उम्मीद की किरण 








































उम्मीद की किरण 

 

टूटते हौसले विकराल बाढ़ में 

भयानक तूफान में तपते रेगिस्तान में 

अग्नि अनल के स्थान आदि 

प्रतिकूलताओं के तूफान में ही नहीं 

जो बुझे हुए दीपक में डूबे हुए सूरज में 

जो उम्मीद की किरण देख लेते हैं 

वह होते हैं "त्रिलोक" कामयाब 

सफलता का शिखर चूम लेते हैं

दावानल में घिरे पांडव निकलने की 

उम्मीद का द्वार खोज लेते हैं

समुद्र पार सीता को भी हनुमान जी 

उम्मीद की छलांग से खोज लेते हैं

गोवर्धन पर्वत को नारायण श्री कृष्ण

उम्मीद की उंगली पर थाम लेते हैं 

उम्मीद की राह में ही शबरी को 

मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम मिलते हैं  

अतः उम्मीद की लौ जलाए रखो त्रिलोक 

उम्मीद से ही मिलेगा जीवन में 

शांति सफलता आनंद का आलोक 

 इसलिए सदा याद रखो 

रात अभी बाकी है बात अभी बाकी है 

जब तक चल रही है श्वास उम्मीद अभी बाकी है 

 

 ब्रःत्रिलोक जैन

 


 

 



 



 













 










 

 








 

 







 







 




 





 




 



 



 


 


 


















 

 





 



 





 


 


 


हक दो

पलकों में सपने सजाने का हक दो

हमें एक चादर बिछाने का हक दो।।

 

हमें  हक दो चुल्लू से* पानी  पिएँ हम।

हमें एक रोटी तो* खाने का हक  दो।।

 

गिनेंगे नहीं छाले पाँवों के* अपने ।

हमें  राह अपनी बनाने का हक दो।।

 

धरा पर जन्म हमने भी तो लिया है ।

गगन ओढ़कर  सो भी* जाने का हक दो।।

 

तुम्हारी नजर हमको ही घूरती   है 

हमें अंग  अपने छिपाने का हक दो।।

 

 ये* बच्चे धरोहर हैं इनको सम्हालें

इन्हें खेलने और खाने का हक दो ।।

 

तुम्हारे दिये पर रहे 'सुषमा ' जीवित

हमेंअपने* हक आज पाने का हक दो।।

 

      डॉ0 सुषमा सिंह ,आगरा 

 

दिल और दिमाग 








































 

 

दिल और दिमाग 

 

1.दिल दिमाग जब एक हों, बनते सारे काम ।

     जीवन के हर मोड़ पर, मिले सफलता धाम ।

 

2- दिल सच्ची बातें करे, तिकड़म करें दिमाग ।

    दिल की कहनी मानिए, दिल में बसते राम ।।

 

3-  करुणा दया उदारता, दिल की ये पहचान ।

     हानि-लाभ निज दूसरा,मस्तिक आठहुॅ याम ।।

 

4- जतन हमेशा कीजिए , बसे रहो दिल पास ।

    दिल की मानी राधिका,मिला कृष्ण का ठाम ।।

 

5-  कंचन मृग मस्तिक बसा, सीता पिय से दूर ।

     मीरां दिल की मान कर , पॅहुची वृन्दा-धाम ।।

 

6-  नारद मन के वश भये, पॅहुचे मण्डप पास ।

      नारायण दिल याद कर ,पॅहुचे भगवत धाम ।।

 

        आदित्य कुमार गुप्ता ।


 

 



 



 













 










 

 








 

 







 







 




 





 




 



 



 


 


 


















 

 





 



 





 


 


 


दोहे 








































दोहे 

 

आँखों से नदी बहती , आँखों में समंदर 

आँख से तूफान उठे , आँखों में बवंडर 

 

झील सी गहरी आँखें , इसमें डूबे जांय

डूब कर जिंदगी मिले, कौन उसे समझाय

 

आँखों में ममता भरी , आँखों में ही क्रोध 

आँखों से दया छलके, आँख से प्रतिशोध 

 

आँखों से तीर चलते ,आँखों से ही वार 

आँख में कोई बसता,आँखों से ही प्यार 

 

आँख से आंसू बहते , दर्द का होय बखान 

आँखों से ख़ुशी झलके, कौन अभी अंजान

 

आँखें मूक की भाषा ,आँख करे निवेदन 

आँख से करे इशारा ,आँख का संवेदन 

 

आँख से ज्वाला फूटे ,आँख से बहे नीर 

आँखों से दर्द झलके, आँखें कहती पीड़

 

सीमा की रक्षा करते , ये दो सुंदर आँख 

सदा ही चौकस रहते, अगल बगल में झांक 

 

शयाम मठपाल ,उदयपुर


 

 



 



 





 









 

 








 

 







 







 




 





 




 



 



 


 


 


















 

 





 



 





 


 


 


मुनि श्री विद्याभूषण महाराज का चातुर्मास कडहट्टि बेलगांम में

मुनि श्री विद्याभूषण महाराज का चातुर्मास कडहट्टि बेलगांम में

परम पूज्य 108 मुनि श्री विद्याभूषण महाराज का सन् 2020 का चातुर्मास वर्षायोग श्री 1008 शान्तिनाथ तीर्थंकर वसदि कडहट्टि, जिला बेलाम में दिनांक 5 जुुलाई 2020 रविवार को होना निश्चित हुआ है। कडहट्टि ग्राम चातुर्मास समिति से निवेदन किया है कि समस्त श्रावक अधिक से अध्कि संख्या में कलश स्थापन कार्यक्रम में भाग लेकर पुण्य लाभ लें। कार्यक्रम इस प्रकार से रहेंगे- दिनांक 5 जुलाई 2020 रविवार को होगा, नित्य मह पूजन के उपरान्त मुनिश्री के प्रवचन, 10.00 बजे रोचक सांस्कृतिक कार्यक्रम, 11.00 बजे श्रावकों की भोजन व्यवस्था, 12 बजे समस्त श्रावकों द्वारा पंचामृत अभिषेक, 12. 30 बजे दश कलशों की स्थापना और एक भाग्योदय कलश स्थापना संबंधि कार्यक्रम होंगे। विद्वानों व श्रावकों व्याख्यान व दिव्यसागर वडवडे द्वारा संगीत का कार्यक्रम प्रस्तुत किया जायगा तथा मुनिश्री के प्रवचन होंगे।

*हाय बेटा*








































वर्तमान  की ज्वलंत सामाजिक समस्या पर आधारित कहानी 

 

हाय बेटा*

 

ट्रिन ट्रिन ट्रिन फोन की घंटी बजते ही रुपाली दौड़ पड़ी जैसे वह फोन का इंतजार कर रही थी। फोन उठाते ही वह जोर से चीख पड़ी, क्या ! सही में, उसकी चीख सुनते ही मां, दादी सभी दौड़ पड़े। अरे ! क्या हो गया। मां के पूछने पर जब उसने बताया कि उसने कक्षा में टॉप किया है तो मा ने तो खुशी से उसका माथा चूम लिया। वह खुशी के मारे उछलने लगी। अभी वह यह खुशी ढंग से जाहिर भी नहीं कर पाई थी, कि दादी की कड़क आवाज से सहम गई। अरे ! टॉप किया है तो कौन सा एहसान किया है। ना काम की ना काज की दुश्मन अनाज की। जब देखो पढ़ाई पढ़ाई, ना जाने कहा कि कलेक्टर बनेगी यह लड़की। अरे ! मैं तो कहती हूं लड़कियों को यह सब शोभा नहीं देता मगर मेरी सुनता ही कौन है। देख, चौका चूल्हा में ध्यान दें यही काम आएगा जे पढ़ाई नहीं। पढ़ने लिखने का काम तो मर्दों का है और सुन तू, तू क्यों सारा काम धाम छोड़कर भटर भटर कर रही है। चली आई दौड़ती हुई लड़की ने टॉप किया है। आंखें तरेरती हुई दादी, बहू को डांट लगाती है। अरे ! है तो यह पराया धन ही ना। मैंने लाख बार कहा है थोड़ा ध्यान मेरे लाडेस्वर पर भी लगा ले। उसे बड़ा आदमी बनाना है कि नहीं ? मगर बनाएगी कैसे तेरा तो सारा ध्यान अपनी इस लड़की पर ही लगा रहता है। कान खोलकर सुन ले वंश तो बेटा ही चलाता है। बुढ़ापे में ध्यान भी वही रखता है। मगर तू, तेरी बुद्धि पर तो जैसे पत्थर ही पड़ गए हैं। यही थी रोज की दिनचर्या, शायद ही कोई दिन ऐसा जाता हो जब रूपाली और उसकी मां जया को ताने सुनने को ना मिलते हो। एक मां ही थी जो उसे हमेशा आगे बढ़ने का आशीर्वाद देती रहती थी। हमेशा उस का साथ देती थी। रुपाली यह बात अच्छी तरह से जानती थी कि जो मुकाम पढ़ने लिखने के बावजूद उसकी मां हासिल ना कर पाई वह चाहती है वह सब उसकी बेटी हासिल करे।

दूसरी तरफ उसका भाई श्याम जिसका पढ़ाई में मन ही नहीं लगता था। हरदम खेल खेल। जब पढ़ाई का नाम लो, उसे तो जैसे आफत ही आ जाती थी। मगर फिर भी दादी, पापा, मम्मी, बाबा सभी की आंखों का तारा था वह।

सारा परिवार उसी के पीछे लगा रहता था। उसकी एक आवाज निकली नहीं की फरमाइश पूरी हुई नहीं। दिन बीते गए। रुपाली अपनी मेहनत के बल पर आगे बढ़ती ही गई और वह दिन भी आ गया जब मैं इंजीनियर बन गई। मां को तो जैसे पंख लग गए हो। खुशी के मारे उसकी आंखों से आंसू बहने लगे, लेकिन घरवालों को तो जैसे सांप सुंग गया था। पिता तो बार-बार यही कह रहे थे, अच्छी बात है लेकिन यदि इतना ध्यान तुम मेरे बेटे पर देती तो वह भी इंजीनियर होता। 

