गार्डन से कोयल की आवाज नहीं सुनी पर अभी सुबह सुबह के समय कोयल की मीठी आवाज तथा पक्षियों की चहचहाहट सुनाई दी तथा दोपहर में भी कोयल की मीठी आवाज सुनाई देती है। हवा में भी एक ताजगी का अनुभव होता है तथा ऐसा लगता है कि यह हवा हमें एक अच्छे और नए जीवन को जीने की प्रेरणा दे रहे हैं ।मेरा घर मुख्य सड़क पर ही हैं जो सड़क दिन भर गाड़ियों की आवाजाही से भरी हुई रहती थी ।अब वह सुनसान दिखाई देती हैं तथा किसी प्रकार का गाड़ियों की आवाजाही भी उस पर नहीं दिखाई देता है । जैसे सड़के भी अब ठंडी सांस ले रही हैं ।

                 घर के वातावरण में भी एक नया परिवर्तन देखने को मिला है जैसे एक  प्रकार का  अनुशासन  आ गया घर में ।घर में भी सभी सदस्य एक साथ बैठकर रामायण कथा महाभारत देखने का आनंद उठा रहे हैं और हमारी भाभी पीढ़ी  को भी  हमारे पौराणिक इतिहास को जानने का एक मौका मिला। और ऐसा लगता है जैसे पहले वाला समय वापस आ गया है ।जब सभी घर में रहकर एक-दूसरे का हाथ बताते हुए तथा एक दूसरे के प्रसन्ना नापसंद का ख्याल रखते हैं ।एक साथ बैठकर भोजन करते हैं । पापा मम्मी अपने पुराने समय की  बातें तथा अनुभव बताते हैं जिन्हें हम  बैठकर ध्यान से सुनते हैं ।चारों ओर वातावरण शांत मैं मैंने अच्छा अनुभव करते हुए लेखन कार्य किया ।इसमें महिलाओं से संबंधित लेख तथा कोरोनावायरस लेख और कविता आलेखन भी किया तथा पृथ्वी दिवस पर राजस्थान पत्रिका में  दो आलेख का प्रकाशन हुआ ।कहते हैं मन शांत हो तो अच्छा सोच पाते हैं और अच्छा लिख पाते हैं। यहअनुभव मैंने इस समय लिया । लॉक डाउन में चैत्र नवरात्रि भी आई जिसमें माता जी का पाठ करते हुए उनके और नजदीक जाने का अनुभव प्राप्त हुआ तथा ऐसा लगा जैसे कि वह साक्षात हमें शक्ति तथा ऊर्जा प्रदान कर रही हैं  ,कोरोना से लड़ने के लिए ।यह एक ऐसा समय है जिसको सकारात्मक रूप से लेकर अध्यात्म के क्षेत्र में मैं आगे बढ़ी तथा गीता का अध्ययन भी इसमें किया जिससे जीवन की वास्तविकता का अनुभव प्राप्त हुआ ।और यह अनुभव किया कि जिस प्रकार गीता में कहा गया है कि हमें कर्म करते जाना चाहिए तथा फल की इच्छा नहीं रखनी चाहिए ठीक उसी प्रकार से कोरोना को हराने के लिए हमें लॉक डाउन में रहकर अपना कर्म करते रहना चाहिए निश्चित रूप से हमें अच्छा फल प्राप्त होगा।

             इस समय में मैं प्रकृति के साथ भी अंतर्मन से जुड़ गई। मैंने 3 नए पौधे लगाए और जब उन पौधों में पत्तियां प्रस्फुटित हुई तो मुझे अत्यंत ही प्रसन्नता का अनुभव हुआ जैसे कोई छोटा बच्चा बड़ा हो रहा है और मैं उनका रोज पानी पिलाने का भी ध्यान रखती हूं साथ ही बगीचे में आने वाले पक्षियों के लिए पानी पीने की भी और दाने की भी व्यवस्था की ताकि वहां भी इसी प्रकार से परेशान ना हो। क्योंकि मनुष्य के लिए तो भोजन के पैकेट बनवा कर भी उन तक खाना पहुंचाया जा रहा है परंतु यह बेजुबान परिंदे जो किसी से कुछ कह नहीं सकते उनकी भूख को कौन पहचानेगा।

         

             डॉ दीपिका राव 

व्याख्याता बांसवाड़ा राजस्थान


 

 



 



ऑनलाइन विद्वत संगोष्ठी


पैसा









































💥पैसा

 

जब पैसा नहीं होता है ....

तो सब्जियां पका के खाता है....

 

जब पैसा आ जाता है तो ....

सब्जियां कच्ची खाता है.....

 

जब पैसा नहीं होता है ....

तो मंदिर में भगवान के दर्शन करने जाता है...

 

जब पैसा आ जाता है तो ....

इंसान भगवान को दर्शन देने जाता है....

 

जब पैसा नहीं होता है .....

तो नींद से जगाना पड़ता है.....

 

जब पैसा आ जाता है तो .....

नींद की गोली देके सुलाना पड़ता है......

 

जब पैसा नहीं होता है तो ...

अपनी बीवी को सेक्रेट्री समझता है....

लेकिन जब पैसा आ जाता है ....

तो सेक्रेट्री को बीवी समझने लगता है।।

 

अजीब है ये पैसा....☑☑

 

हंस जैन              


 

 



 



 













 











 

 








 

 







 







 




 





 




 



 



 


 


 














 

 





 

 





 





 


 



मज़दूरी इनकी मजबूरी








































मज़दूरी इनकी मजबूरी

 

 

'मज़दूरी इनकी मजबूरी' एक विवादास्पद विषय है, जो अनेक प्रश्नों व समस्याओं को जन्म देता है। अनगिनत पात्र मनोमस्तिष्क में ग़ाहे-बेग़ाहे दस्तक देते हैं, क्योंकि लम्बे समय तक मुझे इनके अंग-संग रहने का अवसर प्राप्त हुआ है। यह पात्र कभी लुकाछिपी का खेल खेलते हैं; कभी करुणामय नेत्रों से निहारते हैं; कभी व्यंग्य करते भासते हैं– मानो विधाता के न्याय पर अंगुली उठा रहे हों। 

 

---कैसा न्याय है यह? जब सृष्टि-नियंता ने सबको समान बनाया है--- सब में एक-सा रक्त प्रवाहित हो रहा...तो हमसे दोयम दर्जे का व्यवहार क्यों? एक ओर बड़ी-बड़ी अट्टालिकायों में रहने वाले लब्ध- प्रतिष्ठित धनी लोग और दूसरी ओर झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले, खुले आकाश के नीचे ज़िन्दगी बसर करने वाले लोगों में इतनी असमानता क्यों? हमारे देश में इंडिया और भारत में वैषम्य क्यों... ये प्रश्न अंतर्मन को निरंतर कचोटते हैं तथा अत्यंत चिंतनीय, व विचारणीय हैं। जब हम मासूम बच्चों को मज़दूरी करते देखते हैं; तो आत्मग्लानि होती है। ढाबे पर बर्तन धोते; चाय व खाना परोसते, रैड लाइट पर गाड़ियां साफ करते; फल-फूल, खिलौने आदि खरीदने का अनुरोध करते; सड़क किनारे अपने छोटे भाई-बहिन का ख्याल रखते; जूठन को देख अधिक पाने के निमित्त एक-दूसरे पर झपटते-झगड़ते, मरने -मारने पर उतारू नंग-धड़ंग बच्चों को देख हृदय में उथल-पुथल ही नहीं होती, एक आक्रोश फूट निकलता। इतना ही नहीं, रेलवे स्टेशन पर बूट- पालिश करते; ट्रेन में अपनी कमीज़ से कंपार्टमेंट की सफाई करते व कंधे पर अखबार व मैगज़ीन का भारी-भरकम बोझ लादे बच्चों को देख, उनकी ओर ध्यान स्वतः आकर्षित हो जाता और हृदय उनकी मजबूरी के बारे में जानने को आतुर-आकुल हो, प्रश्नों की बौछार लगा देता है। बालपन में इन दुश्वारियों से जूझते मासूम बच्चों की अंतहीन पीड़ा व अवसाद के बारे में जानकर हृदय द्रवित हो जाता...कलेजा मुंह को आता। परंतु हम उनके प्रति सहानुभूति प्रकट करने के अतिरिक्त कुछ कर पाने में, स्वयं को विवश, असमर्थ व असहाय पाते हैं।

 

मुझे स्मरण हो रही है– एक ऐसी ही घटना, जब मैं गुवाहाटी की ओर जाने वाली ट्रेन की प्रतीक्षा में दिल्ली रेलवे-स्टेशन पर बैठी थी। सहसा बच्चों के एक हुजूम को वेश-भूषा बदलते; स्वयं को मिट्टी से लथपथ करते; घाव दर्शाने हेतु रंगीन दवा व मरहम लगाते; एक जैसी टोपियां ओढ़ते देख... मैं अपनी भावनाओं पर नियंत्रण नहीं रख पायी और एक बच्चे से संवाद कर बैठी। परंतु वह मौन रहा और थोड़ी देर के पश्चात् एक व्यक्ति उन सब के लिए भोजन लेकर आया। भोजन करने के पश्चात् वे अपने-अपने गंतव्य की ओर बढ़ गए तथा उस बच्चे ने मेरी जिज्ञासा के बारे में अपने मालिक को जानकारी दी। वह मुझे देर तक घूरता रहा... मानो देख लेने की अर्थात् अंजाम भुगतने को तैयार रहने की चेतावनी अथवा धमकी दे रहा हो...और चंद मिनट बाद ही मुझे उसका ख़ामियाज़ा भुगतना पड़ा।

 

बच्चे ट्रेन के अलग-अलग डिब्बों में सवार हो गए। परंतु उस गैंग के बाशिंदों ने मुझे ट्रेन में नहीं चढ़ने से बहुत समय तक रोके रखा। चार-पांच लोग, जिनमें एक युवती भी थी... वे सब ए•सी• कंपार्टमेंट के दरवाज़े के बीच रास्ता रोक कर खड़े हो गए और बड़ी ज़द्दोज़हद के पश्चात् मैं उनके व्यूह को तोड़, भीतर प्रवेश पाने में सफल हो पायी। मुझे सीट पर पहुंचने में भी उतनी ही कठिनाई का सामना करना पड़ा। टी•टी• के आने के पश्चात् मैंने टिकट निकालने के लिए जैसे ही पर्स में हाथ डाला, मैं सन्न रह गयी। मेरा मोबाइल व पैसे पर्स से ग़ायब हो चुके थे। ट्रेन  चलने के कारण मैं कोई कार्यवाही भी नहीं कर सकती थी, क्योंकि जहां घटना घटित होती है; शिकायत भी वहीं दर्ज कराई जा सकती है। इस बीच  वे लोग अपने मिशन को अंजाम देकर उस डिब्बे से रफू-चक्कर हो चुके थे।

