हिंदी के विविध रूप 








































हमारी मातृ भाषा हिंदी के विविध रूप 

 

हिंदी मैं हिंद देश की 

संतान मैं भारत देश की 

बोलियों ने पाला-पोसा 

सुगंध मैं अपने देश की 

 

कई मेरे नाम रहे हैं 

कई मेरे ग्राम रहे हैं 

कण-कण से जुडी मैं 

सुन्दर मेरे धाम रहे हैं 

 

संस्कृत मेरी है जननी 

बृज -मैथली है भगनी 

प्राकृत से जाना मुझे 

कहते मुझे खड़ी बोली 

 

माटी के कंठों से उपजी 

गीतों-छंदों में हूँ बसी 

भजनो ने भक्ति जगाई 

परिहास में खूब हँसी

 

पर्वत शिखरों पर मैं हूँ 

सागर की लहरों पर मैं हूँ 

इस हवा में घुल-मिल गई 

दिन के हर पहर में मैं हूँ 

 

रामायण से घर घर पहुँची

दोहों से मिल गई ख़ुशी 

भक्ति काल की सरिता मैं 

अपनी संस्कृति  में बसी  

 

पूरे देश को मैंने जोड़ा 

सबसे लिया थोड़ा-थोड़ा

देश भक्ति ज्योति मुझमें 

मातृ प्रेम में कैसा रोड़ा 

 

सुशासन की अलख जगाई 

जयहिंद की महिमा गाई

वंदे मातरम की गूंज हूँ 

मेरे देश ने ली अंगड़ाई 

 

आज विश्व में है पहचान 

कोई नहीं हैं अंजान  

फ़िल्मी सितारा आज हूँ 

धड़कते दिलों की मैं जान 

 

पराधीनता जिनको भाई 

वही कहते मुझे पराई 

स्वाधीनता का अर्थ क्या है 

मैं ही समझूँ मिट्टी जाई

 

श्याम मठपाल ,उदयपुर


 

 



 



 







 

 








 

 







 







 




 





 




 



 



 


 


 


















 

 





 



 





 


 


 


बिटिया एक अटूट विश्वास है








































हमारे घरों की सभी प्यारी प्यारी बेटियों को समर्पित  

 

बिटिया एक अटूट विश्वास है

अंतिम क्षण तक का उजास है

 

बिटिया इस घर आंगन का उल्लास है

घर में बहती गंगा सा आभास है

जब भी मन होता उदास है

तू टटोल लेगी मन ऐसी एक आस है

 

बिटिया एक मीठा सा अहसास है

ये अनमोल पूँजी जिसके पास है

मानो तुरूप का इक्का उसके पास है

शब्दों में न हो बयां ये ऐसा रिश्ता ख़ास है

 

कितनी भी परेशान क्यों ना हो

अपने को जताती बिंदास है

हम अनाथ नहीं है ऐसा आभास है

मन में घुट रही घुटन का निकास है

 

अनकही बातों का लगा लेती कयास है

इसलिए दुआओं का द्वार खुलता अनायास है।

 

ज्ञानवती सक्सैना


 

 



 



 













 










 

 








 

 







 







 




 





 




 



 



 


 


 


















 

 





 



 





 


 


पिता का दर्द






पिता का दर्द

 

माँ सिर्फ 9 महिने कोख मे रखती

दिमाग में उम्र भर रखता है पिता 

माँ बच्चो पर है ममता है लुटाती 

जीवन न्योछावर करता है पिता 

जिससे है घर संसार है चलता

दिन भर खपता उसके लिये पिता

हम सब तो घर मे चैन से रहते

उधर मेहनत सदा करता है पिता 

पल पल बच्चों को खुशियाँ देता

हर पल टूटता है वहाँ पिता 

माँ पर तो सभी है प्यार लुताते

हाशिये पर रह जाता है पिता

माँ के आंसू है सभी को दिखते

हर पल टूटता नही दिखता पिता 

बच्चों की खुशियों की खातिर

मेहनत करता है एक पिता 

घर भर के सबके कपड़े आते 

और सुखा रह जाता है पिता

सारे खिलौने बच्चो को देता 

सारे पैसे खर्च कर जाता है पिता

अपने बच्चों को आगे बढ़ाने 

सतत प्रयास करता है पिता 

सब लोग उसे कोसते रहते 

पर अपना दर्द छुपाता है पिता

सब लोग अपने आंसू है बहाते 

पर अपने आंसू छूपाता  है पिता ।।

    अभय चौरे हरदा मप्र


 

 



 



  *शिक्षा/शिक्षक वही जो राष्ट्र पर गौरव करना सिखाए*






  *शिक्षा/शिक्षक वही जो राष्ट्र पर गौरव करना सिखाए*

 

आखिर शिक्षा क्या है?

क्या शिक्षा का अर्थ केवल विद्यालय जाना है?

या असली शिक्षा का अर्थ, मस्तक के बंद द्वार खोलना है!

क्या शिक्षा का अर्थ केवल पैसों के बदले ज्ञान देना है?

या शिक्षा का अर्थ, विद्यार्थियों में छिपी भावनाओं को व्यक्त करना है!

आखिर शिक्षा क्या है?

 

 

*शिक्षा वही हो जो राष्ट्र पर गौरव करना सिखाए*

शिक्षा वही हो जो कीचड़ में भी कमल खिलाना सिखाए!

असली गुरु कौन है? असली शिक्षा क्या हुई?

क्या कलयुग में ऐसा कोई नहीं जो ये राज यह भेद हमें बताएं?

 

शिक्षा अब बट चुकी है दो हिस्सों में, एक सतयुग की और एक कलयुग की,

अब तो बस पैसों का बोलबाला है,जहां जितना दाम काम उतना ही निराला है!

पढ़ाया जाता है टारगेट देकर अब!पढ़ाया जाता है केवल नौकरी का झांसा देकर अब!

मूल सिद्धांत और सतयुग जैसी शक्ति इस कलयुग की विद्या में अब कहां?

प्रश्न अब भी वही है,आखिर शिक्षा क्या है?

 

शिक्षित व्यक्ति वह नहीं जो केवल सूट-बूट संग सजे,

शिक्षित व्यक्ति केवल वह नहीं जो शान बान से मोटर गाड़ी में चले!

असली शिक्षित व्यक्ति वह होना चाहिए, जो राष्ट्र का सम्मान बढ़ाए!

असली शिक्षित व्यक्ति वह होना चाहिए जो देश और मातृभूमि के लिए दुश्मन का सर बली चढ़ाए!

 

आखिर शिक्षा क्या है?

क्या है आखिर असली शिक्षा??

यह बात शायद जब तक समझ आती है,

तब तक मनुष्य के जीवन विद्यार्थी में बड़ी देर हो जाती है।

कृपया अपने बच्चों को अभी से सिखाएं,

उनके मन में केवल नौकरी नहीं,देशभक्ति की भावना जगाए!!

 

तभी मिलेगी असली शिक्षा तभी मिलेंगे असली गुरु,

देर अभी भी नहीं हुई है वक्त अभी भी नहीं बीता है,

आइए हम सब मिलकर अपने बच्चों को असली शिक्षा दिलाएं,

आइए हम सब मिलकर देश को आगे बढ़ाएं,

आइए हम सब मिलकर इस सवाल की गुत्थी को सुलझाएं,

आखिर शिक्षा क्या है, आइए मिलकर सभी को बताएं,

असली शिक्षा वही जो राष्ट्र का गौरव बढ़ाएं, असली शिक्षा वही जो देश का सम्मान बढ़ाएं, असली शिक्षा वही जो देश को कम नहीं समझे, असली शिक्षा वही जो देश को गौरान्वित कर दे!!