दादी बाबा खुश तो थे लेकिन वह खुशी चेहरे पर कहीं भी दिखाई नहीं दे रही थी क्योंकि साथ में एक दर्द भी था कि बेटा इंजीनियर क्यों नहीं बन पाया। कुछ समय पश्चात रूपाली की शादी हो गई। हंसी खुशी वह अपनी ससुराल भी चली गई और इधर श्याम नौकरी की तलाश में इधर उधर धक्के खाता रहा, मगर सब बेकार। अब उसे लगने लगा कि काश ! उस समय यदि वह भी ध्यान लगाकर पढ़ लेता तो शायद आज यह दिन ना देखने को मिलता। इसमें कोई शक नहीं की मेहनत तो उसने भी की थी, उसकी बुद्धि भी तेज थी, मगर लाड प्यार ने उसे आलसी बना दिया था। कुछ भी हो आखिर बेटा बेटा ही होता है उसे कैसे दुखी देख सकते थे दादी बाबा, माता पिता। जैसे तैसे पिता ने अपनी सारी कमाई रिश्वत में देखकर उसकी एक अच्छी कंपनी में नौकरी लगवा दी। अच्छी नौकरी पाते ही वह भूल गया कि यह मुकाम भी उसे अपने माता-पिता के रहमों करम पर ही हासिल हुआ है। धीरे-धीरे उसका व्यवहार बदलने लगा, बात-बात पर चिल्लाना, झल्लाना, चिड़चिड़ाना, शायद उसके अंदर यह बात घर कर गई थी कि आज जो भी स्थिति है उसका जिम्मेदार वह स्वयं ही है। उसकी चिड़चिड़ा हट का कारण दूर करने के लिए माता-पिता ने सोचा क्यों ना उसकी शादी कर दी जाए। घर में बहू आ जाएगी तो सब कुछ ठीक हो जाएगा। 

समय बीतता गया दादी बाबा इस दुनिया में रहे नहीं एक दिन अच्छी सी लड़की जो कि श्याम की ही कंपनी में कार्य करती थी का जैसे ही प्रस्ताव आया बातचीत चली और चट मंगनी पट ब्याह हो गया। दोनों हंसी खुशी रहने भी लगे ठीक एक साल बाद घर में बेटा हुआ। घर खुशियों से भर गया। दादी बाबा का तो जैसे खुशी का ठिकाना ही ना था मगर यह खुशी शायद ज्यादा समय तक उनके दामन में नहीं थी एक दिन श्याम ने ऐलान कर दिया मां अब हम दो से तीन हो गए हैं खर्चे भी बहुत बढ़ गए हैं अब मैं आप दोनों का खर्च उठाने में समर्थ नहीं हूं इसलिए मैंने आप दोनों का अलग से इंतजाम कर दिया है।

मां कुछ समझ पाती बोल पाती कि यह क्या कह रहा है उनका अपना ही खून जिसके लिए उन्होंने अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया। यह सोचने का मौका ही कहां दिया उसने, तब तक तुम कार का होरन सुनाई दिया, शायद दरवाजे पर गाड़ी आ चुकी थी, शाम में जल्दी-जल्दी उनका सामान बाधा और चल दिया वृद्ध आश्रम की ओर। माता पिता दोनों की आंखों से झर झर आंसू बह रहे थे। बस समझ ही नहीं पा रहे थे कि क्या कहें, क्या ना कहें, क्योंकि सारी पूंजी तो वह अपने इस लाडले बेटे पर गवा चुके थे यह सोच कर कि बुढ़ापे में वही तो एक सहारा है। मगर अब तो कहने के लिए कुछ बचा ही नहीं था बस चुप रहने में ही भलाई थी वह तो स्तब्ध थे शाम के इस फैसले से। धीरे-धीरे समय बीतता गया। वृद्ध आश्रम में रहते रहते आज उन्हें पूरा एक वर्ष हो गया था उन्हें अच्छी तरह याद था आज का महत्वपूर्ण दिन क्योंकि आज उनके बेटे का जन्मदिन था, यह वही दिन था जिस दिन हर वर्ष उनके घर बहुत भीड़ भाड़ हुआ करती थी। जोरदार पार्टी होती थी उनके घर, लेकिन आज वह बिल्कुल अकेले थे पोता बहुत तो छोड़ो उनका खुद का बेटा भी आज उनके साथ ना था। बेटे के साथ साथ उन्हें अपने पोते की भी बहुत याद आ रही थी, मैं कर भी क्या सकते थे। तब उन्होंने अपने बेटे के लिए जन्मदिन पर उसको एक चिट्ठी लिखी जो इस प्रकार थी-

'श्याम खुश रहो,सुखी रहो, संपन्न रहो, कामयाबी तुम्हारी चरण चूमे। बस यही कामना करते हैं हम अपने पोते के जन्मदिवस पर। हमारी शुभकामनाएं हैं कि जैसे हमने तुम्हें पढ़ाया, लिखाया, बड़ा आदमी बनाया। तुम भी हमारे पोते को इसी तरह पढ़ाना, लिखना, बड़ा आदमी बनाना। मगर इतना बड़ा मत बना देना कि जैसे तुमने हमें वृद्धाश्रम भेज दिया, वैसे ही बुढ़ापे में वह भी एक दिन तुम्हें भी हमारी तरह वृद्ध आश्रम भेज दे।

चिट्ठी हाथ में आते ही श्याम ने जब उसे पढ़ा, तो आंखें खुली की खुली रह गई, उसकी आंखों से टप टप आंसू टपकने लगे, वह तो रुकने का नाम ही नहीं ले रहे।

आज वह यह बात अच्छी तरह से समझ चुका था कि उसने क्या खोया, क्या पाया। गलती का सुधार जितनी जल्दी हो उतना ही अच्छा है, वरना कहीं एसा ना हो कि देर हो जाय और इस गलती की पुनरावृत्ति दुबारा हो जाय। कहीं यह गलती पीढ़ी दर पीढ़ी ना चले। यही सोचकर उसने गाड़ी निकली और चल दिया वृद्ध आश्रम की ओर। गाड़ी तेज रफ्तार से भागी चली जा रही थी और श्याम की आंखो से पश्चाताप के आंसू बहते जा रहे थे। वह यह सोच रहा था , यह मैंने क्या कर दिया ? क्यों कर दिया ? कर दिया?

 

डॉ कविता रायजादा

आगरा


 

 



 



 













 










 

 








 

 







 







 




 





 




 



 



 


 


 


















 

 





 



 





 


 


 


मास्क बनाम मुखौटा












































मास्क बनाम मुखौटा

 

मास्क कोराना की सौग़ात नहीं

मुखौटों में रूप में इसका प्रचलन

युग-युगांतर से चला आता

पहले बहुरूपिये वेश बदल

करते थे मनोरंजन

कई ठगने में थे दक्ष

 

इक्कीसवीं सदी में

हर इंसान मुखौटा धारण कर

एक-दूसरे को मूर्ख बना इतरा रहा

रिश्तों की अहमियत रही नहीं

कोई भी संबंध पावन शेष बचा नहीं

आज कल अपने, अपने बन

अपनों को छल, सुक़ून पा रहे

 

ज़रा सोचो! मास्क क्या रंग लाएगा

वहशी इंसान जुर्म कर भाग जाएगा

मास्क तो एक सहारा है,आवरण है

अपना परिचय छुपाने का

सबको धत्ता बताने का

 

आओ! इस संकट की घड़ी में

पुरातन धरोहर को अपनाएं

संकट की इस घड़ी में

अपनों से भी दूरी बनाएं

हाथ-पांव धोएं हरदम

स्वच्छता को गले लगाएं

निशदिन मास्क धारण कर

कोरोना रूपी महामारी से

सर्वहिताय निज़ात पाएं 

 

●●● डॉ मुक्ता●●●


 

 



 



 





 









 

 








 

 







 







 




 





 




 



 



 


 


 


















 

 





 



 





 


 









 





 



 


 


 


 


मां









































मां

""'"''

सबसे सुरक्षित मां की गोदी

इस    जग   में   संतान  को 

मां को देख लो जिसने अब

तक नहीं देखा भगवान को

 

नौ  महीने  तक अपने रक्त 

से निर्मित  करती बच्चे को 

बाद जन्म के दूध पिलाकर

सिंचित   करती   बच्चे को 

 

बच्चे  की  खातिर नौछावर 

कर  दे  निज  अरमान  को 

मां को देख लो जिसने अब

तक नहीं देखा भगवान को

 

सब   कंटक   चुनती  जाती 

जो  आते  बच्चों  के  मग में 

इस मां की  ममता का कोई

मोल   नहीं   होता   जग  में 

 

कभी   ठेस   मत    पहुंचाना 

कोई  माता  के  सम्मान  को 

मां  को  देख लो जिसने अब

तक नहीं  देखा  भगवान को

 

 

       रामबाबू शर्मा 'अकिंचन'

                   जयपुर


 

 



 



 













 











 

 








 

 







 







 




 





 




 



 



 


 


 


















 

 





 



 





 


 


 


बारिश में भीगती लड़की









































बारिश में भीगती लड़की

 

सड़क के बीचों बीच

तेज बारिश में

भीगती हुई वो लड़की

कर रही थी

व्यर्थ सी कोशिश

बारिश में बुरी तरह

भीग चुके अपने

कपड़ों में से झांकते

अपने सुकोमल से

अंग प्रत्यंग को

छिपाने की

जमाने भर की

गिद्ध नजरों से

बस जाने की

तेज तेज कदमों से

अपनी मंजिल पे

पहुंच जाने की

पर उसका निचुड़ता जिस्म तो

सबकी नजरों में

जैसे बारिश में नहाती

किसी फिल्म अभिनेत्री सा

बना हुआ था

सबके आकर्षण का केंद्र

कोई क्या जाने

उस वक्त क्या चल रहा था

बारिश में भीगती हुई

अकेली लड़की के अंदर

वो कर रही थी

व्यर्थ सी कोशिश

अपना भीग चुका वक्ष स्थल

भीगे चुनर से छुपाने की

दूर कहीं दूर जा

वासना के भूखे

भेड़ियों की

लोलुप नजरों से

बच जाने की

अपनी इज्जत को

तार तार होने से बचाने की

सही सलामत

अपने घर को लौट जाने की

 

यशेद्रा भारद्वाज यशी

जिला गाजियाबाद

उत्तर प्रदेश


 

 



 



 













 











 

 








 

 







 







 




 





 




 



 



 


 


 


















 

 





 



 





 


 


 


लेखिका उपन्यासकार कवयित्री नासिरा शर्मा








































लेखिका उपन्यासकार कवियत्री नासिरा शर्मा

 

नासिरा शर्मा नाम से ही हम जानी मानी लेखिका उपन्यासकार कवयित्री और शा यरा के जीवन के बारे में अंदाजा लगा सकते हैं कि उनका जीवन गंगा जमुनी तहजीब का पुख्ता प्रमाण है।

