प्रैक्टिकल लाइफ या हत्या

 

मैं जब भी देखती हूँ एक  सूखी नदी को दिल दुखी हो उठता है।हाँ वह एक सूखी नदी ही तो थी ।शायद  जब अपने उद्गम से वह चली थी तो आशाओं की बग्घी पे बैठी हुई होगी ।नृत्य करती , गुनगुनाती हुई आगे बढ़ रही होगी। कभी हवाओं संग रेस लगाती हुई शोर मचाती होगी ।कभी तन्वंगी तो कभी बल खाती हुई वह जीवंत नारी सी लगती होगी ।

ऊपर-नीचे लहराती हुई वह अठखेलियाँ करती हुई लोगों को खुशियां बांट रही होगी।कल-कल की ध्वनि गुंजरित करती हुई पीछे मुड़कर न देखने वाली वह पूरे जोश से बह रही होगी ।जब वह जीवंत होगी , सूर्य रश्मियों संग मिलकर खिलखिलाती होगी।तपन और गर्मी का एहसास भी नहीं होता होगा ।आज समय बदल चुका है  --मनुष्य प्रैक्टिकल हो गया है।कभी धाराओं को रोकने की बात करता है।कभी अस्थियों की बारिश करता है।कहीं मंदिरों के सूखे फूलों की गंदगी लाकर बहा देता है ।कभी चमड़ों को साफ करते केमिकल को नालियों से बहा देता है ।कहीं होटलों की गंदगी वाली मोरी,कहीं जली - सड़ी हुई तैरती लाशें।सारे शहर की गंदगी धोते - ढोतेआज सारी नदियाँ मैली हो गयी है ।साफ दर्पण सा जल हो गया है अब मटमैला,जगह - जगह अवरुद्ध करते कपड़े , पत्थर ,ईंटें , रोड़े ,गाद।आगे बढ़ने की गति जब मनुष्यों ने थामी तो दिल के सचमुच  टुकड़े - टुकड़े हो गये ।कहाँ लहराती , गुनगुनाती , शोर मचाती थी।अब गंदगी के ढेर पर बैठी , बदबू फैलाती एक मिट्टी का ढेर बन चुकी थी।सबके पाप धोते - ढोते उसका अस्तित्व ही खत्म हो चुका था।आशाओं की बग्घी में सवार थी वह अब निराशाओं के दलदल में धँस चुकी थी।विकास की मातंग गति पर आँसू बहा रही थी।सच कहा जाय तो एक नदी की हत्या हो गयी थी और मनुष्य, वह तो धोखेबाज है ।एक नदी की हत्या कर अब वह  दूसरी नदी की तलाश में आगे बढ़ रहा था । यही तो आजकल की प्रैक्टिकल लाइफ है ।

डॉ कुमुद बाला

रिटायर्ड लेक्चरर

हैदराबाद

तेलंगाना


 

 



 



 















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