कुण्डलिया



कुण्डलिया
(1)
गागर ले गोरी गई,
पानी लाने आज।
तेज कदम से चल रही,
सखियां सब नाराज।।
सखियां सब नाराज,
हमें छोड़ दिया कैसे।
बनी आज अनजान,
जाने न हमको जैसे।।
कहत छगन कविराज,
क्या करोगी घर जाकर।
रखना धीमी चाल,
ये छलके नहीं गागर।।

(2)
गजबण पनघट पे गई,
गागर सिर पर लेय।
झटपट घर को आ गई,
लाई मीठा पेय।।
लाई मीठा पेय,
सभी की प्यास बुझाई।
कार्य करती तेज,
घर की चतुर लुगाई।।
कहत छगन कविराज,
कर रहा चूड़ा खनखन।
पहनावा तो देख,
लगे मरुधर की गजबण।।

छगनराज राव "दीप"
जोधपुर 

 

 




 

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