*रामायण के पात्र* *कैकेयी* मैं पात्र अमर रामायण की लेकिन बदकिस्मत नारी हूं। आधार हूं सारी घटना का पर फिर भी मैं बेचारी हूं।। है पुत्र भरत मेरे जाए पर राम भी मेरे प्यारे हैं। हैं दूर नहीं शत्रुघ्न-लखन वे भी आंखों के तारे हैं।। धरती से पाप घटाने को श्रीराम ने जब अवतार लिया। घटना को घटाने इक क्रम से मेरा ही तो आधार किया।। श्रीराम और मैं, हम दोनों ने एक योजना रच डाली। मैं सूत्र बनी इस घटना की खाईं मैंने जीभर गाली।। हां, बात मंथरा कहती है औ मैं उसकी हूं अनुयायी। पर मति पलटने वाले प्रभु ने स्वयं कहानी गढवाई।। गर मैं न सहायक हो पाती तो राम न वन को जा पाते। ना नाश असुर दल का होता ना किले सभी के ढह पाते।। वो ऊंट ना जाने किस करवट से बैठ भला क्या कर जाता। लंका होती ना तहस नहस लंकापति भी ना मर पाता।। वानर भी सहायक होकर के यश के भागी ना बन पाते। सब नीति धरी ही रह जातीं यदि राम नहीं वन को जाते।। मैं वीर अनोंखी क्षत्राणी रण में मैंने हुंकार भरी। जब रथ की टूट गई कीली मैं अपनी उंगली थी धरी।। गर मैं ना सहायक हो पाती रथ से राजा फिर गिर जाते। क्या जीत भी सकते कहो इंन्द्र असुरों पर विजय कहां पाते।। है केवल भरा नहीं है रस जो वीरों का कहलाता है। मैं पूरित हूं वात्सल्यभाव जो भावों को सहलाता है।। मेरे सुत ने कडवा ही कहा मैंने उसको भी सह डाला। पर नेक कर्म की सहयोगी बन मैंने खुद को भी ढाला।। मत नाम रखो मेरा जग में मैं नेकी करने ही आई हूं। मैं बुरी भले हूं इस जग में पर ऋषि भरत की माई हूं।। मैंने जन्मा है वीर भरत जो त्यागी है और सच्चा है। वह मेरा ही है अंशमात्र मेरी गोदी का बच्चा है।। जो त्याग किया उस योगी ने मैं ने ही उसे सिखाया था। अग्रज होते हैं पूजनीय मैंने ही उसे पढाया था।। जो संस्कार लक्षित होते उन सबकी मैं ही कहानी हूं। तुम सोच सोच फिर से सोचो मैं दशरथ की प्रिय रानी हूं।। यदि भाव मेरे होते कलुषित राजा की प्रिय ना बन पाती। वात्सल्य भाव होता ना कहीं रघुवर को सुत ना कह पाती।। राम भरत दोनों ही सुत मुझको प्राणों से प्यारे हैं। आधार हैं मेरे जीवन के मेरे नयनों के तारे हैं।। तारे हैं जीव कलुष, घाती मैं उन सबका आधार बनी। मनसे निष्काषित कर ही दो मेरी छवि जो कलुषित है घनी।। जो मांग समय की थी तत्क्षण मैंने उसको ही पाला था। अवतार हुआ जिस कारण से तद्रूप ही मैंने ढाला था।। लखन पाल सिंह *शलभ* भरतपुर |
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