वर्तमान  की ज्वलंत सामाजिक समस्या पर आधारित कहानी 

 

हाय बेटा*

 

ट्रिन ट्रिन ट्रिन फोन की घंटी बजते ही रुपाली दौड़ पड़ी जैसे वह फोन का इंतजार कर रही थी। फोन उठाते ही वह जोर से चीख पड़ी, क्या ! सही में, उसकी चीख सुनते ही मां, दादी सभी दौड़ पड़े। अरे ! क्या हो गया। मां के पूछने पर जब उसने बताया कि उसने कक्षा में टॉप किया है तो मा ने तो खुशी से उसका माथा चूम लिया। वह खुशी के मारे उछलने लगी। अभी वह यह खुशी ढंग से जाहिर भी नहीं कर पाई थी, कि दादी की कड़क आवाज से सहम गई। अरे ! टॉप किया है तो कौन सा एहसान किया है। ना काम की ना काज की दुश्मन अनाज की। जब देखो पढ़ाई पढ़ाई, ना जाने कहा कि कलेक्टर बनेगी यह लड़की। अरे ! मैं तो कहती हूं लड़कियों को यह सब शोभा नहीं देता मगर मेरी सुनता ही कौन है। देख, चौका चूल्हा में ध्यान दें यही काम आएगा जे पढ़ाई नहीं। पढ़ने लिखने का काम तो मर्दों का है और सुन तू, तू क्यों सारा काम धाम छोड़कर भटर भटर कर रही है। चली आई दौड़ती हुई लड़की ने टॉप किया है। आंखें तरेरती हुई दादी, बहू को डांट लगाती है। अरे ! है तो यह पराया धन ही ना। मैंने लाख बार कहा है थोड़ा ध्यान मेरे लाडेस्वर पर भी लगा ले। उसे बड़ा आदमी बनाना है कि नहीं ? मगर बनाएगी कैसे तेरा तो सारा ध्यान अपनी इस लड़की पर ही लगा रहता है। कान खोलकर सुन ले वंश तो बेटा ही चलाता है। बुढ़ापे में ध्यान भी वही रखता है। मगर तू, तेरी बुद्धि पर तो जैसे पत्थर ही पड़ गए हैं। यही थी रोज की दिनचर्या, शायद ही कोई दिन ऐसा जाता हो जब रूपाली और उसकी मां जया को ताने सुनने को ना मिलते हो। एक मां ही थी जो उसे हमेशा आगे बढ़ने का आशीर्वाद देती रहती थी। हमेशा उस का साथ देती थी। रुपाली यह बात अच्छी तरह से जानती थी कि जो मुकाम पढ़ने लिखने के बावजूद उसकी मां हासिल ना कर पाई वह चाहती है वह सब उसकी बेटी हासिल करे।

दूसरी तरफ उसका भाई श्याम जिसका पढ़ाई में मन ही नहीं लगता था। हरदम खेल खेल। जब पढ़ाई का नाम लो, उसे तो जैसे आफत ही आ जाती थी। मगर फिर भी दादी, पापा, मम्मी, बाबा सभी की आंखों का तारा था वह।

सारा परिवार उसी के पीछे लगा रहता था। उसकी एक आवाज निकली नहीं की फरमाइश पूरी हुई नहीं। दिन बीते गए। रुपाली अपनी मेहनत के बल पर आगे बढ़ती ही गई और वह दिन भी आ गया जब मैं इंजीनियर बन गई। मां को तो जैसे पंख लग गए हो। खुशी के मारे उसकी आंखों से आंसू बहने लगे, लेकिन घरवालों को तो जैसे सांप सुंग गया था। पिता तो बार-बार यही कह रहे थे, अच्छी बात है लेकिन यदि इतना ध्यान तुम मेरे बेटे पर देती तो वह भी इंजीनियर होता। 

दादी बाबा खुश तो थे लेकिन वह खुशी चेहरे पर कहीं भी दिखाई नहीं दे रही थी क्योंकि साथ में एक दर्द भी था कि बेटा इंजीनियर क्यों नहीं बन पाया। कुछ समय पश्चात रूपाली की शादी हो गई। हंसी खुशी वह अपनी ससुराल भी चली गई और इधर श्याम नौकरी की तलाश में इधर उधर धक्के खाता रहा, मगर सब बेकार। अब उसे लगने लगा कि काश ! उस समय यदि वह भी ध्यान लगाकर पढ़ लेता तो शायद आज यह दिन ना देखने को मिलता। इसमें कोई शक नहीं की मेहनत तो उसने भी की थी, उसकी बुद्धि भी तेज थी, मगर लाड प्यार ने उसे आलसी बना दिया था। कुछ भी हो आखिर बेटा बेटा ही होता है उसे कैसे दुखी देख सकते थे दादी बाबा, माता पिता। जैसे तैसे पिता ने अपनी सारी कमाई रिश्वत में देखकर उसकी एक अच्छी कंपनी में नौकरी लगवा दी। अच्छी नौकरी पाते ही वह भूल गया कि यह मुकाम भी उसे अपने माता-पिता के रहमों करम पर ही हासिल हुआ है। धीरे-धीरे उसका व्यवहार बदलने लगा, बात-बात पर चिल्लाना, झल्लाना, चिड़चिड़ाना, शायद उसके अंदर यह बात घर कर गई थी कि आज जो भी स्थिति है उसका जिम्मेदार वह स्वयं ही है। उसकी चिड़चिड़ा हट का कारण दूर करने के लिए माता-पिता ने सोचा क्यों ना उसकी शादी कर दी जाए। घर में बहू आ जाएगी तो सब कुछ ठीक हो जाएगा। 

