सिरि भूवलय में आचार्य कुन्दकुन्द कृत समयसार
सिरिभूवलय अपने आप में अनूठा और आश्चर्य चकित करदेने वाला अंकात्मक अद्भुत ग्रन्थ है। यह के अंकों ही अंकों में लिखा गया में लिखा गया है। आठवीं-वनमी शताब्दी में दिगम्बराचार्य कुमुदेन्दु ने इसमें १ से ६४ तक के अंकों को लिया है। इससे निर्गत होने वाली सभी ७१८ भाषाओं के वर्णमाला इन्हीं ६४ अंकों से बनती है। सभी एक अंकचक्र में २७ कॉलम खड़े और २७ कॉलम पड़े, इस तरह से कुल ७२६ खाने बनाये गये हैं, उनमें विशेषविधि से अंक लिखे गये हैं। इस तरह के १२७० अंकचक्र उपलब्ध हैं जिनमें ५६ अध्यायात्मक मंगल प्राभृत गर्भित है। ये अध्याय वर्ण्यमान सभी विषयों का सूत्ररूप में संकेत करते हैं। १२७० अंकचक्रों से ही विशेष विधि से प्रत्येक के ८१-८१ गुणित करके एक लाख २८७० अंकचक्र बनेंगे और एक-एक अंकचक्र से लगभग १०-१२ श्लोक बनते हैं। इस तरह द्वितीय स्तर की डिकोडिंग से सभी ६४ आर्ट्स और साइंस, भाषाएँ, धर्म, कला, विज् इसके श्रुतावतार नामक अध्याय के अन्तराधिकार के प्रत्येक श्लोक का प्रथम अक्षर पंक्ति रूप में लिखते जाने से कुन्दकुन्दचार्य द्वारा रचित समयसार की प्राकृत भाषात्मक गाथाएं बनती हैं। अर्थात् लगभग ५६ पद्यों के एक एक अक्षर लेने से समयसार की एक गाथा बनती है। चूंकि सिरि भूवलय की आधार भाषा कन्नड है अर्थात् कन्नड को मूल में लेकर यह निर्मित है इसलिए हम जो शोध प्रस्तुत करते हैं उसका मुख्य अंश कन्नड-मूल रूप में अवश्य रखते हैं, यद्यपि सभी को कन्नड समझ में नहीं आती लेकिन उसे गौण नहीं किया जा सकता है। ಸಿರಿಭೂವಲಯದಲ್ಲಿ ಶುದ್ಧ ಕುನ್ಹಾಚಾರ್ಯದ ಸಮಯಸಾರ ವಂದಿತ್ತು ಸವ್ವಸಿದ್ದೇ ಧುವಮಚಲಮಣೋವಮಂ ಗಇ೦ ಪತ್ತೇ। ವೋಚ್ಛಾಮಿ ಸಮಯ ಪಾಹುಡಮಿಣಮೋ ಸುಯಕೇವಲೀ ಭಣಿಯಂ loll
ಜೀವೋ ಚರಿತ್ತ ದಂಸಣ ಣಾಣಟ್ಟಿಉ ತಂ ಹಿ ಸಸಮಯಂ ಜಾಣ| ಪುಗ್ಗಲ ಕಮ್ಮ ಪದೇಸಟ್ಟಿಯ ಚ್ ತಂ ಜಾಣ ಪರಸಮಯಂ ||೨||
ಎಯತ್ತ ಣಿಚ್ಚಯಗಓ ಸಮಓ ಸವ್ವ ಸುಂದರೆ ಲೋಎ | ಬಧಕಹಾ ಎಯತೇ ತೇ ಣ ವಿಸಂವಾದಿಣೀ ಹೊ ||೩||
ಸುದಪರಿಚಿದಾಣುಭದಾ ಸವ್ವಸ್ಸ ವಿ ಕಾಮಿಗಬಧಕಹಾ | ಎಯಸ್ಸುವಲಭೋ ಣವರಿ ಣ ಸುಲಹೋ ವಿಹಸ್ಯ ||೪||
ತಂ ಎಯ ವಿಹಂ ದಾಹಂ ಅಪ್ಲೊ ಸವಿದವೆ | ಜದಿದಾವಿಜ್ಞ ಪಯಾಣ ಚುಕ್ಕಿಜ್ಞಛಲಂ ಣ ಛತ್ರವ್ಯ ||೫||
