*तीन कुंडलियां*  






 *यू ही* पर देखिए 

 

                       

                  *तीन कुंडलियां*  

                              1

*यू ही* कह दिया तब तो,कोई नहि आधार।

*यूँ ही* सह लिया तब भी,व्यर्थ मे फटकार।।

व्यर्थ मे फटकार,अतः बोल ठीक तोलिए

अर्थ और भाव कर,तभी मौन पट खोलिए।

अनेकांत कह साँच, आदर भाव मिले तब ही।।

बोल बड़े अनमोल,अतः न बोल कहें *यू ही*।।

                             2

*यूँ ही* कुछ कैसै सखे,सबकुछ निश्चित जान।

कर्म लेखनी खुद लिखें,फिर कैसे अनजान।।

फिर कैसे अन्जान,आज जो कर्म करेंगें।

तब यह निश्चित मान,वही फिर फल भुगतेंगे ।।

अनेकांत कवि राज,खोलती कविता ये ही।

वाणी महिमा जान ,महाभारत ना *यूँ ही*।।

                           3

*यू ही* यू ही जो कहें, वो समझो नादान।

निज अंतर पहचानते,वो ही बने महान।।

वो ही बने महान,इतिहास जरा देखो।

धीरज धर गंभीर,परिणाम पुनः लेखो।।

अनेकांत कवि लेख,सदा प्राणी हित मे ही

चिंतन का परिणाम,लिखे कभी नही *यूँ ही*।।

 

         राजेन्द्र जैन अनेकांत 

     बालाघाट 


 

 



 



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