जैन अल्पसंख्यकों का हिंदी साहित्य में योगदान

 


जैन अल्पसंख्यकों का हिंदी साहित्य में योगदान


डॉ संध्या सिलावट 


भारत एक हिन्दू बहुल राष्ट्र है। इसमें राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम 1992 के तहत पाँच धार्मिक समुदायों –मुसलमान, ईसाई, सिख, बौद्ध और पारसी को अल्पसंख्यक अधिसूचित किया गया है। 


इनकी जनसंख्या देश की 20.20%  है।


सामान्यतः अल्पसंख्यक का तात्पर्य उस समूह से लिया जाता है जो धर्म, भाषा और जाति की दृष्टि से बहुसंख्यक समुदाय से भिन्न एवं कम संख्या हो।


भारत में अल्पसंख्यकों को तीन समुदायों में  बांटा गया है। 


1.धार्मिक अल्पसंख्यक  2. भाषाई अल्पसंख्यक  3. जनजातीय अल्पसंख्यक।


भारतीय समाज में ‘अल्पसंख्यक’ शब्द का प्रयोग धार्मिक दृष्टि से अन्य जनसंख्या वाले संप्रदाय के लोगों के लिए किया जाता है।


The term minority is commonly used to refer communities that are numerically small in relations to the rest of the population.


सरकार ने अल्पसंख्यकों के लिए बहुत से संवैधानिक प्रावधान किए है।


भारत में अल्पसंख्यक बहुत दीर्घकाल से निवास करते आ रहे हैं। यहाँ की भाषा व संस्कृति को उन्होंने अपनाया भी है और उसे प्रभावित भी किया है। भारतीय समाज का, अल्पसंख्यक एक अभिन्न हिस्सा है। हिन्दी साहित्य की परम्परा प्राचीन समय से चलती आ रही है, तभी से अल्पसंख्यक उसमें अपना सहयोग करते आ रहे हैं। मैं यहाँ जैन अल्पसंख्यकों द्वारा हिन्दी साहित्य में किए गए योगदान के विषय में वर्णन करने जा रही हूँ। मैंने हिंदी भाषा केआरंभ से लेकर स्वतंत्रता प्राप्ति तक का काल चुना है। अनेकों रचनाकार हैं,उसमें जो प्रमुख हैं उनका  संक्षिप्त वर्णन ही किया गया है ताकि उनके महत्वपूर्ण कार्य से हम सभी परिचित हो सकें।


 1) पुष्पदंत दसवीं शताब्दी में हुए। बाद में जैन बने। कुछ विद्वानों ने जैन कवि पुष्पदंत को हिंदी का आदिकवि माना है। परंतु कुछ विद्वान् इससे सहमत नहीं है। उनका मानना है कि विकासमान हिंदी के प्रयोग मिलते हैं। इनकी तीन रचनाएँ मिलती हैं-‘महापुराण’, ’णयकुमार चरिउ‘ तथा ‘जसहर चरिउ’। इनकी रचना धार्मिक उद्देश्य से हुई है, फलस्वरूप साहित्यिक शिल्प तथा तात्त्विक दृष्टि से इन पर ‘जिन-भक्ति’ का प्रभाव सर्वत्र मिलता है। ’महापुराण‘ में अनेक घटनाएँ और चरित्र हैं-कवि ने 63 महापुरुषों की जीवन –घटनाओं को वर्णन का विषय बनाया है। प्रसंगवश इसमें राम-कृष्ण को भी स्थान मिला है। धार्मिक ग्रंथ होने पर भी इसके काव्यत्व में किसी प्रकार की कमी नहीं है। पुष्पदंत ने प्राकृतिक सरस सौन्दर्य का अत्यंत निकट से साक्षात्कार किया है। 


भरत के आश्रय में पुष्पदंत ने इस काव्य की रचना की थी। महाकाव्य तीन खण्डों में विभाजित है। मगधराज-श्रेणिक के अनुरोध करने पर श्री महावीर के शिष्य गौतम महापुरुष की कथा सुनाते हैं। कृति में सुणंदा-जसबई के विवाह और भरत का राज्याभिषेक आदि घटनाओं का कथात्मक शैली में वर्णन है।  69 से 79 संधि तक राम की कथा है जिसे जैन-धार्मिक दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया गया है। पुष्पदंत की साहित्य-रचना शुद्ध धार्मिक भाव से हुई। महापुराण के प्रथम अध्याय में उन्होंने स्पष्ट लिखा हैः ”भैरव राजा की स्तुति में काव्य बनाने से जिस ‘मिथ्या’ ने जन्म लिया था ,उसे दूर करने के लिए ही मैंने महापुराण की रचना की है।” राज-स्तुति से दूर रहकर शुद्ध धार्मिक भाव से साहित्य-रचना की यह प्रवृत्ति अपभ्रंश से हिंदी में आई।