मयसार सिरिभूवलय में कुन्दकुन्दाचार्य कृत समयसार समयसार के अलग अलग संस्करणों में विद्वानों ने अपनी बुद्धि, व्याकरण, श्रुति परम्परा के अनुसार पाठ में परिवर्तन किये हैं। सिरि भूवलय में प्राचीनतम शुद्ध पाठ प्राप्त होता हैपहले निम्नांकित प्रारम्भिक गाथाएं देखें- गदित्तु साठा सिद्ध शुगमाचलमाणोठामा गई पत्ते। वोच्छामि समय पाहु डमिणो सुयके वली भणियं ॥१॥ मैं ध्रुव, अचल, निर्मल और अनुपम गति को प्राप्त समस्त सिद्धों को नमस्कार कर श्रुतकेवलियों द्वारा कहे हुए इस समयपाहुड नामक ग्रन्थ को कहूँगा| जीवो चरित्त दंसण णाणट्ठिउ तं हि ससमयं जाण। पुग्गल कम्म पदेसट्ठिय च तं जाण परसमयं ॥२॥ जो जीव चारित्र, दर्शन और ज्ञान में स्थित है निश्चय से उसे स्वसमय जानो और जो पुद्गल कर्म के प्रदेश में स्थित है उसे पर समय जानो| एयत्थ णिच्छ यगओ समओं सव्वत्थ सुदरो लोए| बधाक हा एयाते ते ण विसांवादिणी होई ।।३।| एकत्व निश्चय को प्राप्त हुआ समय ही समस्त लोक में सुदर है। एकत्व के प्रतिष्ठित होने पर उस आत्म पदार्थ के साथ बध की कथा विसंवादपूर्ण है। सदपरिचिदाणु दा सास्स वि कामाभागबध कहा । एटाते स्वला णारि ण सुलो विह तस्स ॥४॥ काम, भोग और बध की कथा सभी जीवों के श्रुत है, परिचित है और अनुभूत है, परंतु पर पदार्थों से पृथक् एकत्व की प्राप्ति सुलभ नहीं है। त एयात्त विहत्त दाएह अप्प्णो सगिह तो ण । जदिदाऐ ज्ज पयाणं चुक्कि ज्जछलं ण घेतना ॥५।| मैं अपने निज विभव से उस एकत्व विभक्त आत्मा का दर्शन करता हूँ। यदि दर्शन करा सकूँ, उसका उल्लेख करा सकू तो प्रमाण मानना और कहीं चूक जाऊँ तो मेरा छल नहीं ग्रहण करना। इसमें से गाथा सं. ३ और ४ में 'बंधकहा' की जगह 'बधकहा', पाठ आया है। गाथा संख्या चार में प्रकाशित संस्करणों में कामभोगबंधकहा' पाठ ही लिया गया है और उसका अर्थ किया हैकाम, भोग और बंध की कथा' जबकि काम, भोग की कथा स्वयं ही बंध की कथा है अतः अलग से बंध कहने की आवता नहीं थी, बल्कि काम, भोग और जीव बध की कथा उपयुक्त बैठता है। गाथा संख्या ३ के प्रकाशित “एयत्त" के स्थान पर “एयत्थ" पाठ मिला है। इस तरह और भी अनेक पाठभेद हैं जिन्हें आगामी शोध में प्रस्तुत करेंगे| -डॉ. महेन्द्रकुमार जैन 'मनुज', इन्दौर 3 Attachments
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