दोस्तों..
एक वक्त था जब लोगों के दिलों में वतनपरस्ती की गंगा बहती थी..
और आज के दौर गरजपरस्ती का गंदा नाला.
. बिना मतलब इंसान क्या लोग भगवान को भी याद नहीं करते..
कुछ ऐसे ही मिज़ाज से सराबोर है आज कलम-ए-कमल..!
रिश्ते भी ज़मींदोज़ है
गरजपरस्त फितरत से आज हर कोई लबरेज़ है..!
ज़मीर व खुद्दारी वाले मिज़ाज से सबको गुरेज है..!
गिरगिट की तरह रंग बदलने में सब ही माहिर हैं..!
आज के दौर में तो अवसरवादियों की ही मौज है..!
कोई जन्नत का तलबगार तो कोई ग़म से है परेशां..!
गरज से सजदा करते हैं लोग आते कहां रोज हैं..!
वो दौर गुज़र गया जब दिल से निभाये जाते थे रिश्ते..!
आज के दौर में तो ख़ून वाले रिश्ते भी ज़मींदोज़ है..!
कमल सिंह सोलंकी
रतलाम मध्यप्रदेश
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