कर्मपथ

कर्मपथ

 

कुछ 

कंकड़ मिलेंगे

तुम्हें

रास्तों पर

शूल की तरह

चुभेंगे भी

कुछ दूर तक

मैं 

तुम्हें बचाती रहूंगी

फिर तो

अकेले ही चलना पड़ेगा

कभी 

मखमली घास भी मिलेगी

लहूलुहान तुम्हारे पांवों को

तब मिलेगा मरहम

पर

उन कंकड़ों से भरे कर्मपथ पर

चलने के बाद ही

तुम जी सकोगी ज़िन्दगी

महसूस कर सकोगी

छोटी - छोटी 

सफलताएँ

बातें कर सकोगी

ख़ुद से

ख़ुदा से

और 

खिलखिलाती 

ज़िन्दगी से ।

 

सारिका भूषण 

 

ख़ुशी रच दोगे क्या?

 


ख़ुशी रच दोगे क्या?


ये जो गगनचुंबी इमारत बना रहे हो तुम
किस मनसूबे को अंजाम दे रहे हो तुम
किसी बेघर को पनाह दोगे क्या?
तुम्हारे घर मे बहुत स्वादिष्ट भोजन है
किसी भूखे को खिला दोगे क्या?

मंदिरों में , मस्जिदों में,
अपने-अपने इबादत खानों में,
दान- दक्षिणा और चढ़ावा
ख़ूब करते हो, पर
किसी भिक्षुक की आंखों में
ख़ुशी रच दोगे क्या?

वो जो कचरे के ढेर पर
कबाड़ चुनता बच्चा है-
हाथ में प्लास्टिक की एक थैली लिए
उसका दाखिला किसी स्कूल में करा दोगे क्या?

नारी सशक्तिकरण की बात करने वालों
बेटी पढ़ाओ-बेटी बचाओ का नारा देने वालो
तुम अपनी ही बेटी को
स्वच्छंद उड़ान उड़ने के लिए छोड़ दोगे क्या?

सिफारिश पर हर काम कराने वालों
हरेक काम का दाम लगाने वालों
दौलत की मंडी में इंसान को बेवकूफ समझने वालों
मानवता को जिंदा रहने दोगे क्या ?
मनीष कुमार 


 


मुझे अफसोस रहेगा ....

मुझे अफसोस रहेगा ....

 

जिदंगी को प्यार से संजो पाता।

खुशीयों का एक छोटा-सा ही सही।

 

काश !एक छोटा -सा घर बना पाता।

 

समझ कर भी,

न-समझी का खेद रहेगा।

 

मुझे अफसोस रहेगा।

 

अंधेरे दूर हो जायें,

दिलदिमाग से भरमों के।

 

अंधविश्वास की सोच से,

निकाल कर,

जो तर्क को समझ पाएगा।

 

चिराग तो बहुत जलायें।

 

लेकिन........?

 

चिरागों तले जो रहे अंधेरे,

उन्हीं का भेद रहेगा।

 

मुझे अफसोस रहेगा।

 

जिदंगी ईश्वर की ,

अमूल्य उपहार।

 

नही दे सकता।

किसी बाबा का,कोई धागा।

 

हिम्मत से संवारो ,

अपने जीवन को।

 

न खोना, 

बहमों में अपने कल को।

 

भटकन को अपनी समेट कर।

ईश्वर का सत्य -संवाद रहेगा।

 

और तब .....तक वेद रहेगा।

फिर न कोई खेद और न भेद रहेगा।

 

 समझ जायें तो अच्छा है।

फिर न कोई अफसोस रहेगा। 

स्वरचित रचना

 

          प्रीति शर्मा "असीम "

नालागढ़ हिमाचल प्रदेश

 

माता -पिता  की छाँव
















माता -पिता  की छाँव

 

मात-पिता के प्यार से , जग में जन्मे जीव।

होते हैं परिवार के  ,  वे ही पक्की नींव  ।

 

मात सृजन का मूल है , पिता जीवनाधार ।

 होते हैं भगवान सम   , करते बेड़ापार ।

 

सहकर वे अनबोल  दुख ,  करें बड़ी संतान ।

बिन स्वारथ सेवा  करें  , दोनों लगें महान ।

 

होता है हर जीव में   , मात -पिता का अंश ।

धड़कन में स्पंदन भरें  ,   'मंजु ' कह परमहंस ।

 

मात -पिता के प्यार  का , कहीं नहीं है छोर ।

जग में  दूजा है नहीं   , उनसा  कोई ओर ।

 

सब रिश्तों से है  बड़ा  , मात -पिता  संबंध

लाड - प्यार के नेह से , हरें दर्द के बंध।

 

वेद , पुराण , गुरु सम  दें , खूब गूढ़ हैं ज्ञान ।

ठोस भविष्य हैं  गढ़ के , दें कल को सौपान ।

 