णयकुमारचरिउ में पुष्पदंत ने नागकुमार चरित की रचना की है। राजा श्रेणिक पंचग्रीव्र का माहात्म्य पूछता है। महावीर के शिष्य गौतम उनके आदेशानुसार व्रत से सम्बद्ध कथा कहते हैं। कथा का विकास 9 संधियों में हुआ है। राजा जयन्धर, रानी विशालनेत्र, कनकपुर की राजकुमारी , श्रीधर, लक्ष्मीमती आदि की कथा प्रारम्भ में है। प्रमुख रूप से नागकुमार का जन्म , शिक्षा ,विवाह आदि का चित्रण किया गया है।


पुष्पदंत द्वारा रचित जसहरचरिउ खण्डकाव्य है। इसमें जैन साहित्य की प्रसिद्ध जसहर या यशोधर की कथा का वर्णन है। चार संधियॉं हैं। भैरवानन्द , मारिदत्त आदि के वर्णन के पश्चात् यशोधर का वर्णन है। अंत में पात्र जैन धर्म में दीक्षित होते हैं।


 पुष्पदंत की भाषा में स्पष्टतः हिन्दी के अंकुर दबे हुए दिखाई देते हैं। उदाहरण- 


पडु तडि-वडण पडिय बियडायल, रुज्जिय सीह दाउणो।


पच्चिय मत्त मोर कल-कल-रव, पूरिय सयल काणणो।।


2) जैन आचार्य देवसेन कृत ’श्रावकाचार‘ ग्रंथ रूप में यह हिन्दी साहित्य की प्रथम रचना है। इसका रचनाकाल 933 ई. है। ये एक अच्छे कवि तथा उच्चकोटि के चिन्तक थे। ’श्रावकाचार‘ में  250 दोहों में श्रावक-धर्म का प्रतिपादन किया गया है। कवि ने गृहस्थ के कर्त्तव्यों पर भी विस्तार से विचार किया है। इसकी रचना दोहा छन्द में हुई है। उदाहरण- 


जो जिण सासण भाषियउ,सो मइ कहियउ सारु।


जो पालइ सइ भाउ करि , सो सरि पावइ पारु ।। 


इन्होंने अपभ्रंश में भी ’दब्ब-सहाय-पयास‘ नामक काव्य लिखा था। हिंदी में लिखित इनकी अन्य रचनाएँ ‘लघुनयचक्र‘ तथा ‘दर्शनसार’ है, जो काव्य की श्रेणी में नहीं आतीं।


3) शालिभद्र सूरि  ने ‘भरतेश्वर –बाहुबली रास’ की रचना 1184 ई. में की। मुनि जिनविजय ने इस ग्रंथ को जैन-साहित्य की रास-परंपरा का प्रथम ग्रंथ माना है। इनका एक और ग्रंथ बुद्धिरास भी मिलता है। ये अपने समय के प्रसिद्ध जैन आचार्य तथा अच्छे कवि थे। ‘भरतेश्वर –बाहुबली रास’ में ऋषभदेव के दो पुत्रों –भरतेश्वर और बाहुबली के युद्ध का विस्तृत वर्णन हुआ है। ये दोनों चरित-नायक संस्कृत ,प्राकृत तथा अपभ्रंश में भी काव्य-रचना का विषय रहे हैं।  205 छंदों का यह एक सुन्दर खण्डकाव्य है। प्रस्तुत कृति में जो इनकी कथा वर्णित है, उसमें इन्हें अयोध्यावासी ऋषभ  जिनेश्वर के यहाँ सुनन्दा और सुमंगला से उत्पन्न बताया गया है। भरत आयु में बड़े थे एवं पराक्रमी भी अधिक थे। वे अयोध्या के राजा बनाए गए। बाहुबली को तक्षशिला का राज्य मिला। कवि ने दोनों राजाओं की वीरता, युद्धों, आदि का विस्तार से वर्णन किया है, किन्तु हिंसा और वीरता के पश्चात् विरक्ति और मोक्ष के भाव प्रतिपादित करना कवि का मुख्य लक्ष्य रहा है। अतः वीर और श्रृंगार रसों का निर्वेद में अंत हुआ है। इसकी भाषा में नाटकीयता, उक्ति-वैचित्र्य तथा रसात्मकता के सर्वत्र दर्शन होते हैं। आगे की ’रास‘ या ‘रासो’ रचनाओं को इस ग्रंथ ने अनेकों रूपों में प्रभावित किया। उदाहरण-


                        (अ)        बोलह बाहुबली बलवन्त । लोह खण्डि तउ गरवीउ हंत ।


  चक्र सरीसउ चूनउ करिउं । सचलहं गोत्रह कुल संहरउं ।।


 


(आ)        तं जि पहिय पिक्खेविणु  पिअ उक्कखिरिय।


   मन्धर गय सरलाइवि उत्तावलि चलिय ।।


   तुह मणहर चल्लंतिय चंचल रमण भरि ।


   छुड़वि खिसिय रसणाबलि किंकिण रव पसरि ।।


 


