मनन चित्त का






मनन चित्त का

 

हर पेड़ फल दे

   जरूरी नहीं है

छाया भी तो बड़ी

   सुकून दे देती हैं।

 

विचार वश  में रखोगे

    शब्द बन जाएँगे देखोगे

शब्दों को वश में रखोगे,

    कर्म  वे बन जाएँगे।

 

 

कर्मों को वश में रखोगे,

    आदत बन ही जाएँगे।

आदतों को वश में रखोगे,

    चरित्र बन ही जाएगा।

 

चरित्र वश में रखोगे,

     भाग्य बन ही जायेगा।

चरण मंदिर तक जाएँगे,

    आचरण बन ही जायेगा।

 

 

शब्द ब्रह्म,शब्द नाद सौंदर्य ,

    शब्द शब्द में भाव औदार्य।

देह नश्वर हैं कर मन धैर्य,

    शब्द ही देंगे ओज शौर्य।

 

नीलम मन में आस धरे,

   शब्द सम्पदा उसे निहाल करे

जगती के कर्म सभी पूर्ण करे,

  शब्द साधना सम्पदा अमर करें।

 

ओ जग नियन्ता,मैं अर्ज करू,

    साहित्य साधना कर्म करू।

लेखन धर्म में जीवन अर्पण करू

    लेखनी आपको समर्पण करू।।

 

ॐ कार प्रणवाक्षर,, चित्त धरू,

     ध्यानानन्द में नित विचरु।

सहजयोग,सर्व समर्पण करू

    हे दाता,, तन मन अर्पण करू।

 

 

विनय प्रभु से

निष्काम कर्म अर्चना

नीलम व्यास


 

 



 



--  परिधि सपनों की --

--  परिधि सपनों की --

 

 

कभी  लेती है जन्म

ये ख्वाहिशें भी 

कि टांक दूँ हरसिंगार को

आज चाँद के जुड़े में

कि चाँदनी की नदी में तैर आऊं मिलों दूर तक

 कि पेरिश की सड़कों पर लूं

अपनी भी कुछ सेल्फी

कि कभी अमलतास के

लाल फूलों से गूंथ लूं

अपने सुनहरे सपने

कि देवदार की छाँव तले देखूँ 

गोधूलि शाम की सिंदूरी धूप ।

 

हाँ , है कई अनकही ख्वाहिशें

जो लेती है जन्म मेरे भी अंदर

पर अनकहा सा कारवाँ

चलता रहता है

भूख और दर्द के बीच 

जीवन और संघर्ष के बीच 

खुशी और गम के बीच।

 

आज भी मुझे पुकारती है

कश्मीर की सुंदर लेक

दार्जिलिंग की वादियाँ

बर्फ़ानी देव की गुफा।

 

पर ! सीमित सी लकीरें हाथों की

करती है जोड़ - तोड़

और प्रतिदिन के राशन

में मिटाती जाती है खुद को

उसी लकीरों की आग में।

 

और तब मुस्कुरा उठते हैं 

शाम के  चूल्हे से  उठते

मटमैली धुएं की बादल

फिर उसकी खुशबू 

मिट्टी के कुल्हड़ की चाय में घुल

देती है एक अदद सकून ।

 

कि बस हम और तुम 

संग - संग मिल सुबह के कोहरे में ढूंढ लेंगे दार्जिलिंग की खूबसूरती

खेतों के पगडंडियों बीच तलाश लेगें कश्मीर के सुंदर लेक

गांवों के मंदिरों में भी मिल जाएंगे वहीअमरनाथ के बर्फ़ानी देव।

 

 

कि हाँ ,सपनों और हसरतों के भी

होते हैं दायरे 

क्या हुआ कि नहीं देख पाई

दुनिया की खूबसूरती

चलो तलासते हैं रोटी की गोलाई में

धरती की परिधि

गारे - मिट्टी संग

पहाड़ों की खूबसूरती

खेतों के मेड़ों में

कश्मीर की वादियां

गायों के झुण्डों संग

पेरिस की शाम

इन बहते नालों में

समुंदर के किनारे ।

 

कि चलो सपने में पंख

लगाते हैं

जीवन के सच में खुशियां

सजाते हैं ।

 

 

 

जला हाथ

जला हाथ

 

हे भगवान हमारे साथ धोखा किया लड़की वालो ने.... बहु का पूरा हाथ जला हुआ है। तभी मै कहू कि यह सगाई शादी के समय फूल आस्तीन का ब्लाउज क्यू पहनी है। 

"रमा जी के यहा रिवाज था कि नई बहु को आते ही सास की दी हुई साडी़ पहननी रहती है।" जब मीरा ने सास की दी हुई साडी़ पहना तो उसके ब्लाउज का आस्तीन छोटा था। जिसमे उसका पूरा जला हुआ हाथ दिखाई दे रहा था। उसे देखकर रमा जी ने पूरे घर मे कोहराम मचा रखा था।

 माँ की आवाज सुनकर रमन बाहर आता है। क्या हुआ अम्मा काहे चिल्ला रही हो?

 बेटा हमारे साथ धोखा हुआ है। बहु का पूरा हाथ जला है और हमे बताया तक नही गया। "मै ऐसी लड़की को अपने घर की बहु नही बनाऊगी।" 

 अम्मा याद है दस साल पहले मेले मे जब आग लग गयी थी आपको बचाने मे एक लड़की का हाथ जल गया था।

उस लड़की को कैसे भूल सकती हू अपनी जान की परवाह किये बिना मुझे बचाया था। और मै उसे धन्यवाद भी ना कर सकी। भगवान करे वो जहाँ रहे खुश रहे।

 अम्मा वो लड़की मीरा ही थी....  

 अब अम्मा के चेहरे के भाव ही बदल गए और वह मीरा के सामने हाथ जोड़कर निशब्द खड़ी थी।

 

नलिनी मिश्रा द्विवेदी

 

हड़ताल 

 

 

हड़ताल 

 

मौसम खराब है राजमिस्त्री ने कहा आज काम नहीं होगा। महिंदर आज घर बैठे हैं। प्लास्टिक की बोरी से माथा ढंके दोनों बाप बेटे किताब दुकान पर पहुंचे । 

" तीन रूपया वाला तीन ठो कापी दिजिए , एक ठो कठपेंसिल , मेटौना और एक ठो पेंसिल छिलनेवाला। "

 

दुकानदार से सब सामान निकाल कर रख दिया " चौबीस रूपया हुआ।" 

"चौबीस रूपया ! दू दू वाला सब दिजिए न।"

दुकानदार  सामान वापस रखकर नया सामान निकालने का उपक्रम शुरू ही किया था कि नये ग्राहक को देखकर मुस्कुराना पड़ा " क्या मास्टर साहब इ हड़ताल कबले टूटी ?"

आगंतुक ने पसीना पोंछा " देखिए कबतक सरकार मानती है। "  फिर महिंदर की तरफ देखते हुए बोला "लोग आधा पेट खा के भी बच्चा को पढ़ा रहा है और सरकार चाहती है मास्टर लोग पेट पर गमछा बाँध के पढ़ाये।"

 

फिर खुद ही बच्चे को लाड़ दिखाते हुए पूछा "कौन स्कूल में पढ़ते हो बाबू।"

बच्चे ने फलाना ढ़िमकाना टाइप के पब्लिक स्कूल का नाम बताया।

उन्होंने महिंदर को झिड़का " वहाँ तो चूस लेगा । काहे नहीं सरकारी स्कूल में नाम लिखवा दिये। अरे बच्चा पढ़ता है कि स्कूल। तुम्हारे तरफ भी बुद्धि का हड़ताल चल रहा है क्या?"