करती है माँ - बाप की ,सेवा जो संतान ।

उनके सारे  दुख हरे  , देता सुख भगवान ।

 

डॉ मंजु गुप्ता 

 

 

वाशी , नवी मुंबई 




 

 


 



 



 




 















 







प्यारा हिन्दुस्तान रहे

प्यारा हिन्दुस्तान रहे

कहे गंगा की अविरल धारा कहे चंदा और कहे तारा 


कहे सागर यह नदियों से कह रहा हिमालय सदियों से

भरत राज की पुण्य भूमि का जग में जिंदा मान रहे

हम हों न हो तुम हो न हो ये प्यारा हिन्दुस्तान रहे

 

और न कुछ है लेकिन है यही हमारी अभिलाषा

हम गीत बनाकर गाएंगे मानवता की परिभाषा

सदा वतन पर अमन .चैन और सौहार्द्र की छांव रहे

भेद सभी मिटा दें दिल से हर दिल में सद्भाव रहे

 

भाई.भाई आपस में सदा ही हिंदु और मुसलमान रहे

हम हों न हो तुम हो न हो ये प्यारा हिन्दुस्तान रहे

 

हम देश नहीं स्थान नहीं हम मेहनत और सफलता हैं

हम भाईचारे का मूल.मंत्र और सिद्धांतों में समता है

विश्वास हमारा रहा सदा है बीज प्रेम के बोने में

बांटा हमने प्यार सदा दुनिया के कोने.कोने में

 

प्रेमभाव का सबके दिल में बना सदा स्थान रहे

हम हों न हो तुम हो न हो ये प्यारा हिन्दुस्तान रहे

 

 

हम वो जो बन वीर शिवाजी मुगलों से टकराते हैं

शेरशाह बन कर के हम हुमायूं से लड़ जाते हैं

बनकर बुद्ध महावीर दुनिया शोभित कर जाते हैं

विवेकानंद बन के जग को मोहित कर जाते हैं

 

मील का पत्थर होकर भी हम सदा सरल आसान रहे

हम हों न हो तुम हो न हो ये प्यारा हिन्दुस्तान रहे

 

विक्रम कुमार

मनोरा , वैशाली

बिहार

 जो ना सुनी वो बाँचता हूँ मैं

       
          जो ना सुनी वो बाँचता हूँ मैं



      . कथाएं बताती हैं रोचकता से कई प्रसंग
         जीवन के बाह्य और भीतरी कलेवर के
            कथा  में छिपे काव्य को उकेरती हैं
   .        काव्य  में बसी भाषा  को संवारती है।
             सतयुग से लेकर कलयुग तक.....
             बाँची गई, संवरती रहीं, रचती रही अपनी छवि
          नव युग है, नव काल है, नवबंधन हैं नयी है चाल कथाओं
              की।।
                     कथा हूँ मैं बाँचता आज नयी
          गर्भावस्था में खिलती कन्या भ्रूण की
            कन्या जो कथाओं में पूजित है ।
          तस्वीरों में सौंदर्य का प्रतिमान है।
      पर कथा का सत्य कौन बाँचता है!
      प्रथम  माह से चिंतित घर बाहर सब
      बेटी ना हो पहली, बेटा हो जाए ,चिंता मिट जाए
       माँगे मन्नतें, बाँधे धागे, पूजे लोक- देव सभी
        गर्भ में पलती  मैं सोचती बार- बार
       कोई तो दिखाओ मुझे भी उत्साह
  ..    क्या! प्रफुल्लित मन, बाँहे पसार,होगा उसका स्वागत
           इस काल ।।।।
                कथा हूँ मैं बाँचता वृक्षों के दर्द की
          पूजित जो त्योहारों में, वर्णित जो काव्यों में,सजाते संसार
           जीवों का आधार, प्रकृति का श्रृंगार, पाखियों का बसेरा
           पर बाँचनी है कथा भीतर के घात की
           मानवीय शैतान की, काटता जो असंख्य पेड़ लालसा में
          भोजन,कागज ,घर या व्यापार का नाम ले
      नोचता, काटता, भस्म करता,  हमारा हरियाला शरीर
       नीम, पीपल, आम, वटवृक्ष, बन देते  हम सर्वस्व
         पर दंभ में चला कुल्हाड़ी, भेदता ड़ाली- ड़ाली
        नुकीले वारों से रक्तरंजित  मेरा हर पात
       वृक्षहीन होगी जब धरा ,  तुम सब पछताओगे
        मेरे चित्र तब किताबों में पाओगे।।
   .       .कथा हूँ बाँचता मैं अब निराली
         है कथा यह मेरी गीले भावों वाली
    माँगते सब प्रभू से घर का चिराग, आँगन की कली
       पर देखते जब कुछ कम है अंग प्रत्यंग में
       आँख, कान ,हाथ ,पैर या दिमाग से कमजोर
    मरती तुरंत सारी संवेदनाएं, भावनाएं  खून के रिश्तों वाली
       पहले विकलांग अब दिव्यांग बन गया हूँ मैं
    बचपन में ही सीखा  , असल नकल का फर्क
    शून्य का भी महत्व मानता है गणित
      पर एक कम स्वीकार नहीं करता  जगत
   बाँचना चाहता हूँ अपनी कथा प्यार,प्रीत, हिम्मत और
        खुशियों वाली
       कथा जो ना सुनी वो बाँचता हूँ मैं।।