 (इ)       उपनूं ए केवल नाण तउ विरहइ रिसहे सिउ ए।


 आविउ ए भरह नरिन्द सिउं अवधापुरि ए।।


4) आसगुकवि ने 1200 ई. में पैंतीस छंदों का एक लघु खण्ड काव्य ‘चन्दनबाला रास ’ जालौर में रचा। इसकी कथा- नायिका चन्दनबाला चम्पा नगरी के राजा दधिवाहन की पुत्री थी। एक बार कौशाम्बी के राजा शतानीक ने चम्पा नगरी पर आक्रमण किया, जिसमें उसका सेनापति चन्दनबाला का अपहरण कर ले गया और एक सेठ को बेच दिया। सेठ की  स्त्री ने उसे अपार कष्ट दिया। चन्दनबाला अपने सतीत्व पर अटल रहकर सब दुःख सहती रही और अंत में महावीर से दीक्षा लेकर मोक्ष को प्राप्त हुई। इस कथानक पर आधारित यह जैन-रचना करूण रस की गंभीर व्यंजना करती है। इस ग्रंथ में भाव-सौन्दर्य के जितने चित्र इसके रचयिता ने अंकित किए हैं, सभी में उसकी काव्य-निष्ठा व्यंजित हुई है।


5) जिनधर्मसूरि ने 1209 ई. में ’स्थूलिभद्र रास‘ काव्य की रचना की। काव्य की भाषा पर अपभ्रंश का प्रभाव अधिक है, फिर भी इसकी भाषा का मूल रूप हिंदी है। धार्मिक दृष्टि से प्रेरित होने पर इसकी भावभूमि और अभिव्यंजना काव्यानुकूल है।


 स्थूलिभद्र और कोशा वेश्या के विषय में अन्य रचनाएं भी मिलती हैं, किन्तु इस कृति की सभी घटनाओं से उनका प्रत्यक्ष संबंध नहीं है। अवान्तर घटनाओं के माध्यम से लौहघट के रूप में स्थूलिभद्र का संयम चित्रित करके कवि ने काव्य को विशिष्ट बना दिया है। कोशा वेश्या के पास भोग-लिप्त रहने वाले स्थूलिभद्र को कवि ने जैन धर्म की दीक्षा लेने के बाद मोक्ष का अधिकारी सिद्ध किया है।          


 6) सुमतिगणि ने 1213 ई. में नेमिनाथ रास की अट्ठावन छंदों में रचना की। नेमिनाथ के प्रसंग में श्रीकृष्ण का इस काव्य में वर्णन है। इन दोनों के माध्यम से विभिन्न भावों की व्यंजना हुई है। रचना की भाषा अपभ्रंश से प्रभावित राजस्थानी हिंदी है। 


7) हेमचन्द्र गुजरात के सोलंकी राजा सिद्धराज जयसिंह (993-1142) ई. और उनके भतीजे कुमारपाल (1142-1173) ई. के यहाँ उनका बड़ा मान था। ये अपने समय के सबसे प्रसिद्ध जैन आचार्य थै। हेमचंद्र ने कई लक्ष श्लोकों के ग्रंथ बनाए जिनमें प्रधान ये हैं-’अभिधानचिंतामणि आदि कई कोश‘, ‘काव्यानुशासन’, ’छंदोनुशासन‘, ‘देशीनाममाला’ , ’योगशास्त्र‘,  ‘धातुपारायण’ , ’त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित‘ और ‘परिशिष्ट पर्च’ आदि।


अपने व्याकरण के उदाहरणों के लिए हेमचंद्र ने भट्टी के समान एक ’द्वयाश्रय काव्य‘ की भी रचना की है। जिसके अंतर्गत ‘कुमारपालचरित’ नामक एक प्राकृत काव्य भी है। इस काव्य में भी अपभ्रंश के पद्य रखे गए हैं।   


 इन्होंने भारी व्याकरण ग्रंथ ’सिद्ध हेमचन्द्र शब्दानुशासन‘ जो सिद्धराज के समय में बनाया। उसमें संस्कृत , प्राकृत एवं अपभ्रंश तीनों का समावेश किया। अपभ्रंश के उदाहरणों में उन्होंने पुराने दोहे या पद्य उद्धृत किए हैं। जिनमें से अधिकांश इनके समय के पहले के हैं। कुछ उदाहरण देखिए- 



  • भल्ला हुआ जु मारिया बहिणि महारा कंतु।


           लज्जेजं तु वयंसिअहु जइ भग्गा घरु एंतु।।


(भला हुआ जो मारा गया, हे बहिन ! हमारा कंत । यदि वह भागा हुआ घर आता तो मैं अपनी समवयस्कों से लज्जित होती।) 



  • जड़ सो न आवइ, दुइ! घरु काँइ अहोमुहु तुज्झु।


       वयणु ज खंढइ तउ ,सहि ए ! सो पिउ होइ   न   मुज्झु।।


(हे दूती ? यदि वह घर नहीं आता, तो तेरा क्यों अधोमुख है ? हे सखी ! जो तेरा वचन खंडित करता है-श्लेष से दूसरा अर्थ, जो तेरे मुख पर चुंबन द्वारा क्षत करता है-वह मेरा प्रिय नहीं।)