 

मैं हैरान-परेशान-सी पूरा रास्ता यही सोचती रही... कितने शातिर हैं वे लोग...जो इन बच्चों से भीख मांगने का धंधा करवाते हैं और यह बच्चे भी डर के मारे उनके इशारों पर नाचते रहते हैं। यह भी हो सकता है कि इनके माता-पिता इन कारिंदों से, रात को बच्चों की एवज़ में पैसा वसूलते हों। वैसे भी आजकल छोटे बच्चों को तो शातिर महिलाएं किराए पर ले जाती हैं ...अपना धंधा चलाने के निमित्त और रात को उनके माता-पिता को लौटा जाती हैं... दिहाड़ी के साथ। जहां तक दिहाड़ी का संबंध है, बच्चों व महिलाओं को कम पैसे देने का प्रचलन तो आज भी बदस्तूर जारी हैं। वैसे भी बाल मज़दूरी तो दण्डनीय कानूनी अपराध है। परंतु इन बच्चों के सक्रिय योगदान के बिना तो बहुत से लोगों का धंधा चल ही नहीं सकता।

 

सुबह जब बच्चे, कंधे पर बैग लटकाए, स्कूल बस या कार में यूनीफ़ॉर्म पहनकर जाते हैं, तो इन मासूमों के हृदय का आक्रोश सहसा फूट निकलता है और वे अपने माता-पिता को प्रश्नों के कटघरे में खड़ा कर देते हैं। वे उन्हें स्कूल भेजने की अपेक्षा; उनके हाथ में कटोरा थमाकर भीख मांगने को क्यों भेज देते हैं? उनके साथ यह दोग़ला व्यवहार क्यों?

 

माता-पिता भाग्य व नियति का वास्ता देकर उन्हें समझाते हैं कि यह उनके पूर्व-जन्मों का फल है, सो! यह सब तो उन्हें सहर्ष भुगतना ही पड़ेगा। परंतु बच्चों को उनके उत्तर से संतोष नहीं होता। उनके कोमल मन में समानाधिकारों व व्यवस्था के प्रति आक्रोश उत्पन्न होता है और वे उन्हें आग़ाह करते हैं कि वे भविष्य में कूड़ा बीनने व भीख मांगने नहीं जायेंगे और न ही मेहनत-मज़दूरी करेंगे। वे भी शिक्षा प्राप्त करना चाहते हैं; उन जैसा जीवन जीना चाहते हैं। जब भगवान ने सबको समान बनाया है, तो हमसे यह भेदभाव क्यों? इस स्थिति में उनके माता-पिता मासूम बच्चों के प्रश्नों के सम्मुख निरुत्तर हो जाते हैं।

 

चलिए! रुख करते हैं–घरों में काम करने वाली बाईयों की ओर...जिन्हें उनके परिचित सब्ज़बाग दिखा कर दूसरे प्रदेशों से ले आते हैं और उन्हें बंधक बना कर रखा जाता है। चंद दिनों देह-व्यापार के धंधे में धकेल दिया जाता है; जहां उनका भरपूर शोषण होता है और वे नारकीय जीवन ढोने को विवश होती हैं। हां! कुछ नाबालिग़ लड़कियों को वे दूसरों के घरों में काम पर लगा देते हैं; जिसकी एवज़ में वे मोटी रकम वसूलते हैं। ग्यारह महीने तक वे उस घर में दिन-रात काम करती हैं। परन्तु जब वे घर छोड़ कर, चंद दिनों के लिए अपने गांव लौटती हैं, तो बहुत उदास होती हैं...भले ही काम करना इनकी मजबूरी होता है। परंतु धीरे-धीरे वे मालकिन की भांति व्यवहार करने लगती हैं, जिसका ख़ामियाज़ा घर के बुज़ुर्गों को ग़ाहे-बेग़ाहे अपने आत्म-सम्मान को दांव पर लगा कर चुकाना पड़ता है, क्योंकि वे तो अनुपयोगी अर्थात् बोझ होते हैं। सारे घर का दारोमदार तो उन काम वाली बाईयों के कंधों पर होता है और वे तो घर-परिवार के लिए प्राण-वायु सम होती हैं। सो! आजकल तो इनकी मांग ज़ोरों पर है। इसलिए वे बहुत  अधिक भाव खाने लगी हैं।

 

परंतु कई घरों में तो उनका शोषण किया जाता है। दिन-रात काम करने के पश्चात् उन्हें पेट-भर भोजन भी नहीं दिया जाता। साथ ही उन्हें बंधक बनाकर रखा जाता है; मारा-पीटा जाता है और शारीरिक- शोषण तक भी किया जाता है। अक्सर उनकी तनख्वाह भी वे कारिंदे वसूलते रहते हैं। सो! वे मासूम तो अपनी मनोव्यथा किसी से कह भी नहीं सकतीं। जुल्म सहते-सहते, तंग आकर वे भाग निकलती हैं और आत्महत्या तक कर लेती हैं। सो! आजकल तो एजेंटों का यह धंधा भी खूब पनप रहा है। वे लड़की को किसी के घर छोड़ कर साल-भर का एडवांस ले जाते हैं और चंद घंटों बाद, अवसर पाकर वह लड़की अपने साथ कीमती सामान व नकदी लेकर भाग निकलती है। मालिक बेचारे पुलिस-स्टेशन के चक्कर लगाते रह जाते हैं, क्योंकि उनके पास तो उनका पहचान-पत्र तक भी नहीं होता। वहां जाकर उन्हें आभास होता है कि वे ठगी के शिकार हो चुके हैं। सो! उस स्थिति वे प्रायश्चित्त करने के अतिरिक्त कर ही क्या सकते हैं।

 

परंतु बहुत से बच्चों के लिए मज़दूरी करना, उनकी मजबूरी बन जाती है... विषम पारिवारिक परिस्थितियों व आकस्मिक आपदाओं व किसी अनहोनी के घटित हो जाने के कारण; उन मासूमों के कंधों पर परिवार का बोझ आन पड़ता है और वे उम्र से पहले बड़े हो जाते हैं। यदि उन्हें मज़दूरी न मिले, तो असामान्य परिस्थितियों में परिवार-जन ख़ुदकुशी तक करने को विवश हो जाते हैं। इसलिए भीख मांगने के अतिरिक्त उनके सम्मुख दूसरा विकल्प शेष नहीं रहता। परन्तु कुछ बच्चों में आत्म-सम्मान का भाव अत्यंत प्रबल होता है। वे मेहनत-मज़दूरी करना चाहते हैं, क्योंकि भीख मांगना उनकी फ़ितरत नहीं होती और उनके संस्कार उन्हें झुकने नहीं देते।

 

चंद लोग क्षणिक सुख के निमित्त अपनी संतान को जन्म देकर सड़कों पर भीख मांगने को छोड़ देते हैं। अक्सर वे बच्चे नशे के आदी होने के कारण अपराध जगत् की अंधी गलियों में अपना जीवन नष्ट कर लेते हैं। वे समाज में अव्यवस्था व दहशत फैलाने का उपक्रम करते हैं तथा वे बाल-अपराधी रिश्तों को दरकिनार कर, अपने माता-पिता व परिवारजनों के प्राण तक लेने में लेशमात्र भी संकोच नहीं करते। लूटपाट, फ़िरौती, हत्या, बलात्कार, अपहरण आदि को अंजाम देना इनकी दिनचर्या में शामिल हो जाता है। मुझे ऐसे बहुत से बच्चों के संपर्क में रहने का अवसर प्राप्त हुआ। लाख प्रयास करने पर भी मैं उन्हें बुरी आदतों से सदैव के लिए मुक्त नहीं करवा पाई। ऐसे लोग वादा करके अक्सर भूल जाते हैं और फिर उसी दल-दल में लौट जाते हैं। उनके चाहने वाले दबंग लोग उन्हें सत्मार्ग पर चलने नहीं देते, क्योंकि इससे उनका धंधा चौपट हो जाता है।

 

'मज़दूरी इनकी मजबूरी' अर्थात् ऐसे सत्पात्रों पर विश्वास करना कठिन हो गया है, क्योंकि आजकल तो सब मुखौटा धारण किए हुए हैं। अपनी मजबूरी का प्रदर्शन कर लोगों की सहानुभूति अर्जित कर, उनकी भावनाओं से खिलवाड़ कर उन्हें लूटना... उनका पेशा बन गया है। वे बच्चे; जिन्हें मजबूरी  के कारण मज़दूरी करनी है– सचमुच वे करुणा के पात्र हैं। समाज के लोगों व सरकार के नुमाइंदों को उनकी सहायता-सुरक्षा हेतु हाथ बढ़ाने चाहिएं, ताकि स्वस्थ समाज की संरचना संभव हो सके और हर बच्चे को शिक्षा का मौलिक अधिकार प्राप्त हो सके... मानव- मूल्यों का संरक्षण हो सके तथा संबंधों की गरिमा बनी रहे। स्नेह, प्रेम, सौहार्द, सहयोग,परोपकार, सहनशीलता, सहानुभूति आदि दैवीय गुणों का समाज में अस्तित्व कायम रह सके। इंसान के मन में दूसरे की मजबूरी का लाभ उठाने का भाव कभी भी जाग्रत न हो और समाज में समन्वय, सामंजस्य व समरसता का साम्राज्य हो। मानव स्व-पर और राग-द्वेष से ऊपर उठकर एक अच्छा इंसान बन सके।

 