      
           ड़ा.नीना छिब्बर। 
              17/653
     ....चोपासनी हाउसिंग बोर्ड
           जोधपुर


 

झूठ व्याधि को पालता

🌹झूठ व्याधि को पालता🌹

 

    -------------------------------    🌹गरिमा खंडेलवाल 🌹

 

 

एक पल का उन्माद

करता अंधकार का पोषण

अप्रिय सत्य को टालता 

झूठ व्याधि को पालता

 

स्वार्थ परस्त्ता से ग्रस्त झूठ

सत्य के विरोध में खड़ा अपराध 

तथ्यों को तोड़ मरोड़ कर 

मनचाहे निष्कर्ष निकालता

 

संहिता रक्षा बनी चुनौती 

सत्य कठघरे में जैसे कैदी 

दुर्निवार्य दायित्व कब तक टाले

विडम्बना में उजागर करने वाले 

 

सत्य असत्य के बीच सेतु रचते 

गला घोटते व्याधि के पोषक 

खच्चर सरीखी परिणीति से 

उपजे मूढ़ता भ्रष्टाचार

 

निज स्वार्थ के पिछलग्गूओ में

चरित्र दुर्बलता का नहीं इलाज

बिसात झूठ पर सत्य विजेता 

हारे वो झूठ व्याधि को पालता

 

               

    🌹गरिमा खंडेलवाल 🌹

||"पिंजरे का पँछी"||

||"पिंजरे का पँछी"||


 


बंद पिंजरे के पंछी की तरह मत समेट,


अपने आप को इन दर-दीवारों में !


वरना, उड़ना तो दूर,


फड़फड़ाना भी भूल जाओगे !


 


जरा बाहर निकल, आबो हवा में घूम,


वरना, बंद दीवारों में सिमट जाओगे !


इंसानी फ़ितरत है, मुखौटों में जीने की,


 


मुखौटा मत ओढ़, उन्मुक्त होकर जी,


वरना, हँसना तो दूर,


मुस्कुराना भी भूल जाओगे !


 


ज़रा खोल दिल के किवाड़ों को,


अपनापन आने दे !


वरना, एक दिन गैरों को तो छोड़ो,


अपनों के लिए भी तरस जाओगे !


 


रिश्तों की गरमाहट महसूस कर,


स्वाभिमान की होली जला !


वरना, कुलांचे भरना तो दूर,


कछुए की तरह सिमट जाओगे !


 


जरा, खोल से बाहर निकल,


रिश्तों को जी !


वरना, जीते - जी


मक़बरे में बदल जाओगे !


 


रिश्तों की फ़सल उगा,


मोहब्बत का बीज़ डाल !


खाद दे प्यार की,


रिश्तों की जड़ों को ज़रा !


 


शिद्दत से सींचो,


मोहब्बत के रिश्तों को,


वरना, मोहब्बत की तो छोड़ो,


कड़वाहट के लिए भी तरस जाओगे !


 


फलों से लदे वृक्ष,


अक्सर झुक जाते हैं !


ठूँठ हैं जो वो,


अकड़ के सीधे खड़े हो जाते हैं !


 


जरा लचीलापन ला, झुकना सीख,


वरना, तूफानों की तो छोड़ो,


"शकुन" तेज़ हवा के झोकों में


ही टूट जाओगे !


 


विज्ञापन में बिकती नारी

विज्ञापन में बिकती नारी

प्यार की पुकार नारी
शोषण की शिकार नारी।
कभी मजबूर कभी मगरूर
विज्ञापन में बिकती नारी।

परिवार का सम्मान नारी
संस्कृति की पहचान नारी।
बन रही है भूल भुलैया।
विज्ञापन में बिकती नारी।

बच्चों की फरियाद नारी
रिश्तो की बुनियाद नारी।
भूल रही है संस्कार अपने
विज्ञापन में बिकती नारी।

शान शौकत और श्रंगार नारी
कभी मासूम कभी दहकता अंगार नारी।
फैशन की चकाचौंध में
विज्ञापन में बिकती नारी।
     विज्ञापन में बिकती नारी।।