  • जे महु दिण्णा दिअहड़ा दइएँ पवसंतेण ।


 ताण गणंतिए अंगुलिउँ जज्जरियाउ नहेण।।


(जो दिन या अवधि दयित अर्थात् प्रिय ने प्रवास जाते हुए मुझे दिए थे उन्हें नख से गिनते-गिनते मेरी उँगलियाँ जर्जरित हो गईं।)



  • पिय संगमि कउ निद्दड़ी ? पियहो परक्खहो केंव ।


     मइँ बिन्निवि विन्नासियां , निंद्द न एव न तेंव ।।


(प्रिय के संगम में नींद कहाँ और प्रिय के परोक्ष में भी क्यों कर आये ? मैं दोनों प्रकार से विनाशिता हुई-न यों नींद, न त्यों।)


84 वर्ष की अवस्था में अनशन से हेमचंद्र ने प्राण त्याग किया।  


8) सोमप्रभसूरि ये भी एक जैन पंडित थे। इन्होंने 1184 ई. में ‘कुमारपालप्रतिबोध’ नामक एक गद्यपद्यमय संस्कृत-प्राकृत काव्य लिखा, जिसमें समय-समय पर हेमचंद्र द्वारा कुमारपाल को अनेक प्रकार के उपदेश दिए जाने की कथाएँ लिखी हैं। यह ग्रंथ अधिकांश प्राकृत में ही है- बीच-बीच में संस्कृत श्लोक और अपभ्रंश के दोहे आए हैं। अपभ्रंश के पद्यों में कुछ तो प्राचीन हैं और कुछ सोमप्रभ और सिद्धिपाल कवि के बनाए हैं। उदाहरण-



  • रावण जायउ जहि दिअहि दह मुह एक सरीरु।


           चिंतावीय तइयहि जणणि कवणु पियावउँ खीरु ।।


(जिस दिन दस मुँह एक शरीर वाला रावण उत्पन्न हुआ तभी माता चिंतित हुई कि किस मुख में दूध पिलाऊँ।)



  • बेस  बिसिट्ठह बारियइ   जइवि  मणोहर   गत्त ।


        गंगाजल पक्खालियवि सुणिहि कि होइ पवित्त।।


(वेश विशिष्टों को वारिए अर्थात्, बचाइए, यदि मनोहर गात्र हो तो भी। गंगाजल से धोई कुतिया क्या पवित्र हो सकती है? )



  • पिय  हउँ  थक्किय सयलु दिणु तुह विरहग्गि किलंत।


                                               थोड़इ  जल  जिमि   मच्छलिय  तल्लोविल्लि   करंत।।


(हे प्रिय! मैं सारे दिन तेरी विरहाग्नि में वैसी ही कड़कड़ाती रही जैसे थोड़े जल में मछली तलवेली करती हैं।)


9) विजयसेन सूरि की काव्यकृति ‘रेवंतगिरी रास’ 1231 ई. में रचित है। यात्रा तथा मूर्तिस्थापना की घटनाओं पर आधारित यह रास वास्तुकलात्मक सौंदर्य का भी आकर्षण प्रस्तुत करता है। प्रकृति के रमणीक चित्र इस काव्य तथा कलापक्षों का श्रृंगार करते हैं।


कोयल कलयलो मोर केकारओ


सम्मए महुयर महुर गुंजारवो ।


जलद जाल बंबाले नीझरणि रमाउलु रेहइ,


उज्जिल सिहरु अलि कज्जल सामलु ।।


10) जैनाचार्य मेरुतुंग 1304 ई.में ’प्रबंध चिंतामणि‘ नामक एक संस्कृत ग्रंथ ’भोजप्रबंध‘ के ढंग का बनाया, जिसमें बहुत-से पुराने राजाओं के आख्यान संग्रहित किए। इन्हीं आख्यानों के अंतर्गत बीच-बीच में अपभ्रंश के पद्य भी उद्धृत हैं, जो बहुत पहिले से चले आते थे। कुछ दोहे तो राजा भोज के चाचा मुंज के कहे हुए हैं। मुंज के दोहे अपभ्रंश के या पुरानी हिन्दी के बहुत पुराने नमूने कहे जा सकते हैं। मुंज ने जब तैलप देश पर चढ़ाई की थी, तब वहाँ के राजा तैलप ने उसे बंदी कर लिया था और रस्सियों से बाँधकर अपने यहाँ ले गया था। वहाँ उसके साथ तैलप की बहन मृणालवती से प्रेम हो गया। इस प्रसंग के दोहे  देखिए-



  • झाली तुट्टी किं न मुउ ,किं न हुएउ छरपुंज।


  हिंदइ दोरी बँधीयउ जिम मंकड़ तिम मुंज।।


(टूट पड़ी हुई आग से क्यों न मरा ? क्षारपुंज क्यों न हो गया ? जैसे डोरी में बंधा बंदर वैसे घूमता है मुंज।)



  • मुंज भणइ , मुणालवइ । जुब्बण गयुं न झुरि।


       जई सक्कर सय खंड थिय तो इस मीठी चूरि।।


(मुंज कहता है- हे मृणालवती ! गए हुए यौवन को न पछता, यदि शर्करा सो खण्ड हो जाये तो भी यह चूरी हुई ऐसी ही मीठी रहेगी। )