 

किरन खत्री,उदयपुर

 


 

 



 



ग़ज़ल






दोस्तों..

एक मशविरा दे रही हैं..इस शाम *क़लम-ए-कमल*

 

ज़िंदगी के दामन में गुल ही नहीं कुछ कांटे भी रखना..!

ज़्यादा शोरगुल भी अच्छा नहीं कुछ सन्नाटे भी रखना..!

 

रिश्ते हो या प्रीत दोनों कारोबार दिल से ही होते है..!

मुनाफे ही मुनाफे ना देखना कुछ घाटे भी रखना..!

 

ज्य़ादा सादगी सीधापन भी सदा अच्छा नहीं होता है..!

सरलता के साथ साथ कुछ टेढ़ी वारदातें भी रखना..!

 

ज्य़ादा सुकून भी मानव को अक्सर नकारा बना देता है..!

ज़िंदगी का मज़ा लेना हो तो बैचेनी वाली रातें भी रखना..!

 

 

कमल सिंह सोलंकी

रतलाम मध्यप्रदेश


 

 



 



हिंदी : क्यों नही बन पाई ललाट बिंदी






हिंदी : क्यों नही बन पाई ललाट बिंदी

 

 

निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।

बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।।

 

हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा या यूं कहें कि राजभाषा है जिसे अधिकारिक भाषा भी कहा जाता है। आधिकारिक भाषा मतलब यह  कि राजकीय कार्यालयों की भाषा अर्थात  संवैधानिक रूप से हिंदी सिर्फ राजकीय कार्य की भाषा है, राष्ट्रभाषा नहीं। हालांकि जनमानस में यह राष्ट्रभाषा के रूप में विराजमान है क्योंकि आम भारतीय आज भी हिंदी को भी राष्ट्रभाषा मानता है। यह हिंदी के प्रति जन सामान्य का प्रेम और सम्मान ही है। हिंदी विश्व  की चौथी प्रमुख भाषा है जिसे देश के 70% लोग बोल और समझ सकते हैं । महात्मा गांधी कहते थे कि - " हिंदी भाषा का प्रश्न स्वराज्य का प्रश्न है । "  गौतम बुद्ध महावीर स्वामी, विवेकन्नद ,राजाराम मोहन राय,दयाननद सरस्वती से लेकर महात्मा गांधी तक ने अपने विचारों का प्रचार-प्रसार हिंदी में ही किया क्योंकि यही  एक मात्र जनता की भाषा थी जिसे अधिकाधिक लोग समझते थे। स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई  हिंदी भाषा के साथ ही लड़ी गई । हमारे बहुत से स्वतंत्रता सेनानियों, समाज सेवियों ने ने हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार में अपनी जान लड़ा दी थी।   हिंदी  - हिंदू-  हिंदुस्तान के नारे गली गली लगाए जाते रहे । हिंदी हैं हम वतन है हिंदुस्तान हमारा जैसे गीत हमारा सीन ऊंचा कर देते हैं लेकिन इतना सब होने के पश्चात भी हिंदी आज भी अपने वास्तविक गौरव पद को नहीं प्राप्त कर पाई है तो फिर कहीं ना कहीं मन में प्रश्न जरूर उठता है कि क्यों ?

आखिर क्यों ? हिंदी राष्ट्रभाषा नहीं बन पाए ? क्यों राजभाषा बन कर रह गई? क्यों यह अपने ही देश में अंग्रेजी से पिछड़ गई?  क्यों यह अपने ही देश में दोयम दर्जे की भाषा बन कर रह गई? जहाँ अंग्रेजी के लिए एक और हिंदी के लिए दो दबाना पड़ता है और क्यो हम हिंदी भाषी  नब्बे प्रतिशत लोग अपनी भाषा को छोड़ हस्ताक्षर अंग्रेजी में करना पसंद करते हैं ।  इन सब प्रश्नों के उत्तर ढूंढने के लिए जब हम इतिहास की गलियों में चक्कर लगाते हैं तो पाते हैं कि गैर हिंदी भाषी प्रदेशों का विरोध, उनका अपनी  क्षेत्रीय भाषाओं के प्रति  अतिशय प्रेम ,हठधर्मिता , निजी स्वार्थ व ऐक्य  की भावना का अभाव जैसे बहुत से कारण दिखाई देते हैं  । जिस  सब के चलते  हमारे संविधान निर्माताओं को लाख चाहते हुए भी हिंदी को राष्ट्रभाषा न  बनाकर राजभाषा बनाना पड़ा और जिस के फलस्वरूप  भाषा के आधार पर आंध्र प्रदेश का निर्माण हुआ लेकिन गैर हिंदी भाषी प्रदेशों के सर ठीकरा फोड़ हम अपने कर्तव्य की इतिश्री नहीं कर सकते क्योंकि और भी ऐसे बहुत से कारण हैं जिनके  लिए कोई और नहीं हम स्वयं ही उत्तरदाई है और  जिन  से हम  चाह कर भी आंखें नहीं मूंद सकते  क्योंकि हिंदी भाषी राज्यों में भी  हिंदी की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। जिसके लिए हम स्वयं सीधे तौर पर जिम्मेदार  हैं । जिनमे  प्रमुख कारण हैं   हिंदी बोलने में शर्म, हिचकिचाहट ।  मुख सुख भी इसके पीछे एक बड़ा कारण है जिसके चलते पढ़ा-लिखा अभिजात्य वर्ग भी हिंदी में न  बोलकर क्षेत्रीय  स्थानीय भाषा का प्रयोग ज्यादा करता है । दूसरा बड़ा कारण है अंग्रेजी के प्रति  प्रगाढ़ प्रेम  ।  आज अंग्रेजी बोलना और पढ़ना सम्मान का सूचक बन गया है । डॉक्टर फादर कामिल बुल्के ने कहा था- 

 " संस्कृत रानी, हिंदी गृहिणी और अंग्रेजी नौकरानी है " लेकिन आज हम हिंदी संतति की  उपेक्षा के चलते आज हिंदी नौकरानी और अंग्रेजी घर की मालकिन बन बैठी है। जो कि बहुत ही विचारणीय प्रश्न है । इसलिए आवश्यकता है कि हम हिंदी दिवस, हिंदी सप्ताह,  हिंदी पखवाड़ा मनाने के बजाय  अपनी स्वभाषा को तन मन से,  हृदय से अपनाए। हिंदी बोलने में सम्मान का अनुभव करें।  गर्व का अनुभव करें । हिंदी के प्रति यही हमारी सच्ची सेवा होगी। अंत में मैं इतना ही कहना चाहूंगी ---

 

मैं नहीं कहती कि अन्य भाषा मत सीखो,

 मैं नहीं कहती कि मातृभाषा मत बोलो,

 लेकिन ......

मैं चाहती हूं कि राष्ट्रभाषा मत भूलो।

 

 जिसके लिए देश भक्तों ने दिया बलिदान,

 जिसे लेखकों कवियों ने किया सहर्ष स्वीकार,

 कुछ और नहीं कर सकते तो..