द्वारका गिते


ग़जल









































काफिया-ई रदीफ-की तरह

 

जब मिला प्यार से बंदगी की तरह

जिंदगी हो गयी रोशनी की तरह

 

हो रहे फैसले मेरे हक में मगर

मुझको तंहा रखा तीरगी की तरह

 

कब मुझे आपसे भी था कोई गिला

मिल रहे हो कि अब अजनबी की तरह

 

दिल हमारा समंदर सा है जानेमन

आप आ जाइये इक नदी की तरह

 

हो गयी ये खबर सबको अब तो सनम

बढ़ रहा है नशा आशिकी की तरह

 

नौजवां हो अगर प्यार खुल कर करो

दोस्ती मत निभा दुश्मनी की तरह

 

ठीक होता नहीं हर जगह टोकना

दिल को लगता है ये तीर ही की तरह

 

कब मुकम्मल हुई जिंदगी भर हँसी

गम भी शामिल है इसमें खुशी की तरह

 

डॉ.रामावतार सागर

 

कोटा,राज.


 

 



 



 















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ग़जल 






ग़जल 

 

मौसम को मिजाज बदलते देखा,

तारों को चाल बदलते देखा ।

अहसास जब खास हुये ,

अपनों को चाल बदलते देखा ।

 

जान  छिड़कते थे नाजों पर ,

भौंह सिकोड़ते उनको देखा।

आँख इशारों से जो चलते ,

आँख फेरते उनको देखा ।

 

बात वफा की जो करते थे,

उनको हरजाई बनते देखा ।

बात बात पर शीश झुकाते ,

सिर उठाते उनको देखा ।

          पदम प्रवीण


 

 



 



   बदरी बाबुल के अँगना जइयो---






लघुकथा 

         बदरी बाबुल के अँगना जइयो---

 

      मायका शब्द ही ऐसा है कि सुनते ही चेहरे पर प्यारी सी मुस्कान आ जाती है चेहरा खिल उठता है ,लगता है साल भर बहु की जिम्मेदारियां बखूबी निभा दी ,बस अब मायके जाना है  छुट्टियां लगते ही मायके जाने की तैयारियों सुरु हो जाती है,इस वर्ष कोरोना महामारी की वजह से बेटियों का मायके जाना संभव नही हो पाया 

आज  उमड़ते -घुमड़ते बादलो को देख बचपन मे सुने लोकगीत को गुनगुनाने का मन हुआ  ,जो मेरी माँ को बहुत पसंद था ,जब भी उन्हें मायके की याद आता थी कहती थी मुझे वह गीत सुनाओ ,सुनकर वह भी जी भर रोती थी ,और सुनाकर मैं भी  "-बदरी बाबुल के अँगना जइयो"-- सोचा बादलो संग ही ,बदरी के जरिये मायके की दहलीच छू आऊ  ,कुछ पल बिता आऊ ,अपने बचपन को जी लू 

        बदरी से मैंने कहा बदरी तुम पर तो कोई लॉक डाउन नही है ,तू मेरे मायके जा मेरा संन्देशा देती आ, बदरी तुम मेरे बाबुल के अँगना जा खूब बरसना और  मेरी माई से कहना --कि हम है तोहरी बिटिया की अखियाँ ,माई के पल्लू से अठखेलियां कर कहना कि हम है तोहरी बिटिया की बतियां , बाबुल के संग थोड़ा खेल,उनकी गोदी में सर रख कहना कि ,हम है तोहरी नटखट सी बिटिया, बहन भाइयो को भिगोकर कहना कि हम है तोहरी चुलबुली बहनिया 

   बदरी मायके गयी ,दूसरे दिन संदेशा ले आयी, तुम्हारे माई -बाबुल ने कहा है कि --बेटी मत घबराना ,जल्द ही सब ठीक हो जायेगा ,फिर से हमलोग साथ रहेंगे, खेलेंगे ,मुस्कुरायेंगे  घूमेंगे ,तुम मायके जरूर आओगी ,ढाढ़स भरे शब्दो के बावजूद भी सब लोग बहुत उदास है ,कहा कि कभी सोचा नही था कि तुम बिन हमारा आँगन इतना सुना हो जायेगा 

ओ री चिरैया ,नन्ही सी चिड़िया 

बाबुल अँगना फिर आजा रे 

                   लता सिंघई

                अमरावती,महाराष्ट्र


 

 



 



प्रैक्टिकल लाइफ या हत्या








































प्रैक्टिकल लाइफ या हत्या

 

मैं जब भी देखती हूँ एक  सूखी नदी को दिल दुखी हो उठता है।हाँ वह एक सूखी नदी ही तो थी ।शायद  जब अपने उद्गम से वह चली थी तो आशाओं की बग्घी पे बैठी हुई होगी ।नृत्य करती , गुनगुनाती हुई आगे बढ़ रही होगी। कभी हवाओं संग रेस लगाती हुई शोर मचाती होगी ।कभी तन्वंगी तो कभी बल खाती हुई वह जीवंत नारी सी लगती होगी ।