  • जा मति पच्छइ संपजइ सा मति पहिली होइ।


    मुंज भणइ, मुणालवइ! बिधन न बेढइ कोइ।।


(जो मति या बुद्धि पीछे प्राप्त होती है यदि पहिले हो तो मुंज कहता है, हे मृणालवति! विघ्न किसी को न घेरे। )



  • बाह बिछोड़बि जाहि तुहुँ हउँ तेवइँ का दोसु।


      हिअयट्विय जइनी सरहि, जाणउँ मुंज सरोसु।।


(बाँह छुड़ाकर तू जाता है, मैं भी वैसे ही जाती हूँ –क्या हर्ज है ? हृदय स्थित अर्थात् हृदय से यदि निकले तो मैं जानूँ कि मुँज रूठा है।)



  • एउ जम्मु नग्गुहं गिउ, भड़सिरि खग्गु न भग्गु ।


       तिक्खाँ तुरियँ न माणियाँ , गोरी गली न लग्गु।।


(यह जन्म व्यर्थ गया। न सुभटों के सिर पर खड्ग टूटा, न तेज घोड़े सजाए, न गोरी या सुंदरी के गले लगा।)    


11) सधारु अग्रवाल का ’प्रद्युम्नचरित्र‘ (1354 ई.) ब्रजभाषा के आद्यवधि प्राप्त ग्रंथों में सबसे प्राचीन माना गया है। इसमें चौबीस तीर्थकरों की वन्दना के पश्चात् प्रद्युम्न की कथा का वर्णन किया गया है। नारद का सत्यभामा पर क्रोध, कृष्ण-रुक्मिणी का विवाह, प्रद्युम्न का दैत्य द्वारा अपहरण , शिला के नीचे कालसंवर को उसकी प्राप्ति, प्रद्युम्न के लिए रुक्मिणी का विलाप, जिनेन्द्र पद्मनाभ के पास नारद का गमन, प्रद्युम्न द्वारा कालसंवर के शत्रुओं का विनाश , द्वारका-आगमन, विवाह आदि घटनाएं इस काव्य की विषय-वस्तु का निर्माण करती है। अंत में प्रद्युम्न जिनेन्द्र से दीक्षा लेता है, तपस्या करके मोक्ष पाता है। इस प्रकार यह काव्य जैन-कथा-ग्रंथों की श्रेणी में आता है। काव्य तत्त्व की दृष्टि से इसमें विभिन्न रसों के सरस चित्र मिलते हैं। प्रद्युम्न –वियोग का एक चित्र देखिए-



  • नित-नित सीजह विलखी खरी , काहे दुखी विधाता करी।


इकु धाजइ अरु रोवइ वयण, आंसू बहत न थाके नयण।


की मइ पुरिष बिछोही नारि, की दव घाली वणह मझारि।


की मइ लोग तेल धृत हरउं, पूत सन्ताप कवण गुण परउं।।


माँ (रुक्मिणी ) के विलाप की भाषा देखिए- 



  • की मझं पुरिष बिछोही नारि। की दव धाली वणह मझारि।


की मइं लोग तेल-घृत हरथऊं। पुत्त संताप कवण गुण परयउँ।।


12) शालिभद्रसूरि कृत ‘पंचपाण्डवचरितरास’ पौराणिक कथा पर आधारित जैन काव्य में पाण्डवों की कथा को अहिंसा पर आधारित रखा गया है। इसका प्रणयन ईसा की चौदहवीं शताब्दी के अंत में किया गया है। पन्द्रह सर्गों में विभाजित इस काव्य में युद्ध और अहिंसा में से अहिंसा का चयन ही कथा का मुख्य लक्ष्य है। इस काव्य की भाषा अपभ्रंश से प्रभावित राजस्थानी हिंदी है। 


13) उदयवन्त या विजयभद्र कृत ‘गौतमरास’, घटना और भाव समन्वय से युक्त एक सरस खण्डकाव्य है। जैन तीर्थंकर महावीर के प्रथम गणधर गौतम इस काव्य के चरितनायक हैं। जिसकी भाषा अपभ्रंश-प्रभावित राजस्थानी हिंदी है।


14) जाखू मणियार कृत ’हरिचंदपुराण‘ (1396 ई.) कथ्य, अभिव्यंजना तथा भाव-गाम्भीर्य की दृष्टि से यह काव्य भक्तिकाल में रचित ब्रजभाषा- काव्य का आरंभिक निदर्शन है। 