 हिंदी बोलकर ही इसका करो विस्तार।

 

द्वारा ----

शबनम भारतिय, फ़तेहपुर शेखावाटी, सीकर,राजस्थान


 

 



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गजल









































 गजल

 

 

मौसम कितना सर्द हमें मालूम नहीं ।

है कितना बेदर्द हमें मालूम नहीं।

आज सियासत तोडे अबला का आंगन, 

खुद को कहते मर्द हमें मालूम नहीं।

 सच सुनने की आदत तनिक नहीं मन में।

 बन बैठे ख़ुदगर्ज हमें मालूम नहीं।

 राष्ट्रवाद की बातें तो करना सीखो।

भूल गये हो फर्ज हमें मालूम नहीं।

जिनके मन अलगाववाद की चिंगारी।

चल रहे उसी ही तर्ज हमें मालूम नहीं ।

मत तोडो आपस के भाईचारे को।

रहा पुराना मर्ज हमें मालूम नहीं।

देख रही है दुनियां खेल तमासे को।

 हो गई शिकायत दर्ज हमें मालूम नहीं।

छोडो अब बचकानी छोटी बातों को।

लद गया जहां का कर्ज हमें मालूम नहीं।

दिले दास्ताँ किसको हरि सुनाये अब।

नीयत गई है लर्ज हमें मालूम नहीं।।

 

हरीश चंद्र हरि नगर 


 

 



 



 













 











 

 








 

 







 







 




 





 




 



 



 


 


 


















 

 





 



 





 


 


 


 प्रेरक कथा*

 प्रेरक कथा*

   

भोर  का समय है ,पूरब से लाली फूट रही है /सूर्य की किरणें धरा पर, प्रकाश और उल्लास बिखेर  रही है /पंछी चहक  रहे हैं  पुष्प महक रहे ,जिंदगी निद्रा से जाग रही है /

गरीब धनपाल की कुटिया में भी सूरज ने दस्तक दी /धनपाल की आंख खुली , उसने प्रभु का स्मरण कर ,अपने पुत्र को प्रेम से जगाया /उसके माथे पर हाथ फेरा ,उसकी आंखों को सहलाकर गले से लगाकर बेटा उठ जा ,आज तेरे विद्यालय का पहला दिन है ,पिता ने पुत्र को स्नान कराकर वस्त्र पहनाकर तैयार किया /

          दो रोटी और अचार लंच बॉक्स में रखकर पुत्र को स्कूल छोड़ने गया /रास्ते में सोहन से पिता ने कहा बेटा अपन गरीब है ,सबसे पीछे बैठना , गुरु जी को हाथ जोड़कर प्रणाम करना ,जब गुरुजी पढ़ाएं तब आंख गुरुजी पर रखना, कान गुरु जी के शब्दों पर रखना , गुरुजी जब कुछ पूछे ,खड़े होकर हाथ जोड़कर विनय पूर्वक उत्तर देना ,किसी से लड़ना झगड़ना नहीं / तेरी पढ़ाई पर ही तेरा भविष्य है ,जो गरीबी मैंने भोगी है , वह तुझे ना भोगना पड़े, बेटा मन लगाकर पढ़ना ,आदि शिक्षा देकर धनपाल पुत्र को विद्यालय परिसर में छोड़कर ,भारी मन से घर आ गया /

गांव में  पांचवी तक  पढ़ाने के बाद ,धनपाल  बिन मां के बेटे  की पढ़ाई के लिए ,  शहर आया है /सोहन भी चिंतित था ,पता नहीं क्या होगा ,नया शहर है , नया स्कूल है/ गांव की बात कुछ और थी /प्रार्थना  की घंटी बजी ,सभी छात्रो ने लाइन में खड़े होकर प्रार्थना की /प्रार्थना उपरांत सभी छात्र अपनी कक्षा में पहुंचे /आगे की पंक्ति में कुछ छात्रों ने अपने बस्ते पहले ही रख दिए थे /फिर भी वहां बैठने में छात्रों में धक्का-मुक्की हुई /सोहन चुपचाप सबसे पीछे बैठ गया /सोहन की भोली मुद्रा पर गुरुजी का ध्यान गया , और पढ़ाते समय उनका उपयोग सोहन पर ही ज्यादा रहा /सोहन की पढ़ाई चलती रही ,सोहन अपने व्यवहार एवं तीक्ष्ण बुद्धि के कारण गुरुजी की निगाह में स्थान पता चला गया /

          एक दिन गुरुजी ने कहा बेटे तुम पीछे क्यों बैठते हो ,आगे बैठा करो / अगले  दिन सोहन आगे की पंक्ति में बैठ गया /गुरु जी अभी आए नहीं थे ,जो छात्र आगे बैठते  थे वह सोहन से झगड़ा करने लगे / उसने कुछ नहीं कहा , उन्होंने उसका बस्ता उठाकर पीछे फेंक दिया /सोहन रोने लगा ,तभी गुरुजी कक्षा में आए /हंगामा देख गुरु जी ने पूछा क्या हुआ ? सभी छात्र सन्नाटे में आ गए , गुरु जी ने सख्त लहजे में फिर पूछा क्या हुआ ,इतना शोर क्यों  ?  तब जिसके हृदय में सोहन के प्रति मित्रता का भाव उमड़ रहा था , ऐसे सहृदय मोहन ने कहा, गुरुजी आगे के इन 4 छात्रों ने सोहन का अपमान किया ,उसका बस्ता  तक पीछे फेंक दिया / गुरु जी ने सभी छात्रों को बैठने का संकेत किया /प्रेम से 4 छात्रों से पूछा तुमने सोहन का बस्ता क्यों फेंका ? उनमें से दीपक बोला झोपड़पट्टी में रहने वाला, महलों में रहने वालों की बराबरी कैसे कर सकता है /कहां उसके फटे कपड़े कहां हमारी राजसी पोशाक , यह हमारे साथ कैसे बैठ सकता है /प्रतिदिन  तो  पीछे ही बैठता था /गुरु जी ने प्रेम से, सभी छात्रों को समझाया /बताइए दोनों हाथों में से बड़ा हाथ कौन सा है / ब्राह्मण छात्र तिलकराज ने कहा ,दाया हाथ बड़ा है /गुरुजी ने पूछा दाया हाथ बड़ा क्यों है ? तब बणिक छात्र शुभम ने कहा सीधे हाथ  से दान देते हैं, तिलक लगाते हैं, भोजन करते हैं, गुरुजी ने पूछा बाया हाथ छोटा क्यों है ?  तब  किशोर  पंडित ने कहा बाएं हाथ से मल द्वार  को साफ  करते हैं / सब की बात सुनकर गुरुजी ने कहा ,अब मेरी बात ध्यान से  सुने / प्रातः काल जब बाया हाथ हमारे शरीर की गंदगी को साफ करता है, तब दाया हाथ बाएं हाथ की शुद्धि में सहयोग करता है / भोजन के बाद जब हमारा दाया हाथ ,भोजन से सना होता है ,तब उसको साफ करने वाया हाथ सहयोग करता है /संसार में हर वस्तु हर व्यक्ति अपने आप में महत्वपूर्ण है /यहां कोई छोटा बड़ा नहीं है  /हमारी बुद्धि ही छोटी बड़ी है /फैले हुए हाथ से हम भोजन नहीं  कर सकते , पांचों उंगलियां  मिलती है , तब रोटी  मुख में जाती है /ठीक इसी प्रकार से  समाज के  सभी व्यक्ति  आपस में  एक दूसरे का  सहयोग करते हैं ,तब जिंदगी की गाड़ी  आगे बढ़ती है /इसलिए  छोटे बड़े का  भेद भूलकर  आपस में  मिलकर  रहना सीखो / अभी आप सबको  जिंदगी में  बहुत आगे बढ़ना है ,कल कौन क्या बनेगा , कहा नहीं जा सकता / मिलकर रहने की कला ही , जीवन में काम आती है /चारों छात्रों को  अपनी गलती का बोध हुआ ,वह उठकर गए  और सोहन से क्षमा मांग कर  अपने साथ बैठाया / सभी छात्रों ने  ताली बजाकर  इस पावन दृश्य का  स्वागत किया / सोहन की पढ़ाई चलती रही, वार्षिक परीक्षा का  रिजल्ट आया /सोहन जो हमेशा पीछे बैठता था आज विद्यालय में सबसे आगे था ,और कुछ वर्ष बाद एक दिन सोहन कलेक्टर बनकर उसी विद्यालय में छात्रों को पुरस्कृत कर रहा था /