अंत में मैं यही कहना चाहूंगी, यदि हम सब मिलकर प्रयासरत रहें और एक बच्चे की शिक्षा का दायित्व- निर्वहन कर लें, तो हम दस में से एक बच्चे को अच्छा प्रशासक, अच्छा इंसान व अच्छा नागरिक बना पाने में सफलता प्राप्त कर सकेंगे और शेष बच्चे भले ही जीवन की सुख-सुविधाएं जुटाने में सक्षम न हों;  शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् आत्म- सम्मान से जीना सीख जाएंगे और अपराध-जगत् की अंधी गलियों में भटकने से बच पायेंगे। निरंतर अभ्यास, अथक परिश्रम व निरंतर प्रयास के द्वारा, हमारा  मंज़िल पर पहुंचना निश्चित है। सो! हमें इस मुहिम को आगे बढ़ाना होगा, जैसा कि हमारी सरकार इन मासूम बच्चों के उत्थान के लिये नवीन योजनाएं प्रारम्भ कर रही है; जिसके अच्छे परिणाम हमारे समक्ष हैं। परंतु सकारात्मक परिणामों की प्राप्ति के लिए संविधान में संशोधन करना अपेक्षित व अनिवार्य है। हमें जाति-विशेष को प्रदत्त आरक्षण सुविधा को समाप्त करना होगा; जिसे संविधान के अनुसार केवल दस वर्ष के लिए दिया जाना सुनिश्चित किया गया था। परंतु हम आज तक वैयक्तिक स्वार्थ व लोभ-संवरण के विशेष आकर्षण व मोह के कारण उससे निज़ात नहीं पा सके हैं। सो! हमें अच्छी शिक्षा-प्राप्ति व जीवन-स्तर उन्नत करने के निमित्त, उन्हें आर्थिक-सुविधाएं प्रदान करनी होंगी, ताकि उनमें हीन-भावना घर न कर सके। देश की अन्य प्रतिभाओं को भी प्रतियोगिता में योग्यता के आधार पर समान अवसर प्रदत्त हों और प्रतिस्पर्द्धा में निर्धारित अहर्ताओं के मापदंडों पर सब खरे उतर सकें तथा जाति-पाति के भेदभाव को नकार, वे भी  सिर उठा कर कह सकें…'हम भी किसी से कम नही।' 

 

                                            

                         डॉ• मुक्ता

                         माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।


 

 



 



 





 









 

 








 

 







 







 




 





 




 



 



 


 


 














 

 





 

 





 





 


 



धंधे में भी धरम था 








































धंधे में भी धरम था 

 

ब्र ० त्रिलोक जैन 

 

धंधे में भी धरम था 

सतयुग का वो करिश्मा 

अब धर्म भी है धंधा 

है कलयुग का कारनामा 

मां-बाप की थी पूजा 

वह सतयुग का करिश्मा 

मां बाप है उपेक्षित 

है कलयुग का कारनामा 

सोना चांदी हीरा मोती 

रत्नों की थी  प्रतिष्ठा 

काँच पीतल चमक रहा है

यह कलयुग का कारनामा 

गौ माता घर की शोभा

वह सतयुग का करिश्मा 

अब गाय है उपेक्षित 

है कलयुग का कारनामा 

पड़ोसी भी था अपना 

वह सतयुग का करिश्मा 

अब भाई भी है भूखा 

है कलयुग का कारनामा 

तप त्याग शील संयम 

पाते थे वह प्रतिष्ठा 

पाखंड ढोंग पुजता 

है कलयुग का कारनामा 

तांबा पीतल बर्तन 

सतयुग की थी वो शोभा

स्टील, कांच बर्तन 

कलयुग का कारनामा 

सीता ,सोमा,चंदना 

सतयुग की थी वो पूजा 

अब चरित्र हीनता में रुचि 

कलयुग का है कारनामा 

घी दूध दही मक्खन 

पाते थे शुभ प्रतिष्ठा

सुरा सुंदरी मदहोशी 

है कलयुग का कारनामा 

समयानुकूल मौसम 

सतयुग का था करिश्मा

प्रकृति अब कुपित है 

कलयुग का यह कारनामा 

 


 

 



 



 













 










 

 








 

 







 







 




 





 




 



 



 


 


 














 

 





 

 





 





 


 



व्यर्थ क्या है जग में






व्यर्थ क्या है जग में

 

हंस जैन 

 

एक ऋषि के पास एक युवक ज्ञान लेने पहुंचा।

ज्ञानार्जन के बाद उसने गुरु को दक्षिणा देनी चाही।

गुरु ने कहा,' मुझे दक्षिणा के रूप में ऐसी चीज लाकर दो जो बिल्कुल व्यर्थ हो।'

शिष्य गुरु के लिए व्यर्थ की चीज की खोज में निकल पड़ा।

उसने मिट्टी की तरफ हाथ बढ़ाया तो मिट्टी बोल पड़ी,'क्या तुम्हें पता नहीं है कि इस दुनिया का सारा वैभव मेरे ही गर्भ से प्रकट होता है? ये विविध वनस्पतियां, ये रूप, ये रस और गंध सब कहां से आते हैं?'

यह सुन शिष्य आगे बढ़ गया।

थोड़ी दूर जाकर उसे एक पत्थर मिला। शिष्य ने सोचा- क्यों न इस बेकार से पत्थर को ही ले चलूं।

लेकिन उसे उठाने के लिए उसने जैसे ही हाथ आगे बढ़ाया पत्थर से आवाज आई,'तुम इतने ज्ञानी होकर भी मुझे बेकार मान रहे हो। बताओ तो, अपने भवन और अट्टालिकाएं किससे बनाते हो? तुम्हारे मंदिरों में किसे गढ़कर देव प्रतिमाएं स्थापित की जाती हैं? मेरे इतने उपयोग के बाद भी तुम मुझे व्यर्थ मान रहे हो।'

यह सुनकर शिष्य ने फिर अपना हाथ खींच लिया।

अब वह सोचने लगा- जब मिट्टी और पत्थर तक इतने उपयोगी हैं तो फिर व्यर्थ क्या हो सकता है?

तभी उसके मन से एक आवाज आई। उसने गौर से सुना। आवाज कह रही थी-'सृष्टि का हर पदार्थ अपने आप में उपयोगी है? वास्तव में व्यर्थ और तुच्छ तो वह है जो दूसरों को व्यर्थ और तुच्छ समझता है। व्यक्ति का अंहकार ही एकमात्र ऐसा तत्व है, जिसका कहीं कोई उपयोग नहीं होता।'

यह सुनकर शिष्य गुरु के पास आकर बोला,'गुरुवर, आपको अपना अहंकार गुरु दक्षिणा में देता हूं।' यह सुनकर गुरु बहुत खुश हुए !!

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हंस जैन               


 

 



 



अपने पुरुषार्थ पर भरोसा रख









































अपने पुरुषार्थ पर भरोसा रख

 

 कवि युगराज जैन

 

इन दिनों तू कुछ ज्यादा ही रहता है निराश ,

शायद डरता है कि कहीं टूट न जाये आस ,

रोज नई-नई घटनाएं सुन तू सपनों में भी 

दुर्घटनाओं का होता जा रहा शिकार ,

इतने महीनें से लॉकडाऊन है कैसे चलेगा व्यापार ,

 

नौकरी छूट गई , रोज कमाता था, 

रोज खाता था ,

अब क्या करूँगा, कैसे रोजी -रोटी कमाऊँगा ,

मैं बीमार पड़ा तो क्या मैं भी मर जाऊँगा ,

 

बच्चों का क्या होगा कौन उन्हें पढ़ायेगा ,

परिवार का गुजारा कैसे चल पायेगा ,

मेरा इतना बड़ा साम्राज्य है इसे भला कौन चलायेगा ,

सबके दर्द अपने-अपने है,

अपने अपने  सपने है इत्यादि सवालात ,

मस्तिष्क में भटकते कई खयालात ,

तुझे सताते हैं , उलझाते हैं ,

 

तू रात - रात भर अब सोता नहीं, घबराता है ,

परिजनों को भी ऐसी बातें कर करके तू डराता है ,

मतलब स्पष्ट है तुझे भरोसा नहीं है भगवान पर ,

अपने भीतर बैठे नेक इंसान पर , अपने ईमान पर ,

 

तुझे शक है अपने पुरुषार्थ पर ,जिंदगी के यथार्थ पर ,

अरे पगले एक -एक पल का परिणाम तय है ,

उसकी निश्चित वय है ,

तेरे सोचने से या अपनी तकदीर को कोसने से ,

कभी समस्याओं का होगा नहीं अंत ,

उलटे बढ़ जायेगी अनन्त ,

 

बस मन को बना दे महंथ ,

अपने भीतर व बाहर अच्छी सोच

 व अच्छे विचारों का खिला दे बसंत ,

फिर देखना तेरी जिंदगी सदा गुलजार रहेगी ,

पतझड़ कभी नहीं , सदा बहार रहेगी ,

बस तू हिम्मत मत हारना ,पुरुषार्थ को कभी मत मारना , 

 

सकारात्मक सोच की राह पर जिंदगी को लेकर चलना ,

तू फिजूल के जाल के जंजाल से बाहर निकलना ,

सदा बहाते रहना होठों से मुस्कुराहटों का झरना ,

नीडर नेक व परोपकारी बनकर जीवन जीते रहना,

 

तू सिर्फ  इतना सोच जब जब 

जो जो होना है ,तब तब सो सो होता है , 

फिर तू किस बात पर रोता है ।

क्यो अनमोल जिन्दगी को 

व्यर्थ की चिंता  में  खोता है।

 कवि युगराज जैन


 

 



 



 













 











 

 








 

 







 







 




 





 




 



 



 


 


 














 

 





 

 





 





 


 



सच्चाई






सच्चाई

 

हर दिन एक नई सच्चाई से रूबरू होती हूँ 

 

खुलती है कितनी परतें , जब कुछ भीतर उतरती हूँ

 

अपनी ही धारणाएँ टूट के बिखरती है 

 

कुछ नए पैमाने के साथ नई सोच उभरती है

 

सत्य को जानने की खोज में कई झूठों से गुज़रती हूँ

 

समाधान की खोज में कितने प्रश्नों से स्वयं को झकझोरती हूँ

 

आनंद और उत्साह से इस सफ़र के हर मंजर को तकती  हूँ 

 

अपनी प्यास बुझाने को कितने सागर भटकती हूँ

 

प्रेम का दीप मन में प्रज्वलित कर अपनी राह प्रशस्त करती हूँ 

 

चल पड़ी हूँ कि मंज़िल  तक पहुँचने का हौसला रखती हूँ,

 

 मंज़िल तक पहुँचने का हौसला रखती हूँ।

 

शिल्पा भंडारी


 

 



 



जिंदगी








































जिंदगी

 

तेरा क्या नाम जिंदगी

तेरा क्या काम जिंदगी

'श्याम' सदा चलते रहें

तेरा क्या पैगाम जिंदगी

 

जैसा काटो वैसी जिंदगी

जैसा बाँटो वैसी जिंदगी

तेरे हाथ पतवार 'श्याम'

जैसा छांटो वैसी जिंदगी

 

 जिंदगी एक तराना है

जिंदगी एक फ़साना है

'श्याम'क्या तू समझा

जिंदगी एक ठिकाना है

 

जिंदगी एक गीत है

जिंदगी एक मीत है

'श्याम'इसे गाए जा

जिंदगी एक प्रीत है

 

क्या खाना है जिंदगी

क्या पीना है जिंदगी

इतना ही समझे 'श्याम'

क्या सोना है जिंदगी

 

चंद साँसों की सौगात जिंदगी

तेरे-मेरे मन की बात जिंदगी

हँस कर जी ले इसे' श्याम'

तारों भरी है रात जिंदगी

 

 जिंदगी है अमृत प्याला

पाएगा इसको मतवाला

'श्याम'जो जहर बने जिंदगी

कौन बनेगा फिर रखवाला

 

जिसको सबका प्यार मिला

प्रेम भरा व्यवहार मिला

'श्याम'धन्य हुई जिंदगी

अपनो का संसार मिला

 

 ईश्वर का वरदान जिंदगी

प्रभु का ज्ञान जिंदगी

अपने अंदर झांक 'श्याम'

यहाँ का मेहमान जिंदगी

 

कितना प्यारा परिवार

करते रहो परोपकार

'श्याम'जिंदगी दूसरों की

कितना सुदंर ये संसार

 

देश के लिए जीना जिंदगी

देश के लिए मरना जिंदगी

तिरंगे में जो लिपटे'श्याम'

देश के लिए पसीना जिंदगी

 

फूलों सा महकना जिंदगी

पंछियो सा चहकना जिंदगी

'श्याम'हर पल खूबसूरत

हवा सा बहकना जिंदगी

 

श्याम मठपाल, उदयपुर

 


 

 



 



 





 









 

 








 

 







 







 




 





 




 



 



 


 


 














 

 





 

 





 





 


 



विश्व परिवार*















 













 




















































 














विश्व परिवार 





 

 हम जिस दौर से गुज़र रहें इसने हमें यह जता दिया कि परिवार कि अहमियत क्या होती हैं..