सर्व धर्म में विश्वास करने वाली लोक कल्याणकारी निम्न तबके एवं शोषित वर्ग की लेखिका नासिरा का जन्म इलाहाबाद के एक साधन संपन्न जागीरदार शिया मुस्लिम परिवार में उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद नामक स्थान पर 1948 में हुआ था। नासिरा की  पारिवारिक पृष्ठभूमि ऐसे थे कि उनके पिता भी प्रसिद्ध लेखक और शायर थे और एक व्यवहार कुशल और उसूल पसंद इंसान के तौर पर इस समाज में ख्याति प्राप्त थे। परंतु भाग्य की विडंबना देखो की नासिरा के बचपन में ही पिता का साया उनके सिर से उठ गया था। परंतु प्रसिद्धि का आलम यह था कि उनके मरणोपरांत भी अपने उसूलों के कारण इस समाज में उन्हें याद किया जाता था नासिरा के मन मस्तिष्क पर इन बातों का प्रभाव बचपन से ही बढ़ता चला गया था और लेखन जैसे उनके खून में शामिल हो गया था। कक्षा 6 में उनकी पहली कहानी कुर्बानी जो उन्होंने लिखी बहुत पसंद की गई और सर आ ही गई नन्हीं लेखिका के जीवन का आलम ऐसा था कि वह आराम पसंद ना होकर घंटो घंटो अपने घर के तहखाने में रखी पुस्तकों को अपलक निहारती रहती। उनकी माता नाज़नीन ने पति के बाद अपनी सन्तान  को बहुत उसूल और दुनियादारी की समझ के साथ बेहद समझदारी के साथ इस संसार में रहने की और व्यवहार कुशल होने की शिक्षा दी। 19 वर्ष की अल्पायु में नासिरा का विवाह प्रोफेसर रामचंद्र शर्मा के साथ संपन्न हुआ और ऐसे वे नासिरा से नासिरा शर्मा हो गई।

हिंदी उर्दू अंग्रेजी और पाश्तो भाषाओं की जानकार थीं और उनकी शोध का विषय ईरान रहा है।

मुझे नासिरा शर्मा की कुछ बातें बहुत अच्छी लगती हैं जैसे के वह कहती हैं कि मेरा चेहरा अंतर्राष्ट्रीय है मैं जहां कहीं भी जाती हूं लोग मुझसे पूछते हैं कि तुम पंजाबी हो मुसलमान हो हिंदू हो कश्मीरी हो पठान हो या इसी पाश्चात्य देश से हो तो मुझे बहुत खुशी होती है क्योंकि उनको मेरे चेहरे में एक अंतरराष्ट्रीय चेहरा नजर आता है। मुझे यह बात बहुत अच्छी लगती है चलो कम से कम उन्हें मेरे चेहरे में एक इंसान का चेहरा तो नजर आता है किसी जानवर का तो नहीं अगर जानवर का नजर आता तो मैं भी खूंखार और भयानक दिखती। उनकी इस बात में बहुत मर्म है बस समझने का दिमाग चाहिए।

नासिरा शर्मा सर्व धर्म मैं विश्वास करती हैं मंदिर मस्जिद गुरुद्वारा गिरजाघर सब जगह जाकर अपना शीश निभाती हैं।

वह परंपराओं की बेशक अनुयाई हैं क्योंकि परंपराएं एक वृक्ष की तरह हैं जो इस धरती में गहरे तक फैली होती हैं और आसमान तक ऊंची अगर हम उन परंपराओं में छिपी अच्छाई को तलाश करेंगे तो जीवन सुकून से भर उठेगा परंतु गली सड़ी परंपराएं जोके इस पितृसत्तात्मक समाज की देन है जैसे के महिलाओं के द्वारा सिंदूर लगाना बिंदी लगाना चूड़ी बिछुआ पहनना पर्दा प्रथा यह सब गलीप साड़ी परंपराएं हैं और महिलाओं को सिर्फ गुलामी या दास्तान देती हैं उनके हिस्से का आकाश छीन लेती हैं ऐसी गली सड़ी परंपराओं में नासिरा शर्मा का सिरे से ही विश्वास नहीं है।

नासिरा शर्मा के साहित्य का फलक इतना विशाल है कि उसको शब्दों में बांध बना हर एक के बस की बात नहीं। सूर्य को दीपक दिखाने के समान है यह सब। फिर भी साहित्य अकादमी एवं व्यास पुरस्कार से सम्मानित इस महान लेखिका के कहानी संग्रह खुदा की वापसी जोकि सिलेबस में भी लगा हुआ है शायद। उनका प्रसिद्ध उपन्यास पारिजात ।

सात नदिया एक समंदर

जिंदा मुहावरे

कागज की नाव

इलाहाबाद के निम्न तब के रिक्शावाला लोहार कागज के लिफाफे बनाने वाले चना भूलने वाले कामवाली बाई इत्यादि शोषित गरीब वर्ग पर लिखा गया उनका साहित्य वास्तव में मील का पत्थर है।

सरलता सादगी गंभीरता जैसे उनके गहने हैं

सुप्रसिद्ध लेखिका को अतिथि सत्कार घर को सजाना लंबी यात्राएं करना पसंद है।

उनकी बहन भी प्रसिद्ध लेखिका और शायरा है।

भगवान से उनकी दीर्घायु एवं तंदुरुस्ती के लिए प्रार्थना करते हैं

 

 

यशेद्रा भारद्वाज यशी

🙏🙏🙏🙏


 

 



 



 













 










 

 








 

 







 







 




 





 




 



 



 


 


 


















 

 





 



 





 


 


 


उनकी जयकार लिखूं






उनकी जयकार लिखूं

 

बीस शव सीमा पर शहीदों के थे शांत पड़े, 

 

वीरों की शहादत पर मचा हाहाकार लिखूं ।

 

 

तिरंगे में  लिपटे हुए  आए थे जवान  घर, 

 

पूरा गांव बोल उठा उनकी जयकार लिखूं ।

 

 

चायना के सैनिकों को मारकर शहीद हुए, 

 

दुखी हैं पर गर्व में है उनका परिवार लिखूं ।

 

 

शहीदों की पत्नियों ने खुद ही शृंगार फेंके,

 

आप ही बताइए मैं अब क्या शृंगार लिखूं ।

 

 

       रामबाबू शर्मा 'अकिंचन'

                   जयपुर


 

 



 



आज मैं नमन लिखूं








































 कोरोना की महामारी और गलवान घाटी में बलिदान वीरों का देखकर 

अब क्या श्रृंगार लिखूं

 किसका मैं निखार लिखूं

छोड़ कर पत्नी को प्रीतम देश खातिर बलिदान हुआ

शहीद होकर के वो देश की शान हुआ

 नाम अपना कर गया

घाटी में लहू बह गया

तब कैसे कोई श्रृंगार लिखे

अब आँखों से सिर्फ अंगार दिखे

आज बिंदी ,काजल, नैना इन सब को छोड़कर

जोर से हल्ला बोल कर

 हमें चीन को ललकारना है 

करके उसका बाजार बंद हमको अब मारना है 

 याद करते है उन सैनिकों को जो देश खातिर डटे रहे

पीछे नहीं हटे

उनसे वे अड़े रहे

इस जोशो जुनून को बरकरार रखना है

 अपने बेटे को भी तिलक विजय का करना है 

 इस वेला मैं बोलो श्रृंगार कैसे लिखूं

शहीद सैनिको को आज मैं नमन लिखूं

 

दीपा परिहार

जोधपुर


 

 



 



 







 

 








 

 







 







 




 





 




 



 



 


 


 


















 

 





 



 





 


 


 


जैन अल्पसंख्यकों का हिंदी साहित्य में योगदान

 


जैन अल्पसंख्यकों का हिंदी साहित्य में योगदान


डॉ संध्या सिलावट 


भारत एक हिन्दू बहुल राष्ट्र है। इसमें राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम 1992 के तहत पाँच धार्मिक समुदायों –मुसलमान, ईसाई, सिख, बौद्ध और पारसी को अल्पसंख्यक अधिसूचित किया गया है। 


इनकी जनसंख्या देश की 20.20%  है।


सामान्यतः अल्पसंख्यक का तात्पर्य उस समूह से लिया जाता है जो धर्म, भाषा और जाति की दृष्टि से बहुसंख्यक समुदाय से भिन्न एवं कम संख्या हो।


भारत में अल्पसंख्यकों को तीन समुदायों में  बांटा गया है। 


1.धार्मिक अल्पसंख्यक  2. भाषाई अल्पसंख्यक  3. जनजातीय अल्पसंख्यक।


भारतीय समाज में ‘अल्पसंख्यक’ शब्द का प्रयोग धार्मिक दृष्टि से अन्य जनसंख्या वाले संप्रदाय के लोगों के लिए किया जाता है।


The term minority is commonly used to refer communities that are numerically small in relations to the rest of the population.


सरकार ने अल्पसंख्यकों के लिए बहुत से संवैधानिक प्रावधान किए है।


भारत में अल्पसंख्यक बहुत दीर्घकाल से निवास करते आ रहे हैं। यहाँ की भाषा व संस्कृति को उन्होंने अपनाया भी है और उसे प्रभावित भी किया है। भारतीय समाज का, अल्पसंख्यक एक अभिन्न हिस्सा है। हिन्दी साहित्य की परम्परा प्राचीन समय से चलती आ रही है, तभी से अल्पसंख्यक उसमें अपना सहयोग करते आ रहे हैं। मैं यहाँ जैन अल्पसंख्यकों द्वारा हिन्दी साहित्य में किए गए योगदान के विषय में वर्णन करने जा रही हूँ। मैंने हिंदी भाषा केआरंभ से लेकर स्वतंत्रता प्राप्ति तक का काल चुना है। अनेकों रचनाकार हैं,उसमें जो प्रमुख हैं उनका  संक्षिप्त वर्णन ही किया गया है ताकि उनके महत्वपूर्ण कार्य से हम सभी परिचित हो सकें।


 1) पुष्पदंत दसवीं शताब्दी में हुए। बाद में जैन बने। कुछ विद्वानों ने जैन कवि पुष्पदंत को हिंदी का आदिकवि माना है। परंतु कुछ विद्वान् इससे सहमत नहीं है। उनका मानना है कि विकासमान हिंदी के प्रयोग मिलते हैं। इनकी तीन रचनाएँ मिलती हैं-‘महापुराण’, ’णयकुमार चरिउ‘ तथा ‘जसहर चरिउ’। इनकी रचना धार्मिक उद्देश्य से हुई है, फलस्वरूप साहित्यिक शिल्प तथा तात्त्विक दृष्टि से इन पर ‘जिन-भक्ति’ का प्रभाव सर्वत्र मिलता है। ’महापुराण‘ में अनेक घटनाएँ और चरित्र हैं-कवि ने 63 महापुरुषों की जीवन –घटनाओं को वर्णन का विषय बनाया है। प्रसंगवश इसमें राम-कृष्ण को भी स्थान मिला है। धार्मिक ग्रंथ होने पर भी इसके काव्यत्व में किसी प्रकार की कमी नहीं है। पुष्पदंत ने प्राकृतिक सरस सौन्दर्य का अत्यंत निकट से साक्षात्कार किया है। 


