--  परिधि सपनों की --

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कभी  लेती है जन्म

ये ख्वाहिशें भी 

कि टांक दूँ हरसिंगार को

आज चाँद के जुड़े में

कि चाँदनी की नदी में तैर आऊं मिलों दूर तक

 कि पेरिश की सड़कों पर लूं

अपनी भी कुछ सेल्फी

कि कभी अमलतास के

लाल फूलों से गूंथ लूं

अपने सुनहरे सपने

कि देवदार की छाँव तले देखूँ 

गोधूलि शाम की सिंदूरी धूप ।

 

हाँ , है कई अनकही ख्वाहिशें

जो लेती है जन्म मेरे भी अंदर

पर अनकहा सा कारवाँ

चलता रहता है

भूख और दर्द के बीच 

जीवन और संघर्ष के बीच 

खुशी और गम के बीच।

 

आज भी मुझे पुकारती है

कश्मीर की सुंदर लेक

दार्जिलिंग की वादियाँ

बर्फ़ानी देव की गुफा।

 

पर ! सीमित सी लकीरें हाथों की

करती है जोड़ - तोड़

और प्रतिदिन के राशन

में मिटाती जाती है खुद को

उसी लकीरों की आग में।

 

और तब मुस्कुरा उठते हैं 

शाम के  चूल्हे से  उठते

मटमैली धुएं की बादल

फिर उसकी खुशबू 

मिट्टी के कुल्हड़ की चाय में घुल

देती है एक अदद सकून ।

 

कि बस हम और तुम 

संग - संग मिल सुबह के कोहरे में ढूंढ लेंगे दार्जिलिंग की खूबसूरती

खेतों के पगडंडियों बीच तलाश लेगें कश्मीर के सुंदर लेक

गांवों के मंदिरों में भी मिल जाएंगे वहीअमरनाथ के बर्फ़ानी देव।

 

 

कि हाँ ,सपनों और हसरतों के भी

होते हैं दायरे 

क्या हुआ कि नहीं देख पाई

दुनिया की खूबसूरती

चलो तलासते हैं रोटी की गोलाई में

धरती की परिधि

गारे - मिट्टी संग

पहाड़ों की खूबसूरती

खेतों के मेड़ों में

कश्मीर की वादियां

गायों के झुण्डों संग

पेरिस की शाम

इन बहते नालों में

समुंदर के किनारे ।

 

कि चलो सपने में पंख

लगाते हैं

जीवन के सच में खुशियां

सजाते हैं ।

 

 

 

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