एक *क़लमकार के लिए तो पुरा विश्व उसका परिवार होता है..तो बात *विश्व परिवार* की..!

 

मसला यह नहीं है की किस दौर से आज गुज़र रहें हैं हम..!

मुद्दा तो ये है की अपनी कितनी परवाह कर रहे हैं हम..!

 

शर्त सलीका हर एक उम्र और दौर में बहुत ही जरुरी है..!

जो इस दौर में ज़रुरी है तो घर में क्यों नहीं ठहर रहें हम..!

 

कोई खफ़ा कोई जुदा कोई गमज़दा उदास सी है फ़जा..!

कोई सदा के लिए बिछुड़  ना जाएं सोचकर डर रहे हैं हम..!

 

हर एक स्याह रात के दामन में उजाला सदा ही पलता हैं..!

इसी आरज़ू के साथ हर एक लह्म़ा बसर कर रहे हैं 

 

कमल सिंह सोलंकी

रतलाम मध्यप्रदेश


 

 



 



 













 










 

 








 

 







 







 




 





 




 



 



 


 


 














 

 





 

 





 





 


 



 





 





 


 



संक्रमण निवारण व विश्वशांति हेतु जैन समाज द्वारा अनूठा अनुष्ठान



 

इन्दौर। रविवार को कोरोना संक्रमण निवारण एवं विश्वशांति हेतु श्री दिगम्बर जैन गोलापूर्व युवा संस्कार समिति द्वारा जैन समाज के अध्यक्ष श्री डी.के. जैन के नेतृत्व में समाज के 111 परिवारों द्वारा 12 घंटे का णमोकार महामंत्र का अखण्ड पाठ किया गया। 12 घण्टे का अखण्ड पाठ, 111 परिवार और कफ्र्यू तथा सोश्यल डिस्टेंसिंग का पूर्ण रूपेण पालन करते हुए, बहुत ही सूझ-बूझ के साथ सभी परिवारों को अलग अलग समय के 10-10 मिनिट आवंटित किये गये, एक परिवार के निवास पर पाठ संपन्न हो उससे पहले ही अगला परिवार पाठ प्रारंभ कर देता, इस तरह महामंत्र का यह क्रम अखण्ड पाठ खण्डित भी नहीं हुआ और सभी परिवार अपने-अपने निवास से सम्मिलित भी होते गये। सभी के यहां मंगल कलश एवं दीपक की स्थापना हुई किन्तु अखण्ड दीप व कलश की स्थापना संगठन के यशस्वी अध्यक्ष श्री डी.के. जैन-श्रीमती माला जैन के घर पर हुई। समापन के समय इन्हीं के यहां महा आरती हुई। साथ-साथ सभी परिवारों के निवास पर भी इसी समय आरती हुई। इसी अवसर पर श्री दिगम्बर जैन गोलापूर्व समाज इंदौर ने मुख्यमंत्री राहत कोष हेतु 1,01,111 रु. एकत्रित कर मुख्यमंत्री राहतकोष में समर्पित करने हेतु निर्णय लिया। अध्यक्ष के साथ समाज के सचिव नरेन्द्र सेठ, मार्गदर्शक डाॅ. अरविंद जैन, युवा संस्कार समिति के अधयक्ष डाॅ.के. सी. जैन, सचिव सौरभ जैन, अभिनेश जैन गोम्मटगिरि आदि की संयोजना के साथ सभी ने बढ़-चढ़ कर अनुष्ठान किये। विशेष रूप से महासभा से सन्तोष जैन घड़ी परिवार सागर,

सुरेश जैन पूर्व आईएएस भोपाल, श्रीमती विमला जैन पूर्व जज भोपाल, हरीश-सुलेखा भोपाल ने सम्मिलित होकर हमें गौरवान्वित किया। समस्त आनुष्ठानिक कार्यक्रम डाॅ. महेन्द्र कुमार जैन ‘मनुज’ के निर्देशन में सम्पन्न हुए व कुशल सेयोजन संस्कार युवा समिति के सांस्कृतिक मंत्री अनिमेष जैन ने किया। अनेक समाजजनों अपनी शुभकामनाएं पे्रषित की हैं।

-डा. महेन्द्रकुमार जैन ‘मनुज’, इन्दौर


 

 

स्वदेशी








































स्वदेशी 

 

श्याम  मठपाल 

 

भारत को बचाना है, स्वदेशी को अपनाना है

अपनी माटी पुकार रही,भारत को उठाना है

 

 

उद्योग धंधे बंद हैं

सब फिक्रमंद हैं

मांग जो आने लगे

फिर चंद दिन हैं

 

हमे नहीं घबराना है, भारत को बचाना है

 

आओ खाएँ हम सपथ

स्वदेश के लिए है पथ

स्वदेशी को अपनाकर

अपनी ही होगी छत

 

दुनियाँ को दिखाना है,भारत को बचाना है

 

उपयोग जो भी हो

उपभोग जो भी हो

देश में ही बने

सहयोग जो भी हो

 

अपना अब जमाना है, भारत को बचाना है

 

उद्योग व्यापार चलेगा

सबको रोजगार मिलेगा

होंगे हम आत्मनिर्भर

देश का पैसा बचेगा

 

ये नया तराना है, भारत को बचाना है

 

मोबाइल या कार हो

घड़ी या औजार हो

सब वस्तु यहीं बनें

अपना कारोबार हो

 

नहीं हमें घबराना है, भारत को बचाना है

 

विदेशियों ने हमको लूटा

गर्दिश में हमसे रूठा

गुलाम बनाने की साजिश

अब उनका भरोसा टूटा

 

सबको ये बतलाना है, भारत को बचाना है

 

हर हाथ को काम मिले

हर हुनर को दाम मिले

बुद्धि-बल में हैं अनुपम

आत्म-बल का पैगाम मिले

 

ढूंढना हमें खज़ाना है, भारत को बचाना है

 

आई ये संकट की घड़ी

चुनौती ये बहुत बड़ी

अब जागो देशप्रेमी

तोड़ दो परतंत्र कड़ी

 

सबको ही समझाना है, भारत को बचाना है

 

देश में बना सामान हो

अपना स्वाभिमान हो

सुई से लेकर प्लेन तक

हर दिल में हिंदुस्तान हो

 

अब न कोई बहाना है, भारत को बचाना है

 

न खरीदें न बेचेंगे

भारत की ही सोचेंगे

परित्याग विदेशी वस्तु का

इच्छाओं को हम रोकेंगे

 

नया सपना जगाना है, भारत को बचाना है  ।

 

श्याम मठपाल, उदयपुर


 

 



 



 













 










 

 








 

 







 







 




 





 




 



 



 


 


 














 

 





 

 





 





 


 



भाषा-विज्ञान की छतरी में परिवार








































अंतरराष्ट्रीय परिवार दिवस पर विशेष आलेख :

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भाषा-विज्ञान की छतरी में परिवार -

 

कमलेश कमल

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मनुष्य जीवन के एक बुनियादी पहलू के रूप में परिवार की महत्ता और उपादेयता सर्वकालिक तथा सार्वभौम है। प्रागैतिहासिक काल से आज तक परिवार का स्वरूप मनुष्य और उसकी चेतना के अनुसार भले ही बदलता रहा हो, पर इसकी उपस्थिति तो निर्विवाद है ही। यही कारण है कि अगस्त कॉम्टे जब इसे समाज की आधारभूत इकाई कहते हैं, तब यह सर्वथा सम्यक् और सटीक प्रतीत होता है।

 

व्याकरणिक दृष्टि से देखें तो परिवार शब्द बना है- परि और वार से। परि उपसर्ग का अर्थ है- चारों ओर। वार शब्द बना है 'वारः' से। वारः स्वयं 'वृ' से बना है जो 'आवृत्ति' का सूचक है। इसी से 'वार' का अर्थ हुआ- 'दिन जो रोज़ आता है।' इसके आधार पर देखें, तो सब दिन एक साथ रहने वाले और एक-दूसरे से घिरे रहते वाले लोगों का समूह परिवार है। इसे ऐसे भी देख सकते हैं कि जो अपनी संस्कृति, सुविचार तथा मूल्य रूपी प्रकाश चारों ओर फैलाए, वह परिवार है।

 

परिवार को परिभाषित करते हुए श्रीराम शर्मा ने कहा- "समाज की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण इकाई परिवार होती है। पारिवारिक जीवन के विश्लेषण से समाज के स्वरूप की स्पष्ट झाँकी मिल जाती है।"

वैसे, तात्त्विक दृष्टिकोण से दुनिया भर में परिवार का कोई एक ही अर्थ लिया जाता है, ऐसा नहीं है। हाँ, 'परिवार' और परिवार से संबंधित संबधों के लिए प्रयुक्त शब्दों को भाषा-विज्ञान के नज़रिये से देखने पर प्रतीत होता है कि साम्य का एक सूत्र, समानता का धागा सदा है।

 

अंग्रेजी में परिवार के लिए 'family' शब्द का प्रयोग होता है। इस शब्द की उत्पत्ति लैटिन के 'famulus' से हुई है, जिससे शब्द बना 'familia' अर्थात् 'household servant' या 'घरेलू-नौकर'। लेट मिडल एज में इंग्लैंड में यही 'family' (फैमिली) बना, जिसका अर्थ था व्यक्तियों का एक समूह जो एक छत के नीचे रहता हो, जिसमें सगे- संबंधी और नौकर शामिल थे। फैमिली के लिए रक्त संबंध का होना आवश्यक नहीं है। ठीक इसी तरह की स्थिति 'परिवार' के लिए है।

 

भारतीय परिप्रेक्ष्य में देखें, तो पूरे विश्व को एक परिवार माना गया है -"वसुधैव कुटुम्बकम"। अंग्रेजी में भी परिवार से ही बने familiar (फैमिलियर) शब्द को देखें, तो वह अर्थ देता है 'जाना पहचाना'। हम जिस से भी जुड़े हैं, वह परिवार जैसा हो जाता है। कहते भी हैं- "He is like my family!" या "वह मेरे परिवार जैसा है।"

 

तो, हम देखते हैं कि परिवार के लिए एक छत के नीचे रहना, यौन-संबंध, रक्त-संबंध या साझी रसोई का होना आवश्यक नहीं है। परिवार के समाज शास्त्रीय विभाजन, यथा एकल परिवार, संयुक्त परिवार या फ़िर मातृसत्तात्मक या पितृसत्तात्मक परिवार के विभेद भी देश-काल-समाज आधारित हैं, जिनके अपने-अपने गुण-दोष हैं। बहरहाल, यहाँ, हमारा उद्देश्य है कि भाषा-विज्ञान की छतरी के नीचे परिवार और इससे सम्बद्ध शब्द क्या अर्थ-उद्बोधन करते हैं?