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*मन की शक्ति अपनी हम कैसे बढायें*






 लघु  कथा 

 

*मन की शक्ति अपनी हम कैसे बढायें*

 

*लघु  कथा नूतन पृथ्वि की एक सुनायें*

 

*“मानसिक-शक्ति का वर्धन- परिमार्जन*

*अदम्य "सहन शक्ति" का करें  परिक्षण!*

*व्यर्थ प्रतिक्रियाओं का करो पू्र्ण दमन!!*

*आत्म-विश्वास का असीमित भण्डारण!*

*प्रारब्ध भोग-कष्टों का निर्भय हो करें वरण!!*

*ग्रीष्मकालीन प्रचंड दावाग्नि की,*

*दहकती ज्वाला को देखा है?*

*शुष्क वृक्ष-जीव का जल हेतु*

*निरुत्तर आवेदन देखा है??*

*वही संतप्त वृक्ष पूजन हेतु,*

*फल-फूल-पुष्प देता रहता है!*

*तरु की शीतल छाया तले,*

*पथिक थकित हो,*

*कुछ पल दम भरता है!!*

*कटे वृक्ष की किसी ने,*

*अश्रुधार  देखी है?*

*मानव को तृण सम,*

*सहिष्णु बनना पड़ता है!*

*तृण पावों तले पड़ जाये,*

*हटते कभी किसी ने देखा है??*

*गुलाब की झड़ी पँखुड़ियों को*

*पाव लते पिसते सबने देखा है।*

*नहीं कभी अवरोध का प्रतिरोध*

*वे करते- ऐसा नहीं देखा हैं?*

*तृण में प्राण-शक्ति नगण्य चेतना*

*आक्रमण सारे झेल वे सह जाते हैं।*

*यथेष्ट सहनशीलता संचित कर,*

*सत्य-पथ का सात्विक पथिक,*

*सक्षम निर्देशक बन जाते हैं!!* 

*‘सर्वजन हिताय-सर्वजन सुखाय’ का,*

*शुभ्र परिवेष सृष्ट करते हैं!*

*सर्वथा हरि-चिंतन, सत्संग,*

*सामूहिक कीर्तन कर मानव मुक्त होता है!!*

*कोरोना ऐसे असंख्य शत्रुओं का*

*सात्विक भक्त हीं अंत करता है।।*

*यह लधुकथा का कह*

*सुधिजनों का आह्वान करते हैं।।।*

 

*डॉ. कवि कुमार निर्मल*

*बेतिया (बिहार)*


 

 



 



*शिक्षा/शिक्षक वही जो राष्ट्र पर गौरव करना सिखाए*






 

  *शिक्षा/शिक्षक वही जो राष्ट्र पर गौरव करना सिखाए*

 

आखिर शिक्षा क्या है?

क्या शिक्षा का अर्थ केवल विद्यालय जाना है?

या असली शिक्षा का अर्थ, मस्तक के बंद द्वार खोलना है!

क्या शिक्षा का अर्थ केवल पैसों के बदले ज्ञान देना है?

या शिक्षा का अर्थ, विद्यार्थियों में छिपी भावनाओं को व्यक्त करना है!

आखिर शिक्षा क्या है?

 

 

*शिक्षा वही हो जो राष्ट्र पर गौरव करना सिखाए*

शिक्षा वही हो जो कीचड़ में भी कमल खिलाना सिखाए!

असली गुरु कौन है? असली शिक्षा क्या हुई?

क्या कलयुग में ऐसा कोई नहीं जो ये राज यह भेद हमें बताएं?

 

शिक्षा अब बट चुकी है दो हिस्सों में, एक सतयुग की और एक कलयुग की,

अब तो बस पैसों का बोलबाला है,जहां जितना दाम काम उतना ही निराला है!

पढ़ाया जाता है टारगेट देकर अब!पढ़ाया जाता है केवल नौकरी का झांसा देकर अब!

मूल सिद्धांत और सतयुग जैसी शक्ति इस कलयुग की विद्या में अब कहां?

प्रश्न अब भी वही है,आखिर शिक्षा क्या है?

 

शिक्षित व्यक्ति वह नहीं जो केवल सूट-बूट संग सजे,

शिक्षित व्यक्ति केवल वह नहीं जो शान बान से मोटर गाड़ी में चले!

असली शिक्षित व्यक्ति वह होना चाहिए, जो राष्ट्र का सम्मान बढ़ाए!

असली शिक्षित व्यक्ति वह होना चाहिए जो देश और मातृभूमि के लिए दुश्मन का सर बली चढ़ाए!

 

आखिर शिक्षा क्या है?

क्या है आखिर असली शिक्षा??

यह बात शायद जब तक समझ आती है,

तब तक मनुष्य के जीवन विद्यार्थी में बड़ी देर हो जाती है।

कृपया अपने बच्चों को अभी से सिखाएं,

उनके मन में केवल नौकरी नहीं,देशभक्ति की भावना जगाए!!

 

तभी मिलेगी असली शिक्षा तभी मिलेंगे असली गुरु,

देर अभी भी नहीं हुई है वक्त अभी भी नहीं बीता है,

आइए हम सब मिलकर अपने बच्चों को असली शिक्षा दिलाएं,

आइए हम सब मिलकर देश को आगे बढ़ाएं,

आइए हम सब मिलकर इस सवाल की गुत्थी को सुलझाएं,

आखिर शिक्षा क्या है, आइए मिलकर सभी को बताएं,

असली शिक्षा वही जो राष्ट्र का गौरव बढ़ाएं, असली शिक्षा वही जो देश का सम्मान बढ़ाएं, असली शिक्षा वही जो देश को कम नहीं समझे, असली शिक्षा वही जो देश को गौरान्वित कर दे!!

 

जय हिन्द।

 

किरन खत्री,उदयपुर

राजस्थान


 

 



 



श्री देशना प्रतियोगिता परिणाम 

श्री देशना प्रतियोगिता परिणाम 


1 .  मेघना सिंघल नोएडा 


2. रवि शुक्ल सूरत 


3. विन्धय सुमन  तुमकुर 


प्रोत्साहन पुरस्कार  


1. डॉ  नीना छिब्बर जोधपुर 


2. शकुंतला अग्रवाल जय पुर 


3. सारिका भूषण  रांची 


4. मंजू गुप्ता  नवी मुंबई 


5. ज्ञानेश कुमार मिश्र  अजमेर 


6. डॉ सरोज गुप्ता सागर 


7. प्रीति शर्मा असीम नालागढ़ 


8. विक्रम कुमार वैशाली 


9. गरिमा खंडेलवाल उदयपुर 


10. स्वाति ग्रोवर दिल्ली


11. रूबी प्रसाद सिलीगुड़ी 


12. मृणाल आशुतोष एरौत 


13. वर्षा शर्मा दिल्ली 


14. दिवाकर पांडेय जलालपुर 


15. मनोरमा जैन मेअसं हगाँव 


16. कमल सिंह सोलंकी रतलाम 


17. शोभा रानी गोयल सांगानेर 


18. प्रेरणा गुप्ता कानपूर 


19. अनूपा हरबोला असम 


20. राहिला अस्फां खान शिवपुरी


21. सतीश चंद्र मिश्र कोबरा 


22. डॉ लता अग्रवाल भोपाल 


23. कुमार गौरव शाहपुर 


24. ऋचा वर्मा पटना 


25. सत्य शर्मा कीर्ति रांची 


26. इंद्र भंसाली जयपुर 


27. संजय कुमार अविनाश लखीसराय 


28. शिवानी शर्मा जयपुर 


२९. अलका जैन मुम्बई 


३०.लक्ष्मी मित्तल दिल्ली 


31.सीमा वर्मा लुधियाना 


32.मधु जैन जबलपुर 


33.दीपाली ठाकुर रायपुर 


 