15) देवप्रभ द्वारा चौहदवीं शताब्दी के अंत में रचित ‘कुमारपालरासो’ जैन–रास-काव्यों तथा वीर-प्रशस्तिपरक रासो काव्यों की प्रवृत्तियों का समन्वय करती है। एक ओर तो यह काव्य जैन धर्म की प्रवृत्तियों का काव्य की सरस भाव-भूमि पर अप्रत्यक्ष रूप में प्रसार करता है और दूसरी ओर राजा के व्यक्तित्व तथा लोकमंगलकारी प्रभाव को भी व्यापक बनाता है। इसमें राजा कुमारपाल की वीरता, उदारता, अहिंसा-प्रेम तथा नैतिकता-प्रचार का वर्णन है। समस्त रचना में धार्मिकता कहीं पर भी उभरकर काव्य की सरसता में बाधक नहीं बनी। कुमारपाल के राज्य का तपोवनानुकूल प्रभाव काव्य की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है।


16) जैन कवि पदमनाथ कृत ’कान्हड़ दे प्रबन्ध‘  ईसा की पन्द्रहवीं शताब्दी के आरंभ में रचित काव्यकला के पूर्ण विकास एवं पद्य के साथ गद्य के प्रयोग से युक्त रचना है। इसकी रचना-पद्धति रासो-काव्यों की शैली से भिन्न है। इसमें महाराजा कान्हड़ दे का चरित वर्णित है। कवि ने आलंकारिक शैली में घटनाओं का सुनियोजित चित्रण किया है। जैन कवि पदमनाथ की ’डूंगर बावनी‘ (1486 ई.) जिसका नामकरण कवि ने अपने आश्रयदाता डूंगर सेठ के नाम पर किया है। इसमें 53 छप्पय हैं जिनमें दया, दान, कर्म-फल, नम्रता आदि में ही जीवन-साफल्य माना गया है एवं सप्त व्यसन (जुआ, मांस-भक्षण, सुरापान, वेश्यागमन,आखेट, चोरी, परनारी-रमण ) से बचने का परामर्श दिया गया है।


17) जैन कवि ठाकुर सी की रचनाएँ ‘कृपणचरित्र’ और ’पंचेन्द्रीवेलि‘ हैं। जिनका रचनाकाल (1523-1526) ई. है। इनकी हस्तलिखित प्रतियाँ बम्बई के दिगम्बर मन्दिर और जयपुर के वधीचन्द मन्दिर में सुरक्षित है। ‘कृपण-चरित’ में एक कृपण सेठ और उसकी उदार पत्नी की कथा है तथा ‘पंचेन्द्रीवेलि‘ में इन्द्रिय निग्रह संबंधी छप्पय हैं। जिनमें गज,  मीन, भ्रमर, पतंग और मृग आदि के माध्यम से स्पर्श, रस, रूप, गन्ध आदि से बचने के सुझाव है। कवित्व की दृष्टि से दोनों रचनाएँ साधारण स्तर की हैं। 


18) जैन श्रावक जटमल ने प्रेमविलास प्रेमलता की कथा (1556 ई.) की रचना लाहौर में की थी। कवि ने इसका आरम्भ जैनाय नमः से करते हुए अपना परिचय एवं तत्कालीन शासक का नाम भी दिया है। इसकी कथावस्तु मौलिक है, जिसमें लोकोत्तर घटनाओं की प्रधानता है। नायक-नायिका का प्रेम प्रत्यक्ष दर्शन द्वारा उत्पन्न होता है तथा वे गुप्त विवाह करके घर से भाग जाते हैं। कथा की परिणति  शान्त रस में की गई है। शैली में परिपक्वता का अभाव है। 


19) बनारसी दास जैन भक्तिकालीन नीतिकवियों में इनका मुख्य स्थान है। ये जौनपुर के रहने वाले एक जैन जौहरी थे, जो आमेर में भी रहते थे। इनके पिता का नाम खड़गसेन था। ये 1586 ई. में उत्पन्न हुए थे। सम्राट अकबर के प्रशंसक थे। जहांगीर के दरबार में भी गए थे। शाहजहाँ के दरबार में तो इन्हें विशेष मान प्राप्त था। ‘नवरस पद्मावलि’, ’नाटक समयसार‘ (कुंदकुंदाचार्य कृत ग्रंथ का सार), ‘बनारसी विलास’ (फुटकल कवित्तों का संग्रह), ’अर्द्ध कथानक,‘ ‘नाममाला’  (कोश) , ’बनारसी पद्धति मोक्षपदी‘, ‘ध्रुववंदना’, ’कल्याण मंदिर भाषा‘, ‘वेदनिर्णय पंचाशिका’, ‘मारगन विद्या‘ और ‘भाषा सूक्तिमुक्तावली’आदि इनकी प्रमुख रचनाएँ हैं। 


इनमें कंचन और कामिनी के त्याग  तथा सत्य, क्षमा, शील, अपरिग्रह, नम्रता, निर्लोभ और अहिंसा आदि गुणों के निर्वाह पर बल दिया गया है। नीतिकाव्य के साथ ही उन्होंने अध्यात्मपरक काव्य की भी रचना की थी। यह समस्त प्राणियों में एक ही परमेश्वर का अंश मानते थे। अतः हिन्दू-मुसलमान, हिन्दू-जैन और ब्राह्मण-शूद्र आदि में भेद इन्हें स्वीकार नहीं था। उदाहरण- 