 

अगर 'कुटुंब' शब्द को देखें, तो यह परिवार के मुकाबले एक निश्चित परिभाषा देता है। यह 'कुटुंब्' धातु में अच् प्रत्यय जुड़कर बना है, जिसका अर्थ है एक ही कुल या परिवार के वे सब लोग जो एक ही घर में मिलकर रहते हों। भाषा-विज्ञान के अनुसार देखें,तो परिवार के लिए एक ही पूर्व पुरुष के वंशज होना आवश्यक नहीं है; जबकि गोत्र में यह भाव है।

 

आरंभिक काल में जहाँ गोवंश रखे जाते थे, वह गोत्र था। एक साधु की संतान को गोत्र माना गया।

'अपात्यम पौत्रप्रभृति गोत्रम' अर्थात् पोते के साथ शुरू होने वाली वंशावली ('एक साधु की संतान)' गोत्र कहलाया। इसलिए सभी गोत्र किसी न किसी साधु के नाम पर हैं। तो, गोत्र का भाव और उसकी परिभाषा ज़्यादा स्पष्ट है। इसमें भी एक गोत्र के वंशज 'सगोत्र पिंडज' और भिन्न गोत्र के वंशज 'अगोत्र पिण्डज' या 'भिन्न पिण्डज' कहलाए।

 

अब परिवार और पारिवारिक जनों के लिए विभिन्न भाषाओं में प्रयुक्त शब्दों पर ग़ौर करें, तो उनमें एक अद्भुत समानता का दिग्दर्शन होता है। संस्कृत में जो 'मातृ' है, वह अंग्रेजी का 'mother' है, इस्लाम का 'मादर' ग्रीक का meter, लैटिन का mater, डच का moeder है । इसी तरह पिता के लिए संस्कृत में पितृ है तो गोथिक में fader है, अंग्रेजी में 'father' है, ग्रीक में pater है, जर्मन में vater है और अवेस्ता में तो pita ही है।

 

संस्कृत का 'भ्रातृ' यदि हिन्दी में 'भाई' बना तो भारोपीय परिवार की अन्य भाषाओं में भी इस मूल से ज़्यादा दूर नहीं है। भ्रातृ अवेस्ता में 'bratar' है, रूसी में 'brat' है, जर्मन में 'bruder', ग्रीक में 'phrater', गोथिक में 'brother', स्लाव में 'bratu' है।

 

स्वयं हिंदी में इस मूल से बने अनेक शब्द समान भावनात्मक बंधन दिखाते हैं- भ्रातृज, भ्रातृजा, भतीजा, भतीजी, भावज, भ्रातृजाया, भौजाई, भौजी आदि शब्दों को देखते ही इनके मूल और इनकी भाषिक-यात्रा का पता चल जाता है।

 

इसी तरह 'भगिनी' हिन्दी में बहिन, बहन है। अंग्रेजी में 'sister' है, रूसी में cectra, जर्मन में scwwester है, ग्रीक में 'sor' है, डच में 'zuster' है तो गोथिक में 'swister' है। इसी तरह संस्कृत का 'श्वसुर' हिन्दी में 'ससुर' बना, जो जर्मन के 'sweher' और लैटिन के 'socer' से बहुत दूर नहीं है।

 

संस्कृत में 'पुत्र' के लिए जो 'सुनु' है, वही सुत है। 'सू' का अर्थ पैदा होना है, तो सुनु का अर्थ है "वह जो पैदा हुआ हो"। 'पवनसुत' पवन से पैदा हुए। मज़ेदार यह है कि यही सुनु, अंग्रेजी में son हुआ, रूसी में cin, अवेस्ता में hunu है, जर्मन में sohn है, लिथुआनिया की भाषा में sunus है।

 

अगर 'पुत्र' को देखें, जो कि पितृसत्तात्मक परिवार का वाहक है, तो इसकी व्युत्पत्ति ही इसकी महत्ता को प्रमाणित करती है। सुधी पाठकों के लिए यह जानना मज़ेदार होगा कि इसका शुद्ध रूप है 'पुत्त्र' ! वस्तुतः, पुत् धातु में 'त्र' जुड़कर यह शब्द बनेगा । प्रयत्न-लाघव के कारण यह 'पुत्र' हो गया है। कठोपनिषद् में एक श्लोक है- "पुं नरकात् त्रायते इति पुत्रः।" इसका अर्थ है जो नरक से तारण करे, वह पुत्र है।

 

परिवार के आदर्श और सदस्यों से अपेक्षित मर्यादा को लेकर अलग-अलग देशकाल में अलग-अलग मान्यता रही है, पर भावनात्मक और सकारात्मक जीवन-यापन सबमें विद्यमान है। रामायण की बहुपत्नी व्यवस्था में भी आदर्श परिवार उपस्थित है, तो महाभारत के बहुपति वाले उदाहरण में भी यह मिल जाता है। तुलसीदास जी लिखते हैं-

बंदऊँ कौशल्या दिसी प्राची।

कीरति जासु सकल जग माची।।

दशरथ राऊ सहित सब रानी।

सुकृत सुमंगल मूरति मानी।।

 

अगर इसके बरक्स हम महाभारत के द्रौपदी के उदाहरण को देखें, तो वेदव्यास जी ने उसे भी सर्वोत्तम गरिमा से निरूपित किया है।

 

इस तरह हम यह देखते हैं कि परिवार एक संस्थायीकृत सामाजिक समूह का विशेषण भर नहीं है, जिसपर जनसंख्या प्रस्थापन का भार है; न ही यह विवाह संबंध, आर्थिक व्यवस्था, सामान्य आवास या वंशनाम-व्यवस्था के अवयवों से बनता है। यह तो सामूहिकता का भावबोधक संबोधन है। इन सभी गुणों के समवेत् रूप में समुद्घाटित होने में ही परिवार की सार्थकता है।

 


 

 



 



 













 










 

 








 

 







 







 




 





 




 



 



 


 


 














 

 





 

 





 





 


 



मदर्स डे पर पिता के प्यार की पाती








































मदर्स डे पर पिता के प्यार

       की पाती

 

 

हंस जैन 

    

 

*मुझसे कोई गलती हुई है तो सुधारने का एक मौका दें,  मैं आप का सदैव ऋणी रहूंगा।*      

          एक शहर के अन्तरराष्ट्रीय प्रसिद्धि के विद्यालय के बगीचे में तेज धूप और गर्मी की परवाह किये बिना,बड़ी लग्न से पेड़ पौधों की काट छाट में लगा था कि, तभी विद्यालय के चपरासी की आवाज सुनाई दी, "गंगादास! तुझे प्रधानाचार्या जी तुरंत बुला रही हैं।"

           गंगादास को आखिरी पांच शब्दो में काफी तेजी महसूस हुई और उसे लगा कि कोई महत्वपूर्ण बात हुई है जिसकी वजह से प्रधानाचार्या जी ने उसे तुरंत ही बुलाया है।

          शीघ्रता से उठा, अपने हाथों को धोकर साफ किया और  चल दिया,द्रुत गति से प्रधानाचार्य के कार्यलय की ओर। 

          उसे प्रधानाचार्य महोदया के कार्यालय की दूरी मीलो की लग रही थी जो खत्म होने का नाम नहीं ले रही थी। उसकी ह्र्दयगति बढ़ गई थी।  सोच रहा था कि उससे क्या गलत हो गया जो आज उसको प्रधानाचार्य महोदया ने  तुरंत ही अपने कार्यालय में आने को कहा।

            वह एक ईमानदार कर्मचारी था और अपने कार्य को पूरी निष्ठा से पूर्ण करता था पता नहीं क्या गलती हो गयी वह इसी चिंता के साथ प्रधानाचार्य के कार्यालय पहुचा......