 


प्रतियोगिता


वर्मा आन्टी


वर्मा आन्टी


रमा भाटी

साल भर पहले की बात है मैं बाजार से घर पहुंची तो मेरे सामने वाले फ्लेट से मिली जुली आवाजें आ रही थी, कभी सिसकने ने कभी गिड़गिड़ाने की और कभी किसी आदमी की ऊंची आवाज़ बहुत अजीब लगा क्या करूं,मैं अपने फ्लैट में चली गई आवाजें अभी भी आ रही थीं।अचानक जोर से दरवाजा खुला और कोई जल्दी-जल्दी नीचे सीढ़ियों से उतर गया, मैंने धीरे से दरवाजा खोला और पड़ोस के फ्लैट में गई।वहां मैं पहली बार गई थी क्योंकि नौकरी की वजह से सारा दिन बाहर रहती हूं।मैंने वहां एक बुजुर्ग आंटी को देखा कि वह धीरे-धीरे सिसक रही थी मैंने डरते हुए उनके कंधे पर हाथ रखा तो वह घबरा कर चौक गई,मैंने उन्हें बताया मैं पड़ोस में ही रहती हूं और फिर उन्हें पहले पानी पिलाया।वर्मा आंटी ने बड़े प्यार से मुझे देखा और अपने पास बिठाया,तो मैंने पूछा आपको क्या हुआ कौन था जो गुस्से से बाहर गया है।तो उन्होंने सिसकते हुए बताया उनका बेटा है, जो कि बात बात पर गुस्सा हो जाता है और अपनी मनमानी करता है।




असल मैं उसके पिता की असमय मृत्यु हो गई थी, तो मैंने आगे पढ़ाई करके अध्यापिका की नौकरी करते हुए बहुत मुश्किलों से इसे पाला है।मेरे साथ कोई बड़ा बुजुर्ग भी नहीं था कि मुझे सहारा मिलता। रिटायरमेंट के बाद तबीयत भी ज्यादा साथ नहीं देती। बेटा है कि मेरे प्यार और ममता का फायदा उठाता है, जिद पर अड़ा है कि मैं फ्लैट भेज दूं और उसे विदेश पढ़ने के लिए भेजुं। मैंने पूछा कि फिर मैं कहां जाऊं तो बोला आप अकेली क्या करेंगी, आप वृद्ध आश्रम में आराम से रहना वहां आप जैसी और भी वृद्धा होंगी, मेरा तो यह सुनकर मन ही बुझ गया जिस बेटे के लिए मैंने अपनी जिंदगी की सारी खुशियां कुर्बान कर दी उसकी यह सोच है मेरे लिए। जबकि इस वक्त मुझे उसकी ज्यादा जरूरत है और आंटी फिर धीरे-धीरे रोने लगी मैंने उन्हें किसी तरह थोड़ा समझाया और अपना फोन नंबर उनको दे दिया। उनकी आयु 64 की होगी और वह 70 के करीब लग रही थी हम दोनों के बीच कुछ देर वार्तालाप हुई हालातों से कैसे निकलना है। आंटी मुझे सुलझी हुई औरत लगी मैंने कहा आप अपनी मित्रता बढ़ायें आपका मन भी बहलेगा और जरूरत पड़ने पर एनजीओ से भी सहायता ले सकते हैं और अगर बेटा ज्यादा ही तंग करे तो पुलिस से भी मदद ली जा सकती है। सिर्फ बेटे को डराने के लिए मैं हैरान थी की वर्मा आंटी को इन बातों की जानकारी थी लेकिन मां की ममता आड़े आ रही थी मैं कुछ देर बैठ वापस आ गई।


अगले दिन ऑफिस जाते समय सुबह उन्हें बालकोनी में देखा नमस्ते करी आंटी ने भी प्यार से मुस्कुराते हुए मुझे देखा जैसे आशीर्वाद दे रही हो। धीरे-धीरे हम दोनों की फोन पर भी बात होने लगी और वह भी रोज सामने बाग में जाने लगी। इसी तरह उनकी कुछ सहेलियां बन गई, अच्छा लगता उनमें आत्मविश्वास जाग रहा था। अब उनकी सहेलियां भी कभी-कभी उनके घर आती, उनमें से उनकी एक मित्र के पति पुलिस में थे उन्होंने कहा कभी भी मदद की जरूरत हो तो बताइए। अब मैंने महसूस किया  की उनके घर से आंटी की ही कड़क दार आवाज आती थी।अब वह अपने बेटे को सख्ती से समझाती अगर विदेश पढ़ने का शौक है तो अच्छे नंबर लाओ, मेहनत करो और फिर पैसा कमाओ तब तुम्हें एहसास होगा कि पैसा कितनी मेहनत से कमाया जाता है,फिर तुम्हारी इच्छा कि कहीं भी जा कर पढ़ाई करो।मैं यह फ्लैट नहीं बेचुंंगी ना ही अब फालतू खर्च के लिए पैसा दूंगी।




हां अगर तुम ढंग से मेरे साथ रहना चाहते हो तो मुझे खुशी होगी, अब उनके बेटे को भी समझ आने लगी कि मां बेबस और लाचार नहीं है। मैं ही गलत था कि जिस मां ने मुझे इतना प्यार दिया उसे ही इस आयु में वृद्धाश्रम में जाने के लिए कह रहा था,कि मैं अपने सपने पूरे कर सकूं यही सोचते-सोचते वह सो गया। अगली सुबह आंटी उसके लिए चाय का प्याला लेकर कमरे में गई तो वह उठकर मां को अपने पास बिठाकर रोते-रोते माफी मांगने लगा ।तो आंटी ने उसके बालों पर हाथ फेरा और कहा बेटा मैं तुम्हारी हर बात मानती थी कि तुम्हें कभी अपने पापा की कमी महसूस ना हो और अपनी जिंदगी सिर्फ तुम्हारे इर्द-गिर्द की बना ली और तुमने इसे मेरी कमजोरी समझा जो कि गलत सोच थी, मैं अभी इतनी वृद्ध भी नहीं हूं कि अपनी देखभाल ना कर सकूं, बुजुर्ग होती मां की भावनाओं को तुम्हें समझना चाहिए। आशा है बेटा तुम्हें मेरी बात समझ आ गई होगी और इस तरह वर्मा आंटी  को जीने की नई दिशा मिल गई।




रमा भाटी


 



 

नव विकास पथ चलना होगा,












 

 

 

स्पर्धा बिन कौशल कैसा,
मेहनत के बिन प्रतिफल कैसा,
बिना चुनौती हार नहीं है,
बिना परीक्षण के हल कैसा।

इसका हक उसको दे देना,
बहुत चला, अब और चले ना,
अब समदृष्टा बनना होगा,
सूर हाथ का नहीं चबेना,

कुछ पर कृपा, कोप बहुतों पर,
खड़ग चल रहा है हाथों पर,
तुष्टीकरण रेवड़ी फ्री की,
हावी आम सवालातों पर,