भरत के आश्रय में पुष्पदंत ने इस काव्य की रचना की थी। महाकाव्य तीन खण्डों में विभाजित है। मगधराज-श्रेणिक के अनुरोध करने पर श्री महावीर के शिष्य गौतम महापुरुष की कथा सुनाते हैं। कृति में सुणंदा-जसबई के विवाह और भरत का राज्याभिषेक आदि घटनाओं का कथात्मक शैली में वर्णन है।  69 से 79 संधि तक राम की कथा है जिसे जैन-धार्मिक दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया गया है। पुष्पदंत की साहित्य-रचना शुद्ध धार्मिक भाव से हुई। महापुराण के प्रथम अध्याय में उन्होंने स्पष्ट लिखा हैः ”भैरव राजा की स्तुति में काव्य बनाने से जिस ‘मिथ्या’ ने जन्म लिया था ,उसे दूर करने के लिए ही मैंने महापुराण की रचना की है।” राज-स्तुति से दूर रहकर शुद्ध धार्मिक भाव से साहित्य-रचना की यह प्रवृत्ति अपभ्रंश से हिंदी में आई।


णयकुमारचरिउ में पुष्पदंत ने नागकुमार चरित की रचना की है। राजा श्रेणिक पंचग्रीव्र का माहात्म्य पूछता है। महावीर के शिष्य गौतम उनके आदेशानुसार व्रत से सम्बद्ध कथा कहते हैं। कथा का विकास 9 संधियों में हुआ है। राजा जयन्धर, रानी विशालनेत्र, कनकपुर की राजकुमारी , श्रीधर, लक्ष्मीमती आदि की कथा प्रारम्भ में है। प्रमुख रूप से नागकुमार का जन्म , शिक्षा ,विवाह आदि का चित्रण किया गया है।


पुष्पदंत द्वारा रचित जसहरचरिउ खण्डकाव्य है। इसमें जैन साहित्य की प्रसिद्ध जसहर या यशोधर की कथा का वर्णन है। चार संधियॉं हैं। भैरवानन्द , मारिदत्त आदि के वर्णन के पश्चात् यशोधर का वर्णन है। अंत में पात्र जैन धर्म में दीक्षित होते हैं।


 पुष्पदंत की भाषा में स्पष्टतः हिन्दी के अंकुर दबे हुए दिखाई देते हैं। उदाहरण- 


पडु तडि-वडण पडिय बियडायल, रुज्जिय सीह दाउणो।


पच्चिय मत्त मोर कल-कल-रव, पूरिय सयल काणणो।।


2) जैन आचार्य देवसेन कृत ’श्रावकाचार‘ ग्रंथ रूप में यह हिन्दी साहित्य की प्रथम रचना है। इसका रचनाकाल 933 ई. है। ये एक अच्छे कवि तथा उच्चकोटि के चिन्तक थे। ’श्रावकाचार‘ में  250 दोहों में श्रावक-धर्म का प्रतिपादन किया गया है। कवि ने गृहस्थ के कर्त्तव्यों पर भी विस्तार से विचार किया है। इसकी रचना दोहा छन्द में हुई है। उदाहरण- 


जो जिण सासण भाषियउ,सो मइ कहियउ सारु।


जो पालइ सइ भाउ करि , सो सरि पावइ पारु ।। 


इन्होंने अपभ्रंश में भी ’दब्ब-सहाय-पयास‘ नामक काव्य लिखा था। हिंदी में लिखित इनकी अन्य रचनाएँ ‘लघुनयचक्र‘ तथा ‘दर्शनसार’ है, जो काव्य की श्रेणी में नहीं आतीं।


3) शालिभद्र सूरि  ने ‘भरतेश्वर –बाहुबली रास’ की रचना 1184 ई. में की। मुनि जिनविजय ने इस ग्रंथ को जैन-साहित्य की रास-परंपरा का प्रथम ग्रंथ माना है। इनका एक और ग्रंथ बुद्धिरास भी मिलता है। ये अपने समय के प्रसिद्ध जैन आचार्य तथा अच्छे कवि थे। ‘भरतेश्वर –बाहुबली रास’ में ऋषभदेव के दो पुत्रों –भरतेश्वर और बाहुबली के युद्ध का विस्तृत वर्णन हुआ है। ये दोनों चरित-नायक संस्कृत ,प्राकृत तथा अपभ्रंश में भी काव्य-रचना का विषय रहे हैं।  205 छंदों का यह एक सुन्दर खण्डकाव्य है। प्रस्तुत कृति में जो इनकी कथा वर्णित है, उसमें इन्हें अयोध्यावासी ऋषभ  जिनेश्वर के यहाँ सुनन्दा और सुमंगला से उत्पन्न बताया गया है। भरत आयु में बड़े थे एवं पराक्रमी भी अधिक थे। वे अयोध्या के राजा बनाए गए। बाहुबली को तक्षशिला का राज्य मिला। कवि ने दोनों राजाओं की वीरता, युद्धों, आदि का विस्तार से वर्णन किया है, किन्तु हिंसा और वीरता के पश्चात् विरक्ति और मोक्ष के भाव प्रतिपादित करना कवि का मुख्य लक्ष्य रहा है। अतः वीर और श्रृंगार रसों का निर्वेद में अंत हुआ है। इसकी भाषा में नाटकीयता, उक्ति-वैचित्र्य तथा रसात्मकता के सर्वत्र दर्शन होते हैं। आगे की ’रास‘ या ‘रासो’ रचनाओं को इस ग्रंथ ने अनेकों रूपों में प्रभावित किया। उदाहरण-


                        (अ)        बोलह बाहुबली बलवन्त । लोह खण्डि तउ गरवीउ हंत ।


  चक्र सरीसउ चूनउ करिउं । सचलहं गोत्रह कुल संहरउं ।।


 


(आ)        तं जि पहिय पिक्खेविणु  पिअ उक्कखिरिय।


   मन्धर गय सरलाइवि उत्तावलि चलिय ।।


   तुह मणहर चल्लंतिय चंचल रमण भरि ।


   छुड़वि खिसिय रसणाबलि किंकिण रव पसरि ।।


 


 (इ)       उपनूं ए केवल नाण तउ विरहइ रिसहे सिउ ए।


 आविउ ए भरह नरिन्द सिउं अवधापुरि ए।।


4) आसगुकवि ने 1200 ई. में पैंतीस छंदों का एक लघु खण्ड काव्य ‘चन्दनबाला रास ’ जालौर में रचा। इसकी कथा- नायिका चन्दनबाला चम्पा नगरी के राजा दधिवाहन की पुत्री थी। एक बार कौशाम्बी के राजा शतानीक ने चम्पा नगरी पर आक्रमण किया, जिसमें उसका सेनापति चन्दनबाला का अपहरण कर ले गया और एक सेठ को बेच दिया। सेठ की  स्त्री ने उसे अपार कष्ट दिया। चन्दनबाला अपने सतीत्व पर अटल रहकर सब दुःख सहती रही और अंत में महावीर से दीक्षा लेकर मोक्ष को प्राप्त हुई। इस कथानक पर आधारित यह जैन-रचना करूण रस की गंभीर व्यंजना करती है। इस ग्रंथ में भाव-सौन्दर्य के जितने चित्र इसके रचयिता ने अंकित किए हैं, सभी में उसकी काव्य-निष्ठा व्यंजित हुई है।


5) जिनधर्मसूरि ने 1209 ई. में ’स्थूलिभद्र रास‘ काव्य की रचना की। काव्य की भाषा पर अपभ्रंश का प्रभाव अधिक है, फिर भी इसकी भाषा का मूल रूप हिंदी है। धार्मिक दृष्टि से प्रेरित होने पर इसकी भावभूमि और अभिव्यंजना काव्यानुकूल है।


 स्थूलिभद्र और कोशा वेश्या के विषय में अन्य रचनाएं भी मिलती हैं, किन्तु इस कृति की सभी घटनाओं से उनका प्रत्यक्ष संबंध नहीं है। अवान्तर घटनाओं के माध्यम से लौहघट के रूप में स्थूलिभद्र का संयम चित्रित करके कवि ने काव्य को विशिष्ट बना दिया है। कोशा वेश्या के पास भोग-लिप्त रहने वाले स्थूलिभद्र को कवि ने जैन धर्म की दीक्षा लेने के बाद मोक्ष का अधिकारी सिद्ध किया है।          


 6) सुमतिगणि ने 1213 ई. में नेमिनाथ रास की अट्ठावन छंदों में रचना की। नेमिनाथ के प्रसंग में श्रीकृष्ण का इस काव्य में वर्णन है। इन दोनों के माध्यम से विभिन्न भावों की व्यंजना हुई है। रचना की भाषा अपभ्रंश से प्रभावित राजस्थानी हिंदी है। 


7) हेमचन्द्र गुजरात के सोलंकी राजा सिद्धराज जयसिंह (993-1142) ई. और उनके भतीजे कुमारपाल (1142-1173) ई. के यहाँ उनका बड़ा मान था। ये अपने समय के सबसे प्रसिद्ध जैन आचार्य थै। हेमचंद्र ने कई लक्ष श्लोकों के ग्रंथ बनाए जिनमें प्रधान ये हैं-’अभिधानचिंतामणि आदि कई कोश‘, ‘काव्यानुशासन’, ’छंदोनुशासन‘, ‘देशीनाममाला’ , ’योगशास्त्र‘,  ‘धातुपारायण’ , ’त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित‘ और ‘परिशिष्ट पर्च’ आदि।


अपने व्याकरण के उदाहरणों के लिए हेमचंद्र ने भट्टी के समान एक ’द्वयाश्रय काव्य‘ की भी रचना की है। जिसके अंतर्गत ‘कुमारपालचरित’ नामक एक प्राकृत काव्य भी है। इस काव्य में भी अपभ्रंश के पद्य रखे गए हैं।   


 इन्होंने भारी व्याकरण ग्रंथ ’सिद्ध हेमचन्द्र शब्दानुशासन‘ जो सिद्धराज के समय में बनाया। उसमें संस्कृत , प्राकृत एवं अपभ्रंश तीनों का समावेश किया। अपभ्रंश के उदाहरणों में उन्होंने पुराने दोहे या पद्य उद्धृत किए हैं। जिनमें से अधिकांश इनके समय के पहले के हैं। कुछ उदाहरण देखिए- 



  • भल्ला हुआ जु मारिया बहिणि महारा कंतु।


           लज्जेजं तु वयंसिअहु जइ भग्गा घरु एंतु।।


(भला हुआ जो मारा गया, हे बहिन ! हमारा कंत । यदि वह भागा हुआ घर आता तो मैं अपनी समवयस्कों से लज्जित होती।) 