ऊपर-नीचे लहराती हुई वह अठखेलियाँ करती हुई लोगों को खुशियां बांट रही होगी।कल-कल की ध्वनि गुंजरित करती हुई पीछे मुड़कर न देखने वाली वह पूरे जोश से बह रही होगी ।जब वह जीवंत होगी , सूर्य रश्मियों संग मिलकर खिलखिलाती होगी।तपन और गर्मी का एहसास भी नहीं होता होगा ।आज समय बदल चुका है  --मनुष्य प्रैक्टिकल हो गया है।कभी धाराओं को रोकने की बात करता है।कभी अस्थियों की बारिश करता है।कहीं मंदिरों के सूखे फूलों की गंदगी लाकर बहा देता है ।कभी चमड़ों को साफ करते केमिकल को नालियों से बहा देता है ।कहीं होटलों की गंदगी वाली मोरी,कहीं जली - सड़ी हुई तैरती लाशें।सारे शहर की गंदगी धोते - ढोतेआज सारी नदियाँ मैली हो गयी है ।साफ दर्पण सा जल हो गया है अब मटमैला,जगह - जगह अवरुद्ध करते कपड़े , पत्थर ,ईंटें , रोड़े ,गाद।आगे बढ़ने की गति जब मनुष्यों ने थामी तो दिल के सचमुच  टुकड़े - टुकड़े हो गये ।कहाँ लहराती , गुनगुनाती , शोर मचाती थी।अब गंदगी के ढेर पर बैठी , बदबू फैलाती एक मिट्टी का ढेर बन चुकी थी।सबके पाप धोते - ढोते उसका अस्तित्व ही खत्म हो चुका था।आशाओं की बग्घी में सवार थी वह अब निराशाओं के दलदल में धँस चुकी थी।विकास की मातंग गति पर आँसू बहा रही थी।सच कहा जाय तो एक नदी की हत्या हो गयी थी और मनुष्य, वह तो धोखेबाज है ।एक नदी की हत्या कर अब वह  दूसरी नदी की तलाश में आगे बढ़ रहा था । यही तो आजकल की प्रैक्टिकल लाइफ है ।

डॉ कुमुद बाला

रिटायर्ड लेक्चरर

हैदराबाद

तेलंगाना


 

 



 



 















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सिरि भूवलय में आचार्य कुन्दकुन्द कृत समयसार












































सिरि भूवलय में आचार्य कुन्दकुन्द कृत समयसार


 


सिरिभूवलय अपने आप में अनूठा और आश्चर्य चकित करदेने वाला अंकात्मक अद्भुत ग्रन्थ है। यह के अंकों ही अंकों में लिखा गया में लिखा गया है। आठवीं-वनमी शताब्दी में दिगम्बराचार्य कुमुदेन्दु ने इसमें १ से ६४ तक के अंकों को लिया है। इससे निर्गत होने वाली सभी ७१८ भाषाओं के वर्णमाला इन्हीं ६४ अंकों से बनती है। सभी एक अंकचक्र में २७ कॉलम खड़े और २७ कॉलम पड़ेइस तरह से कुल ७२६ खाने बनाये गये हैंउनमें विशेषविधि से अंक लिखे गये हैं। इस तरह के १२७० अंकचक्र उपलब्ध हैं जिनमें ५६ अध्यायात्मक मंगल प्राभृत गर्भित है। ये अध्याय वर्ण्यमान सभी विषयों का सूत्ररूप में संकेत करते हैं। १२७० अंकचक्रों से ही विशेष विधि से प्रत्येक के ८१-८१ गुणित करके एक लाख २८७० अंकचक्र बनेंगे और एक-एक अंकचक्र से लगभग १०-१२ श्लोक बनते हैं। इस तरह द्वितीय स्तर की डिकोडिंग से सभी ६४ आर्ट्स और साइंसभाषाएँधर्मकलाविज्ञान ३६३ दर्शन व्यवस्थित रूप से पूर्ण विवेचित होंगे।


इसके श्रुतावतार नामक अध्याय के अन्तराधिकार के प्रत्येक श्लोक का प्रथम अक्षर पंक्ति रूप में लिखते जाने से कुन्दकुन्दचार्य द्वारा रचित समयसार की प्राकृत भाषात्मक गाथाएं बनती हैं। अर्थात् लगभग ५६ पद्यों के एक एक अक्षर लेने से समयसार की एक गाथा बनती है। चूंकि सिरि भूवलय की आधार भाषा कन्नड है अर्थात् कन्नड को मूल में लेकर यह निर्मित है इसलिए हम जो शोध प्रस्तुत करते हैं उसका मुख्य अंश कन्नड-मूल रूप में अवश्य रखते हैंयद्यपि सभी को कन्नड समझ में नहीं आती लेकिन उसे गौण नहीं किया जा सकता है।