 

महिंदर अपने आप को अपमानित महसूस करने लगे लेकिन गाँव देहात की मर्यादा का ख्याल कर मास्टर साहब को कुछ जबाव नहीं दिये। चुपचाप सामान लेकर चल दिये। 

जबाव दुकानदार ने दिया " ये सोचने लायक होता तो मजदूरी करता। आपलोग सोचिये न कि लोग आधा पेट खाके जी ले रहा है लेकिन बच्चा को सरकारी स्कूल में पढ़ाने को तैयार नहीं है।"

 

कुमार गौरव

**ताज़ी बिवाई**

**ताज़ी बिवाई**

 

"सुनैना की माँ! ज़िंदगी में पहली बार आदमी पहचानने में चूक हुई है।" मुट्ठी भींचते हुए जब ठाकुर बलदेव ने पत्नी से ये कहा, तो पत्नी सारा दोष किस्मत पर मढ़ते हुए उनके अफ़सोस को हल्का करने की नीयत से बोली-

"सब क़िस्मत की बात है जी!"

"क़िस्मत की बात नहीं है, मेरी चूक है। अव्वल दर्जे का जाहिल गंवार निकला वो, अगर पता होता ऐसा बज्रमूर्ख होगा, तो कतई अपनी बच्ची ऐसे लड़के से ना ब्याहता।" उनका पछतावा और गुस्सा अब चरम पर था।

"आप शांत हो जाईये। ऐसे मसले ठंडे दिमाग़ से सुलझाए जाते हैं। आप एक बार कुंअर साहब से बात तो कीजिये। हमने जब मान पान में कोई कसर नहीं रखी तो फिर बिटिया को परेशान करने या मारपीट करने का क्या औचित्य...! उनसे पूछें तो सही,आखिर क्या चाहते हैं?" पत्नि ठन्डे पानी का गिलास उन्हें थमाकर बोली।

"क्या चाहता है...? पुलिस की मेहमानी चाहता है और कुछ नहीं, समझीं...! उसे तो मैं छटी का दूध याद दिला दूँगा...,बेटी ब्याही है मैंने ...बेची नहीं है,जो जानवर की तरह उसे मारा-पीटा। मेरी बच्ची पर हाथ उठाने की उसकी हिम्मत कैसे हो गयी।

"हिम्मत...! इसमें हिम्मत की क्या बात है? पति है उसका ...और ये बात आज आपको इतनी अचंभित क्यों कर रही है?" एकटक निहारती पत्नी की ये बात सुनकर  जाने क्यों अचानक   ठाकुर बलदेव सिंह चुप्पी साध गए।

 

राहिला आसिफ़ खान

शिवपुरी(म.प्र.)

जय  जवान 

जय  जवान 

 

 

"अरी सखी राधा ! ,  कैसे सरहद से  कश्मीर में  पाक आतंकियों की घुसपैठ हो रही है । "

"हाँ सलमा , यही आतंकी कभी मॉर्टर से गोलियाँ बरसाते हैं ।तो कभी भीड़ वाले बाजार में ग्रेनेड फेंक  कर निर्दोष जनता को अपना शिकार मनाते हैं । कितनी मासूम जानें चली गयी हैं और कितने  घायल , अपाहिज होते हैं । मानव आज मानव के खून का प्यासा हो गया है , मानवता रो रही है ।"

  तभी उस भीड़ में से आवाज आयी , पकड़ो - पकड़ो , आतंकी उस नदी की ओर भागा है । 

"कितना शर्मनाक , निंदनीय  है । "

"आज तक कोई पकड़ में नहीं आया है ।"

"हाँ , जयचंद तो  हर जमाने में हैं ।"

"इनको शरण देने वाले तो अपने ही लोग जो होते हैं।"        

 " हाँ , हमारी   सांप्रदायिकता , जातीयता , प्रांतीयता, राष्ट्रीय एकता  खतरे में पड़ गयी है ।" 

"   ऐसा नहीं है  ,  हमारा देश विविध जाति , संप्रदायों , भाषा भाषी , धर्म  का महकता गुलदस्ता है  । जब सीमा  पर कोई युद्ध होता है तो पूरे भारवासी एक हो के वीर जवानों की सलामती  की  दुआ , प्रार्थना करते है । जिनके दम से भारत माँ  सुरक्षित है ।    " 

 "अरे ! देख ,  उस नदी की ओर। लगता है लोगों की सहायता और सेना की चाक चौबंद से उसे पकड़ लिया है ।" 

 "  अरे , वाह !  कितनी निर्दोष जानें अब  बच 

जाएँगी । "

तभी खुशी से  दोनों सहेलियाँ ने जोर की आवाज में हाथ उठाकर जय जवान ,  जय भारत माता का नारा लगाके  जश्न मनाने में लग गयी   ।

 


 

मंजु गुप्ता 


- अपनी अपनी किस्मत

- अपनी अपनी किस्मत

 

 

अरे ओ निम्मो!!!!कहां चल दी इसको  लेकर?? तेरे बस का नहीं है| अभी बापू को 5 दिन हुए हैं और तू काम पर चल दी| हां चंदू चाचा भाई को स्कूल छोड़कर मैं माल ढोने जाऊंगी| लेकिन तू रिक्शा चला पाएगी| हां !!क्यों नहीं'??जब पेट में भूख लगती है| तो हिम्मत अपने आप आ जाती है| बापू तो ज्यादा शराब पीने के चक्कर में अपनी जान गवा बैठा और वह जिंदा भी था तो मां , और हमें परेशान करता था| मेरी मां बहुत मेहनती है| उसने ही सिखाया है कि किसी भी परिस्थिति में घबराना नहीं चाहिए |और मेहनत करनी चाहिए| हम भी अपनी मां के बच्चे हैं हम पढ़ेंगे भी और काम भी करेंगे |मां का हर हालत में साथ देंगे| लेकिन  बाल मजदूरी के चक्कर में तुम्हें कोई काम नहीं देगा? ? नहीं चाचा काम तो देना चाहिए हम लोग कुछ गलत काम तो नहीं कर रहे मेहनत कर अपना पेट भर रहे हैं|  मोहल्ले में देखा है टीवी में छोटे-छोटे बच्चे पिक्चर में काम करते हैं वे भी तो मेहनत करते हैं| उनकी बाल मजदूरी नहीं होती क्या? ? और हम तो दिन में अपने पापी पेट के लिए काम करते हैं और रात को पढ़ेंगे भी| यह कहां का न्याय है कि जिनको जरूरत हो उन्हें बाल मजदूरी कहकर काम ना दो| चलो चाचा चलती हूं रात को मुझे भी स्कूल जाना है| और बड़े आत्मविश्वास के साथ अपने भाई को पीछे बैठा कर चल दी| मुड़कर रिक्शे में उन बच्चों को देख रही है| जो सुबह सुबह स्कूल जा रहे हैं| बस यही सोच रही है कि अपनी-अपनी किस्मत है| हमें पढ़ाई की भी जरूरत है और पैसे की भी| ताकि अपनी मां को सुख दे पाएं......

वर्षा शर्मा दिल्ली


 


_बलात्कार











_बलात्कार

 

घर में घुसते ही बिना किसी से कुछ कहे रिया दौड़ती सीधे अपने कमरे की तरफ भागी और बाल झाड़ने वाली दो कंघियों से कभी अपनी पीठ तो कभी अपने पूरे शरीर को पागलों की तरह झाड़ने लगी । आइने में घूम_घूम कर देख बदन को झाड़ भी रही थी व बेतहाशा रोये भी जा रही थी । जब रोने की उसकी आवाज चीखों में बदल गयी तो घबराये उसके माता पिता कमरे में आये तो वहाँ का नजारा देख चौंक गये क्योंकि रिया ने बेतहाशा कंघियों से बदन को छिल लिया था । आवाज देने पर भी रिया मानो यूँ अपने काम में मग्न थी जैसे वो कुछ सुन ही न रही हो । रिया कि माँ घबराती  रिया को दोनों हाथों से पकड़ जब झकझोड़ा तो रिया की तंन्द्रा मानो टूटी और माता पिता को देख मां  के सीने से लग चीखती जोर_जोर से रोने लगी तो माँ ने उसे भींच लिया ! तब तक रोने दिया जब तक वो शांत न हो गयी  ।

 