  • जड़ सो न आवइ, दुइ! घरु काँइ अहोमुहु तुज्झु।


       वयणु ज खंढइ तउ ,सहि ए ! सो पिउ होइ   न   मुज्झु।।


(हे दूती ? यदि वह घर नहीं आता, तो तेरा क्यों अधोमुख है ? हे सखी ! जो तेरा वचन खंडित करता है-श्लेष से दूसरा अर्थ, जो तेरे मुख पर चुंबन द्वारा क्षत करता है-वह मेरा प्रिय नहीं।)



  • जे महु दिण्णा दिअहड़ा दइएँ पवसंतेण ।


 ताण गणंतिए अंगुलिउँ जज्जरियाउ नहेण।।


(जो दिन या अवधि दयित अर्थात् प्रिय ने प्रवास जाते हुए मुझे दिए थे उन्हें नख से गिनते-गिनते मेरी उँगलियाँ जर्जरित हो गईं।)



  • पिय संगमि कउ निद्दड़ी ? पियहो परक्खहो केंव ।


     मइँ बिन्निवि विन्नासियां , निंद्द न एव न तेंव ।।


(प्रिय के संगम में नींद कहाँ और प्रिय के परोक्ष में भी क्यों कर आये ? मैं दोनों प्रकार से विनाशिता हुई-न यों नींद, न त्यों।)


84 वर्ष की अवस्था में अनशन से हेमचंद्र ने प्राण त्याग किया।  


8) सोमप्रभसूरि ये भी एक जैन पंडित थे। इन्होंने 1184 ई. में ‘कुमारपालप्रतिबोध’ नामक एक गद्यपद्यमय संस्कृत-प्राकृत काव्य लिखा, जिसमें समय-समय पर हेमचंद्र द्वारा कुमारपाल को अनेक प्रकार के उपदेश दिए जाने की कथाएँ लिखी हैं। यह ग्रंथ अधिकांश प्राकृत में ही है- बीच-बीच में संस्कृत श्लोक और अपभ्रंश के दोहे आए हैं। अपभ्रंश के पद्यों में कुछ तो प्राचीन हैं और कुछ सोमप्रभ और सिद्धिपाल कवि के बनाए हैं। उदाहरण-



  • रावण जायउ जहि दिअहि दह मुह एक सरीरु।


           चिंतावीय तइयहि जणणि कवणु पियावउँ खीरु ।।


(जिस दिन दस मुँह एक शरीर वाला रावण उत्पन्न हुआ तभी माता चिंतित हुई कि किस मुख में दूध पिलाऊँ।)



  • बेस  बिसिट्ठह बारियइ   जइवि  मणोहर   गत्त ।


        गंगाजल पक्खालियवि सुणिहि कि होइ पवित्त।।


(वेश विशिष्टों को वारिए अर्थात्, बचाइए, यदि मनोहर गात्र हो तो भी। गंगाजल से धोई कुतिया क्या पवित्र हो सकती है? )



  • पिय  हउँ  थक्किय सयलु दिणु तुह विरहग्गि किलंत।


                                               थोड़इ  जल  जिमि   मच्छलिय  तल्लोविल्लि   करंत।।


(हे प्रिय! मैं सारे दिन तेरी विरहाग्नि में वैसी ही कड़कड़ाती रही जैसे थोड़े जल में मछली तलवेली करती हैं।)


9) विजयसेन सूरि की काव्यकृति ‘रेवंतगिरी रास’ 1231 ई. में रचित है। यात्रा तथा मूर्तिस्थापना की घटनाओं पर आधारित यह रास वास्तुकलात्मक सौंदर्य का भी आकर्षण प्रस्तुत करता है। प्रकृति के रमणीक चित्र इस काव्य तथा कलापक्षों का श्रृंगार करते हैं।


कोयल कलयलो मोर केकारओ


सम्मए महुयर महुर गुंजारवो ।


जलद जाल बंबाले नीझरणि रमाउलु रेहइ,


उज्जिल सिहरु अलि कज्जल सामलु ।।


10) जैनाचार्य मेरुतुंग 1304 ई.में ’प्रबंध चिंतामणि‘ नामक एक संस्कृत ग्रंथ ’भोजप्रबंध‘ के ढंग का बनाया, जिसमें बहुत-से पुराने राजाओं के आख्यान संग्रहित किए। इन्हीं आख्यानों के अंतर्गत बीच-बीच में अपभ्रंश के पद्य भी उद्धृत हैं, जो बहुत पहिले से चले आते थे। कुछ दोहे तो राजा भोज के चाचा मुंज के कहे हुए हैं। मुंज के दोहे अपभ्रंश के या पुरानी हिन्दी के बहुत पुराने नमूने कहे जा सकते हैं। मुंज ने जब तैलप देश पर चढ़ाई की थी, तब वहाँ के राजा तैलप ने उसे बंदी कर लिया था और रस्सियों से बाँधकर अपने यहाँ ले गया था। वहाँ उसके साथ तैलप की बहन मृणालवती से प्रेम हो गया। इस प्रसंग के दोहे  देखिए-



  • झाली तुट्टी किं न मुउ ,किं न हुएउ छरपुंज।


  हिंदइ दोरी बँधीयउ जिम मंकड़ तिम मुंज।।


(टूट पड़ी हुई आग से क्यों न मरा ? क्षारपुंज क्यों न हो गया ? जैसे डोरी में बंधा बंदर वैसे घूमता है मुंज।)



  • मुंज भणइ , मुणालवइ । जुब्बण गयुं न झुरि।


       जई सक्कर सय खंड थिय तो इस मीठी चूरि।।


(मुंज कहता है- हे मृणालवती ! गए हुए यौवन को न पछता, यदि शर्करा सो खण्ड हो जाये तो भी यह चूरी हुई ऐसी ही मीठी रहेगी। )



  • जा मति पच्छइ संपजइ सा मति पहिली होइ।


    मुंज भणइ, मुणालवइ! बिधन न बेढइ कोइ।।


(जो मति या बुद्धि पीछे प्राप्त होती है यदि पहिले हो तो मुंज कहता है, हे मृणालवति! विघ्न किसी को न घेरे। )



  • बाह बिछोड़बि जाहि तुहुँ हउँ तेवइँ का दोसु।


      हिअयट्विय जइनी सरहि, जाणउँ मुंज सरोसु।।


(बाँह छुड़ाकर तू जाता है, मैं भी वैसे ही जाती हूँ –क्या हर्ज है ? हृदय स्थित अर्थात् हृदय से यदि निकले तो मैं जानूँ कि मुँज रूठा है।)



  • एउ जम्मु नग्गुहं गिउ, भड़सिरि खग्गु न भग्गु ।


       तिक्खाँ तुरियँ न माणियाँ , गोरी गली न लग्गु।।


(यह जन्म व्यर्थ गया। न सुभटों के सिर पर खड्ग टूटा, न तेज घोड़े सजाए, न गोरी या सुंदरी के गले लगा।)    


11) सधारु अग्रवाल का ’प्रद्युम्नचरित्र‘ (1354 ई.) ब्रजभाषा के आद्यवधि प्राप्त ग्रंथों में सबसे प्राचीन माना गया है। इसमें चौबीस तीर्थकरों की वन्दना के पश्चात् प्रद्युम्न की कथा का वर्णन किया गया है। नारद का सत्यभामा पर क्रोध, कृष्ण-रुक्मिणी का विवाह, प्रद्युम्न का दैत्य द्वारा अपहरण , शिला के नीचे कालसंवर को उसकी प्राप्ति, प्रद्युम्न के लिए रुक्मिणी का विलाप, जिनेन्द्र पद्मनाभ के पास नारद का गमन, प्रद्युम्न द्वारा कालसंवर के शत्रुओं का विनाश , द्वारका-आगमन, विवाह आदि घटनाएं इस काव्य की विषय-वस्तु का निर्माण करती है। अंत में प्रद्युम्न जिनेन्द्र से दीक्षा लेता है, तपस्या करके मोक्ष पाता है। इस प्रकार यह काव्य जैन-कथा-ग्रंथों की श्रेणी में आता है। काव्य तत्त्व की दृष्टि से इसमें विभिन्न रसों के सरस चित्र मिलते हैं। प्रद्युम्न –वियोग का एक चित्र देखिए-



  • नित-नित सीजह विलखी खरी , काहे दुखी विधाता करी।


इकु धाजइ अरु रोवइ वयण, आंसू बहत न थाके नयण।


की मइ पुरिष बिछोही नारि, की दव घाली वणह मझारि।


की मइ लोग तेल धृत हरउं, पूत सन्ताप कवण गुण परउं।।


माँ (रुक्मिणी ) के विलाप की भाषा देखिए- 



  • की मझं पुरिष बिछोही नारि। की दव धाली वणह मझारि।


की मइं लोग तेल-घृत हरथऊं। पुत्त संताप कवण गुण परयउँ।।


12) शालिभद्रसूरि कृत ‘पंचपाण्डवचरितरास’ पौराणिक कथा पर आधारित जैन काव्य में पाण्डवों की कथा को अहिंसा पर आधारित रखा गया है। इसका प्रणयन ईसा की चौदहवीं शताब्दी के अंत में किया गया है। पन्द्रह सर्गों में विभाजित इस काव्य में युद्ध और अहिंसा में से अहिंसा का चयन ही कथा का मुख्य लक्ष्य है। इस काव्य की भाषा अपभ्रंश से प्रभावित राजस्थानी हिंदी है। 


13) उदयवन्त या विजयभद्र कृत ‘गौतमरास’, घटना और भाव समन्वय से युक्त एक सरस खण्डकाव्य है। जैन तीर्थंकर महावीर के प्रथम गणधर गौतम इस काव्य के चरितनायक हैं। जिसकी भाषा अपभ्रंश-प्रभावित राजस्थानी हिंदी है।


14) जाखू मणियार कृत ’हरिचंदपुराण‘ (1396 ई.) कथ्य, अभिव्यंजना तथा भाव-गाम्भीर्य की दृष्टि से यह काव्य भक्तिकाल में रचित ब्रजभाषा- काव्य का आरंभिक निदर्शन है। 


15) देवप्रभ द्वारा चौहदवीं शताब्दी के अंत में रचित ‘कुमारपालरासो’ जैन–रास-काव्यों तथा वीर-प्रशस्तिपरक रासो काव्यों की प्रवृत्तियों का समन्वय करती है। एक ओर तो यह काव्य जैन धर्म की प्रवृत्तियों का काव्य की सरस भाव-भूमि पर अप्रत्यक्ष रूप में प्रसार करता है और दूसरी ओर राजा के व्यक्तित्व तथा लोकमंगलकारी प्रभाव को भी व्यापक बनाता है। इसमें राजा कुमारपाल की वीरता, उदारता, अहिंसा-प्रेम तथा नैतिकता-प्रचार का वर्णन है। समस्त रचना में धार्मिकता कहीं पर भी उभरकर काव्य की सरसता में बाधक नहीं बनी। कुमारपाल के राज्य का तपोवनानुकूल प्रभाव काव्य की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है।