विश्व गुरू यदि बनना होगा,
प्रतिभा पूजन करना होगा,
स्वस्थ स्पर्धा के द्वारा ही,
नव विकास पथ चलना होगा,

काम चले ना पाँच गाँव से,
क्या बहलाना हमें छाँव से,
अब महाभारत लड़ना होगा,
भय पिक को क्या काँव काँव से,

समरसता ही प्रजातंत्र है,
प्रतिभा केवल मूल यंत्र है,
सामाजिक शांति का केवल,
समतावादी मूल मंत्र है।

🙏 ज्ञानेश कुमार मिश्र  

 

 



 



 




 



















 








आने वाला पल

आने वाला पल

 

 

समय की अंगुली पकड़ 

कर रहा मंज़िल का सफर 

लड़खड़ाते  हुए दौड़ता 

मुझे संभाले आने वाला पल 

 

आशाएं हम लगाए 

बुझेगी दिल की प्यास 

आने वाला पल पाए 

सफलता प्रथम प्रयास

 

हर पल जीवन का नया 

लाए नई जीवन आस

उम्मीद आने वाले पल से 

लाए प्रकाश और उल्लास

 

 तूफान में हो जिंदगी अगर

साहिल बने आने वाला पल

गुजरने को बेताब मगर 

मसरूफियत में मचलते पल 

 

वक्त के तकाजो की समझ 

बुन रही हूं एक एक पल 

बन सवर के मै तैयार 

मिलने को आने वाला पल 

 

 🌹गरिमा खंडेलवाल🌹

             उदयपुर 

उलझनों के झूले






उलझनों के झूले

 

 

उलझनों के बीच भी मुस्कुराती हैं। 

 

अपने दर्द को दो घड़ी भूल जाती है।

 

 

 जिंदगी  हर त्यौहार को ,

 

हर हाल में उदास होकर भी, 

 

खुशियों के झूले पर झूल जाती है।

 

 

उलझनों के बीच भी मुस्कुराती हैं।

 

अपने दर्द को दो घड़ी भूल जाती है ।

 

 

जिंदगी हर दिन ,

 

नयी लड़ाई के लिए तैयार हो जाती है ।

 

 

रोते हुए भी मुस्कुरा कर,

 

 सब ठीक है.......!!!!

 

 यह बात कह जाती है ।

 

 

उलझनों के बीच भी मुस्कुराती हैं। 

 

अपने दर्द को दो घड़ी भूल जाती है ।

 

 

जिंदगी में झूले ही ,

 

नहीं मिलते हर पल ।

 

रस्सियों पर झूलती ।

 

जिंदगी भी ,

 

अपनी बात कह जाती है।

 

 

खुशियां कीमतों से ही नहीं खरीदी जाती ।

 

 मुस्कुराने के लिए हर दर्द से उभरकर ,

 

जिंदगी हर बात कर जाती है।

 

प्रीति शर्मा असीम नालागढ़ हिमाचल प्रदेश


 

 




 

 



 



 



प्रेम-लगन

   
प्रेम-लगन

 

नीना महाजन 

 

                   आज फिर उसने हल्के नीले रंग की साड़ी पहनी हुई थी , मैं जब भी उसे देखती वह हल्के नीले रंग की साड़ी , सूट या चूड़ीदार में ही मुझे दिखती ।

                      बड़ी-बड़ी आंखें , सुतवा नाक , पंखुड़ी से होंठ और रंग ऐसा मानो किसी ने दूध में हल्का सी गुलाबी गुलाल घोल दिया हो , सुंदरता और नजाकत के ढांचे में ढली उस लड़की को मैं रोज देखती।  

                   प्रतिदिन सुबह वो एक ही समय पर जाती , जब उसके जाने का समय होता , ना चाहते हुए भी मैं उत्सुकता वश खिड़की के पास रखी कुर्सी पर अपनी चाय का कप लेकर बैठ जाती थी और जब तक वो आंखों से ओझल ना हो जाती उसे दूर तक निहारती रहती , ना जाने क्या कशिश थी उसमें..

             मैं उससे बात करना चाहती थी , उसे अपने पास भी बिठाना चाहती थी क्योंकि उसमें मुझे अपनी कोमल की झलक दिखती थी , कोमल मेरी बेटी..जो शादी के बाद अमेरिका जाकर अपने पति और बच्चों में ऐसी रम गई कि 7 वर्ष हो गए थे पर वो यहां हम से मिलने आने का समय ना निकाल पाई थी ।

                  उस नीली साड़ी वाली लड़की को मैं कोई नाम देना चाहती थी ताकि मैं उसके बारे में जब भी सोचूं एक पहचान सी हो ।

                 कोमल की एक बड़ी सुंदर प्यारी सी दोस्त थी नीलिमा ' हां ,   कुछ और नहीं , यही नाम ठीक है क्योंकि इसे नीला रंग ही पसंद है आज से मैं इसका नाम नीलिमा ही रख देती हूं .. अब इसके बारे में बात करने में , सोचने में आसानी रहेगी ।

                      एक अलग सी शालीनता थी नीलिमा के मुख पर '  किसी से ज्यादा बोलती नहीं थी , उसे किसी से सरोकार ना था पर मैं उससे बात करना चाहती थी...उससे बोलना चाहती 

थी ,  उसके बारे में सब जानना चाहती थी क्योंकि वह जब भी अपने घर से जाती थी या आती थी , अपनी  नजरें नीचे किए ही निकल जाती थी ।

                     आज मेरी उससे मिलने की इच्छा भी पूरी होने वाली थी , अभी-अभी उसके फ्लैट के दरवाजे पर डाकिया एक पत्र अटका कर चला गया था , मैंनें  उस पत्र  को दरवाजे से जल्दी से उठा लिया और मन ही मन मुस्कुरा उठी , यही देने के बहाने उसके घर हो आऊंगी ।

                चार बजे के करीब नीलिमा घर आई तो कुछ ही देर बाद मैंने उसका दरवाजा खटखटा दिया , हल्की सी मुस्कुराहट से उसने मुझे नमस्ते बोली और पत्र हाथ में लेकर  अनौपचारिक रूप से मुझे अंदर आने का निमंत्रण दिया जो मैं चाहती ही थी कुछ देर बैठे , कुछ जान पहचान हुई और मैं भी उसे अपने घर आने का न्योता देकर घर वापस आ गई 

                      आज उसके बारे में कुछ ज्यादा नहीं जान पाई थी , बस यह पता चला कि उसका नाम अवनी है ।

                  दो दिन से अवनी मुझे दिखाई नहीं दे रही थी तो सोचा इंटरकॉम से फोन करके ही पता कर लेती हूं , फोन किया तो फोन पर उसकी आवाज बहुत धीमी और रूआंसी सी सुनाई दी ,  फोन रख मैं तुरंत ही उसके घर की ओर चल दी ।

                      अवनी पतझड़ में पड़े पीले पत्ते की तरह अपने चेहरे के पीलेपन को दबाने की कोशिश कर रही थी...