रिया के शांत होते ही पिता ने कंघी उसके हाथों से ले प्यार से पूछा "बेटा क्या हुआ बोल न किसी ने कुछ कहा" , "तेरे पापा है न" । तु बिना डरे बता क्या बात है । कांपते होंठो से रिया ने जैसै बोलना शुरु किया मानों कमरे में कुछ सांय सांय चलने लगा ।

 

माँ पापा मेरा भी बलात्कार होगा । है न? मैं भी तो लड़की हूं  । उसकी इस बात पर सन्न रह गये दोनों पर रिया को बोलने दिया ।

 

पापा अभी स्कूल में हम सब ने दो मिनट का मौन रखा था उस आठ साल की लड़की के लिए जिसका बलात्कार तीन चार लोगों ने तीन दिनों तक कर उसे मार कर फेंक दिया । पापा सब कहते है गलती लड़की की ही होती है उसका यौवन और छोटे कपड़े ही लड़कों को उकसाते है पर पापा उस लड़की ने तो छोटे कपड़े भी न पहने थे और वो तो बच्ची थी फिर उसका बलात्कार............।

कहती रिया फिर सिसकने लगी व फिर बोली पापा मैं भी तो चौदह साल की हो गयी हूं मैं भी स्कूल जाती हूं और मैं तो स्कर्ट पहनती हूं पापा मेरा भी बलात्कार हो जाएगा । पापा मुझे भी मार देंगे वो लोग ।

 

मुझे बचा लो पापा ।

 

 देखो न मां मेरे पीठ पूरे बदन पर गन्दी निगाहें सटी है मां प्लीज उसे झाड़ दो न मां कह कर इस बार पिता के सीने से लग चीख_चीख रोने लगी रिया  ।

 

मासूम बेटी के मुंह से इतनी कड़वी सच्चाई सुन सन्न थे दोनों पर ढ़ांढ़स देने के शब्द न थे । पर मन में एक विचार अवश्य दृढ़ कर लिया था रिया के मां पिता ने कि अपनी बेटी को बलात्कार शब्द से डरना नहीं लड़ना सिखायेंगे उसे इतना मजबूत बनायेंगे कि उसकी पीठ और देह पर गड़ी निगाहों का मुंहतोड़ जबाब देगी जिसके लिए उसे शारिरीक ही नहीं मानसिक तौर पर भी सबल बनाना होगा  । ये समझाकर कि गन्दगी आंखों में नहीं सोच में होती है 

 जिसके लिए लड़कियां दोषी नहीं होती वो गीदड़ दोषी होते है जो लड़कियों को भोग की वस्तु के अलावा और कुछ नहीं समझते चाहे वो दो महिने की बच्ची हो या आठ साल की बच्ची या फिर निर्भया या प्रियंका रेड्डी  !

 

रुबी प्रसाद

सिलीगुड़ी(पश्चिम बंगाल 







 



 



 




 































 










"वसूली"

"वसूली"


 


"मम्मी आप बर्तन साफ क्यों कर रही हो? कल चुन्ना आंटी आएंगी ना?" दसवीं में पढ़ रही मीतू ने रविवार रात को मम्मी को बर्तन साफ करते देखकर पूछा।


"सोमवार को वो देर से ही आ पाती है ना! और मुझे सुबह सुबह बर्तन चाहिए होते हैं।" नीलू ने हाथ धोते हुए बताया।


"क्यों?देर से क्यों?" मीतू की उत्सुकता जागी।


"रविवार को उसकी छुट्टी रहती है तो अधिकतर घरों में सोमवार को उसे लगभग दुगुने बरतन साफ करने पड़ते हैं। समय भी ज्यादा लगता है और मेहनत भी। इसलिए मैं तो रविवार का काम उसके लिए रखती नहीं, खुद ही करती हूं। अगर छुट्टी वाले दिन का काम अगले दिन करवाओ तो भई फिर छुट्टी का मतलब ही क्या?"


"फिर तुम हर सोमवार उससे किचन की स्लैब और टाइल्स क्यों साफ करवाती हो?"नीलू का जवाब सुनकर उसके पति आनंद ने टोका!


बिटिया के आगे गर्व से तनी नीलू की गर्दन अचानक ही शर्म से झुक गई।


 


शिवानी जयपुर


चरैवेति-चरैवेति

चरैवेति-चरैवेति

                                                   

न जाने कब से लहराती-बलखाती, धारा बहती चली जा रही थी | जीवन के हर रंग उसने देखे थे, उन्हें अच्छी तरह से पहचाना था | अनगिनत उतार-चढ़ाव उसने पार किये थे | हर मौसम के साथ उसे ताल-मेल बिठालना आ गया था | मस्त थी, खुश थी | 

मगर अचानक बहते-बहते वह रो पड़ी, और बोली, “आखिर कब तक ऐसे बहती रहूँगी |” मन अवसाद से घिर आया | देखकर उसे, साथ बह रही सभी लहरें दुखी हो उठीं और पूछने लगीं, “तू तो इतनी मस्त-सी बहती है, अचानक तुझे हुआ क्या?” 

 

गला रुंध गया, काँपती आवाज में वह बोली, “बहुत थक गयी हूँ अब बहते-बहते | सर्र-सर्र बहती तीखी हवाओं के थपेड़े अब बर्दाश्त नहीं होते, तेज धूप की तपन जलाये देती है और चट्टानों से टकराकर नई दिशा की ओर बहना अब मेरे लिए बहुत मुश्किल हो गया है | मेरी ढ़लती उम्र भी अब मेरा साथ नहीं देती | आखिर कब तक यूँ ही बहती रहूँगी?”

 

लहरों की आँखें नम हो आईं, वह उससे लिपट गयीं और प्यार करते हुए बोलीं, “तुझसे प्रेरित होकर तो हम सब तेरी राह पर चल पड़ी हैं | तू ऐसा सोचोगी तो हमारा क्या होगा? हम हैं न तेरे साथ |” 

 

वह चैतन्य हो उठी और आँसुओं को पोंछते हुए बोली, “न जाने क्यों यह क्षणिक विचार आ गया, पर मुझे तो बहते जाना है, जब तक सागर में जाकर न मिलूँ | कभी वाष्प बनकर, कभी बादलों में पानी की बूँद बन कर बरस जाना है | जीवन के अनन्त काल तक चलते जाना है |”

 

अब छोटी-बड़ी सभी लहरें उसे अपनी बाँहों में समेटे खिलखिलाती-लहराती-बलखाती गाते हुए बह चलीं, “चरैवेति-चरैवेति ... चरैवेति-चरैवेति!"●

 

 

प्रेरणा गुप्ता – कानपुर 

नारी का सम्मान

नारी का सम्मान



         पुरुषों के हर एक क्षेत्र में
नारी का विशेष स्थान उसके जीवन में
जन्म से मरण तक रहता उस पर निर्भर
जन्म दे बहन लाती उसके जीवन में
🦚🏵🌺🌹
कोई कसर नहीं छोड़ती उसके पालन-पोषण में
   रात रात भर जगती उसकी बीमारी में
   कुछ पुरुष सब भूल करते अत्याचार
  ना दूजा शानी  उसके फर्ज निभाने में

    कुछ पुरुष ना कसर छोड़ते उसे रुलाने में
किसी भी रूप में पुरुष का हाथ उसके दर्द में
पति दोस्त अंकल किसी उम्र में करते अत्याचार
छह मास की बालिका भी दिखती नारी रूप में

लज्जा न आती करने भयंकर अंजाम में
    निकल योनि से दूध उसी का पी पोषण में
   फिर उन्हीं दो अंगो पर रखें बुरी नजर
पुरुष भी लज्जित होते उनकी कुत्सित सोच में

संभव नहीं कोई  माँ रूप ऋण चुकाने में
पूरा जीवन लगता नारी को सम्मान पाने में
समझे पुरुष इस बात को फिर भी जरूरी नहीं
नारी ही बने नारी की दुश्मन  जीवन में
🏵🌹🌹🦚
कोई ऐसा क्षेत्र नहीं जिससे हो वो दूर
दुनियाँ लोहा मानती देख काम  हो जाती मजबूर
विभिन्न रूपों में घर आंगन की है वह शान
दो उसको लाड प्यार सम्मान भरपूर

