चंद्रिका   

 --चंद्रिका   

 

छू रही होकर प्रफुल्लित,चंद्रिका देखो धरा को।

यह अमित -सौंदर्य बोलो, काव्य में कैसे गढूँगी?

अंतरा  

क्या सदा लंबित रहेंगी, कामना मेरी सभी ये?

रीत जायेगीं सदायें,अब बिना बरसे कभी ये।

चंद्रिका जैसे बिखर कर, भावना भरती रहेगी।

चेतना की भूमि पर ही,राज ये करती रहेगी।

काव्य का शृंगार करके,गीत ये कैसे पढूँ गी ?

यह अमित- सौंदर्य बोलो, काव्य में कैसे गढ़ूँगी?

 

अंतरा  --2

जो न होते भाव मुखरित ,चाँदनी कैसे लुभातीं।

श्वेत- किरणें ही बिखर कर, बस धरा को ही सजातीं।

 

हो रही पुलकित धरा यह,गीत कोई गा रही है।

प्रेम के पावन- हवन में, अर्घ्य मानों पा रही है।

लाज का घूंघट पहन कर, सेज वो कैसे चढूँगी?

यह अमित- सौंदर्य बोलो ,काव्य में कैसे गढ़ूंगी?

 

 

श्रीमती मनोरमा जैन 

15/03/2020

मेहगाँव ,जिला भिंड 

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