प्रिय करोना

 

 तुमने सबको जीने का सलीका सिखा दिया 

पहले पूरी दुनिया छोटी लगती थी

 सब जगह सब तरह मनमानी होती थी 

और तो 

और भीड़ में टकराने से डर नहीं लगता था

 जहां हो वही जो चाहो शुरू कर लो

 खाना-पीना नाचना गाना और मस्ती

 पहले

 अपने क्या पड़ोसी भी अपने लगते थे

 पूरे दिन घूमने फिरने मे कट गये

 पर अब तुम इतने बेदर्दी निकले 

ना किसी से मिले न देखें 

पर एक ऐसा अदृश्य भय पैदा किया 

कि

 अपने भी पराए हो गए 

लक्ष्मणरेखा में रहना सीख गए 

घर की चार दिवाली महल लगने लगी

 दूर से आता हुआ अपना 

अपना क्या पड़ोसी बेगाना  लगने लगा 

महीनों से नहीं दिखाया तुमने बाजार होटल सिनेमा दुकान 

यहां तक कि शहर में रहने वाली महबूबा ,

महबूबा भी परदेसी हो गई हो 

तुम यदि सचमुच में सामने आओगे 

तो तुम ही बताओ तुम 

तुम्हें हम कैसे स्वीकारगे 

और 

जब नहीं आना है तो इतना क्यों परेशान कर रखा है?

 

डॉ0 अरविन्द जैन

भोपाल