🏵🌹🦚🌺🦚
अलका जैन
मुंबई


प्रवेश वर्जित 






प्रवेश वर्जित 


रज्जो भी नीच कुल मे जन्मी लड़की थी। उसे भगवान मे बहुत आस्था थी। पर गाँव के पास बने मंदिर मे वह जा नही सकती । बड़े जाति के लोगो का मानना था कि नीच कुल मे जन्मे लोग अगर मंदिर मे पाव रखा तो मंदिर अपवित्र हो जाऐगा।
रज्जो बाहर से ही मंदिर की सुंदरता देखती पर जब भी सोचती मंदिर मे जाने की तो माँ हाथ पकड़ लेती। 


एक दिन तेज वर्षा होने लगी रज्जो खेत मे कामकर के घर लौट रही थी। वर्षा इतनी तेज थी कि सामने मंदिर को देख वह रुक गई। माँ दुर्गा की सुंदर प्रतिमा देखकर मंत्रमुग्ध हो गई। उसने माँ के चरणो मे माथा टेका और वही बैठ गई। और उसकी आँख लग गयी।


अचानक आवाज से नीद खुली तो देखा। मंदिर के पूजारी और बड़ी जाति के लोग उसे घेरे हुऐ है। वह डर गई सब लोग उसे गुस्से से देख रहे थे।


ऐ लड़की तुने आज मंदिर मे प्रवेश कर मंदिर को अशुद्ध कर दिया। क्या तुम्हे पता नही नीच कुल के लोगो का मंदिर मे प्रवेश वर्जित है।


रज्जो डरते हुए कहा साहब आप लोग मंदिर मे पूजा कर सकते पर हम क्यो नही कर सकते। बस इसलिए कि हम नीचकुल मे जन्म लिए है। मै ऐसी कुरूतियो को नही मानती।


 

ये कल की छोरी बहुत जबान लड़ाती है जब इसको इसके किये की सजा मिलेगी तब समझ आयेगा।


 

तब तक रज्जो के पिता आते है। अरे मालिक माफ कर दे छोरी को अब ये गलती कभी नही करेगी। 


देख दीनूवा अभी बस तेरा मुंह देखकर इसे माफ कर देता हू। वरना अगली बार इसके किये पर हम सजा देगे। सारे लोग चले जाते है।


बाबा आपने माफी क्यो मांगी मैने कोई गलती नही की है। जानता हू पर हमारी गलती यही है कि हमने नीचकुल मे जन्म लिया। हमे कभी बराबरी दर्जा नही मिलेगा हम हमेशा इसी तरह गुलामी करते रहेगे। चल घर चल अब


एक बार गाँव मे सूखा पड़ा सारे कुए सुख गए बड़े जाति के लोग पानी के लिए तिल-तिल मरने लगे। पर नीच कुल के एक कुऐ मे पानी अब भी था। चाहे कितने भी सूखे पड़े पर उस कुऐ मे पानी भरा ही रहता।


अब बड़ी जाति  के लोगो के पास एक ही विकल्प था कि वह नीचकुल के कुए से पीने के लिए पानी लाऐ। पर क्या वह हमे पानी देगे हमने तो उनका मंदिर मे प्रवेश वर्जित कर रखा है। इस तरह मरने से अच्छा है हम उनसे विनती कर पानी लेले।


जब गांव के लोग उनके पास पानी लेने गऐ तो सबने मालिक की मदद की बिना कुछ कहे उन्हे पानी भरने दिया। पूजारी की नजर जब रज्जो पर पड़ी तो वो मुस्करा रही थी। जैसे कह रही हो कि "देखो पूजारी आज आपके भगवान हमारे गाँव का ही पानी पिऐगे।


उस दिन के बाद गांव के लोगो का हृदय परिवर्तन  हुआ और मंदिर पर लगे बोर्ड कि "नीचकुल प्रवेश वर्जित"  का बोर्ड हट गया।


 

नलिनी मिश्रा द्विवेदी



 

 



 



बरगद का पेड़

बरगद का पेड़

 

वर्षों बाद 

आना हुआ था गाँव।

अंदर-बाहर

आते-जाते

टिक जाती हैं नज़रें

बरगद के उस पेड़ पर

जो ठूँठ-सा लग रहा है।

मानो काट दीं हों

किसी ने उसकी शाखाएं।

पत्तों में वह सरसराहट नहीं है

जो पहले हुआ करती थी।

छाँव की शीतलता  

गायब-सी हो गयी है

और बहुत कम हो गया है

बरगद के फलों का गिरना भी।

अब नहीं बैठते लोग

उस पेड़ के नीचे

जहाँ कभी मजलिस लगा करती थी।

ताश को केंद्र में रखकर

लोग घण्टों जमे रहते थे

ठहाकों की आवाज़ से

घूँघटों के पीछे भी

मुस्कान छलक पड़ती थी।

बहुत ज्यादा अंतर नहीं आया है

इस अंतराल में

सिवा इसके कि

मेरे दादाजी

हाँ, मेरे दादाजी हमसे

बहुत दूर चले गए ह

 


मृणाल आशुतोष


         कथा जो ना सुनी वो बाँचता हूँ मैं


    कथा जो ना सुनी वो बाँचता हूँ मैं



      . कथाएं बताती हैं रोचकता से कई प्रसंग
         जीवन के बाह्य और भीतरी कलेवर के
            कथा  में छिपे काव्य को उकेरती हैं
   .        काव्य  में बसी भाषा  को संवारती है।
             सतयुग से लेकर कलयुग तक.....
             बाँची गई, संवरती रहीं, रचती रही अपनी छवि
          नव युग है, नव काल है, नवबंधन हैं नयी है चाल कथाओं
              की।।
                     कथा हूँ मैं बाँचता आज नयी
          गर्भावस्था में खिलती कन्या भ्रूण की
            कन्या जो कथाओं में पूजित है ।
          तस्वीरों में सौंदर्य का प्रतिमान है।
      पर कथा का सत्य कौन बाँचता है!
      प्रथम  माह से चिंतित घर बाहर सब
      बेटी ना हो पहली, बेटा हो जाए ,चिंता मिट जाए
       माँगे मन्नतें, बाँधे धागे, पूजे लोक- देव सभी
        गर्भ में पलती  मैं सोचती बार- बार
       कोई तो दिखाओ मुझे भी उत्साह
  ..    क्या! प्रफुल्लित मन, बाँहे पसार,होगा उसका स्वागत
           इस काल ।।।।
                कथा हूँ मैं बाँचता वृक्षों के दर्द की
          पूजित जो त्योहारों में, वर्णित जो काव्यों में,सजाते संसार
           जीवों का आधार, प्रकृति का श्रृंगार, पाखियों का बसेरा
           पर बाँचनी है कथा भीतर के घात की
           मानवीय शैतान की, काटता जो असंख्य पेड़ लालसा में
          भोजन,कागज ,घर या व्यापार का नाम ले
      नोचता, काटता, भस्म करता,  हमारा हरियाला शरीर
       नीम, पीपल, आम, वटवृक्ष, बन देते  हम सर्वस्व
         पर दंभ में चला कुल्हाड़ी, भेदता ड़ाली- ड़ाली
        नुकीले वारों से रक्तरंजित  मेरा हर पात
       वृक्षहीन होगी जब धरा ,  तुम सब पछताओगे
        मेरे चित्र तब किताबों में पाओगे।।
   .       .कथा हूँ बाँचता मैं अब निराली
         है कथा यह मेरी गीले भावों वाली
    माँगते सब प्रभू से घर का चिराग, आँगन की कली
       पर देखते जब कुछ कम है अंग प्रत्यंग में
       आँख, कान ,हाथ ,पैर या दिमाग से कमजोर
    मरती तुरंत सारी संवेदनाएं, भावनाएं  खून के रिश्तों वाली
       पहले विकलांग अब दिव्यांग बन गया हूँ मैं
    बचपन में ही सीखा  , असल नकल का फर्क
    शून्य का भी महत्व मानता है गणित
      पर एक कम स्वीकार नहीं करता  जगत
   बाँचना चाहता हूँ अपनी कथा प्यार,प्रीत, हिम्मत और
        खुशियों वाली
       कथा जो ना सुनी वो बाँचता हूँ मैं।।