                   कोमल की तरह ही अवनी को अपनी बेटी सा मानकर मैंने  अपने सीने से लगा लिया और सिर पर हाथ फेर कर पूछा , क्या हुआ अवनी.. बीमार हो क्या ' 

          मेरे सहानुभूति के दो शब्दों से ही उसके अंदर जमा  दुख रुदन बन बाहर निकल आया , मुझे अवनी से हमदर्दी होने लगी इधर अवनी को भी शायद एक हमदर्द मिल गया था जिससे वह अपनी तकलीफ बांट सकने की संभावना तलाश रही थी ।

                             अजीब खालीपन लिए वो मेरे पास बैठी थी उसकी आवाज भारी हो रही थी , आंखें भर आई थी। आत्मीयता की ऊष्मा पाकर वह शायद अपनी खामोशी , आधी अधूरी अकेलेपन से भरी जिंदगी के दर्द मुझसे बांटना चाहती थी 

                           जीवन के तमाम उतार-चढ़ाव के बीच वह किस तरह सामंजस्य बना कर चल रही है , शायद यही सोचकर उसके मन का सैलाब बहने लगा ।

                       स्नेह के स्पर्श से अभिभूत अवनी  धीमे-धीमे  रूंधे गले से मुझे बताने लगी , आज से 2 वर्ष पूर्व आज ही के दिन एक कार एक्सीडेंट में मेरा आकाश मुझे छोड़ कर ,इस दुनिया को छोड़ कर चिरनिद्रा में सो गया था….

            अवनी की पलकें लगातार छलक रही थी , उसके दुख की इंतहा सामने थी ।

                       मुझसे अपनेपन का स्पर्श पाकर धीरे-धीरे अवनी अपने अतीत को खोलने लगी... कितना डरावना होता है न '  '' है " का " था " हो जाना , कभी सोचा भी ना था कि एक दिन ऐसा भी आएगा , जब सब कुछ होगा पर मेरा आकाश मेरे साथ नहीं होगा ।

                              खुद के इर्द-गिर्द उसने लोहे की जो मजबूत चादर लपेट रखी थी , वह धीरे धीरे उतर रही थी... 

             आकाश और मेरा पहली बार मिलना बस एक संजोग ही था और जब हम मिले तो किसी फिल्म की तरह पहली नजर में प्यार वाले एहसास की अनुभूति हुई , सर्दी के चढ़ते सूरज की तरह उसने मुझे अपनी और खींच लिया था ।

                    आकाश का गोरा चिट्टा रंग , सरल पर आकर्षक व्यक्तित्व , ऊंचा लंबा गठीला शरीर था ठीक वैसे ही जैसे कोई सुंदर ग्रीक देवता हो ।

                  बिना कहे ही हमें एक दूसरे से  प्यार हो गया था निश्चल और निष्कपट प्यार , उसके प्यार के इजहार का बेहतरीन तरीका था भावों द्वारा प्यार की अभिव्यक्ति ।

                         हमारा मिलना लगभग रोज ही होता था , दो दिन ना मिल पाते तो मिलने का कोई ना कोई अवसर ढूंढ ही लेते , फिल्में देखने का शौक भी हम दोनों को ही था , कॉलेज के बाद हम दोनों अक्सर बाहर मिलते थे , दोनों को ही प्रकृति से प्यार था तो घंटों गार्डन की चहल-कदमी किया करते ।

              हम दोनों एक जैसे पागल थे , हरकतें बच्चों जैसी , पसंद नापसंद एक सी , सब्जी खाने से लेकर पहनने-घूमने फिल्में देखने का शौक एक सा , हमारी मस्ती बिंदासपन एक सा... 

              प्रेम में डूबे हम चले जा रहे थे…

                         मैं खुश... बहुत खुश थी कि वो मेरे लिए इतना समय निकालता है , मेरा बहुत ध्यान रखता है पर जहां उसे मुझमें लापरवाही दिखती ,  डांट भी  देता था ।

          मुझे वो हर तरह से अच्छा लगता था.. 

                   उसके आते ही वसंत ऋतु के फूलों की तरह मेरा मन भी खिल उठता था , तेज धूप की दोपहर में छाया देते घने पेड़ की तरह था मेरा आकाश , वह मेरी जिंदगी बन चुका था ।

             अब हम दोनों शादी करके अपना घर बसाना चाहते थे 

                    अवनी ,,, आज चलो .. तुम्हें मां से मिलवा कर लाता हूं , आज उनका जन्मदिन है , उन्हें शुभकामनाएं और तोहफा देकर रिटर्न गिफ्ट में अपनी शादी की हां करवा लेंगे.. हंसते हुए आकाश ने कहा

                          साकेत के मॉल से हमने मां के लिए एक नीले रंग की सिल्क की साड़ी खरीदी , हां... यही रंग..  बहुत पसंद था उसे , साड़ी लेकर हम लोग मां से मिलने के लिए निकल पड़े ।

                         धीमे-धीमे स्वर में बज रहे रोमांटिक गीतों का आनंद उठाते , गुनगुनाते हुए हम चले जा रहे थे कि अचानक ही सामने से गलत दिशा में तेज गति से एक ऑटो आ गया ,  ऑटो से बचते बचाते हुए कार बगल के डिवाइडर से  टक्कर खा गई और उसके बाद क्या हुआ पता नहीं

                           जब होश आया तो मैं अस्पताल में थी, ज्यादा नहीं.. मुझे बस कुछ हल्की चोटें लगीं थी,  प्राथमिक उपचार के बाद मुझे छुट्टी दे दी गई ,  मैंने आकाश के बारे में पूछा तो पता चला कि वह आईसीयू में है , उसके सिर में चोट लगी थी। 

     उसके परिवार वाले भी आ चुके थे ।

                         सारी रात कब बीती ' अस्पताल के उस बेंच पर , बैठे- बैठे पता ही ना चला ।

                     बस इंतजार था कि अब जल्दी से आकाश के होश में आने की खबर सुनूं  

            भयभीत सी थी मैं आकाश के लिए ' पता नहीं , क्या होगा 

         दिल बैठा जा रहा था... 

           सामने से  डॉक्टर आते हुए दिखाई दिए , हां…. उस डॉक्टर ने यही कहा…. वो नहीं बचा…. मैं सुन्न पड़ गई , मैं टूट गई... ऐसा लगा एक पल में मेरी दुनिया उजड़ गई ..

            सब कुछ थम गया... 

                      आकाश के शरीर में अब कोई हलचल नहीं हो रही थी , कभी ना चुप रहने वाला आकाश एक बेजान पुतले की तरह पड़ा  हुआ था आकाश की ऐसी हालत मुझसे देखी नहीं जा रही थी ..

         मैं घुटनों के बल गिरने लगी शरीर की सारी ताकत जैसे बाहर निकल गई , डॉक्टर ने मुझे संभाला और आकाश के पास बिठा दिया... 

                        मेरे शरीर में पसीने का प्रवाह अत्यंत ही प्रबल हो गया था , मैंने उसका हाथ थाम लिया.. मैं अपने आंसुओं को नहीं रोक पा रही थी... 

                 मैंने उसके माथे को स्पर्श किया और कहने लगी … तुम तो हमें  मां से मिलाने ले जा रहे थे और अब तुम ही देर कर रहे हो... उसका हाथ अपने हाथों में लेकर मैं चुप हो गई और उसका सिर सहलाने लगी

                            ऐसा लगता था वो व्याकुलता से मेरी ही ओर देख रहा था मानो कह रहा हो , मुझे बचा लो अवनी..  मुझे रोक लो अवनी... मैं तुम्हें छोड़कर नहीं जाना चाहता.. 

          उसकी अंतिम मंद गति से चलती सांसो में भी कितना भार होगा यह सिर्फ मैं जानती थी ऐसा लगता था अंत तक उसकी आंखें एकटक कमरे की छत को निहार रही थी 

                वो इतना... इतना दूर हो गया था मुझसे कि मुझे सुन नहीं पा रहा था और ऐसा लग रहा था कि मेरा दिल भी उसके दिल के साथ कहीं दूर चला गया है तभी तो मैं उसकी धड़कन महसूस नहीं कर पा रही थी ।

                          अब मैं जान चुकी थी कि यह सत्य है कि आकाश और अवनी का मिलन कभी नहीं हो सकता... 

