मज़दूरी इनकी मजबूरी 'मज़दूरी इनकी मजबूरी' एक विवादास्पद विषय है, जो अनेक प्रश्नों व समस्याओं को जन्म देता है। अनगिनत पात्र मनोमस्तिष्क में ग़ाहे-बेग़ाहे दस्तक देते हैं, क्योंकि लम्बे समय तक मुझे इनके अंग-संग रहने का अवसर प्राप्त हुआ है। यह पात्र कभी लुकाछिपी का खेल खेलते हैं; कभी करुणामय नेत्रों से निहारते हैं; कभी व्यंग्य करते भासते हैं– मानो विधाता के न्याय पर अंगुली उठा रहे हों। ---कैसा न्याय है यह? जब सृष्टि-नियंता ने सबको समान बनाया है--- सब में एक-सा रक्त प्रवाहित हो रहा...तो हमसे दोयम दर्जे का व्यवहार क्यों? एक ओर बड़ी-बड़ी अट्टालिकायों में रहने वाले लब्ध- प्रतिष्ठित धनी लोग और दूसरी ओर झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले, खुले आकाश के नीचे ज़िन्दगी बसर करने वाले लोगों में इतनी असमानता क्यों? हमारे देश में इंडिया और भारत में वैषम्य क्यों... ये प्रश्न अंतर्मन को निरंतर कचोटते हैं तथा अत्यंत चिंतनीय, व विचारणीय हैं। जब हम मासूम बच्चों को मज़दूरी करते देखते हैं; तो आत्मग्लानि होती है। ढाबे पर बर्तन धोते; चाय व खाना परोसते, रैड लाइट पर गाड़ियां साफ करते; फल-फूल, खिलौने आदि खरीदने का अनुरोध करते; सड़क किनारे अपने छोटे भाई-बहिन का ख्याल रखते; जूठन को देख अधिक पाने के निमित्त एक-दूसरे पर झपटते-झगड़ते, मरने -मारने पर उतारू नंग-धड़ंग बच्चों को देख हृदय में उथल-पुथल ही नहीं होती, एक आक्रोश फूट निकलता। इतना ही नहीं, रेलवे स्टेशन पर बूट- पालिश करते; ट्रेन में अपनी कमीज़ से कंपार्टमेंट की सफाई करते व कंधे पर अखबार व मैगज़ीन का भारी-भरकम बोझ लादे बच्चों को देख, उनकी ओर ध्यान स्वतः आकर्षित हो जाता और हृदय उनकी मजबूरी के बारे में जानने को आतुर-आकुल हो, प्रश्नों की बौछार लगा देता है। बालपन में इन दुश्वारियों से जूझते मासूम बच्चों की अंतहीन पीड़ा व अवसाद के बारे में जानकर हृदय द्रवित हो जाता...कलेजा मुंह को आता। परंतु हम उनके प्रति सहानुभूति प्रकट करने के अतिरिक्त कुछ कर पाने में, स्वयं को विवश, असमर्थ व असहाय पाते हैं। मुझे स्मरण हो रही है– एक ऐसी ही घटना, जब मैं गुवाहाटी की ओर जाने वाली ट्रेन की प्रतीक्षा में दिल्ली रेलवे-स्टेशन पर बैठी थी। सहसा बच्चों के एक हुजूम को वेश-भूषा बदलते; स्वयं को मिट्टी से लथपथ करते; घाव दर्शाने हेतु रंगीन दवा व मरहम लगाते; एक जैसी टोपियां ओढ़ते देख... मैं अपनी भावनाओं पर नियंत्रण नहीं रख पायी और एक बच्चे से संवाद कर बैठी। परंतु वह मौन रहा और थोड़ी देर के पश्चात् एक व्यक्ति उन सब के लिए भोजन लेकर आया। भोजन करने के पश्चात् वे अपने-अपने गंतव्य की ओर बढ़ गए तथा उस बच्चे ने मेरी जिज्ञासा के बारे में अपने मालिक को जानकारी दी। वह मुझे देर तक घूरता रहा... मानो देख लेने की अर्थात् अंजाम भुगतने को तैयार रहने की चेतावनी अथवा धमकी दे रहा हो...