      
           ड़ा.नीना छिब्बर। 
              17/653
     ....चोपासनी हाउसिंग बोर्ड
           जोधपुर


 

 

श्याम मठपाल ,









































कहानी - काली रात 

 

भागुली आज सुबह बहुत ही जल्दी उठ गई थी।  मन उसका बहुत ही प्रफुल्लित था।  जी तोड़ मेहनत के बाद भी उसके चेहरे पर हमेशा मुस्कराहट तैरती थी।  नीचे गगास का पानी चांदी की तरह चमक रहा था।  पहाड़ी के बीच में घर था उसका।  ऊपर हज़ारों फ़ीट ऊँचा और नीचे हज़ारों फ़ीट गहरी घाटी।  घर के आस-पास फलों व फूलों के ढेर सारे पेड़ -पौंधे महक रहे थे। एक तरफ बाँझ के पेड़ व दूसरी तरफ चीड़ के पेड़।  तेज हवा के साथ सें- सें की आवाज आ रही थी साथ में उसमें ठंडक थी।  घर में भागुली की सासु खिमुली व ससुर मोहन प्रसाद थे।  दो छोटे बच्चे जो स्कूल जाते थे।  उसका पति गोपाल प्रदेश में नौकरी करता था। कल रात को उससे बात हुई थी ।  वो कल पहुँचने वाला था।  फ़ोन पर  उसने पूछा था 'घर के लिए और तुम्हारे कुछ लाना हो तो बताओ ' वह कोई जवाब नहीं दे पाई थी।  उससे इसी बात की ख़ुशी थी कि पूरे एक साल बात उसका आदमी घर आ रहा है।  उसने जल्दी -जल्दी गोठ से गोबर निकाला।  दूध दुहा।  जानवरों को चारा-पानी दिया।  पास के धारे से दो-तीन घड़े पानी भी भर कर ला चुकी थी।  सास ससुर उठें उससे पहले उसने चाय के केतली चूल्हे पर चढ़ा दी थी।  उनके उठते ही चाय का गिलास उनको थमा दिया।  उसको ढेर सारा काम याद आ रहा था।  घास ,लकड़ी ,कपडे और बहुत कुछ।  इधर आसमान में गहरे काले बादल छाए हुवे थे लग रहा था जोरदार बारिश होगी।  इधर कौवा नीम की डाल पर  जोर-जोर से कांव -कांव कह रहा था।  वह बोली 'मुझे भी मालूम है तू  क्यों बोल रहा है ,मेरे वो आने वाले हैँ।  इधर सास -ससुर व बच्चे भी बेहद खुश थे।  बहुत समय बाद मिलना व मुख देखना होगा।  इसी बीच जोरदार बारिश शुरू हो गई । फिर भी उसके उत्साह में कोई कमी नहीं थी।  वो भीग कर भी सारे काम निपटा रही थी ।  इसी समय खेतो  की निराई -गुड़ाई का काम भी होता है।  सास-ससुर भी उसे काम में सहयोग देते थे। देखते -देखते दिन छुप गया ।  उसने रात का खाना भी जल्दी बना कर सबको समय पर खिला दिया।  सब बर्तन वगैरह साफ़ करने के बाद उसने अपने आदमी से बात की।  उसे मालूम पड़ा कि वह रात की ट्रैन से बैठेगा और सुबह हल्द्वानी पहुँचेगा। दोपहर तक वह घर पहुँच जाएगा।  सब लोग सो चुके थे उससे नींद नहीं आ रही थी .

 

इधर  बारिश कई घंटो से चल रही थी और थमने का नाम ही नहीं ले रही थी।  तड़ - तड़ की आवाज आ रही थी।  बीच में बादलों के गरजने व बिजली के कड़कने की आवाजें भी आ रही थीं। उसका मन काँप रहा था।  ना जाने ये रात कब बीतेगी।  करवटें बदलते हुवे उसकी भी आँख लग गई ।  थोड़ी देर बाद  बहुत तेज आवाज हुई।  इसके पहले की घर के लोग कुछ समझते , आवाज उनके घर बिलकुल करीब आ गई और कुछ ही क्षणों में पूरे घर को एक झटके में अपने साथ लेकर गहरी घाटी में समा गई ।  सुबह लोगों को पता चला उनके घर के ऊपर स्थित एक पहाड़ का हिस्सा का टूट गया जो बड़े पत्थरों के साथ उस पूरे घर और उसमें रहने वालों को  भी अपने साथ ले गया।  इधर गोपाल बड़ी ख़ुशी के साथ घर  पहुंचा।  देखा उसके घर के पास भीड़ है।  यह देखते ही उसके होश उड़ गए और मन आशंका से भर गया ।  भारी क़दमों से वहां तक पहुँचा और वहां पहुँच कर उसे सब कुछ समझ आ गया।  वह वहीँ पर धम्म से बैठ गया।  सोचने लगा इस काली रात ने एक पल में मेरे सारे संसार को उजाड़ दिया।

 

श्याम मठपाल ,उदयपुर.


 

 



 



 













 











 

 








 

 







 







 




 





 




 



 



 


 


 


















 

 





 



 





 


 







 

 


 





 


कभी-कभी जिंदगी








































कभी-कभी जिंदगी

 

 

क्यों कभी-कभी ये 

जिंदगी हैवान सी लगती है

क्यों कभी-कभी जिंदगी 

परेशान सी लगती है।।

कभी दवा तो कभी दुआ 

तो कभी हैरान सी लगती है

 

क्यों कभी-कभी ये 

जिंदगी हैवान सी लगती है।।2।।

 

ज़ख़मी शायर के शब्दों मे कुछ

 ये जिंदगी पैगाम सी लगती है

कभी घायल तो कभी मलहम लगा

ये शब्दों की दुकान सी लगती है।।

 

क्यों कभी-कभी ये 

जिंदगी हैवान सी लगती है।।2।।

 

क्यों खुशी के दो पल बाद ही ये जिंदगी

दर्द-ए जाम की महफ़िल सी सजती है।।

क्यों फिर हर रात ये जिंदगी काग़ज

कलम के नाम से ही फबती है।।

 

क्यों कभी-कभी ये 

जिंदगी हैवान सी लगती है।।2।।

 

मुस्कुराहट के नाम पे ये जिंदगी

आंसुओं के सैलाब संग बरसती है

सुकून,खुशी,मुस्कुराहट के लिये

अब ये जिंदगी तरसती है।।

 

क्यों कभी-कभी  ये 

जिंदगी हैवान सी लगती है।।2।।

 

वीना आडवानी

नागपुर, महाराष्ट्र

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कभी कभी ज़िंदगी में








































कभी कभी ज़िंदगी में

 

कभी कभी ज़िंदगी में ग़म है ग़म की दवा बनाने के लिए

बेसाख्ता दिल से निभाने तो कभी खुद को हंसाने के लिए

 

ज़िंदगी का हर पड़ाव देखा है दुःख सुख साथ साथ देखा है

ज़िंदगी लगाती है खरोंचें करती है कोशिशे तराशने के लिए

 

कभी कभी जरूरतें करती है बात ज्यादा ऊँची आवाज़ में

सहम गयी है खुवाहिशें जो थीबे-सब्र पूरी हो जाने के लिए

 

पिछले जन्मों का फल है  किसी को फूल किसी को कांटे मिले

लो हम ने तोड़ दिया रिश्ता-ए-उमीद उसको पाने के लिए

 

टूटा मेरा ये मन है रोगी तन है रिश्तों में दीखता बेगानापन है

क्या कोई अब तरकीब निकाले अब रिश्तों को निभाने के लिए  

 

ज़मीँ सजाई गई ज़िंदगी की तड़प बढ़ाई गई सूरत सजाई गई

आदमी इंसान बना कहाँ न रही जरुरत आइना दिखाने के लिए

 

लिखा है मैंने खत एक इंसानियत के नाम कहाँ भेजूं मैं पैगाम

पता मालूम नहीं तो डाकिया भी करे आनाकानी पहुँचाने के लिए

 

झूठ लिखूं तो लफ़ज़ खफा होते है उलाहना भी गरज़ कर देते है

काटे का ज़हर कैसा है मर जाऊँ मैं किसको कहूं काटने के लिए  

 

कोई अपना साथ न आए वही बेगाने चेहरे हैं जहाँ जिधर जाएँ

लाश लावारिस जो मिले ले जाएँ उसे मरघट कि दबाने के लिए

 

डॉ गुरिंदर गिल


 

 



 



 














 

 








 

 







 







 




 





 




 



 



 


 


 


















 

 





 



 





 


 


 


 चंद्रिका   

 --चंद्रिका   

 

छू रही होकर प्रफुल्लित,चंद्रिका देखो धरा को।

यह अमित -सौंदर्य बोलो, काव्य में कैसे गढूँगी?