16) जैन कवि पदमनाथ कृत ’कान्हड़ दे प्रबन्ध‘  ईसा की पन्द्रहवीं शताब्दी के आरंभ में रचित काव्यकला के पूर्ण विकास एवं पद्य के साथ गद्य के प्रयोग से युक्त रचना है। इसकी रचना-पद्धति रासो-काव्यों की शैली से भिन्न है। इसमें महाराजा कान्हड़ दे का चरित वर्णित है। कवि ने आलंकारिक शैली में घटनाओं का सुनियोजित चित्रण किया है। जैन कवि पदमनाथ की ’डूंगर बावनी‘ (1486 ई.) जिसका नामकरण कवि ने अपने आश्रयदाता डूंगर सेठ के नाम पर किया है। इसमें 53 छप्पय हैं जिनमें दया, दान, कर्म-फल, नम्रता आदि में ही जीवन-साफल्य माना गया है एवं सप्त व्यसन (जुआ, मांस-भक्षण, सुरापान, वेश्यागमन,आखेट, चोरी, परनारी-रमण ) से बचने का परामर्श दिया गया है।


17) जैन कवि ठाकुर सी की रचनाएँ ‘कृपणचरित्र’ और ’पंचेन्द्रीवेलि‘ हैं। जिनका रचनाकाल (1523-1526) ई. है। इनकी हस्तलिखित प्रतियाँ बम्बई के दिगम्बर मन्दिर और जयपुर के वधीचन्द मन्दिर में सुरक्षित है। ‘कृपण-चरित’ में एक कृपण सेठ और उसकी उदार पत्नी की कथा है तथा ‘पंचेन्द्रीवेलि‘ में इन्द्रिय निग्रह संबंधी छप्पय हैं। जिनमें गज,  मीन, भ्रमर, पतंग और मृग आदि के माध्यम से स्पर्श, रस, रूप, गन्ध आदि से बचने के सुझाव है। कवित्व की दृष्टि से दोनों रचनाएँ साधारण स्तर की हैं। 


18) जैन श्रावक जटमल ने प्रेमविलास प्रेमलता की कथा (1556 ई.) की रचना लाहौर में की थी। कवि ने इसका आरम्भ जैनाय नमः से करते हुए अपना परिचय एवं तत्कालीन शासक का नाम भी दिया है। इसकी कथावस्तु मौलिक है, जिसमें लोकोत्तर घटनाओं की प्रधानता है। नायक-नायिका का प्रेम प्रत्यक्ष दर्शन द्वारा उत्पन्न होता है तथा वे गुप्त विवाह करके घर से भाग जाते हैं। कथा की परिणति  शान्त रस में की गई है। शैली में परिपक्वता का अभाव है। 


19) बनारसी दास जैन भक्तिकालीन नीतिकवियों में इनका मुख्य स्थान है। ये जौनपुर के रहने वाले एक जैन जौहरी थे, जो आमेर में भी रहते थे। इनके पिता का नाम खड़गसेन था। ये 1586 ई. में उत्पन्न हुए थे। सम्राट अकबर के प्रशंसक थे। जहांगीर के दरबार में भी गए थे। शाहजहाँ के दरबार में तो इन्हें विशेष मान प्राप्त था। ‘नवरस पद्मावलि’, ’नाटक समयसार‘ (कुंदकुंदाचार्य कृत ग्रंथ का सार), ‘बनारसी विलास’ (फुटकल कवित्तों का संग्रह), ’अर्द्ध कथानक,‘ ‘नाममाला’  (कोश) , ’बनारसी पद्धति मोक्षपदी‘, ‘ध्रुववंदना’, ’कल्याण मंदिर भाषा‘, ‘वेदनिर्णय पंचाशिका’, ‘मारगन विद्या‘ और ‘भाषा सूक्तिमुक्तावली’आदि इनकी प्रमुख रचनाएँ हैं। 


इनमें कंचन और कामिनी के त्याग  तथा सत्य, क्षमा, शील, अपरिग्रह, नम्रता, निर्लोभ और अहिंसा आदि गुणों के निर्वाह पर बल दिया गया है। नीतिकाव्य के साथ ही उन्होंने अध्यात्मपरक काव्य की भी रचना की थी। यह समस्त प्राणियों में एक ही परमेश्वर का अंश मानते थे। अतः हिन्दू-मुसलमान, हिन्दू-जैन और ब्राह्मण-शूद्र आदि में भेद इन्हें स्वीकार नहीं था। उदाहरण- 



  • माया छाया एक है, घटै बढ़ै छिन माहिं।


      इनकी संगत जे लगें तिनहिं कहीं सुख नाहिं।।


एक रूप हिन्दू तुरुक, दूजी दशा न कोय।


     मन की द्विविधा मानकर , भए एक सौं दोय।।


इन्होंने 1641 ई. तक का अपना जीवनवृत्त अर्द्धकथानक नामक ग्रंथ में दिया है। पुराने हिंदी साहित्य में यही एक आत्मचरित मिलता है। इससे इसका महत्त्व बहुत अधिक है। इस ग्रंथ से पता चलता है कि युवावस्था में इनका आचरण अच्छा न था। इन्हें कुष्ट रोग भी हो गया था। पर पीछे ये संभल गए। ये पहले श्रृंगार रस की कविता किया करते थे। पर पीछे ज्ञान हो जाने पर इन्होंने वे सब कविताएँ गोमती नदी में फेंक दीं और ज्ञानोपदेशपूर्ण कविताएँ करने लगे। इन्होंने जैनधर्म संबंधी अनेक पुस्तकों के सारांश हिंदी में कहे हैं।


इनकी रचना शैली पुष्ट है और इनकी कविता दादूपंथी सुंदरदासजी की कविता से मिलती जुलती है। उदाहरण-



  • भोंदू ! ते हिरदय की आँखें।


   जे करबैं अपनी सुख संपत्ति भ्रम की संपत्ति भाखैं।।


    जिन आँखिन सों निरखी भेद गुन ज्ञानी ज्ञान विचारैं।


        जिन आँखिन सों लखि सरूप मुनि ध्यान धारना धारैं।।


 



  • काया सों विचार प्रीति, माया ही में हार जीत,


       लिए हठ रीति जैसे हारिल की लकरी ।


      चंगुल के जोर जैसे गोह गहि रहै भूमि,


          त्यौं ही पाँय गाड़ै पै न छाँड़े टेक पकरी ।


         मोह की मरोर सों मरम को न ठौर पावैं,


       धावैं चहुँ ओर ज्यों बढ़ावैं जाल मकरी ।


          ऐसी दुरबुद्धि भूलि, झूठ के झरोखे भूलि,


      फूली फिरैं ममता जँजीरन सों जकरी।


कुछ उपदेश इनके ब्रजभाषा गद्य में भी हैं। इनकी ’परमार्थ वचनिका‘, ‘मिथ्यात्वनिषेधन’ तथा ’उपादान निमित्त‘ की चिट्ठी भी उल्लेखनीय है। इनमें क्रमशः जैन धर्म के अनुसार आत्मा के स्वरूप का वर्णन, मिथ्यात्व का निषेध और आत्मा तथा ‘बाह्य साधन’ का निरूपण है।


परमार्थ वचनिका से इनकी भाषा के नमूने के रूप में ये अवतरण द्रष्टव्य है-


”इनबातन को ब्यौरों कहां तांई लिखिए कहां तांई कहिए। वचनातीत इन्द्रियातीत ज्ञानातीत तातैं यह विचार बहुत कहा लिखहिं जो ज्ञाता होइगो सो थोरी ही लिख्यो बहुत करि समुझैगो जो अज्ञानी होयगो सो यह चिट्ठी सुनैगो सही परन्तु समुझेगा नाहीं।”


उपादान निमित्त की चिट्ठी से इनकी भाषा के नमूने के रूप में ये अवतरण द्रष्टव्य है-


”इहां कोऊ उटंकना करतु है कि तुम कह्यो जु ज्ञान को जाणपनौ अरु चरित्र की विशुद्धता दुहुर् यो निर्जरा है सुज्ञान के जाणपनौ सो निर्जरा यह मानी। चरित्र की विशुद्धता सौं निर्जरा कैसे।” 


20) राजसमुद्र का जन्म 1590 ई. में बीकानेर में हुआ था। इनका बचपन का नाम खेतसी था। 1599 ई. में जिनसिंह सूरि से दीक्षा लेने पर इनका नाम राजसमुद्र हो गया। इनकी ’शालिभद्र चौपाई‘, ‘गजसुकमाल चौपाई, ’प्रश्नोत्तर रत्नमाला‘, ‘कर्मबत्तीसी’, ’शीलबत्तीसी’ और ‘बालावबोध’ प्रमुख रचनाएँ हैं। इनका मुख्य विषय नीति है। इनकी भाषा           राजस्थानी है।


21) कुशलबीर के नीति ग्रंथ-’भोज चौपाई‘, ‘सीलवती रास’, ’कर्म चौपाई‘ , ‘वर्णन संपुट’ तथा ’उद्दिम-कर्म-संवाद‘ हैं। सोजत नगर के निवासी थे। ये कल्याणलाभ के शिष्य थे और इनका रचना-काल (1637 से 1672) ई. है। इनकी भाषा राजस्थानी है और शैली उपदेशात्मक है।


22) आनन्दधन की निर्गुण भक्ति के भजनों की रचनाएँ मिलती हैं। इनकी ’आनन्दधन चौबीसी‘ और ‘आनन्दधनबहोत्तरी’ नामक कृतियाँ प्रसिद्ध हैं।


 जिनदत्तसूरि की ’उपदेश रसायन रास‘, प्रज्ञा तिलक की ‘कच्छुलि रास’, सार मूर्ति की ’जिन पद्म सूरि रास‘, कनकामर मुनि की ‘करकंड चरित रास’, पल्हण की ’आबूरास‘,  देवेन्द्रसूरि की ’गय सुकमाल रास’, अम्बदेव सूरि की ’समरा रास‘, अभय तिलकमणि की ‘अमरा रास’ हरिभद्रसूरि की ’नेमिनाथ चरिउ‘, राजशेखर सूरि की ‘नेमिनाथ फागु ’, नयनंदी की ’सुंदसण चरिउ‘ और पदम कीर्ति की ‘पास चरिउ’ आदि भी उल्लेखनीय हैं। 