और चंद मिनट बाद ही मुझे उसका ख़ामियाज़ा भुगतना पड़ा। बच्चे ट्रेन के अलग-अलग डिब्बों में सवार हो गए। परंतु उस गैंग के बाशिंदों ने मुझे ट्रेन में नहीं चढ़ने से बहुत समय तक रोके रखा। चार-पांच लोग, जिनमें एक युवती भी थी... वे सब ए•सी• कंपार्टमेंट के दरवाज़े के बीच रास्ता रोक कर खड़े हो गए और बड़ी ज़द्दोज़हद के पश्चात् मैं उनके व्यूह को तोड़, भीतर प्रवेश पाने में सफल हो पायी। मुझे सीट पर पहुंचने में भी उतनी ही कठिनाई का सामना करना पड़ा। टी•टी• के आने के पश्चात् मैंने टिकट निकालने के लिए जैसे ही पर्स में हाथ डाला, मैं सन्न रह गयी। मेरा मोबाइल व पैसे पर्स से ग़ायब हो चुके थे। ट्रेन चलने के कारण मैं कोई कार्यवाही भी नहीं कर सकती थी, क्योंकि जहां घटना घटित होती है; शिकायत भी वहीं दर्ज कराई जा सकती है। इस बीच वे लोग अपने मिशन को अंजाम देकर उस डिब्बे से रफू-चक्कर हो चुके थे। मैं हैरान-परेशान-सी पूरा रास्ता यही सोचती रही... कितने शातिर हैं वे लोग...जो इन बच्चों से भीख मांगने का धंधा करवाते हैं और यह बच्चे भी डर के मारे उनके इशारों पर नाचते रहते हैं। यह भी हो सकता है कि इनके माता-पिता इन कारिंदों से, रात को बच्चों की एवज़ में पैसा वसूलते हों। वैसे भी आजकल छोटे बच्चों को तो शातिर महिलाएं किराए पर ले जाती हैं ...अपना धंधा चलाने के निमित्त और रात को उनके माता-पिता को लौटा जाती हैं... दिहाड़ी के साथ। जहां तक दिहाड़ी का संबंध है, बच्चों व महिलाओं को कम पैसे देने का प्रचलन तो आज भी बदस्तूर जारी हैं। वैसे भी बाल मज़दूरी तो दण्डनीय कानूनी अपराध है। परंतु इन बच्चों के सक्रिय योगदान के बिना तो बहुत से लोगों का धंधा चल ही नहीं सकता। सुबह जब बच्चे, कंधे पर बैग लटकाए, स्कूल बस या कार में यूनीफ़ॉर्म पहनकर जाते हैं, तो इन मासूमों के हृदय का आक्रोश सहसा फूट निकलता है और वे अपने माता-पिता को प्रश्नों के कटघरे में खड़ा कर देते हैं। वे उन्हें स्कूल भेजने की अपेक्षा; उनके हाथ में कटोरा थमाकर भीख मांगने को क्यों भेज देते हैं? उनके साथ यह दोग़ला व्यवहार क्यों? माता-पिता भाग्य व नियति का वास्ता देकर उन्हें समझाते हैं कि यह उनके पूर्व-जन्मों का फल है, सो! यह सब तो उन्हें सहर्ष भुगतना ही पड़ेगा। परंतु बच्चों को उनके उत्तर से संतोष नहीं होता। उनके कोमल मन में समानाधिकारों व व्यवस्था के प्रति आक्रोश उत्पन्न होता है और वे उन्हें आग़ाह करते हैं कि वे भविष्य में कूड़ा बीनने व भीख मांगने नहीं जायेंगे और न ही मेहनत-मज़दूरी करेंगे। वे भी शिक्षा प्राप्त करना चाहते हैं; उन जैसा जीवन जीना चाहते हैं। जब भगवान ने सबको समान बनाया है, तो हमसे यह भेदभाव क्यों? इस स्थिति में उनके माता-पिता मासूम बच्चों के प्रश्नों के सम्मुख निरुत्तर हो जाते हैं। चलिए! रुख करते हैं–घरों में काम करने वाली बाईयों की ओर...जिन्हें उनके परिचित सब्ज़बाग दिखा कर दूसरे प्रदेशों से ले आते हैं और उन्हें बंधक बना कर रखा जाता है। चंद दिनों देह-व्यापार के धंधे में धकेल दिया जाता है; जहां उनका भरपूर शोषण होता है और वे नारकीय जीवन ढोने को विवश होती हैं। हां! कुछ नाबालिग़ लड़कियों को वे दूसरों के घरों में काम पर लगा देते हैं; जिसकी एवज़ में वे मोटी रकम वसूलते हैं। ग्यारह महीने तक वे उस घर में दिन-रात काम करती हैं। परन्तु जब वे घर छोड़ कर, चंद दिनों के लिए अपने गांव लौटती हैं, तो बहुत उदास होती हैं...