ಸಿರಿಭೂವಲಯದಲ್ಲಿ ಶುದ್ಧ ಕುನ್ಹಾಚಾರ್ಯದ ಸಮಯಸಾರ


ವಂದಿತ್ತು ಸವ್ವಸಿದ್ದೇ ಧುವಮಚಲಮಣೋವಮಂ ಗಇ೦ ಪತ್ತೇ।


ವೋಚ್ಛಾಮಿ ಸಮಯ ಪಾಹುಡಮಿಣಮೋ ಸುಯಕೇವಲೀ ಭಣಿಯಂ loll


 


ಜೀವೋ ಚರಿತ್ತ ದಂಸಣ ಣಾಣಟ್ಟಿಉ ತಂ ಹಿ ಸಸಮಯಂ ಜಾಣ|


ಪುಗ್ಗಲ ಕಮ್ಮ ಪದೇಸಟ್ಟಿಯ ಚ್ ತಂ ಜಾಣ ಪರಸಮಯಂ ||||


 


ಎಯತ್ತ ಣಿಚ್ಚಯಗಓ ಸಮಓ ಸವ್ವ ಸುಂದರೆ ಲೋಎ |


ಬಧಕಹಾ ಎಯತೇ ತೇ ಣ ವಿಸಂವಾದಿಣೀ ಹೊ ||||


 


ಸುದಪರಿಚಿದಾಣುಭದಾ ಸವ್ವಸ್ಸ ವಿ ಕಾಮಿಗಬಧಕಹಾ |


ಎಯಸ್ಸುವಲಭೋ ಣವರಿ ಣ ಸುಲಹೋ ವಿಹಸ್ಯ ||||


 


ತಂ ಎಯ ವಿಹಂ ದಾಹಂ ಅಪ್ಲೊ ಸವಿದವೆ |


ಜದಿದಾವಿಜ್ಞ ಪಯಾಣ ಚುಕ್ಕಿಜ್ಞಛಲಂ ಣ ಛತ್ರವ್ಯ ||||


 


मयसार सिरिभूवलय में कुन्दकुन्दाचार्य कृत समयसार


समयसार के अलग अलग संस्करणों में विद्वानों ने अपनी बुद्धिव्याकरणश्रुति परम्परा के अनुसार पाठ में परिवर्तन किये हैं। सिरि भूवलय में प्राचीनतम शुद्ध पाठ प्राप्त होता हैपहले निम्नांकित प्रारम्भिक गाथाएं देखें-


गदित्तु साठा सिद्ध शुगमाचलमाणोठामा गई पत्ते।


वोच्छामि समय पाहु डमिणो सुयके वली भणियं ॥१॥


मैं ध्रुवअचलनिर्मल और अनुपम गति को प्राप्त समस्त सिद्धों को नमस्कार कर श्रुतकेवलियों द्वारा कहे हुए इस समयपाहुड नामक ग्रन्थ को कहूँगा|


जीवो चरित्त दंसण णाणट्ठिउ तं हि ससमयं जाण।


पुग्गल कम्म पदेसट्ठिय च तं जाण परसमयं ॥२॥


जो जीव चारित्रदर्शन और ज्ञान में स्थित है निश्चय से उसे स्वसमय जानो और जो पुद्गल कर्म के प्रदेश में स्थित है उसे पर समय जानो|


एयत्थ णिच्छ यगओ समओं सव्वत्थ सुदरो लोए|


बधाक हा एयाते ते ण विसांवादिणी होई ।।३।|


एकत्व निश्चय को प्राप्त हुआ समय ही समस्त लोक में सुदर है। एकत्व के प्रतिष्ठित होने पर उस आत्म पदार्थ के साथ बध की कथा विसंवादपूर्ण है।


सदपरिचिदाणु दा सास्स वि कामाभागबध कहा ।


एटाते स्वला णारि ण सुलो विह तस्स ॥४॥


कामभोग और बध की कथा सभी जीवों के श्रुत हैपरिचित है और अनुभूत हैपरंतु पर पदार्थों से पृथक् एकत्व की प्राप्ति सुलभ नहीं है।


त एयात्त विहत्त दाएह अप्प्णो सगिह तो ण ।


जदिदाऐ ज्ज पयाणं चुक्कि ज्जछलं ण घेतना ॥५।|


मैं अपने निज विभव से उस एकत्व विभक्त आत्मा का दर्शन करता हूँ। यदि दर्शन करा सकूँउसका उल्लेख करा सकू तो प्रमाण मानना और कहीं चूक जाऊँ तो मेरा छल नहीं ग्रहण करना।