  • माया छाया एक है, घटै बढ़ै छिन माहिं।


      इनकी संगत जे लगें तिनहिं कहीं सुख नाहिं।।


एक रूप हिन्दू तुरुक, दूजी दशा न कोय।


     मन की द्विविधा मानकर , भए एक सौं दोय।।


इन्होंने 1641 ई. तक का अपना जीवनवृत्त अर्द्धकथानक नामक ग्रंथ में दिया है। पुराने हिंदी साहित्य में यही एक आत्मचरित मिलता है। इससे इसका महत्त्व बहुत अधिक है। इस ग्रंथ से पता चलता है कि युवावस्था में इनका आचरण अच्छा न था। इन्हें कुष्ट रोग भी हो गया था। पर पीछे ये संभल गए। ये पहले श्रृंगार रस की कविता किया करते थे। पर पीछे ज्ञान हो जाने पर इन्होंने वे सब कविताएँ गोमती नदी में फेंक दीं और ज्ञानोपदेशपूर्ण कविताएँ करने लगे। इन्होंने जैनधर्म संबंधी अनेक पुस्तकों के सारांश हिंदी में कहे हैं।


इनकी रचना शैली पुष्ट है और इनकी कविता दादूपंथी सुंदरदासजी की कविता से मिलती जुलती है। उदाहरण-



  • भोंदू ! ते हिरदय की आँखें।


   जे करबैं अपनी सुख संपत्ति भ्रम की संपत्ति भाखैं।।


    जिन आँखिन सों निरखी भेद गुन ज्ञानी ज्ञान विचारैं।


        जिन आँखिन सों लखि सरूप मुनि ध्यान धारना धारैं।।


 



  • काया सों विचार प्रीति, माया ही में हार जीत,


       लिए हठ रीति जैसे हारिल की लकरी ।


      चंगुल के जोर जैसे गोह गहि रहै भूमि,


          त्यौं ही पाँय गाड़ै पै न छाँड़े टेक पकरी ।


         मोह की मरोर सों मरम को न ठौर पावैं,


       धावैं चहुँ ओर ज्यों बढ़ावैं जाल मकरी ।


          ऐसी दुरबुद्धि भूलि, झूठ के झरोखे भूलि,


      फूली फिरैं ममता जँजीरन सों जकरी।


कुछ उपदेश इनके ब्रजभाषा गद्य में भी हैं। इनकी ’परमार्थ वचनिका‘, ‘मिथ्यात्वनिषेधन’ तथा ’उपादान निमित्त‘ की चिट्ठी भी उल्लेखनीय है। इनमें क्रमशः जैन धर्म के अनुसार आत्मा के स्वरूप का वर्णन, मिथ्यात्व का निषेध और आत्मा तथा ‘बाह्य साधन’ का निरूपण है।


परमार्थ वचनिका से इनकी भाषा के नमूने के रूप में ये अवतरण द्रष्टव्य है-


”इनबातन को ब्यौरों कहां तांई लिखिए कहां तांई कहिए। वचनातीत इन्द्रियातीत ज्ञानातीत तातैं यह विचार बहुत कहा लिखहिं जो ज्ञाता होइगो सो थोरी ही लिख्यो बहुत करि समुझैगो जो अज्ञानी होयगो सो यह चिट्ठी सुनैगो सही परन्तु समुझेगा नाहीं।”


उपादान निमित्त की चिट्ठी से इनकी भाषा के नमूने के रूप में ये अवतरण द्रष्टव्य है-


”इहां कोऊ उटंकना करतु है कि तुम कह्यो जु ज्ञान को जाणपनौ अरु चरित्र की विशुद्धता दुहुर् यो निर्जरा है सुज्ञान के जाणपनौ सो निर्जरा यह मानी। चरित्र की विशुद्धता सौं निर्जरा कैसे।” 


20) राजसमुद्र का जन्म 1590 ई. में बीकानेर में हुआ था। इनका बचपन का नाम खेतसी था। 1599 ई. में जिनसिंह सूरि से दीक्षा लेने पर इनका नाम राजसमुद्र हो गया। इनकी ’शालिभद्र चौपाई‘, ‘गजसुकमाल चौपाई, ’प्रश्नोत्तर रत्नमाला‘, ‘कर्मबत्तीसी’, ’शीलबत्तीसी’ और ‘बालावबोध’ प्रमुख रचनाएँ हैं। इनका मुख्य विषय नीति है। इनकी भाषा           राजस्थानी है।


21) कुशलबीर के नीति ग्रंथ-’भोज चौपाई‘, ‘सीलवती रास’, ’कर्म चौपाई‘ , ‘वर्णन संपुट’ तथा ’उद्दिम-कर्म-संवाद‘ हैं। सोजत नगर के निवासी थे। ये कल्याणलाभ के शिष्य थे और इनका रचना-काल (1637 से 1672) ई. है। इनकी भाषा राजस्थानी है और शैली उपदेशात्मक है।


22) आनन्दधन की निर्गुण भक्ति के भजनों की रचनाएँ मिलती हैं। इनकी ’आनन्दधन चौबीसी‘ और ‘आनन्दधनबहोत्तरी’ नामक कृतियाँ प्रसिद्ध हैं।