भले ही काम करना इनकी मजबूरी होता है। परंतु धीरे-धीरे वे मालकिन की भांति व्यवहार करने लगती हैं, जिसका ख़ामियाज़ा घर के बुज़ुर्गों को ग़ाहे-बेग़ाहे अपने आत्म-सम्मान को दांव पर लगा कर चुकाना पड़ता है, क्योंकि वे तो अनुपयोगी अर्थात् बोझ होते हैं। सारे घर का दारोमदार तो उन काम वाली बाईयों के कंधों पर होता है और वे तो घर-परिवार के लिए प्राण-वायु सम होती हैं। सो! आजकल तो इनकी मांग ज़ोरों पर है। इसलिए वे बहुत अधिक भाव खाने लगी हैं। परंतु कई घरों में तो उनका शोषण किया जाता है। दिन-रात काम करने के पश्चात् उन्हें पेट-भर भोजन भी नहीं दिया जाता। साथ ही उन्हें बंधक बनाकर रखा जाता है; मारा-पीटा जाता है और शारीरिक- शोषण तक भी किया जाता है। अक्सर उनकी तनख्वाह भी वे कारिंदे वसूलते रहते हैं। सो! वे मासूम तो अपनी मनोव्यथा किसी से कह भी नहीं सकतीं। जुल्म सहते-सहते, तंग आकर वे भाग निकलती हैं और आत्महत्या तक कर लेती हैं। सो! आजकल तो एजेंटों का यह धंधा भी खूब पनप रहा है। वे लड़की को किसी के घर छोड़ कर साल-भर का एडवांस ले जाते हैं और चंद घंटों बाद, अवसर पाकर वह लड़की अपने साथ कीमती सामान व नकदी लेकर भाग निकलती है। मालिक बेचारे पुलिस-स्टेशन के चक्कर लगाते रह जाते हैं, क्योंकि उनके पास तो उनका पहचान-पत्र तक भी नहीं होता। वहां जाकर उन्हें आभास होता है कि वे ठगी के शिकार हो चुके हैं। सो! उस स्थिति वे प्रायश्चित्त करने के अतिरिक्त कर ही क्या सकते हैं। परंतु बहुत से बच्चों के लिए मज़दूरी करना, उनकी मजबूरी बन जाती है... विषम पारिवारिक परिस्थितियों व आकस्मिक आपदाओं व किसी अनहोनी के घटित हो जाने के कारण; उन मासूमों के कंधों पर परिवार का बोझ आन पड़ता है और वे उम्र से पहले बड़े हो जाते हैं। यदि उन्हें मज़दूरी न मिले, तो असामान्य परिस्थितियों में परिवार-जन ख़ुदकुशी तक करने को विवश हो जाते हैं। इसलिए भीख मांगने के अतिरिक्त उनके सम्मुख दूसरा विकल्प शेष नहीं रहता। परन्तु कुछ बच्चों में आत्म-सम्मान का भाव अत्यंत प्रबल होता है। वे मेहनत-मज़दूरी करना चाहते हैं, क्योंकि भीख मांगना उनकी फ़ितरत नहीं होती और उनके संस्कार उन्हें झुकने नहीं देते। चंद लोग क्षणिक सुख के निमित्त अपनी संतान को जन्म देकर सड़कों पर भीख मांगने को छोड़ देते हैं। अक्सर वे बच्चे नशे के आदी होने के कारण अपराध जगत् की अंधी गलियों में अपना जीवन नष्ट कर लेते हैं। वे समाज में अव्यवस्था व दहशत फैलाने का उपक्रम करते हैं तथा वे बाल-अपराधी रिश्तों को दरकिनार कर, अपने माता-पिता व परिवारजनों के प्राण तक लेने में लेशमात्र भी संकोच नहीं करते। लूटपाट, फ़िरौती, हत्या, बलात्कार, अपहरण आदि को अंजाम देना इनकी दिनचर्या में शामिल हो जाता है। मुझे ऐसे बहुत से बच्चों के संपर्क में रहने का अवसर प्राप्त हुआ। लाख प्रयास करने पर भी मैं उन्हें बुरी आदतों से सदैव के लिए मुक्त नहीं करवा पाई। ऐसे लोग वादा करके अक्सर भूल जाते हैं और फिर उसी दल-दल में लौट जाते हैं। उनके चाहने वाले दबंग लोग उन्हें सत्मार्ग पर चलने नहीं देते, क्योंकि इससे उनका धंधा चौपट हो जाता है। 