इसमें से गाथा सं. ३ और ४ में 'बंधकहाकी जगह 'बधकहा', पाठ आया है। गाथा संख्या चार में प्रकाशित संस्करणों में कामभोगबंधकहापाठ ही लिया गया है और उसका अर्थ किया हैकामभोग और बंध की कथाजबकि कामभोग की कथा स्वयं ही बंध की कथा है अतः अलग से बंध कहने की आवता नहीं थीबल्कि कामभोग और जीव बध की कथा उपयुक्त बैठता है। गाथा संख्या ३ के प्रकाशित “एयत्त" के स्थान पर “एयत्थ" पाठ मिला है। इस तरह और भी अनेक पाठभेद हैं जिन्हें आगामी शोध में प्रस्तुत करेंगे|


-डॉ. महेन्द्रकुमार जैन 'मनुज', इन्दौर


 

 


 







 

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 दिल या दिमाग
















 
























































 दिल या दिमाग

 

1- दिल दिमाग जब एक हों, बनते सारे काम ।

     जीवन के हर मोड़ पर, मिले सफलता धाम ।

 

2- दिल सच्ची बातें करे, तिकड़म करें दिमाग ।

    दिल की कहनी मानिए, दिल में बसते राम ।।

 

3-  करुणा दया उदारता, दिल की ये पहचान ।

     हानि-लाभ निज दूसरा,मस्तिक आठहुॅ याम ।।

 

4- जतन हमेशा कीजिए , बसे रहो दिल पास ।

    दिल की मानी राधिका,मिला कृष्ण का ठाम ।।

 

5-  कंचन मृग मस्तिक बसा, सीता पिय से दूर ।

     मीरां दिल की मान कर , पॅहुची वृन्दा-धाम ।।

 

6-  नारद मन के वश भये, पॅहुचे मण्डप पास ।

      नारायण दिल याद कर ,पॅहुचे भगवत धाम ।।

 

        आदित्य कुमार गुप्ता ।


 

 



 



 















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      *कैकेयी*








































*रामायण के पात्र*

   

      *कैकेयी*

 

 

 

मैं पात्र अमर रामायण की

 लेकिन बदकिस्मत नारी हूं।

आधार हूं सारी घटना का

 पर फिर भी मैं बेचारी हूं।।

 

है पुत्र भरत मेरे जाए

पर राम भी मेरे प्यारे हैं।

हैं दूर नहीं शत्रुघ्न-लखन

वे भी आंखों के तारे हैं।।

 

धरती से पाप घटाने को

श्रीराम ने जब अवतार लिया।

घटना को घटाने इक क्रम से

मेरा ही तो आधार किया।।

 

श्रीराम और मैं, हम दोनों

ने एक योजना रच डाली।

मैं सूत्र बनी इस घटना की

खाईं मैंने जीभर गाली।।

 

हां, बात मंथरा कहती है

औ मैं उसकी हूं अनुयायी।

पर मति पलटने वाले प्रभु

ने स्वयं कहानी गढवाई।।

 

गर मैं न सहायक हो पाती

तो राम न वन को जा पाते।

ना नाश असुर दल का होता

ना किले सभी के ढह पाते।।

 

वो ऊंट ना जाने किस करवट

से बैठ भला क्या कर जाता।

लंका होती ना तहस नहस

लंकापति भी ना मर पाता।।

 

वानर भी सहायक होकर के

यश के भागी ना बन पाते।

सब नीति धरी ही रह जातीं

यदि राम नहीं वन को जाते।।

 

मैं वीर अनोंखी क्षत्राणी

रण में मैंने हुंकार भरी।

जब रथ की टूट गई कीली

मैं अपनी उंगली थी धरी।।

 

गर मैं ना सहायक हो पाती

रथ से राजा फिर गिर जाते।

क्या जीत भी सकते कहो इंन्द्र

असुरों पर विजय कहां पाते।।

 

है केवल भरा नहीं है रस

जो वीरों का कहलाता है।

मैं पूरित हूं वात्सल्यभाव

जो भावों को सहलाता है।।

 

मेरे सुत ने कडवा ही कहा

मैंने उसको भी सह डाला।

पर नेक कर्म की सहयोगी

बन मैंने खुद को भी ढाला।।

 

मत नाम रखो मेरा जग में

मैं नेकी करने ही आई हूं।

मैं बुरी भले हूं इस जग में

पर ऋषि भरत की माई हूं।।

 

मैंने जन्मा है वीर भरत

जो त्यागी है और सच्चा है।

वह मेरा ही  है अंशमात्र

मेरी गोदी का बच्चा है।।

 

जो त्याग किया उस योगी ने

मैं ने ही उसे सिखाया था।

अग्रज होते हैं पूजनीय

मैंने ही उसे पढाया था।।

 

