गजल

 

 

मौसम कितना सर्द हमें मालूम नहीं ।

है कितना बेदर्द हमें मालूम नहीं।

आज सियासत तोडे अबला का आंगन, 

खुद को कहते मर्द हमें मालूम नहीं।

 सच सुनने की आदत तनिक नहीं मन में।

 बन बैठे ख़ुदगर्ज हमें मालूम नहीं।

 राष्ट्रवाद की बातें तो करना सीखो।

भूल गये हो फर्ज हमें मालूम नहीं।

जिनके मन अलगाववाद की चिंगारी।

चल रहे उसी ही तर्ज हमें मालूम नहीं ।

मत तोडो आपस के भाईचारे को।

रहा पुराना मर्ज हमें मालूम नहीं।

देख रही है दुनियां खेल तमासे को।

 हो गई शिकायत दर्ज हमें मालूम नहीं।

छोडो अब बचकानी छोटी बातों को।

लद गया जहां का कर्ज हमें मालूम नहीं।

दिले दास्ताँ किसको हरि सुनाये अब।

नीयत गई है लर्ज हमें मालूम नहीं।।

 

हरीश चंद्र हरि नगर