अंतरा  

क्या सदा लंबित रहेंगी, कामना मेरी सभी ये?

रीत जायेगीं सदायें,अब बिना बरसे कभी ये।

चंद्रिका जैसे बिखर कर, भावना भरती रहेगी।

चेतना की भूमि पर ही,राज ये करती रहेगी।

काव्य का शृंगार करके,गीत ये कैसे पढूँ गी ?

यह अमित- सौंदर्य बोलो, काव्य में कैसे गढ़ूँगी?

 

अंतरा  --2

जो न होते भाव मुखरित ,चाँदनी कैसे लुभातीं।

श्वेत- किरणें ही बिखर कर, बस धरा को ही सजातीं।

 

हो रही पुलकित धरा यह,गीत कोई गा रही है।

प्रेम के पावन- हवन में, अर्घ्य मानों पा रही है।

लाज का घूंघट पहन कर, सेज वो कैसे चढूँगी?

यह अमित- सौंदर्य बोलो ,काव्य में कैसे गढ़ूंगी?

 

 

श्रीमती मनोरमा जैन 

15/03/2020

मेहगाँव ,जिला भिंड 

रिश्ते

    रिश्ते

 

रिश्ते एक छोटा सा ढाई अक्षर का शब्द ,पर जीवन की बुनियाद इसी पर रखी हैं ।रिश्ता शब्द अपनेआपमें  पूरी दुनिया समेटे हुए है | सच पूछो तो रिश्तों की शरुआत माँ और शिशु से होती  है | माँ और बच्चे का रिश्ता इस संसार में सबसे भावनात्मक  रिश्ता है| माँ के पेट से जन्म लेकर जब बच्चा इस दुनिया में अपनी आँख खोलता है, तब उसकी गोद में कई मूल्यवान और पवित्र रिश्ते खुद-ब-खुद आ गिरते हैं, जैसे पिता, भाई, बहन आदि … इसके साथ न जाने कितने और रिश्ते जुड़ जाते है जैसे दादा-दादी, नाना-नानी, ताऊ-ताई, मामा-मामी इत्यादि ..

 

जैसे-जैसे वह अपने जीवन पथ पर आगे बढ़ता है , कई और रिश्ते उसकी जीवन बगिया में खिलते नजर आते हैं | ये रिश्ते उसने बनाये नहीं हैं पर सामाजिक रीति-रिवाज के कारण बन गये हैं…पति/पत्नी, बेटा/बेटी , सास/ससुर वगैरा | कुछ रिश्ते उसके साथ ऐसे जुड़े जो एकबार तो उसके साथ चलते दिखाई दिए पर बेनाम बन कहीं खो गये…दोस्त , प्रेमी/प्रियतमा जैसे..

 

दोस्तों, दुनिया रिश्तों पर चल रही है. खून के रिश्ते, दोस्ती के रिश्ते, सामाजिक रिश्ते और मानवता का नाता. इन 4 कैटेगरी में सारे रिश्ते आ जाते हैं और इन्हीं के इर्दगिर्द हम जीवन गुजार लेते हैं. अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने कहा था,  ‘‘अगर रिश्तेनाते निभाना आप की कमजोरी है तो आप इस दुनिया के सब से मजबूत इंसान हैं.’’ उन की बात सच है क्योंकि हर रिश्ता बनाने के बाद उसे निभाना पड़ता है वरना वह रिश्ता खत्म हो जाता है. भले ही खून के रिश्ते हमें जन्म से मिल जाते हों लेकिन उन्हें बनाए रखने के लिए निभाना पड़ता है. मतलब उस पर मेहनत करनी पड़ती है. मेहनत करने से आशय यह नहीं है कि किसी तरह की खुशामद करनी पड़ती हो बल्कि रिश्तों को निभाने के लिए समय और समझदारी की जरूरत होती है.कहा गया हैं की रिश्ता बनाना आसान होता हैं पर निभाना कठिन ।

 

    आजकल रिश्तों की आड़ मे कई दुष्कर्म भी देखने को मिल रहे हैं । भाई बहिन का कई लोग रिश्ता बना लेते हैं, कुछ दिनों बाद पता लगता हैं की दोनों भाग गए हैं । शर्म आती हैं ,इस प्रकार के रिश्तों पर ।

 

     रिश्ते हमें जीवन में ईश्वर की ओर से दिया गया उपहार होते हैं। वे जन्म से ही हमारे पूर्वकृत कर्मों के अनुसार हमारे साथ जुड़े हुए होते हैं। उनके साथ जितना लेनदेन का सम्बन्ध होता है, उसी के अनुरूप उन रिश्तों का हमसे जुडाव होता है। ये सभी हमारे सुखों और दुखों में हमारे साथी बनते हैं। जितना जिसके साथ सम्बन्ध निश्चित होता है, उसे भोगकर वह रिश्ता हमसे विदा लेकर सदा के लिए बिछुड़ जाता है।

 

    जिंदगी मे एक रिश्ता ऐसा भी जरूर जुड़ता हैं जो पारिवारिक रिश्तों से बढ़कर होता हैं, जो न जाने ऐसे बन्धनों से बंधा होता हैं, जिस बन्धन से छूटने का मन नही होता । जो हर पल, हर वक्त, हर समय हमारे आस पास, ख्यालो मै ही घूमते रहता हैं। वो होता हैं दिल का रिश्ता जो हमे ईश्वर नही देता, जो इसी धरती पर मिलता हैं, पर वो रिश्ता ईश्वर के आशीर्वाद से भी कम नही होता ।

 

    मेरा निवेदन और आग्रह हैं की किसी भी रिश्तों की अहमियत समझिये, ये एक ऐसा पौधा हैं जो आज नही तो कल जरूर फल देगा,बस इतना ध्यान रखे की आपने बीज क्या लगाया ,फूलो का या कांटो का।

 

    हम कल चर्चा करेंगे की क्या हम सच मे रिश्ते निभा रहे हैं या स्वार्थवश रिश्तों को पाल रहे हैं ?

 

    क्या गलतफहमी से रिश्ते टूट जाते हैं?

 

    क्या रिश्ते सच मे प्रकृति की देन या आशीर्वाद होते हैं या हम अपनी आवश्यकता अनुसार बना या बिगाड़ लेते हैं ?

 

   कितने जरूरी हैं जीवन मे सच्चा रिश्ता ?

 

    सबसे कीमती रिश्ता कौनसा होता हैं ?

 

   आपकी राय और प्रतिक्रिया का सादर आमंत्रण और स्वागत हैं ।

 

हंस जैन,रामनगर खण्डवा मध्यप्रदेश

         98272 14427

 

क़लम की जुबां खोल देता हूॅ.








































दोस्तों..

जो कड़वे के शौकीन उन्ही से अपने मिज़ाज मिलते हैं.. क्योंकि सच लिखना मेरी क़लम की आद़त है..और कम्ब़ख्त आजकल तो ये लत बन गई है.. आद़त छुट जाती लत कभी नहीं छुटती.. क्योंकि मैं...