 जिनदत्तसूरि की ’उपदेश रसायन रास‘, प्रज्ञा तिलक की ‘कच्छुलि रास’, सार मूर्ति की ’जिन पद्म सूरि रास‘, कनकामर मुनि की ‘करकंड चरित रास’, पल्हण की ’आबूरास‘,  देवेन्द्रसूरि की ’गय सुकमाल रास’, अम्बदेव सूरि की ’समरा रास‘, अभय तिलकमणि की ‘अमरा रास’ हरिभद्रसूरि की ’नेमिनाथ चरिउ‘, राजशेखर सूरि की ‘नेमिनाथ फागु ’, नयनंदी की ’सुंदसण चरिउ‘ और पदम कीर्ति की ‘पास चरिउ’ आदि भी उल्लेखनीय हैं। 


राजस्थानी की प्राचीनतम  प्राप्त-गद्य रचनाओं में जैन धर्म से संबंधित रचनाएँ- ’आराधना‘ (1273 ई. के लगभग) दो पृष्ठों में जैन-आराधना –क्रिया का प्रतिपादन है। ‘अतिचार’ (1283 ई.) ,’नवाकार व्याख्यान टीका‘ (1301 ई.) , ‘सर्वतीर्थ नमस्कार स्तवन’ (1302 ई.) और  ’अतिचार‘ (1312 ई. ,इस शीर्षक की दूसरी रचना है)  इन सभी पर अपभ्रंश का प्रभाव है। इनमें संस्कृत  के तत्सम  तथा समस्त शब्द भी प्रयुक्त हैं।


राजस्थानी-गद्य के निर्माण में जैन लेखकों का विशेष योग रहा है। ‘तत्त्वविचार प्रकरण’ (चौदहवीं शती) , ’षडावश्यक बालावबोध‘ (1354 ई.) में, जो तरुणप्रभ सूरि-कृत अनूदित व्याख्यात्मक ग्रंथ है, जैन धर्म संबंधी शिक्षात्मक कथाएं हैं । ‘तपोगुच्छ गुर्वावली’ (1425 ई.) में तपोगच्छीय जैन आचार्यों की नामावली  और उनका वर्णन है। इसका गद्य यत्र-तत्र अलंकृत और सानुप्रास है।


रमल जैन कृत ‘मोक्षमार्गप्रकाश’ एवं द्वीपचन्द्र जैन कृत चिद्विलास जैन धर्म की दार्शनिक रचनाएं हैं। दोनों   खड़ीबोली के विशिष्ट गद्यकार हैं। चिद्विलास से गद्यांश का उदाहरण-


”मान विकार गया । विमल चरित्र का षेल भया। मम की ममता मिटी। स्वरूप में अऐसो रलि मिली एकमेक हुआ। सो वह आनन्द कैवलीगम्य है। जहां समाधि सुष की कल्लोल उठै है। दुष उपाधि मिटि गयी।आनन्द घर को पहुच्या। ”


 दौलतराम जैन बसवा निवासी कृत भाषा-पद्मपुराण‘ अथवा ‘पद्मपुराण वचनिका’ राजस्थानी-ब्रजभाषा–प्रभावित खड़ीबोली में प्राकृत की जैन राम-कथा का व्याख्यामय अनुवाद है। इनकी दूसरी प्रख्यात वचनिका ’आदि पुराण वचनिका‘ है जो भगवान ऋषभदेव तथा राजा श्रेयांस के जन्मों की कथा से सम्बद्ध जैन प्राकृत-ग्रंथ ‘आदिपुराण’ का व्याख्यामय अनुवाद है। इनकी अन्य गद्य रचनाएं हैं-’पुण्याश्रव कथा कोश वचनिका‘ , ‘वसुनन्दिश्रावकाचार वचनिका’ , ’परमात्मप्रकाश वचनिका‘ , ‘श्रीपाल चरित्र वचनिका’ तथा ’हरिवंश पुराण वचनिका‘।


दौलतराम जैन इंदौर निवासी कृत ‘मल्लिनाथ चरित्र वचनिका’ , टेकचंद जैन कृत ’सुदृष्टि-तरंगिणी वचनिका‘  और अभयचंद कृत ‘हितोपदेश वचनिका’ गद्य की विशेष उल्लेखनीय रचनाएं हैं। ये खड़ीबोली के विशिष्ट गद्यकार हैं। 


जिनसमुद्र सूरि रचित ’भर्तृहरि वैराग्य-शतक टीका‘ ब्रजभाषा-मिश्रित खड़ीबोली में  उल्लेखनीय टिप्पण-टीका है।


 ललित गद्य की वर्णनपरक रचनाभोजन विच्छिति’ में महावीर के जन्म के पश्चात् कुटुम्बी जनों को भोजन कराये जाने का वर्णन है। प्रायः स्थल स्थल पर तुकमय गद्य प्रयुक्त है।


उपरोक्त से प्रमाणित होता है कि हिंदी भाषा के विकास में जैन समुदाय का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है।


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