बरगद का पेड़
वर्षों बाद
आना हुआ था गाँव।
अंदर-बाहर
आते-जाते
टिक जाती हैं नज़रें
बरगद के उस पेड़ पर
जो ठूँठ-सा लग रहा है।
मानो काट दीं हों
किसी ने उसकी शाखाएं।
पत्तों में वह सरसराहट नहीं है
जो पहले हुआ करती थी।
छाँव की शीतलता
गायब-सी हो गयी है
और बहुत कम हो गया है
बरगद के फलों का गिरना भी।
अब नहीं बैठते लोग
उस पेड़ के नीचे
जहाँ कभी मजलिस लगा करती थी।
ताश को केंद्र में रखकर
लोग घण्टों जमे रहते थे
ठहाकों की आवाज़ से
घूँघटों के पीछे भी
मुस्कान छलक पड़ती थी।
बहुत ज्यादा अंतर नहीं आया है
इस अंतराल में
सिवा इसके कि
मेरे दादाजी
हाँ, मेरे दादाजी हमसे
बहुत दूर चले गए ह
मृणाल आशुतोष
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