         यह तो मुझे उसी दिन समझ लेना चाहिए था जब उसने मुझसे अपने जीवन के कैनवस में रंग भरने की अनुमति मांगी थी। 

            क्या-...क्या सपने देखे थे हम दोनों ने मिलकर… 

      उसका चले जाना ऐसा था जैसे आसमान में खूब ऊंचे उड़ते पंछी के पंख टूट जाना , अब वह पंछी अपने आप को कैसे संभाले... कैसे जमीन पर उतरे...

                 आज दो वर्ष हो गए आकाश को मुझ से बिछड़े हुए पर एक अहसास आज भी जिंदा है .. जो उसके होने का अहसास मुझे बार-बार दिलाता है और वह है उसके लिए मेरा प्यार... वो प्यार आज तक नहीं मरा जो प्यार हम दोनों के बीच में था ।

                      हम दोनों एक ही आत्मा के दो हिस्से थे.. 

             मेरे अंदर आकाश बसा हुआ है , अभी भी पूरा का पूरा... जिसे मैं हर सांस के साथ महसूस करती हूं आज भी हर पल , हर वक्त उसकी प्यारी मुस्कान , चेहरे की सादगी , उसके साथ गुजारे हुए पल मुझे अंदर तक कचोटते रहते हैं ।

          पलके बंद कर जब भी मैं नींद की गहराइयों में जाने लगती हूं आकाश का चेहरा अक्सर सपने में अक्स बनकर उभरने लगता है , मैं तड़प कर उसकी बाहें ढूंढने लगती हूं... पर….पर शून्य पाकर….  जी करता है... उसे ढूंढ कर उसके सीने से लग कर रो लूं 

        ऐसा लगता है जैसे आज भी वो मेरे साथ है 

                        रात में , दिन में... आज भी मैं वैसे ही उसके उस फोन का इंतजार करती हूं जब वह प्यार में डूबा कहा करता था.. आ जाओ न.. यार... तुम्हारे बिना मन नहीं लगता 

               इधर तुम पुकारते थे और मैं भी भागी भागी चली आती थी तुम्हारे पास 

                    लेकिन मेरा ये इंतजार अब इंतजार ही रह जाता है……

                  फिर मैं उसी स्थान पर जाकर सड़क किनारे बैठ जाती हूं जिस राह पर अंतिम बार हम दोनों एक साथ जा रहे थे , जहां से आकाश ने मेरा साथ सदा के लिए छोड़ दिया था... 

        पर क्या हम सच में अलग-अलग हो पाए..

                            आंखें तो आकाश को आज भी वहीं तलाशती हैं , उसकी बाट देखती हैं ...वहीं उसी सड़क पर ... 

           और सच में …. वहां आकाश मेरे पास आकर बैठता भी है ,  मैं उसे महसूस करती हूं ,  उससे बातें भी करती हूं लेकिन फिर वो चला जाता है , मैं उसे पुकारती हूं परंतु वो नहीं रुकता..

                      एकाएक ऐसे लगता है कि भीड़भाड़ वाले मेले में मैं सबसे बिछड़कर अकेली हो गई हूं , जिस हाथ को पकड़े मैं चल रही थी वह छूट गया है 

            मैं बहुत जोर से रोने लगती हूं पर जानती हूं मेरी आवाज़ किसी को सुनाई नहीं दे रही होगी ... 

                         नहीं,,.... नहीं वो शाम हमारी मुलाकात की आखिरी शाम नहीं थी , आकाश आज भी मेरे साथ है , आस पास ही है , आज भी मैं उसे इन हवाओं में हर क्षण महसूस करती हूं.. 

            जानती हूं  वो भी मुझे हर पल देख रहा है इसीलिए तो आज भी मैं उसके मनपसंद नीले रंग के ही कपड़े पहनती हूं , मेरे हर परिधान का रंग नीला है , उसका पसंदीदा रंग ही मेरी पसंद बन गया है 

                         मेरे भीतर-बाहर उसकी खुशबू आज भी वैसे ही... उसी तरह महक रही है . 

                 आज भी बरसते बादलों की फुहार से भीगी जमीन की खुशबु मुझे उसके साथ बिताए हर लम्हों की याद दिलाती है आज भी  याद बनकर हल पल वो  मेरे साथ है , मैं तो अक्सर ख्वाबों में भी उससे बातें किया करती हूं उसकी आवाज सांकल सी बजती है आज भी मेरे अंदर.. 

                             आकाश का इंतजार मेरे लिए लंबा ही सही...

                         एकाएक अवनी चुप हो गई  शायद वह भ्रम में से यथार्थ में आ गई थी जिस भ्रम को साकार करना चाहती थी वही अधूरा ख्वाब टूट गया , आंसू पोंछ कर वह पत्थर सी बन बैठी  थी..

                               शायद अपने सवालों के जवाब खुद ही तलाश कर लिए थे , अवनी ने '

               हां.. जितने भी दर्द मिलते हैं मिल जाए आकाश हमेशा से मेरे लिए अनमोल रहा है , समाज हमारे इस अलौकिक रिश्ते को  स्वीकार ना करे पर वो मेरे साथ हमेशा ही रहेगा , हमारी पवित्र दोस्ती एक रिश्ते में बदल चुकी है जिसे मैं आकाश के जाने के बाद भी बिखरने ना दूंगी... 

                     आज तक आकाश ने मुझे बांधा हुआ है अपनी यादों से , उन पलों से.. जिन से मैं स्वयं भी  मुक्त होना नहीं चाहती ,

              यह सच है सबकी जिंदगी में एक ऐसा वक्त जरूर आता है जिसे हम वापिस जीना चाहते हैं , मेरा तो वह वक्त आकाश से ही शुरु होता है और आकाश पर ही खत्म होता है , उस वक्त को ही मैं वापिस जीना चाहती हूं ,,, हर बार लगातार...

                    हमेशा लगता है  हम दोनों के , उन पलों की कोई कैसेट होती तो मैं उसे रिवर्स करके सदैव चलाती रहती

                     पर मेरे पास तो  रह गई , कभी न भर पाने वाली आकाश की कमी….. 

             मुझे तलाश कर आकाश ना जाने कहां चला गया...

                रोज रात समंदर दिल में समेटे , आंखों में तूफ़ान उठता है पर छोरों से टकराकर कहीं वापिस लौट जाता है ।

      भले ही शरीर ना हो , रूहानी रूप से मेरा आकाश आज भी मेरे पास ही है.. 

             उसे कैसे अलविदा कह दूं…

    भीगी आंखों से अवनी मुझे देख रही थी..

                         अवनी की कहानी मेरे अंतर्मन को छू गई थी , मैं पूछना चाह कर भी ना पूछ पाई तुम सारी जिंदगी उसकी यादों के सहारे कैसे काट पाओगी..अवनी..

         ... मैं जानती थी उसका जवाब यहीं होगा 

       दिल की हर धड़कन में 

गूंज तुम्हारे प्यार की आती है 

                 तेरे बिना जीना नहीं 

                यह माना था मैंने पर

 तेरे बिना पड़ेगा जीना 

 ये जाना न था मैंने  

           डायरी में रह गए जो पन्ने खाली 

          लिखने अकेले ही है मैंने...

                      

                                शायद यही सच्चा प्यार है , अवनी और आकाश का... जो आकाश के जाने  के बाद भी अवनी में बरकारार है…

 

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