           "मैडम क्या मैं अंदर आ जाऊ,आपने मुझे बुलाया था।"

            "हाँआओ और यह देखो" प्रधानाचार्या महोदया की आवाज में कड़की थी और उनकी उंगली एक पेपर पर इशारा कर रही थी। 

             "पढ़ो इसे" प्रधानाचार्या ने आदेश दिया।

              "मैं, मैं, मैडम! मैं तो इग्लिश पढ़ना नही जानता मैडम!" गंगादास ने घबरा कर उत्तर दिया। 

              *"मैं आपसे क्षमा चाहता हूँ मैडम यदि कोई गलती हो गयी हो तो।* मैं आपका और विद्यालय का पहले से ही बहुत ऋणी हूँ क्योंकि आपने मेरी बिटिया को इस विद्यालय में निःशुल्क पढ़ने की इजाजत दी। मुझे कृपया एक और मौका दे मेरी कोई गलती हुई है तो सुधारने का। मैं आप का सदैव ऋणी रहूंगा।" गंगादास बिना रुके घबरा कर बोलता चला जा रहा था।

          उसे प्रधानाचार्या ने टोका "तुम बिना वजह अनुमान लगा रहे हो। थोड़ा इंतज़ार करो मैं तुम्हारी बिटिया की कक्षा- अध्यापिका को बुलाती हूँ।"

           वे पल जब तक उसकी बिटिया की कक्षा-अध्यापिका प्रधानाचार्या के कार्यालय में पहुची बहुत ही लंबे हो गए थे गंगादास के लिए। सोच रहा था कि क्या उसकी बिटिया से कोई गलती हो गयी, कहीं मैडम उसे विद्यालय से निकाल तो नही रही। उसकी चिंता और बढ़ गयी थी।

           कक्षा-अध्यापिका के पहुचते ही प्रधानाचार्या महोदया ने कहा "हमने तुम्हारी बिटिया की प्रतिभा को देखकर और परख कर ही उसे अपने विद्यालय में पढ़ने की अनुमति दी थी। अब ये मैडम इस पेपर जो लिखा है उसे पढ़कर और हिंदी में तुम्हे सुनाएगी गौर से सुनो।"

          कक्षा-अध्यापिका ने पेपर को पढ़ना शुरू करने से पहले बताया, "आज मातृ दिवस था और आज मैने कक्षा में सभी बच्चों को अपनी अपनी माँ के बारे में एक लेख लिखने को कहा, तुम्हारी बिटिया ने जो लिखा उसे सुनो।" 

          उसके बाद कक्षा- अध्यापिका ने पेपर पढ़ना शुरू किया।

          'मैं एक गाँव में रहती थी, एक ऐसा गाँव जहाँ शिक्षा और चिकित्सा की सुविधाओं का आज भी अभाव है। चिकित्सक के अभाव में कितनी ही माँयें दम तोड़ देती हैं बच्चों के जन्म के समय। मेरी माँ भी उनमें से एक थी। उसने मुझे छुआ भी नहीं कि चल बसी। मेरे पिता ही वे पहले व्यक्ति थे मेरे परिवार के जिन्होंने मुझे गोद में लिया। पर सच कहूँ तो मेरे परिवार के वो अकेले व्यक्ति थे जिन्होंने मुझे गोद में उठाया था। बाकी की नजर में मैं अपनी माँ को खा गई थी। मेरे पिताजी ने मुझे माँ का प्यार दिया। मेरे दादा दादी चाहते थे कि मेरे पिताजी दुबारा विवाह करके एक पोते को इस दुनिया में लाये ताकि उनका वंश आगे चल सके। परंतु मेरे पिताजी ने उनकी एक न सुनी और दुबारा विवाह करने से मना कर दिया। इस वजह से मेरे दादा दादीजी ने उनको अपने से अलग कर दिया और पिताजी सब कुछ, जमीन, खेती बाड़ी, घर सुविधा आदि छोड़ कर मुझे साथ लेकर शहर चले आये और इसी विद्यालय में माली का कार्य करने लगे।  मुझे बहुत ही लाड़ प्यार से बड़ा करने लगे। मेरी जरूरतों पर माँ की तरह हर पल उनका ध्यान रहता है।"

          "आज मुझे समझ आता है कि वे क्यो हर उस चीज को जो मुझे पसंद थी ये कह कर खाने से मना करदेते थे कि वह उन्हें पसंद नही है क्योंकि वह आखिरी टुकड़ा होती थी। आज मुझे बड़ा होने पर उनके इस त्याग के महत्व पता चला।"

              "मेरे पिता ने अपनी क्षमताओं में मेरी हर प्रकार की सुख सुविधाओं का ध्यान रखा। और मेरे विद्यालय ने उनको यह सबसे बड़ा पुरुस्कार दिया जो मुझे यहाँ निःशुल्क पढ़ने की अनुमति मिली। उस दिन मेरे पिता की खुशी का कोई ठिकाना न था।"

             "यदि माँ, प्यार और देखभाल करने का नाम है तो मेरी माँ मेरे पिताजी है।" 

               "यदि दयाभाव, माँ को परिभाषित करता है तो मेरे पिताजी उस परिभाषा के हिसाब से पूरी तरह मेरी माँ है।"

               "यदि त्याग, माँ को परिभाषित करता है तो मेरे पिताजी इस वर्ग में भी सर्वोच्च स्थान पर है।"

            "यदि संक्षेप में कहूँ कि प्यार, देखभाल, दयाभाव और त्याग माँ की पहचान है तो मेरे पिताजी उस पहचान पर खरे उतरते है। और मेरे पिताजी विश्व की सबसे अच्छी माँ है।"

            आज मातृ दिवस पर मैं अपने पिताजी को शुभकामना दूंगी और कहूंगी कि आप संसार के सबसे अच्छे पालक है। बहुत गर्व से कहूंगी कि ये जो हमारे विद्यालय के परिश्रमी माली है मेरे पिता है।"

            "मैं जानती हूं कि मैं आज की लेखन परीक्षा में असफल हो जाऊंगी क्योकि मुझे माँ पर लेख लिखना था पर मैने पिता पर लिखा,पर यह बहुत ही छोटी सी कीमत होगी जो उस सब की जो मेरे पिता ने मेरे लिए किया। धन्यवाद"। 

           आखरी शब्द पढ़ते पढ़ते अध्यापिका का गला भर आया था और प्रधानाचार्या के कार्यालय में शांति छा गयी थी।

           इस शांति में केवल गंगादास के सिसकने की आवाज सुनाई दे रही थी। बगीचे में धूप की गर्मी उसकी कमीज को गीला न कर सकी पर उस पेपर पर बिटिया के लिखे शब्दो ने उस कमीज को पिता के आसुंओ से गीला कर दिया था। वह केवल हाथ जोड़ कर वहाँ खड़ा था।  

            उसने उस पेपर को अध्यापिका से लिया और अपने हृदय से लगाया और रो पड़ा।

              प्रधानाचार्या ने खड़े होकर उसे एक कुर्सी पर बैठाया और एक गिलास पानी दिया तथा कहा, "गंगादास तुम्हारी बिटिया को इस लेख के लिए पूरे 10/10 नम्बर दिए गए है। यह लेख मेरे अब तक के पूरे विद्यालय जीवन का सबसे अच्छा मातृ दिवस का लेख है। हम कल मातृ दिवस अपने विद्यालय में बड़े जोर शोर से मना रहे है। इस दिवस पर विद्यालय एक बहुत बड़ा कार्यक्रम आयोजित करने जा रहा है। विद्यालय की प्रबंधक कमेटी ने आपको इस कार्यक्रम का मुख्य अतिथि बनाने का निर्णय लिया है। यह सम्मान होगा उस प्यार, देखभाल, दयाभाव और त्याग का जो एक आदमी अपने बच्चे के पालन के लिए कर सकता है, यह सिद्ध करता है कि आपको एक औरत होना आवश्यक नहीं है एक पालक बनने के लिए। साथ ही यह अनुशंषा करता है उस विश्वाश का जो विश्वास आपकी बेटी ने आप पर दिखाया। हमे गर्व है कि संसार का सबसे अच्छा पिता हमारे विद्यालय में पढ़ने वाली बच्ची का है जैसा कि आपकी बिटिया ने अपने लेख में लिखा। गंगादास हमे गर्व है कि आप एक माली है और सच्चे अर्थों में माली की तरह न केवल विद्यालय के बगीचे के फूलों की देखभाल की बल्कि अपने इस घर के फूल को भी सदा खुशबू दार बनाकर रखा जिसकी खुशबू से हमारा विद्यालय महक उठा। तो क्या आप हमारे विद्यालय के इस मातृ दिवस कार्यक्रम के मुख्य अतिथि बनेगे?"

            रो पड़ा गंगादास और दौड़ कर बिटिया की कक्षा के बाहर से  आँसू भरी आँखों से निहारता रहा अपनी प्यारी बिटिया को।

 

हंस जैन

रामनगर खंडवा

   

 

 


 

 



 



 













 










 

 








 

 







 







 




 





 




 



 



 


 


 














 

 





 

 





 





 


 



*बाहर फँसे लोगों को पहुँचाया जाएगा उनके अपनो के पास सुरक्षित*






*बाहर फँसे लोगों को पहुँचाया जाएगा उनके अपनो के पास सुरक्षित*

 

*परम पूज्य आर्यिका 105 श्री सृष्टि भूषण माता जी की पावन प्रेरणा एवं आशीर्वाद से संचालित*

 
श्री आदि सृष्टि कैंसर ट्रस्ट करेगा बाहर फँसे लोगों को सुरक्षित घर तक पहुँचाने में मदद जिला कलेक्टर के साथ हुई मीटिंग

 

कोरोना महामारी के चलते सम्पूर्ण विश्व में आई आपदाओं से भारत भी लड़ रहा है

 

*और देश दुनिया की जंग को जीतने में श्री आदि सृष्टि कैंसर ट्रस्ट भी अपनी और से हर सम्भव प्रयास में लगा हुआ है*

 

लॉकडाउन के पहले ही दिन से अभी तक रोज ट्रस्ट की तरफ से गरीब लोगों के भोजन की व्यवस्था और दैनिक चर्या की

 

जरूरत की वस्तुएं उपलब्ध करवाई जा रही है

 

इसके साथ ही राजाखेड़ा जिला धौलपुरर में प्रतिदिन पक्षियों को दाना,बंदरों के लिए रोटी और गाय भैंसों के लिए खल भूसे आदि

 

की व्यवस्था भी की जा रही है।उल्लेखनीय है कि ट्रस्ट सदैव ही मानव सेवा के कार्यो में संलग्न रहता है 

 


 

 



 



"चार कीमती रत्न"

"चार कीमती रत्न"

 

मुझे पूर्ण विश्वास है कि 

आप इससे जरूर धनवान होंगे..!

 

1.पहला रत्न है:-

    " माफी "

तुम्हारे लिए कोई कुछ भी कहे, तुम उसकी बात को कभी अपने मन में न बिठाना, और ना ही उसके लिए कभी प्रतिकार की भावना मन में रखना, बल्कि उसे माफ़ कर देना।

 

2.दूसरा रत्न है:-

  "भूल जाना"

अपने द्वारा दूसरों के प्रति किये गए उपकार को भूल जाना, कभी भी उस किए गए उपकार का प्रतिलाभ मिलने की उम्मीद मन में न रखना।

 

3.तीसरा रत्न है:-

    "विश्वास"*

हमेशा अपनी मेहनत और उस परमपिता परमात्मा पर अटूट विश्वास रखना । यही सफलता का सूत्र है ।

 

4.चौथा रत्न है:-

    "वैराग्य"*

हमेशा यह याद रखना कि जब हमारा जन्म हुआ है तो निश्चित ही हमें एक दिन मरना भी है..!  इसलिए बिना लिप्त हुए जीवन का आनंद लेना ! वर्तमान में जीना ! यही जीवन का असल सच है..!