राजस्थानी की प्राचीनतम  प्राप्त-गद्य रचनाओं में जैन धर्म से संबंधित रचनाएँ- ’आराधना‘ (1273 ई. के लगभग) दो पृष्ठों में जैन-आराधना –क्रिया का प्रतिपादन है। ‘अतिचार’ (1283 ई.) ,’नवाकार व्याख्यान टीका‘ (1301 ई.) , ‘सर्वतीर्थ नमस्कार स्तवन’ (1302 ई.) और  ’अतिचार‘ (1312 ई. ,इस शीर्षक की दूसरी रचना है)  इन सभी पर अपभ्रंश का प्रभाव है। इनमें संस्कृत  के तत्सम  तथा समस्त शब्द भी प्रयुक्त हैं।


राजस्थानी-गद्य के निर्माण में जैन लेखकों का विशेष योग रहा है। ‘तत्त्वविचार प्रकरण’ (चौदहवीं शती) , ’षडावश्यक बालावबोध‘ (1354 ई.) में, जो तरुणप्रभ सूरि-कृत अनूदित व्याख्यात्मक ग्रंथ है, जैन धर्म संबंधी शिक्षात्मक कथाएं हैं । ‘तपोगुच्छ गुर्वावली’ (1425 ई.) में तपोगच्छीय जैन आचार्यों की नामावली  और उनका वर्णन है। इसका गद्य यत्र-तत्र अलंकृत और सानुप्रास है।


रमल जैन कृत ‘मोक्षमार्गप्रकाश’ एवं द्वीपचन्द्र जैन कृत चिद्विलास जैन धर्म की दार्शनिक रचनाएं हैं। दोनों   खड़ीबोली के विशिष्ट गद्यकार हैं। चिद्विलास से गद्यांश का उदाहरण-


”मान विकार गया । विमल चरित्र का षेल भया। मम की ममता मिटी। स्वरूप में अऐसो रलि मिली एकमेक हुआ। सो वह आनन्द कैवलीगम्य है। जहां समाधि सुष की कल्लोल उठै है। दुष उपाधि मिटि गयी।आनन्द घर को पहुच्या। ”


 दौलतराम जैन बसवा निवासी कृत भाषा-पद्मपुराण‘ अथवा ‘पद्मपुराण वचनिका’ राजस्थानी-ब्रजभाषा–प्रभावित खड़ीबोली में प्राकृत की जैन राम-कथा का व्याख्यामय अनुवाद है। इनकी दूसरी प्रख्यात वचनिका ’आदि पुराण वचनिका‘ है जो भगवान ऋषभदेव तथा राजा श्रेयांस के जन्मों की कथा से सम्बद्ध जैन प्राकृत-ग्रंथ ‘आदिपुराण’ का व्याख्यामय अनुवाद है। इनकी अन्य गद्य रचनाएं हैं-’पुण्याश्रव कथा कोश वचनिका‘ , ‘वसुनन्दिश्रावकाचार वचनिका’ , ’परमात्मप्रकाश वचनिका‘ , ‘श्रीपाल चरित्र वचनिका’ तथा ’हरिवंश पुराण वचनिका‘।


दौलतराम जैन इंदौर निवासी कृत ‘मल्लिनाथ चरित्र वचनिका’ , टेकचंद जैन कृत ’सुदृष्टि-तरंगिणी वचनिका‘  और अभयचंद कृत ‘हितोपदेश वचनिका’ गद्य की विशेष उल्लेखनीय रचनाएं हैं। ये खड़ीबोली के विशिष्ट गद्यकार हैं। 


जिनसमुद्र सूरि रचित ’भर्तृहरि वैराग्य-शतक टीका‘ ब्रजभाषा-मिश्रित खड़ीबोली में  उल्लेखनीय टिप्पण-टीका है।


 ललित गद्य की वर्णनपरक रचनाभोजन विच्छिति’ में महावीर के जन्म के पश्चात् कुटुम्बी जनों को भोजन कराये जाने का वर्णन है। प्रायः स्थल स्थल पर तुकमय गद्य प्रयुक्त है।


उपरोक्त से प्रमाणित होता है कि हिंदी भाषा के विकास में जैन समुदाय का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है।


मजदूरों की टोली,








































 

मजदूरों की टोली,

 

 

नयनों में स्वप्न चली ले, थी मजदूरों की टोली,
पग के छालों से आई अपनों की अपनी बोली,
क्षुधा, पिपासा भूला, भूला श्रांत स्थित को,
पर भूल न पाया भ्राता अब तक भ्राता स्मृति को,
निर्माण किए जो उसने, शरण नहीं दे पाये,
रहते थे जिस आश्रय में, वे भी खाली करवाये,
भाड़ा भी पास नहीं था, सामान बेच डाला सब,
जो भी था कर्ज चुकाया , शेष ले चला घर अब,
आनंद स्मृति थी घर की, पर पास नहीं था कुछ भी,
बालक छोटे औ भार्या असहाय चले पर फिर भी,
मजबूत किये बालक ने पग, चले कई योजन तक,
लो आज छिना बालक से बालकपन का उसका हक,
परिपक्व हो गया बालक परिजन के साथ चल रहा,
भावी मंजिल का यौवन, बचपन तो पूर्व कल रहा,
ना जल ना खाना माँगे, पर माँ को शिशु की चिंता,
नयनों के कोरों में भी आँसू का स्त्रोता रीता,
चलना आनंद अवश्यंभावी है जीवन पथ का,
चलते पग अश्व युगल है, शिशु अटल लक्ष्य सम रथ का,
आनंद कर्म है, फल का मिलना इच्छा चिंता है,
संकल्प लक्ष्य की माँ है, औ चरैवेति ममता है,
इस दर्शन को समझा वह, जाना आध्यात्म सनातन,
आनंद भूलना चिंता, आशा है भावी जीवन,
परिजन तो मात्र सहारा, निस्वार्थ भाव की आली ,
आनंद प्रथम चलना था तर्जनी पकड़कर अंगुली,
वह पाठ आज जीवन की चिर सत्य परीक्षा बनकर,
नपवाता है सड़कों को निज हाथ समय पकड़ाकर,
आनंद समय की लीला, आनंद देश की ठोकर,
आनंद आज की होनी आई बन लंबे पथ पर,
पथ का आनंद यही है, या  जीवन का या भौतिक,
जो जीत सका वह हारा, जीता रण वह परलौकिक,
पाता आनंद खेल में, जीवन संग खेल रहा वह,
यह शाश्वत एक परिस्थिति, हृदय से झेल रहा वह,
मोड़ों को जान गया वह, चौराहों को पहचाना,
टेड़ी मेड़ी राहों में पहचाना सत्य जमाना,
कोसों तक साथ चला वह, माँ ने तब किया इशारा,
अंगुली से उसे दिखाया पुरखों का आलय न्यारा,
आनंद निकल आँखों से टपका छालों के ऊपर,
हो गई श्रांति सब ठंडी वह क्षणिक हेम सी बहकर,
द्वार खड़ी इक वृद्धा कुछ रोती और बिलखती,
आ खड़ी हुई थी द्वारे, जब खबर मिली थी उड़ती,
आनंद समा दादी में कोरक से सुमन बना फिर,
उसकी छोटी बहिना को दादी ने झपटा तत्पर,
कितने दिन से भूखी थी, था दूध कहाँ आँचल में,
दादी ने दूध गर्म कर फिर पान कराया पल में,
आनंद बना परमानंद, परमानंद ही निज घर है,
घर है तो सतयुग घर पर घर त्रेता औ द्वापर है।
🙏 ज्ञानेश कुमार मिश्रा
अजमेर 
 






 



 



 













 











 

 








 

 







 







 




 





 




 



 



 


 


 




















 

 

 



 

 

 



 

 

 


 


 

 

 







 

 





 



 





 


 


 



 







 

 


 





 



 

घोंसला 

घोंसला 


 


पिछले साल किचन की चिमनी खराब हो गई थी। किचन में चिमनी लगाए हुए ज्यादा समय नहीं हुआ था iइसलिए सोचा कंपनी ने ही चिमनी खराब दी है। चिमनी ठीक करने के लिए एक मिस्त्री को बुलाया  उसने बताया- ‘मोटर खराब हो गई है, बदलवानी पड़ेगी’। खर्चा भी अधिक  बता रहा था। ज्यादा खर्चे के कारण  ठीक करवाने का आइडिया ड्रॉप कर दिया। कुछ दिन बाद फ्रिज ठीक करने आए मिस्त्री को लगे हाथ चिमनी भी दिखाई। उसने भी मोटर खराब बताई लेकिन उसने कहा- वह उसे ठीक कर सकता है।  उसने अपनी फीस भी कम बताई तो तुरंत उसे ठीक करने का ठेका दे दिया। उसने थोड़ा समय लगाकर आखिर  ठीक भी कर दिया। मिस्त्री ने बताया- कि चिमनी के पाइप में चिड़ियाँ ने अपना घोंसला बना लिया था। घोंसले के  तिनके मोटर में फंस गए थे। इस कारण से मोटर जाम हो गई। 


दरअसल चिमनी का पाइप बालकनी की तरफ खुलता है। इस तरफ मेरा कभी ध्यान ही नहीं गया था कि चिड़िया वहाँ घोंसला भी बना सकती है।  यदि समय रहते पाइप के छेद को जाली से कवर्ड कर दिया जाता तो मोटर खराब नहीं हुई होती। समय आने पर पक्षी अपने लिए घर तो तलाशते हैं ही।  चिड़ियों  को  चिमनी का रास्ता ही सबसे अच्छी जगह लगी होगी।  तिनका-तिनका जोड़कर उन्होने अपना घर तो बना  लिया था लेकिन  मोटर तिनकों के कारण जाम हो गई थी। 


पिछली बार की भाँति इस बार भी चिड़ियों ने इसी जगह को चुना। इस बार चिड़ियों के घोंसला बनाने से पहले जाली तो लगा दी थी लेकिन ठीक से नहीं लग पाई थी। पाइप के छेद का थोड़ा सा हिस्सा ढकने से रह गया था। चिड़ियों के लिए तो खुल्ला हुआ उतना सा हिस्सा ही काफी था। इस बार मैंने भी सोच लिया था कि घोंसला नहीं बनाने दूँगी।  दुबारा मोटर खराब ना हो इसलिए चिड़ियों द्वारा लाए गए तिनकों को बार-बार हटाती रही। चिड़ियों को कई बार भगाया भी। मैंने जुगत करके पाइप के छेद को ठीक से बंद करने का प्रयास किया लेकिन मुझसे ज्यादा मेहनत तो चिड़िया कर रही थीं।  चिड़ियों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ा। वे बार बार जाली से रास्ता बना ही लेती थीं। उनका घोंसला हटाना मुझे बिलकुल भी अच्छा नहीं लग रहा था लेकिन मेरी भी मजबूरी थी। चिड़िया की मेहनत खराब करने से मुझे अब किसी का घर तोड़ने का सा  अपराध बोध  होने लगा था।  


