" इक माँ की माँ को ममतांजलि "

 

माँ शब्द मेरे लिए सदेव एक शक्ति रहा है।उसी शक्ति का संचार आज मुझे अपने बच्चों के माँ शब्द के सम्बोधन से होता है।क्योंकि आज मैं स्वयं एक माँ हूँ।बच्चों की शरारते मेरे आँगन का हिस्सा हैं।उन्हें देख बचपन लोट आता है।माँ बनने की सुखद अनुभूति पाने के लिए कितने दर्द सहने पड़ते है,कितनी परेशानियाँ झेलनी पड़तीं हैं,माँ बनने के बाद ही जान पाई हूँमैं। आज मेरी जनम दाँयनी माँ तो मेरे साथ नहीं है,मगर अपनी मधुर समृतियों के साथ हर पल मेरे साथ है।

दरमियाँना क़द,छोटी आँखें,अधपके बाल,लम्बा चेहरा,उस पर असमय पड़ीं झुर्रियों का दबदबा। यही साधारण सा परिचय था मेरी माँ का ।पाँच बेटों की माँ होने का गोरव प्राप्त था मेरी माँ को।मेरी ग्रहस्ती से भी वह संतुष्ट थी।लेकिन लम्बी बीमारी से अपनी आसन्न मृत्यु को भी पहले ही भाँप गई थी। हमें भी उनके जीवन के सीमित होने का अहसास था।

एक दिन सूखे पत्ते की तरह ,हवा के हल्के झोंखे से उड़ चली थी वह। फ़ोन की असमय बजी घंटी ने ये अहसास करा दिया की अब अगर  उड़ कर भी माँ के पास जाना चाहूँ तो नहीं जा पाऊँगी। मेरी मजबूरियों ओर दूरियों ने उनके अंतिम दर्शनों का मोका भी नहीं दिया।उस दिन पहली बार अहसास हुआ,माएँ भी मरा करती हैं।आज उनकी यादों की साँझी विरासत मेरे पास है।जो दो पीडियों के रूप में अपने दीर्घकालीन संचित अनुभवों से जोड़े हुए है।

यादें बहुत ख़ूबसूरत होती है।माँ के हाथ के बने खाने का स्वाद आज भी ज़ुबान पर ताज़ा है।ख़ास कर मक्का की रोटी व सरसों का साग भुलाए नहीं भूलता। सर्दी का मोसम ओर माँ के हाथ का खाना,कोई कैसे भुला सकता है।

एक दिन पहले साग की सफ़ाई,धोना काटना सब हो जाता,।दूसरे दिन सुबह सुबह कोयले की अंगीठी पर माटी की हाँड़ी में पकता सरसों का साग पूरे घर को महकाए रखता

शाम को माँ लकड़ी की घोटनी से माँ जब उसे घोटा करती,तो हम सब भाई बहन माँ पर हँसते।ओर सोचा करते।माँ खामखाह इतनी मेहनत क्यों करती है?

आज समय बदल गया है,पंजाबी परिवार होने के कारण साग तो आज भी हम बनाते हैं,मगर आधे घंटे में सब तैयार। कटा कटाया लाओ,कुकर में उबालो,मिक्सी में पीसो साग तैयार ।आज हमारे पास न वो धैर्य है ,न वो तलीनता। माँ जब साग मे देसी घी में प्याज़,टमाटर,अदरक,लहसुन भून कर छींक लगाती, तो भूँक ना भी लगी हो तो खाना खाने बैठ जाते। खाना बनाते,खिलाते,समय जो तल्लीनता माँ में देखी थी,उसका अभाव पाती हूँ अपने मैं।

आज जब भी मैं सरसों का साग बनाती हूँ,माँ की बहुत याद आती है,मगर मेरे बच्चे उसे "घास फहूँस" की परिभाषा से नवाजते हैं।व खाने से परहेज़ करते है। समझ ही नहीं पा रही हूँ,की माँ की दी शिक्षा,समय की क़ीमत,पैसे की क़ीमत,नैतिक मूल्य व संस्कार,जो अपने बच्चों को देने की कोशशि कर रही हूँ ,दे पा रही हूँ या नहीं।इसका अभाव भी पाती हूँ अपने में।जो लगाव मैं आज भी अपनी माँ से महसूस करती हूँ,वही प्यार का अंकुर अपने बच्चों में देखने में मुझे शंका हो रही है। मेरा विश्वास डगमगाने न पाए,उनकी यादों का रंग फीका न पड़ने पर ,माँ के प्रतिनिधित्व को माँ की तरह निभा पाऊँ ,उस माँ की कोख के क़र्ज़ की कुछ बूँदे अदा कर पाऊँ,इसी उम्मीद ओर विश्वास के साथ,"मातृत्व दिवस"  पर एक माँ की माँ को 

ममतांजलि ।

द्वारा ....

1901/2018


 

 



 



 















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