माँ

 















*"माँ"*

 

पतझड़ में बहार,

प्रकृति का उपहार,

मान का मान,

शीतल बयार,

ठण्डी फुंहार,

मन की मनुहार है मां।

 

हीवडें हूंकार,

प्राणों की प्राण,

मन चाही मुराद,

स्वर्ग का श्रंगार,

मन शुद्ध सार,

जीवन धन,

प्राणाधार है मां।।


 

 



 



 















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" इक माँ की माँ को ममतांजलि "









































" इक माँ की माँ को ममतांजलि "

 

माँ शब्द मेरे लिए सदेव एक शक्ति रहा है।उसी शक्ति का संचार आज मुझे अपने बच्चों के माँ शब्द के सम्बोधन से होता है।क्योंकि आज मैं स्वयं एक माँ हूँ।बच्चों की शरारते मेरे आँगन का हिस्सा हैं।उन्हें देख बचपन लोट आता है।माँ बनने की सुखद अनुभूति पाने के लिए कितने दर्द सहने पड़ते है,कितनी परेशानियाँ झेलनी पड़तीं हैं,माँ बनने के बाद ही जान पाई हूँमैं। आज मेरी जनम दाँयनी माँ तो मेरे साथ नहीं है,मगर अपनी मधुर समृतियों के साथ हर पल मेरे साथ है।

दरमियाँना क़द,छोटी आँखें,अधपके बाल,लम्बा चेहरा,उस पर असमय पड़ीं झुर्रियों का दबदबा। यही साधारण सा परिचय था मेरी माँ का ।पाँच बेटों की माँ होने का गोरव प्राप्त था मेरी माँ को।मेरी ग्रहस्ती से भी वह संतुष्ट थी।लेकिन लम्बी बीमारी से अपनी आसन्न मृत्यु को भी पहले ही भाँप गई थी। हमें भी उनके जीवन के सीमित होने का अहसास था।

एक दिन सूखे पत्ते की तरह ,हवा के हल्के झोंखे से उड़ चली थी वह। फ़ोन की असमय बजी घंटी ने ये अहसास करा दिया की अब अगर  उड़ कर भी माँ के पास जाना चाहूँ तो नहीं जा पाऊँगी। मेरी मजबूरियों ओर दूरियों ने उनके अंतिम दर्शनों का मोका भी नहीं दिया।उस दिन पहली बार अहसास हुआ,माएँ भी मरा करती हैं।आज उनकी यादों की साँझी विरासत मेरे पास है।जो दो पीडियों के रूप में अपने दीर्घकालीन संचित अनुभवों से जोड़े हुए है।

यादें बहुत ख़ूबसूरत होती है।माँ के हाथ के बने खाने का स्वाद आज भी ज़ुबान पर ताज़ा है।ख़ास कर मक्का की रोटी व सरसों का साग भुलाए नहीं भूलता। सर्दी का मोसम ओर माँ के हाथ का खाना,कोई कैसे भुला सकता है।

एक दिन पहले साग की सफ़ाई,धोना काटना सब हो जाता,।दूसरे दिन सुबह सुबह कोयले की अंगीठी पर माटी की हाँड़ी में पकता सरसों का साग पूरे घर को महकाए रखता

शाम को माँ लकड़ी की घोटनी से माँ जब उसे घोटा करती,तो हम सब भाई बहन माँ पर हँसते।ओर सोचा करते।माँ खामखाह इतनी मेहनत क्यों करती है?

आज समय बदल गया है,पंजाबी परिवार होने के कारण साग तो आज भी हम बनाते हैं,मगर आधे घंटे में सब तैयार। कटा कटाया लाओ,कुकर में उबालो,मिक्सी में पीसो साग तैयार ।आज हमारे पास न वो धैर्य है ,न वो तलीनता। माँ जब साग मे देसी घी में प्याज़,टमाटर,अदरक,लहसुन भून कर छींक लगाती, तो भूँक ना भी लगी हो तो खाना खाने बैठ जाते। खाना बनाते,खिलाते,समय जो तल्लीनता माँ में देखी थी,उसका अभाव पाती हूँ अपने मैं।

आज जब भी मैं सरसों का साग बनाती हूँ,माँ की बहुत याद आती है,मगर मेरे बच्चे उसे "घास फहूँस" की परिभाषा से नवाजते हैं।व खाने से परहेज़ करते है। समझ ही नहीं पा रही हूँ,की माँ की दी शिक्षा,समय की क़ीमत,पैसे की क़ीमत,नैतिक मूल्य व संस्कार,जो अपने बच्चों को देने की कोशशि कर रही हूँ ,दे पा रही हूँ या नहीं।इसका अभाव भी पाती हूँ अपने में।जो लगाव मैं आज भी अपनी माँ से महसूस करती हूँ,वही प्यार का अंकुर अपने बच्चों में देखने में मुझे शंका हो रही है। मेरा विश्वास डगमगाने न पाए,उनकी यादों का रंग फीका न पड़ने पर ,माँ के प्रतिनिधित्व को माँ की तरह निभा पाऊँ ,उस माँ की कोख के क़र्ज़ की कुछ बूँदे अदा कर पाऊँ,इसी उम्मीद ओर विश्वास के साथ,"मातृत्व दिवस"  पर एक माँ की माँ को 

ममतांजलि ।

द्वारा ....

1901/2018


 

 



 



 















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माँ, अंबा , माई , महतारी , जननी, प्रसू, धात्री आदि शब्दों की व्याख्या!








































मातृ-दिवस पर विशेष!

 

माँ, अंबा , माई , महतारी , जननी, प्रसू, धात्री आदि शब्दों की व्याख्या

 

कमलेश कमल 

 

अगर देखा जाए तो अनंत शक्तियों की धारिणी, ऊर्जा की अजस्र स्त्रोत, प्रेम की निर्झरिणी, ममता की मूर्ति एवं त्याग की प्रतिकृति माँ को शब्दों में व्याख्यायित करने का प्रयास करना मुझ जैसे कलमकार के लिए धृष्टता होगी; फिर भी अपनी मातृशक्ति को शीश नवा कर उसके विविध रूपों के अर्थ उद्भेदन का यथासंभव प्रयास करता हूँ।

 

# सबसे पहले जननी को समझते हैं : जननी वह है जोे जनन करे या जन्म दे । संस्कृत की जन् धातु से इसका निर्माण हुआ है जिसका अर्थ है पैदा करना या जन्म देना !

इस तरह आप की जननी सिर्फ वही है जिसने आपको जन्म दिया है , दूसरी कोई औरत आपकी जननी नहीं हो सकती । 

 

# धात्री -  शिशु की देखभाल करने वाली वह स्त्री जो दूध पिलाने और लालन पालन करने के लिए नियुक्त होती है , जिसे सामान्य अर्थों में हम दाई कहते हैं । शास्त्रों में इसे भी दाई माँ  या धात्री कहा गया है ।

 

# इसे उपमाता भी कहा जाता है ,लेकिन उपमाता ‘माता के बदले माता’ है । उप का अर्थ है ‘बदले में’ जिसका माता शब्द से संयोग होकर ‘उपमाता’ शब्द बना। 

 

# अगर किसी शिशु के माँ की मृत्यु हो जाए और उसकी धात्री, चाची, मामी, मौसी या कोई अन्य स्त्री उसे पाले तो स्त्री उपमाता कहलाएगी । 

 

#  यशोदा कृष्ण की धात्री थी , उपमाता भी थी ।

 

# देवकी कृष्ण की जननी थी ।

# धात्र मूल में ई प्रत्यय लगकर धात्री शब्द की उत्पत्ति हुई है । 

 

#जो अपने अंक या गोद में बच्चे का पालन करती है उसे अंकपालिका कहते हैं । अंकपालिका के लिए जरूरी नहीं कि वह बच्चे को दूध पिलाए ही ।

 

# बिहार में एक पंक्ति अक्सर सुनने के लिए मिलती है , “अरे ,उसको तो मैंने अपने गोद में खेलाया है” ।  तो जो ऐसा कहती हैं वे उस बच्चे की अंकपालिका हुईं ।

 

#कोई पुरुष जब ऐसा करे तो वह अंकपालक कहलाएगा ।

 

# अंकपालिका और अंकपालक दोनों के लिए इंग्लिश में एक ही शब्द है -babysitter ।

 

#  प्रसव में जो मदद करे, वह प्रसाविका है ।

# सूतक कर्म  में मदद करने की वजह से वह सूतिका है ।

 

# गाय का दूध भी शिशु को पिलाया जाता है, इसलिए गाय को भी धात्री कहा गया है ।

 

# गंगा की महिमा भी पालन करने वाली की तरह ही  है ,और गंगा के किनारे बसे लोगों के लिए यह माँ से कम भी नहीं  । इसलिए, गंगा को भी धात्री कहा गया है ।

 

# आमला फल की महिमा भी शास्त्रों में वर्णित है और सच ही यह अत्यंत  पोषक और लाभकारी है । इसलिए आमला को भी धात्री कहा गया है। 

 

# धात्री के लिए इंग्लिश में foster mother या  governess शब्द प्रयुक्त होता है ।

 

# इतिहास में धात्री स्त्री के रूप में अकबर की पालनहार माहम अनगा और एक अन्य पन्ना धाय का नाम आता है ।

 

# माई शब्द का प्रयोग माता , माँ,  बूढ़ी स्त्री या किसी भी मातृवत् स्त्री के लिए हो सकता है ।

 

# ‘माई का लाल’ मुहावरा माई शब्द से ही बना है जिसका अर्थ है - ‘बहादुर’ ।

 

# प्रसू का अर्थ है उत्पन्न करने वाली , जन्म देने वाली ।

 वस्तुतः  सू शब्द का अर्थ है पैदा करना ।

 

# सूत का अर्थ पैदा किया हुआ और प्र उपसर्ग लग कर प्रसूत का अर्थ  हुआ - विशिष्ट रूप से पैदा किया हुआ ।

 

#  प्रसूति शब्द का अर्थ है पैदा करने की प्रक्रिया ।

 # प्रसव शब्द का भी यही अर्थ है -बच्चा जनने की क्रिया।

 

 # प्रसूति रोग विशेषज्ञ का अर्थ है बच्चे को जन्म देने के संदर्भ में हुई रोग की रोकथाम के लिए विशेषज्ञ डॉक्टर ।

 

 # जैसा की हमने देखा सू शब्द का अर्थ है पैदा करना और प्र का मतलब विशिष्ट । तो, प्रसू  शब्द का अर्थ है विशेष रूप से पैदा करना । यह विशेष वह नौ महीने # में रखने की विशिष्ट प्रक्रिया है, वह असह्य दुःख है जो प्रसव के समय होता है । तो , आप प्रसू शब्द का प्रयोग उनके लिए करते हैं जिन्होंने हाल ही वह विशेष प्रक्रिया को झेला है । एक बूढ़ी माँ के लिए प्रसू शब्द का प्रयोग करना दिखाता है कि प्रयोग कर्ता ने शब्दकोश से पर्यायवाची शब्द याद किया है ,लेकिन शब्दों की समझ नहीं है।