 

 

 

क़लम की जुबां खोल देता हूॅ.

 

सच को काग़ज़ पर उतारने का खतरा मोल लेता हूॅ..!

कुछ इस तरह अपनी क़लम की जुबां खोल देता हूॅ..!

 

लफ़्ज़ों से अंदाजा लगाता हूॅ हर मानवीय किरदार का..!

कौन कितना वजनदार उनके लफ़्ज़ों से तोल लेता हूॅ..!

 

कहते हैं विचार ही आपको कीमती और  बेमोल करते हैं..!

विचारों से ही मैं किसे अमूल्य तो किसे बेमोल लेता हूॅ..!

 

हर एक से कब कहां मिलते हैं हमारे मिज़ाज ये दोस्त..!

जो अपने मिज़ाज का हो उससे ही अक्सर बोल लेता हू्ॅ..!

 

 

कमल सिंह सोलंकी

रतलाम मध्यप्रदेश


 

 



 



 













 










 

 








 

 







 







 




 





 




 



 



 


 


 


















 

 





 



 





 


 


 


***गाँव के मिट्टी में ही***









































***गाँव के मिट्टी में ही***

     *** ** **** * **

 

गाँव छोडकर वो प्यारा ,

आ गये हम नये शहर में  ।

कुछ करने की चाहत लिए,

और रोटी का चाँद था दिल में ।

 

सब कुछ नया नया सा था,

हर इन्सान वो अनजाना था  ।

ना कोई ठाव ठिकाना ,

अंबर के नीचे बसेरा था  ।

 

रास्ता रास्ता भीड से भरा ,

हर कोई यहाँ भाग रहा था  ।

बेचैन सी जिंदगी कैसी  ?

वो इन्सान यहाँ जी रहा था  ।

 

कई उलझनें मन में लेकर ,

 मायूसी चेहरेपर छाई हुई थी ।

हँसी खोकर वो जिंदगियाँ सारी,

अपनापन कबका भूल गई थी ।

 

पल पल याद लगा वो गाँव,

मिट्टी की खुशबू भी बुला रही थी ।

मेरे गाँव की मिट्टी में ही ,

खुशियों में झुमती ये जिंदगी थी ।

 

प्रा.गायकवाड विलास.

मिलिंद क.महा.लातूर.

8605026835.

      ******


 

 



 



 















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क्या बहन बेटियाँ मायके सिर्फ लेने के लिए आती हैं








































क्या बहन बेटियाँ मायके सिर्फ लेने के लिए आती हैं

 

खिडकी के पास खड़ी सिमरन सोचती हैं राखी आने वाली है पर इस बार न तो माँ ने फोन करके भैया के आने की बात कही और न ही मुझे आने को बोला ऐसा कैसे हो सकता है।हे भगवान बस ठीक हो सबकुछ।अपनी सास से बोली माँजी मुझे बहुत डर लग रहा है।पता नहीं क्या हो गया।मुझे कैसे भूल गए इस बार।आगे से सास बोली कोई बात नही बेटा तुम एक बार खुद जाकर देख आओ।सास की आज्ञा मिलनेभर की देर थी सिमरन अपने पति साथ मायके आती हैं परंतु इस बार घर के अंदर कदम रखते ही उसे सबकुछ बदला सा महसूस होता है।पहले जहाँ उसे देखते ही माँ-पिताजी के चेहरे खुशी से खिल उठते थे इसबार उनपर परेशानी की झलक साफ दिखाई दे रही थी, आगे भाभी उसे देखते ही दौडी चली आती और प्यार से गले लगा लेती थी पर इसबार दूर से ही एक हल्की सी मुस्कान दे डाली।भैया भी ज्यादा खुश नही थे।सिमरन ने जैसे-तैसे एक रात बिताई परन्तु अगले दिन जैसे ही उसके पति उसे मायके छोड़ वापिस गये  तो उसने अपनी माँ से बात की तो उन्होंने बताया इसबार कोरोना के चलते भैया का काम बिल्कुल बंद हो गया।ऊपर से और भी बहुत कुछ।बस इसी वजह से तेरे भैया को तेरे घर भी न भेज सकी।सिमरन बोली कोई बात नहीं माँ ये मुश्किल दिन भी जल्दी निकल जाएँगे आप चिंता न करो।शाम को भैया भाभी आपस में बात कर रहे थे जो सिमरन ने सुन ली।भैया बोले पहले ही घर चलाना इतना मुश्किल हो रहा था ऊपर से बेटे की कॉलेज की फीस,परसो राखी है सिमरन को भी कुछ देना पड़ेगा।आगे से भाभी बोली कोई बात नहीं आप चिंता न करो।ये मेरी चूड़ियां बहुत पुरानी हो गई हैं।इन्हें बेचकर जो पैसे आएंगे उससे सिमरन दीदी को त्योहार भी दे देंगे और कॉलेज की फीस भी भर देंगे।सिमरन को यह सब सुनकर बहुत बुरा लगा।वह बोली भैया-भाभी ये आप दोनों क्या कह रहे हो।क्या मैं आपको यहां तंग करके कुछ लेने के लिए ही आती हुँ।वह अपने कमरे में आ जाती हैं।तभी उसे याद आता है अपनी शादी से कुछ समय पहले जब वह नौकरी करती थी तो बड़े शौक से अपनी पहली तनख्वाह लाकर पापा को दी तो पापा ने कहा अपने पास ही रख ले बेटा मुश्किल वक़्त में ये पैसे काम आएंगे।इसके बाद वह हर महीने अपनी सारी तनख्वाह बैंक में जमा करवा देती।शादी के बाद जब भी मायके आती तो माँ उसे पैसे निकलवाने को कहती पर सिमरन हर बार कहती अभी मुझे जरूरत नही,पर आज उन पैसों की उसके परिवार को जरुरत है।वह अगले दिन ही सुबह भतीजे को साथ लेकर बैंक जाती है और सारे पैसे निकलवा पहले भतीजे की कॉलेज की फीस जमा करवाती है और फिर घर का जरूरी सामान खरीद घर वापस आती है

।अगले दिन जब भैया के राखी बांधती है तो भैया भरी आँखी से उसके हाथ सौ का नोट रखते है।सिमरन मना करने लगती है तो भैया बोले ये तो शगुन है पगली मना मत करना।सिमरन बोली भैया बेटियां मायके शगुन के नाम पर कुछ लेने नही बल्कि अपने माँबाप कीअच्छी सेहत की कामना करने,भैया भाभी को माँबाप की सेवा करते देख ढेरों दुआएं देने, बडे होते भतीजे भतीजियो की नजर उतारने आती हैं।जितनी बार मायके की दहलीज पार करती हैं ईश्वर से उस दहलीज की सलामती की दुआएं माँगती हैं।जब मुझे देख माँ-पापा के चेहरे पर रौनक आ जाती हैं, भाभी दौड़ कर गले लगाती है, आप लाड़ लड़ाते हो,मुझे मेरा शगुन मिल जाता हैं।अगले दिन सिमरन मायके से विदा लेकर ससुराल जाने के लिए जैसे ही दहलीज पार करती हैं तो भैया का फोन बजता है।उन्हें अपने व्यापार के लिए बहुत बड़ा आर्डर मिलता है और वे सोचते है सचमुच बहनें कुछ लेने नही बल्कि बहुत कुछ देने आती हैं मायके और उनकी आंखों से खुशी के आंसू बहने लगते है।

सचमुच बहन बेटियाँ मायके कुछ लेने नही बल्कि अपनी बेशकीमती दुआएं देने आती हैं।जब वे घर की  दहलीज पार कर अंदर आती हैं तो बरक़त भी अपनेआप चली आती हैं।हर बहन बेटी के दिल की तमन्ना होती हैं कि उनका मायका हमेशा खुशहाल रहे और तरक्की करे।मायके की खुशहाली देख उनके अंदर एक अलग ही ताकत भर जाती हैं जिससे ससुराल में आने वाली मुश्किलो का डटकर सामना कर पाती है।मेरा यह लेख सभी बहन बेटियों को समर्पित है और साथ ही एक अहसास दिलाने की कोशिश है कि वे मायके का एक अटूट हिस्सा है।जब मन करे आ सकती हैं।उनके लिए घर और दिल के दरवाजे़ हमेशा खुले रहेंगें।

