"एक सैनिक की 

 बहन की चिट्ठी 

अपने भाई के नाम"                       

 

फिर आ गया 

राखी का त्यौहार।

भाई बहन के 

पवित्र बंधन का त्यौहार।

रक्षा और आशीर्वाद से 

हरा-भरा त्यौहार।

श्रावणी पूर्णिमा का 

जगमगाता त्यौहार।

भैया, 

इस राखी पर 

क्या आओगे घर ?

घर की चोखट पर 

थाल सजाये बैठी हूं।

हाथों में राखी, 

रास्ता तकती निगाहें।

कितने बरस बीत गये, 

राखी के पर्व पर, 

घर नहीं आए ?

इस बार भैया 

आ जाओ!

मैं तुम्हें अपने हाथों से 

केसरी तिलक लगाऊँ।

मंगल गीत गांऊ। 

आरती उतारुँ।

मुंह मीठा कराऊँ।  

तुम्हारी कलाई पर 

आशीर्वादों की,

प्रार्थनाओं की 

तिरंगी राखी बांधू।

तुम्हारी लंबी उम्र के 

लिये दुआंए मांगू।

युं तो दिन-रात 

मेरी प्रार्थनाओं में 

तुम रहते हो।

मां-पिता का आशीर्वाद,

बहन की दुआएं,

पत्नी का करवा चौथ,

तुम्हारे इर्द-गिर्द 

कवच बन 

मंडराता होगा।

पर 

दिल हरदम डरता है।

यह कवच 

कोई भेद न पाये।

ईश्वर से 

यही विनंती बारबार

करती रहती हूं।

याद आती है,

रह-रहकर, 

वह बचपन की राखी।

मेरी हर नादानी,

हर गलती पर,

तुम्हारा मुस्कुराना।

हर डांट से बचाना।

मेरे लिये घर में 

सबसे लड़ना।

कितनी बातें है़ जो

दिल तुमसे 

करना चाहता है।

अगले बरस तो 

ब्याह है! 

फिर,

दूर चली जाऊंगी।

इस बार आ जाओ।

राखी का त्यौहार 

मिलकर मनाते है।

वही घमाचौकडी़, 

वही शरारतें, 

हुड़दग मचाते है।

फिर से, 

जी लेते है बचपन को!

इस घर को

गुलजार करते है।

दरो दीवार को, 

इस मकान को, 

घर बनाते है।

 

मंजू लोढ़ा ,