'मज़दूरी इनकी मजबूरी' अर्थात् ऐसे सत्पात्रों पर विश्वास करना कठिन हो गया है, क्योंकि आजकल तो सब मुखौटा धारण किए हुए हैं। अपनी मजबूरी का प्रदर्शन कर लोगों की सहानुभूति अर्जित कर, उनकी भावनाओं से खिलवाड़ कर उन्हें लूटना... उनका पेशा बन गया है। वे बच्चे; जिन्हें मजबूरी के कारण मज़दूरी करनी है– सचमुच वे करुणा के पात्र हैं। समाज के लोगों व सरकार के नुमाइंदों को उनकी सहायता-सुरक्षा हेतु हाथ बढ़ाने चाहिएं, ताकि स्वस्थ समाज की संरचना संभव हो सके और हर बच्चे को शिक्षा का मौलिक अधिकार प्राप्त हो सके... मानव- मूल्यों का संरक्षण हो सके तथा संबंधों की गरिमा बनी रहे। स्नेह, प्रेम, सौहार्द, सहयोग,परोपकार, सहनशीलता, सहानुभूति आदि दैवीय गुणों का समाज में अस्तित्व कायम रह सके। इंसान के मन में दूसरे की मजबूरी का लाभ उठाने का भाव कभी भी जाग्रत न हो और समाज में समन्वय, सामंजस्य व समरसता का साम्राज्य हो। मानव स्व-पर और राग-द्वेष से ऊपर उठकर एक अच्छा इंसान बन सके। अंत में मैं यही कहना चाहूंगी, यदि हम सब मिलकर प्रयासरत रहें और एक बच्चे की शिक्षा का दायित्व- निर्वहन कर लें, तो हम दस में से एक बच्चे को अच्छा प्रशासक, अच्छा इंसान व अच्छा नागरिक बना पाने में सफलता प्राप्त कर सकेंगे और शेष बच्चे भले ही जीवन की सुख-सुविधाएं जुटाने में सक्षम न हों; शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् आत्म- सम्मान से जीना सीख जाएंगे और अपराध-जगत् की अंधी गलियों में भटकने से बच पायेंगे। निरंतर अभ्यास, अथक परिश्रम व निरंतर प्रयास के द्वारा, हमारा मंज़िल पर पहुंचना निश्चित है। सो! हमें इस मुहिम को आगे बढ़ाना होगा, जैसा कि हमारी सरकार इन मासूम बच्चों के उत्थान के लिये नवीन योजनाएं प्रारम्भ कर रही है; जिसके अच्छे परिणाम हमारे समक्ष हैं। परंतु सकारात्मक परिणामों की प्राप्ति के लिए संविधान में संशोधन करना अपेक्षित व अनिवार्य है। हमें जाति-विशेष को प्रदत्त आरक्षण सुविधा को समाप्त करना होगा; जिसे संविधान के अनुसार केवल दस वर्ष के लिए दिया जाना सुनिश्चित किया गया था। परंतु हम आज तक वैयक्तिक स्वार्थ व लोभ-संवरण के विशेष आकर्षण व मोह के कारण उससे निज़ात नहीं पा सके हैं। सो! हमें अच्छी शिक्षा-प्राप्ति व जीवन-स्तर उन्नत करने के निमित्त, उन्हें आर्थिक-सुविधाएं प्रदान करनी होंगी, ताकि उनमें हीन-भावना घर न कर सके। देश की अन्य प्रतिभाओं को भी प्रतियोगिता में योग्यता के आधार पर समान अवसर प्रदत्त हों और प्रतिस्पर्द्धा में निर्धारित अहर्ताओं के मापदंडों पर सब खरे उतर सकें तथा जाति-पाति के भेदभाव को नकार, वे भी सिर उठा कर कह सकें…'हम भी किसी से कम नही।' डॉ• मुक्ता माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत। |
मज़दूरी इनकी मजबूरी
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