 

# प्रसूता या प्रसूतिका का अर्थ बिल्कुल स्पष्ट है - सद्यः जनने वाली स्त्री या प्रसविनी ।

 

# वैसे प्रसव से बना एक शब्द है पिता के लिए भी -प्रसविता या जन्म देने वाला । 

( प्रसविनी का विलोम - प्रसविता )

 

#सद्यः प्रसूत वह नवजात शिशु है जिसका अभी-अभी जन्म हुआ हो ।

 

# तो, ‘प्रसू’ सिर्फ उस माँ के लिए प्रयुक्त हो सकता है जिसने  प्रसव पीड़ा झेल , प्रसूति की प्रक्रिया से सुत (पुत्र) अथवा सुता (पुत्री) को जन्म दिया हो ।

 

# ‘वीर प्रसू’  उस माँ को कहा जाता है जो वीर संतान को जन्म दे ।

 

# पृथ्वी को भी ‘रत्नसू’ कहा गया है क्योंकि यह रत्नों को जन्म देती है । वैसे,  जब तक रत्न पृथ्वी के गर्भ में है तब तक पृथ्वी रत्नगर्भा है,  जब रत्न को बाहर निकाल लिया गया तब वह रत्नसू हो गई।

 

#अंबा शब्द भी माता का पर्याय है । पार्वती के लिए भी यह शब्द प्रयुक्त होता  है ; जो प्रकृति की पर्याय हैं ।

# इस तरह अंबा कहने से माँ के साथ जुड़ा आध्यात्मिक तत्व उद्घाटित होता है ।

 

# प्रकृति अर्थात पार्वती तत्व जो हर माँ के अंदर है । अंबा से महाभारत की महानायिका अंबा के गुणों वाली शक्ति रूपा माँ  का नाम स्मरण होता है ।

 

# आरती “जय माँ अम्बे गौरी” या फिर “अंबे तू ही जगदम्बे माता”  में इसी कारण अंबा शब्द प्रयुक्त हुआ है। 

 

# वैसे 'अंब' आम को भी कहते हैं । 

 

# आम के रस को धूप में सुखाकर बनाया गया पापड़ अमावट आदि को अंबपाली भी कहते हैं ।

 

# अंबा के लिए जनन करना आवश्यक नहीं, जबकि  जननी के लिए है। दुर्गा माँ को माँ अंबा कह सकते हैं लेकिन जननी नहीं । हाँ, जैसा कि हमने देखा कि अंबा प्रकृति तत्व हैं, सृष्टि की निर्मात्री हैं, तो उन्हें जगज्जननी कहते हैं ।

 

#  वैसे जननी शब्द से मिलता जुलता एक शब्द है 'जनानी'  ।

 

# जननी का अर्थ है जो जन्म दे ; जनानी का अर्थ है वह जिसमें 'जनानापन' हो , स्त्रियोचित गुण हो।

 

# भाषा विज्ञान के अध्येता यह जानते हैं कि माँ के लिए संसार भर में प्रयुक्त होने वाले संबोधनों (विविध भाषाओं में ) में बहुत साम्य है, वे सभी काफी मिलते -जुलते हैं ।

 

# संस्कृत का मातृ शब्द हो,  फ़ारसी का मादर हो , ग्रीक का meter हो, अंग्रेजी का mother हो या पारसियों का मातर हो;  सभी आपस में एक जैसे हैं ।

 

# भाषा विज्ञान के अनुसार ‘म’ एक नैसर्गिक और आरंभिक ध्वनि है । 

 

# आप सब ने यह महसूस किया होगा कि बच्चा जैसे ही बोलना शुरू करता है म्,  मम, ममम, अम्म, अम्मा आदि ध्वनि उत्पन्न करता है ।

 

# अगर देखा जाए तो यह सिद्धांत सही प्रतीत होता है कि बच्चे के द्वारा प्रयुक्त सबसे प्रमुख ध्वनि उसकी माँ के लिए संबोधन सूचक शब्द होता है ; और उसी से हर भाषा  में माँ के लिए प्रयुक्त शब्द की व्युत्पत्ति या निर्मिति होती है । 

 

# भारतीय संस्कृति में सृष्टि को माँ कहा गया है ।

# माँ शब्द की उत्पत्ति संस्कृत धातु ‘मा’ से मानी जाती है ।

 

# ‘मा’ धातु निर्माण सूचक या निर्मित्ति का द्योतक होता है ।

 

# माँ शब्द किसी बच्चे द्वारा अपने मूल ,अपनी जननी  के लिए संबोधन सूचक है ।

# शास्त्रों में  माँ को ममता की मूर्ति कहा गया है ।

इस धरती पर आप से अगर किसी को सबसे अधिक लगाव है तो वह आपकी माँ है ।

 

# भाषा शास्त्र के चश्मे से मैं इसे देखता हूँ ,तो मुझे ऐसा लगता है कि कोई संतति (बालक या बालिका) अपनी माँ का ही विस्तार होती है ।

 

# बच्चा अपनी माँ का ही अंश होता है, इसलिए माँ को उससे ममता  होती है ।

 

# ममता शब्द ‘मम’ धातु से बना है । ‘मम’ का अर्थ मेरा होता है । इस तरह, ममता का अर्थ हुआ -  जो मेरा है , मेरापन का बोध ।

 

#  लेकिन जिसे हम ममता की मूर्ति कहते हैं वह ममता, वह  अपनेपन का बोध माँ की आवश्यकता भी है , क्योंकि माँ के लिए ममता का अर्थ है - मेरा बेटा / मेरी बेटी । लेकिन यह भी सच है कि ममता होना उतनी बड़ी बात नहीं जितनी बड़ी बात है ‘मातृभाव’ का होना ।

 

#  अपने बच्चे के लिए तो सिंहनी भी अहिंसक होती है । जिन दाँतों से वह बड़े-बड़े जानवरों का खून पी जाती है ,उन्हीं दाँतों से अपने शावकों को एक जगह से दूसरे जगह सुरक्षित ले जाती है ।

 

#  इससे यह प्रतीत होता है कि हर माँ का अपनी संतति के लिए ममता होना स्वाभाविक है ।

 

# ‘मातृभाव’ इससे बड़ी बात है जिसका अर्थ है स्नेह और वात्सल्य की मनोदशा ।

 

#  प्रकृति को मातृशक्ति इसी अर्थ में कहा जाता है कि वह कोई भेदभाव नहीं करती, सबके लिए उपलब्ध रहती है ।

 

# एक तरह से देखा जाए तो ममता बाँधती है,जबकि मातृभाव प्रेम लुटाती है - बिना आकांक्षा के ।

 

# घरों में आप देखते होंगे कि कभी-कभी बच्चे  माँ से ही लड़ने लगते हैं कि तुम मुझे कम मानती हो ...दूसरे भाई  या बहन को ज्यादा मानती हो ।

 

# इसके पीछे, हो सकता है कि बच्चे की यह अवधारणा हो कि माँ की ममता निःस्वार्थ नहीं, एक बंधन है । जो बच्चे ऐसा सोचते हैं वे कभी-कभी माँ को सता लेने का सुख लेने लगते हैं।

 

# कहते भी हैं कि ममता जब समता खो दे (मतलब सबके लिए एक समान न रहे), तो वैमनस्य और संघर्ष होता है ।

 

# एक  छोटा शिशु  माँ का संपूर्ण समर्पण और त्याग लेता है बदले में माँ का मेरापन संतुष्ट होता है।

 

# शिशु के बड़े होते ही निर्भरता घटती है तो मेरेपन का भाव भी प्रभावित होता है । यही माँ-पुत्र या माँ-पुत्री  के रिश्ते में तनाव की वजह बनता है । फिर बेटी किसी और द्वारा ले ली जाती है , स्वयं नहीं जाती तो बेटी के प्रति ममता दुबारा बढ़ती  है। (अगर बेटी स्वयं छोड़ जाए तो ममता आहत होती है ।)

 

# बेटा किसी और को लाकर माँ के सामने ही जब माँ की जगह उस पर निर्भर होने लगता है तो माँ को कुछ छूटता हुआ प्रतीत होता है ; जिससे वह कुछ परेशान भी होती है ।

( ये मेरे विचार हैं, आपको असहमत होने का अधिकार है ।)

 

# कल  हमने यह भी देखा कि माँ एक संबोधन सूचक शब्द है जो जननी के लिए जातक द्वारा प्रयुक्त पहला संबोधन होता है । यह सिर्फ एक भाषा की स्थिति नहीं है ,दुनिया की लगभग हर भाषा में यही स्थिति है।

 

# माता शब्द माँ के लिए संबोधन सूचक है ,यह किसी भी मातृवत् महिला के लिए प्रयुक्त हो सकता है ।

 

# अंबा शब्द के तद्भवीकरण की प्रक्रिया से अम्मा शब्द की व्युत्पत्ति हुई ।

 

# देवी के रूप में  मातृशक्ति को जगत-माता या जगन्माता कहा जाता है ।

 

# मात, मातु, माता से निर्मित ‘मातुल’ का अर्थ मामा होता है । वस्तुतः यह माँ तुल्य का तद्भवीकरण है ।  

 

# माँ तुल्य अर्थात माँ के बराबर ।

 

#  मामा शब्द भी दो बार मा से बना है अर्थात माँ के जैसा ही है ।

 

# मामी के लिए हिंदी में मातुली, मातुलानी, मातुल आदि शब्द के मूल में भी मात ही है ।

 

# माता के पिता को मातामह कहा गया ।

# माता की माता को मातामही कहा गया ।

 

 # माई की व्याख्या करते समय हमने देखा था कि माई  किसी भी मातृवत् महिला के लिए संबोधन किया जाने वाला एक देशज शब्द है ।

 

#माई से शब्द बना ‘माई का’ (माईका या मायका)।

 

#  इस शब्द को समझें । जब कोई लड़की किसी से शादी कर किसी की ब्याहता बनती है और  उसके (आने पति के)  गृह आ जाती है तब भी उसके अस्तित्व में उसकी माँ बनी रहती है । अपने माई का घर उसे बुलाता रहता है और इसलिए इसके लिए यही शब्द ही बन गया -माई का या माईका या मायका ।

 

 # किसी महिला का मायका उसके बच्चों के लिए नानी का घर होता है ( नाना उतने महत्वपूर्ण नहीं होते) इसलिए यह बच्चों का ननिहाल हुआ यानी माई की माई का घर।

 

# आपका ही,

   कमल


 

 



 



 













 










 

 








 

 







 







 




 





 




 



 



 


 


 














 

 





 

 





 





 


 



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