जो संस्कार लक्षित होते

उन सबकी मैं ही कहानी हूं।

तुम सोच सोच फिर से सोचो

मैं दशरथ की प्रिय रानी हूं।।

 

यदि भाव मेरे होते कलुषित

राजा की प्रिय ना बन पाती।

वात्सल्य भाव होता ना कहीं

रघुवर को सुत ना कह पाती।।

 

राम भरत दोनों ही सुत

मुझको प्राणों से प्यारे हैं।

आधार हैं मेरे जीवन के

मेरे नयनों के तारे हैं।।

 

तारे हैं जीव कलुष, घाती

मैं उन सबका आधार बनी।

मनसे निष्काषित कर ही दो

मेरी छवि जो कलुषित है घनी।।

 

जो मांग समय की थी तत्क्षण

मैंने उसको ही पाला था।

अवतार हुआ जिस कारण से

तद्रूप ही मैंने ढाला था।।

 

  लखन पाल सिंह *शलभ*

     भरतपुर

        


 

 



 



 







 

 








 

 







 







 




 





 




 



 



 


 


 


















 

 





 



 





 


 


 


   बेचारा हार्ट 

                          बेचारा हार्ट 

 

कहा जाता है कि हार्ट अटैक से बचने के लिए हर रोज गर्म पानी पीएँ।और भी बहुत सारे नुस्खे बता दिए जाते हैं।इसके लिए तो सभी जागरूक हैं लेकिन बीमारी की जड़ तक हम नहीं पहुँच पा रहे हैं ।ना खुल कर हँसना ,ना जोर से बोलना ,ना किसी को जोर से आवाज लगाना, ना दौड़ना  भागना ।अब आप ही बताइए काॅलस्ट्राल बर्न कैसे हो ? ये सब हमारी तहजीब के खिलाफ हो गई हैं।

>                   दूसरा कारण इमोशन, रिलेशनशिप हैं जिनकी गर्माहट बेचारे हार्ट को मिलती ही नहीं ।वे हार्ट को हर्ट करते जा रहे हैं और रिश्ते बर्फ की तरह हार्ट ब्लाॅक करते जा रहे हैं ।इसका उपाय खोजना ज्यादा जरूरी है ।हार्ट सर्जरी से पहले रिश्तों की सर्जरी अति आवश्यक है ।एक दिल को दिल से जोड़ने की कोशिश करता है और दूसरा उस पर अटैक कर देता है ।अब आप ही बताइए सर्जरी किसकी करें ? 'एलोपैथी' की जगह हमें 'होम पैथी' की जरूरत है जो होम (घर) को हार्ट अटैक के लक्षणों से मुक्ति  दिलाए। विचारणीय ये है कि हमें नुस्खे चाहिए या रिश्ते ।

             हँसे, बोलें, प्रसन्न रहें ।

                                                        

> सुशीला शर्मा

 

प्यासा सा समंदर है वह






प्यासा सा समंदर है वह

 

 

सभी नदियां मिलें जिसमें,प्यासा सा समंदर है वह।

जीतने निकला जो सारे जहां को,हारा सा सिकन्दर है  वह।।

 

पेड़ों पर कूद-कूद कर खाता रहा था  फल जो।

अब न पेड़,न कहीं फल हैं,खिसियाया सा बंदर है ।।

 

जिम्मेदारियां नचा रहीं उसको रात और दिन ।

नचाने को न भालू हैं,न बंदर हैं,मगर फिर भी कलंदर है वह।।

 

न जाने क्या सोचता-समझता है या है नादान ।

अड़ौसी-पड़ौसी और घरवाले हैं कहते बवंडर है वह।।

 

कोरोना महामारी 'सुषमा 'है आयी,लायी है कयामत ।

बहुत घूमता था इधर से उधर,आज अंदर है वह।।


 

 



 



गगन यहाँ जलता है 








































गजल

गगन यहाँ जलता है 

 

शाम सूरज थका हुआ ढलता है     

तेज  प्रखर गगन यहां जलता है 

 

झूठ बातें करें सभी देखो तो

बेवफा इश्क को भी अब छलता है 

 

पास उसके कहां कमाने को है

बैठकर रोज हाथ अब मलता है

 

 मार ठोकर निकाल फेंका था जब

 भीख अब मांग के पड़ा पलता है 

 

लोग नाराज  हो रहे उससे तो

 साफ सीधी जुबान ही चलता है 

 

क्रोध आता नहीं उसे तो मन में

 बर्फ के ही समान वो गलता है

 

 बात दीपा सही कहां दिखती हैं 

झूठ बातें जहान  में खलता  है

 

दीपा परिहार

जोधपुर (राज)


 

 



 



 







 

 








 

 







 







 




 





 




 



 



 


 


 


















 

 





 



 





 


 


 


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