नर और मादा दोनों चिड़िया दिन में कई बार तिनका लाती। जाली लगने  के कारण तिनका रखने  की जगह नहीं मिल रही थी। उनके तिनके नीचे जमीन पर ही गिर जाते। अब वे दोनों मेरी रसोई की खिड़की पर बैठकर चीं-चीं करने लगी थीं। चिड़िया के अन्य  दोस्तों ने भी उनकी ची ची में साथ देना शुरू कर दिया था। ऐसा लग रहा था।  अब वे सब मिलकर चीं-चीं की आवाज से चिड़ चिड़ाने लगे थे। ऐसा नहीं था कि पहले कभी वे साथ-साथ चीं-चीं नहीं करते थे। करते थे जब कभी दाना देने में देरी हो जाती थी तब। मुझे याद दिलाने के लिए भी सभी मिलकर चिचियाते थे। खाना खाकर चुप भी हो जाती थीं। सुबह शाम की चीं-चीं तो मैं जानती लेकिन ये बेवक्त का चिचियाना!  मैं यह भी सोचती कि चिड़ियाँ क्या गलत कर रही हैं, अपना घर ही तो बना रही हैं। रोटी के साथ मकान भी तो चाहिए। मैं उनके लिए विलेन बन रही थी। मैं ही उनका मकान नहीं बनने दे रही। मेरा मन भी बैचेन होने लगा था। कुछ अच्छा नहीं लग रहा था। मैं सोचने लगी यदि चिड़िया की जगह मैंने इन्सानों का घर तोड़ा होता तो शायद लड़ाई हो जाती, गालियाँ पड़ती, हो सकता है केस भी हो जाता। अब कहीं अंदर से आवाज आने लगी थी कि तुम गलत कर रही हो। 


दिनभर दिमाग में एक ही बात घूमती रहती कि  चिड़ियाँ के लिए क्या करूँ? ऐसा क्या करूँ कि दोनों की समस्या हल हो जाए। चिमनी भी खराब नहीं हो और चिड़िया का घोंसला भी बन जाए। घोंसला बनने बिगड़ने के बीच ही मेरी बेटी का बर्थडे आया। बर्थडे में केक कटा। केक चिड़ियों ने भी खाया। शायद उन्होने बेटी को विश भी किया हो। केक का खाली डिब्बा फ़ैकने के लिए एक तरफ रख दिया था।  दूसरे दिन कचरे की गाड़ी में फ़ैकने के लिए डिब्बा उठाया तो सहसा एक विचार मन में आया। क्यों ना इसी को चिड़िया का घर बना दिया जाए। तुरंत मैंने डिब्बे में चिड़िया के घुसने के लिए एक गोल दरवाजा बनाया और डिब्बे रूपी घोंसले को किचन के पास ही बांध दिया। अब मैं इंतजार करने लगी कि चिड़ियों की नजर उस पर पड़े। बार-बार बाहर आकर देखती। तिनका कहाँ ले जा रही है? चिड़िया डिब्बे रूपी घर को अपनाती है या नहीं? ये देखने में ही पूरा दिन निकल जाता। घर वाले भी इस काम में लग गए थे।   


लगभग दो दिन तक चिड़ियों का वही क्रम चलता रहा। मैं अपने हाथ के इशारे से और अपनी भाषा से  उनको वहाँ जाने के लिए भी कहती लेकिन वो डर कर फुर्र से उड़ जाती। तिनका लाकर चिचियाना जारी था। तीसरे दिन मैंने देखा डिब्बे का एक हिस्सा खुला है। मैंने सोचा  हवा के कारण डिब्बा खुल गया होगा। अब चिड़ियाँ घोंसला कैसे बनाएगी?  यह देखकर मन दुखी हो गया। डिब्बे से मेरी नजर नहीं हट रही थी। सहसा मुझे डिब्बे के खुले हिस्से में कुछ घास के तिनके नजर आए। तिनके नजर आने का मतलब चिड़िया इसमें गई हैं। उन तिनकों को देखकर मुझे इतनी खुशी हुई जितनी मेरा घर बनने पर भी नहीं हुई थी। डिब्बे रूपी घर को चिड़ियों ने अपना लिया था। ऐसा लगा जैसे बहुत बड़ा बोझ मन से उतर गया हो। 


दिनों-दिन तिनकों की संख्या बढ़ती जा रही थी। इस दौरान ही एक दिन अचानक बरसात आ गई। मुझे घोंसले का ही खयाल आया। उसके ऊपर तो कोई दीवार ही नहीं थी। गत्ते का डिब्बा है तो पानी में तो गल ही जाएगा। घोंसले को बचाने के लिए दिमाग दौड़ाने लगी। आटे के खाली प्लास्टिक के बैग का ध्यान आया। जुगाड़ करके घोंसले के ऊपर प्लास्टिक का बैग बांध दिया। दो-चार दिन बाद तेज अंधड़ आ गया तो डिब्बा अपनी जगह से हिल गया और हवा में झूलने लगा। अब फिर घोंसले की चिंता होने लगी। मैं उसे ठीक करने के लिए गई। घोंसले के हाथ लगाते हुए शायद दोनों चिड़ियों ने मुझे देख लिया था। वे ज़ोर ज़ोर से चिचियाने लगी। मेरे अगल-बगल उड़ने लगी। मैंने जल्दी से डिब्बा ठीक किया और तुरंत वहाँ से हट गई। उनकी बैचेनी और घबराहट से मैं समझ गई घोंसले में अंडे आ गए हैं। मुझे खुशी वाली गुदगुदी होने लगी। घर में सबको यह खुशखबरी सुनाई जैसे हमारे ही घर में नने-मुन्ने आने वाले हों।


दिन बितने के साथ घोंसले में से छोटे बच्चों की चीं-चीं सुनाई देने लगी थी। अपनी चीं चीं से सुबह जल्दी जगाने का काम चिड़ियों कर ही रही थी। वे बालकनी में चीं चीं करने लगती है तो मैं समझ जाती हूँ कि उनका खाने का समय हो गया है। रोटी, चावल दलिया सभी तरह का खाना उन्हें पसंद है।  गेंहु उन्हें ज्यादा पसंद नहीं आते हैं। कई बार उनकी रोटी को कुत्ते चट भी कर जाते हैं। इसलिए वे वापस खाना लेने के लिए आवाज लगाने लगती हैं। 


एक दिन घोंसले में से एक बच्चा बालकनी में आ गिरा।  शायद अपने माता-पिता के इंतजार में वह गेट तक चला आया हो और गिर पड़ा हो। वह बहुत डरा हुआ था। घोंसले से निकलकर उसने पहली बार किसी दूसरे प्राणी को देखा था। उसके छोटे-छोटे कोमल से पंख थे लेकिन उड़ नहीं सकता था। छोटी सी चोंच थी लेकिन दाना पानी अपने आप नहीं ले सकता था। यदि वह बालकनी में रहता तो उसकी जान को खतरा था। उसको पकड़ना चाहा तो फुदककर इधर उधर भागने लगा। समझ में नहीं आ रहा था कैसे उसे अपने वश में करें। अब तक चिड़िया को भी शायद मालूम चल गया था। वे खिड़की पर बैठकर चिचियाने लगी। आज उनकी आवाज कुछ अलग थी। बच्चे की सुरक्षा के कारण आदमी जात पर कैसे विश्वास कर सकती थीं। बाकी घर के लोग भी परेशान और दुखी। एक रुमाल लेकर मैं उसके पास गई। धीरे से उसे पकड़ा और रुमाल से ढका। चिड़ियाएं लगातार मेरी ये हरकत देख रही थीं। अब उनकी आवाजें तीव्र हो चली थी। मैंने उसे तुरंत घोंसले में रखा। 


बच्चे को घोंसले में रखकर मैं आश्वस्त हो गई थी। बच्चा अब घोंसले में सुरक्षित था। बच्चे के माता-पिता अब भी चिचिया रहे थे लेकिन ये चिचियाना पहले वाले चिचियाने से भिन्न था। वे मेरे बहुत करीब आकार चीं-चीं कर रही थीं। मैंने देखा कि  कभी मेरे सिर के पास थीं तो कभी हाथ के पास थीं। ऐसा लग रहा था मानो वे मुझे कह रही हों थैंक यू !


हिमशिला









































हिमशिला

 

खड़ी हिमशिला बता रही है, 

डरो न आंधी पानी में।

डटे रहो तुम अपने पथ पर,

 सब कठिनाई तूफानों में।

 

डिगो ना अपने पथ से तो,

सब कुछ पा सकते हो प्यारे।

तुम भी ऊंचे उठ सकते हो,

छू सकते हो नभ के तारे।

 

जितनी भी बाधाएं आई,

उन सब से भी लड़ी हिमशिला।

इसीलिए तो जग भर में,

हुई सभी से बड़ी हिमशिला।

 

अटल रहा जो अपने पथ पर, लाख मुसीबत आने में।

मिली सफलता उसको जग में,

जीने में मर जाने में।

 

उत्तर में रखवाली करती,

शक्तिशाली खड़ी हिमशिला।

आकर्षक है रूप दिखाती,

मनमोहक है बड़ी हिमशिला।

 

उमा सूर्या 

जिला ललितपुर 

उत्तर प्रदेश

🙏🏻🙏🏻😊


 

 



 



 













 











 

 








 

 







 







 




 





 




 



 



 


 


 


















 

 





 



 





 


 



मन में हैं विश्वास






मन में हैं विश्वास

 

        मन में है विश्वास 

        आज जगी है आस

 

कोयल न मिले कागों में 

बेसुरे हो न रागों में 

कभी न उलझें तागों में 

पड़े न गांठें धागों में 

लाज रखेंगे पागों में 

पड़े न काले दागों में 

जहर मिटेगा नागों में 

फूल खिलेंगे बागों में 

          मन में है विश्वास 

          आज जगी है आस

 

हर वक्त वह साथ होगी 

मैं डाल वह पात होगी 

चांदनी सी रात होगी 

अपनी मुलाकात होगी 

कोई करामात होगी 

मुहब्बत की बात होगी 

मंजिल आज हाथ होगी 

जग में एक जात होगी 

            मन में है विश्वास        

            आज जगी है आस 

 

कभी न कहीं हो मजबूर 

भूखे न सोए मजदूर 

पास रहेगा कोहिनूर 

होंगे न हम तो मगरूर 

न दिल टूटे न रहे दूर 

सब में हो प्रेम भरपूर 

बदला लेंगे हम जरूर 

दुश्मन होगा चूर-चूर 

            मन में है विश्वास 

            आज लगी है आस

 

छगनराज राव "दीप"

 जोधपुर


 

 



 



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