 

 


 

 



 



 













 










 

 








 

 







 







 




 





 




 



 



 


 


 


















 

 





 



 





 


 


 


'नया जमाना' 

'नया जमाना' 

 

नया जमाना राम  का  मन में रक्खो राम 

पुरी अयोध्या में हुआ शुरू राम का काम 

 

नया  जमाना  राम का  पिछले में  भी राम 

हमसब में यदि राम है नया करें कुछ काम 

 

भाई बहना  प्रेम  का अनुपम यह त्यौहार 

राखी की शुभकामना सभी करो स्वीकार 

 

सबको शिक्षा हो सुलभ नया जमाना आज 

बिन  शिक्षा  के ना  बढ़े कोई सभ्य समाज 

 

डिजिटली   शिक्षा   हुई   नया जमाना   दौर 

पहले दुनिया और थी अब दुनिया कुछ और 

 

कवि  भी  कंप्यूटर  हुआ मोबाइल में काव्य 

ऑनलाइन भेजा करे अब सबकुछ संभाव्य 

 

काव्य   गोष्ठी   से   जुड़े   सारे   रचना  कार 

नया जमाना पर लिखो बनो सफल किरदार 

 

कविता को दो दिन चुने बुधवार रविवार 

काव्य गोष्ठी सफल हो दुआ करें हर बार 

 

आनंद काव्य पटल  पर फैल रहा सर्बत्र 

क्या आनंद से बड़ा है कोई प्रशस्ति पत्र 

 

निभा  रहे   हैं    शान  से  सारे रचनाकार 

साहित्य हेतु मंच पर अपना एक किरदार

 

                  रामबाबू शर्मा 

                       जयपुर

अंखियां जी भर रोती हैं

अंखियां जी भर रोती हैं

 

इस दुनिया में कुछ कुछ बातें

बडी अजब सी होती हैं।

होता है कुर्बान वो बकरा

सारी बकरी रोती हैं।।

प्यार, मुहब्बत, नेकनीयती

इंसां में मौजूद नहीं।

और उधर ये मूक जानवर

प्रेम की लडी पिरोती हैं।।

मन से है संबंध मनों का

धारा एक प्रवाहित है।

कुर्बानी की रात मुहब्बत

नहीं घडी भर सोती हैं।।

ये जज़्बात अनूठे बैरी

कसक उठाते रहते हैं।

दिल में बसी नशीलीं यादें

बीज विरह की बोती हैं।

सावन की बूंदों के आते

याद आ गई प्रियतम की।

जब भी जी भर भर आता है

अंखियां जीभर रोती हैं।।

 

लखन पाल सिंह *शलभ*

    

मा से मायका









































मा से मायका

 

दोनों बहने व्यवसायियों के यह ब्याही थी ,बड़ी के घर का व्यवसाय ऐसा चला कि वह बहुत अमीर हो गई मगर छोटी बहन के घर का व्यवसाय घाटे में होने से उनका जीवन स्तर काफी नीचे आ गया था

मगर जब भी दोनों बहने अपने मायके आती तो माता-पिता दोनों को एक जैसी साड़ी बच्चों को एक जैसे कपड़े दिया करते थे पिछले साल माता की तबीयत थोड़ी खराब हुई और वह अचानक ही चल बसी, पिताजी उनके गम को ज्यादा दिन सहन नहीं कर पाए और अगली बरसी मां की आते-आते पिताजी भी चल बसे

दो रक्षाबंधन तो ऐसे ही बीत गए तीसरे साल जब दोनों बहने मायके में आए तो बड़ी बहन भाई नतीजों के लिए ढेर सारे तोहफे लेकर आई थी भाई भतीजे पहन कर उन्हें खूब शोर मचा रहे थे कह रहे थे मेरा वाला सुंदर यह बहुत अच्छा है बुआ आप बहुत अच्छा लेकर आए, मगर छोटी बहन बेहद उदास थी क्योंकि उसकी इतनी हैसियत नहीं थी कि वहां कुछ ज्यादा सामान भाई भतीजे के लिए ला पाती

सबसे दुखद बात तो तब हुई जब दोनों बहनों की विदाई की गई तो छोटी बहन ने देखा की बड़ी बहन की व उनके बच्चों के सभी कपड़े ब्रांडेड थे और छोटी बहन की दोनों बच्चों की व उनकी साड़ी भी डुप्लीकेट सिल्क की थी यह देख कर छोटी बहन की आंखों में आंसू आ गए मगर उसने कुछ ना कहा, मां के रहते उसे कभी यह एहसास नहीं हुआ था कि वह किसी तरह से आर्थिक रूप में कमजोर है , क्योंकि उससे सबका प्यार वैसा ही मिलता था जैसा बड़ी बहन को

छोटी बहन सोच रही थी की अर्थ इतना शक्तिशाली होता है कि वह एक ही गर्भ में पैदा होने वाले भाई-बहनों की सोच को एक दूसरे के प्रति अलग अलग कर दें आज से मां पिता की बहुत याद आ रही थी सोच रही थी कि लोग सच ही कहते हैं मां से ही मायका होता है


 

 



 



 















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"एक सैनिक की   बहन की चिट्ठी  अपने भाई के नाम









































"एक सैनिक की 

 बहन की चिट्ठी 

अपने भाई के नाम"                       

 

फिर आ गया 

राखी का त्यौहार।

भाई बहन के 

पवित्र बंधन का त्यौहार।

रक्षा और आशीर्वाद से 

हरा-भरा त्यौहार।

श्रावणी पूर्णिमा का 

जगमगाता त्यौहार।

भैया, 

इस राखी पर 

क्या आओगे घर ?

घर की चोखट पर 

थाल सजाये बैठी हूं।

हाथों में राखी, 

रास्ता तकती निगाहें।

कितने बरस बीत गये, 

राखी के पर्व पर, 

घर नहीं आए ?

इस बार भैया 

आ जाओ!

मैं तुम्हें अपने हाथों से 

केसरी तिलक लगाऊँ।

मंगल गीत गांऊ। 

आरती उतारुँ।

मुंह मीठा कराऊँ।  

तुम्हारी कलाई पर 

आशीर्वादों की,

प्रार्थनाओं की 

तिरंगी राखी बांधू।

तुम्हारी लंबी उम्र के 

लिये दुआंए मांगू।

युं तो दिन-रात 

मेरी प्रार्थनाओं में 

तुम रहते हो।

मां-पिता का आशीर्वाद,

बहन की दुआएं,

पत्नी का करवा चौथ,

तुम्हारे इर्द-गिर्द 

कवच बन 

मंडराता होगा।

पर 

दिल हरदम डरता है।

यह कवच 

कोई भेद न पाये।

ईश्वर से 

यही विनंती बारबार

करती रहती हूं।

याद आती है,

रह-रहकर, 

वह बचपन की राखी।

मेरी हर नादानी,

हर गलती पर,

तुम्हारा मुस्कुराना।

हर डांट से बचाना।

मेरे लिये घर में 

सबसे लड़ना।

कितनी बातें है़ जो

दिल तुमसे 

करना चाहता है।

अगले बरस तो 

ब्याह है! 

फिर,

दूर चली जाऊंगी।

इस बार आ जाओ।

राखी का त्यौहार 

मिलकर मनाते है।

वही घमाचौकडी़, 

वही शरारतें, 

हुड़दग मचाते है।

फिर से, 

जी लेते है बचपन को!

इस घर को

गुलजार करते है।

दरो दीवार को, 

इस मकान को, 

घर बनाते है।

 

मंजू लोढ़ा ,


 



 



 













 











 

 








 

 







 







 




 





 




 



 



 


 


 


















 

 





 



 





 


 


 


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