समय बीतता गया दादी बाबा इस दुनिया में रहे नहीं एक दिन अच्छी सी लड़की जो कि श्याम की ही कंपनी में कार्य करती थी का जैसे ही प्रस्ताव आया बातचीत चली और चट मंगनी पट ब्याह हो गया। दोनों हंसी खुशी रहने भी लगे ठीक एक साल बाद घर में बेटा हुआ। घर खुशियों से भर गया। दादी बाबा का तो जैसे खुशी का ठिकाना ही ना था मगर यह खुशी शायद ज्यादा समय तक उनके दामन में नहीं थी एक दिन श्याम ने ऐलान कर दिया मां अब हम दो से तीन हो गए हैं खर्चे भी बहुत बढ़ गए हैं अब मैं आप दोनों का खर्च उठाने में समर्थ नहीं हूं इसलिए मैंने आप दोनों का अलग से इंतजाम कर दिया है।

मां कुछ समझ पाती बोल पाती कि यह क्या कह रहा है उनका अपना ही खून जिसके लिए उन्होंने अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया। यह सोचने का मौका ही कहां दिया उसने, तब तक तुम कार का होरन सुनाई दिया, शायद दरवाजे पर गाड़ी आ चुकी थी, शाम में जल्दी-जल्दी उनका सामान बाधा और चल दिया वृद्ध आश्रम की ओर। माता पिता दोनों की आंखों से झर झर आंसू बह रहे थे। बस समझ ही नहीं पा रहे थे कि क्या कहें, क्या ना कहें, क्योंकि सारी पूंजी तो वह अपने इस लाडले बेटे पर गवा चुके थे यह सोच कर कि बुढ़ापे में वही तो एक सहारा है। मगर अब तो कहने के लिए कुछ बचा ही नहीं था बस चुप रहने में ही भलाई थी वह तो स्तब्ध थे शाम के इस फैसले से। धीरे-धीरे समय बीतता गया। वृद्ध आश्रम में रहते रहते आज उन्हें पूरा एक वर्ष हो गया था उन्हें अच्छी तरह याद था आज का महत्वपूर्ण दिन क्योंकि आज उनके बेटे का जन्मदिन था, यह वही दिन था जिस दिन हर वर्ष उनके घर बहुत भीड़ भाड़ हुआ करती थी। जोरदार पार्टी होती थी उनके घर, लेकिन आज वह बिल्कुल अकेले थे पोता बहुत तो छोड़ो उनका खुद का बेटा भी आज उनके साथ ना था। बेटे के साथ साथ उन्हें अपने पोते की भी बहुत याद आ रही थी, मैं कर भी क्या सकते थे। तब उन्होंने अपने बेटे के लिए जन्मदिन पर उसको एक चिट्ठी लिखी जो इस प्रकार थी-

'श्याम खुश रहो,सुखी रहो, संपन्न रहो, कामयाबी तुम्हारी चरण चूमे। बस यही कामना करते हैं हम अपने पोते के जन्मदिवस पर। हमारी शुभकामनाएं हैं कि जैसे हमने तुम्हें पढ़ाया, लिखाया, बड़ा आदमी बनाया। तुम भी हमारे पोते को इसी तरह पढ़ाना, लिखना, बड़ा आदमी बनाना। मगर इतना बड़ा मत बना देना कि जैसे तुमने हमें वृद्धाश्रम भेज दिया, वैसे ही बुढ़ापे में वह भी एक दिन तुम्हें भी हमारी तरह वृद्ध आश्रम भेज दे।

चिट्ठी हाथ में आते ही श्याम ने जब उसे पढ़ा, तो आंखें खुली की खुली रह गई, उसकी आंखों से टप टप आंसू टपकने लगे, वह तो रुकने का नाम ही नहीं ले रहे।

आज वह यह बात अच्छी तरह से समझ चुका था कि उसने क्या खोया, क्या पाया। गलती का सुधार जितनी जल्दी हो उतना ही अच्छा है, वरना कहीं एसा ना हो कि देर हो जाय और इस गलती की पुनरावृत्ति दुबारा हो जाय। कहीं यह गलती पीढ़ी दर पीढ़ी ना चले। यही सोचकर उसने गाड़ी निकली और चल दिया वृद्ध आश्रम की ओर। गाड़ी तेज रफ्तार से भागी चली जा रही थी और श्याम की आंखो से पश्चाताप के आंसू बहते जा रहे थे। वह यह सोच रहा था , यह मैंने क्या कर दिया ? क्यों कर दिया ? कर दिया?

 

डॉ कविता रायजादा

आगरा