मजदूरों की टोली,

 

 

नयनों में स्वप्न चली ले, थी मजदूरों की टोली,
पग के छालों से आई अपनों की अपनी बोली,
क्षुधा, पिपासा भूला, भूला श्रांत स्थित को,
पर भूल न पाया भ्राता अब तक भ्राता स्मृति को,
निर्माण किए जो उसने, शरण नहीं दे पाये,
रहते थे जिस आश्रय में, वे भी खाली करवाये,
भाड़ा भी पास नहीं था, सामान बेच डाला सब,
जो भी था कर्ज चुकाया , शेष ले चला घर अब,
आनंद स्मृति थी घर की, पर पास नहीं था कुछ भी,
बालक छोटे औ भार्या असहाय चले पर फिर भी,
मजबूत किये बालक ने पग, चले कई योजन तक,
लो आज छिना बालक से बालकपन का उसका हक,
परिपक्व हो गया बालक परिजन के साथ चल रहा,
भावी मंजिल का यौवन, बचपन तो पूर्व कल रहा,
ना जल ना खाना माँगे, पर माँ को शिशु की चिंता,
नयनों के कोरों में भी आँसू का स्त्रोता रीता,
चलना आनंद अवश्यंभावी है जीवन पथ का,
चलते पग अश्व युगल है, शिशु अटल लक्ष्य सम रथ का,
आनंद कर्म है, फल का मिलना इच्छा चिंता है,
संकल्प लक्ष्य की माँ है, औ चरैवेति ममता है,
इस दर्शन को समझा वह, जाना आध्यात्म सनातन,
आनंद भूलना चिंता, आशा है भावी जीवन,
परिजन तो मात्र सहारा, निस्वार्थ भाव की आली ,
आनंद प्रथम चलना था तर्जनी पकड़कर अंगुली,
वह पाठ आज जीवन की चिर सत्य परीक्षा बनकर,
नपवाता है सड़कों को निज हाथ समय पकड़ाकर,
आनंद समय की लीला, आनंद देश की ठोकर,
आनंद आज की होनी आई बन लंबे पथ पर,
पथ का आनंद यही है, या  जीवन का या भौतिक,
जो जीत सका वह हारा, जीता रण वह परलौकिक,
पाता आनंद खेल में, जीवन संग खेल रहा वह,
यह शाश्वत एक परिस्थिति, हृदय से झेल रहा वह,
मोड़ों को जान गया वह, चौराहों को पहचाना,
टेड़ी मेड़ी राहों में पहचाना सत्य जमाना,
कोसों तक साथ चला वह, माँ ने तब किया इशारा,
अंगुली से उसे दिखाया पुरखों का आलय न्यारा,
आनंद निकल आँखों से टपका छालों के ऊपर,
हो गई श्रांति सब ठंडी वह क्षणिक हेम सी बहकर,
द्वार खड़ी इक वृद्धा कुछ रोती और बिलखती,
आ खड़ी हुई थी द्वारे, जब खबर मिली थी उड़ती,
आनंद समा दादी में कोरक से सुमन बना फिर,
उसकी छोटी बहिना को दादी ने झपटा तत्पर,
कितने दिन से भूखी थी, था दूध कहाँ आँचल में,
दादी ने दूध गर्म कर फिर पान कराया पल में,
आनंद बना परमानंद, परमानंद ही निज घर है,
घर है तो सतयुग घर पर घर त्रेता औ द्वापर है।
🙏 ज्ञानेश कुमार मिश्रा
अजमेर