हिंदी : क्यों नही बन पाई ललाट बिंदी






हिंदी : क्यों नही बन पाई ललाट बिंदी

 

 

निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।

बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।।

 

हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा या यूं कहें कि राजभाषा है जिसे अधिकारिक भाषा भी कहा जाता है। आधिकारिक भाषा मतलब यह  कि राजकीय कार्यालयों की भाषा अर्थात  संवैधानिक रूप से हिंदी सिर्फ राजकीय कार्य की भाषा है, राष्ट्रभाषा नहीं। हालांकि जनमानस में यह राष्ट्रभाषा के रूप में विराजमान है क्योंकि आम भारतीय आज भी हिंदी को भी राष्ट्रभाषा मानता है। यह हिंदी के प्रति जन सामान्य का प्रेम और सम्मान ही है। हिंदी विश्व  की चौथी प्रमुख भाषा है जिसे देश के 70% लोग बोल और समझ सकते हैं । महात्मा गांधी कहते थे कि - " हिंदी भाषा का प्रश्न स्वराज्य का प्रश्न है । "  गौतम बुद्ध महावीर स्वामी, विवेकन्नद ,राजाराम मोहन राय,दयाननद सरस्वती से लेकर महात्मा गांधी तक ने अपने विचारों का प्रचार-प्रसार हिंदी में ही किया क्योंकि यही  एक मात्र जनता की भाषा थी जिसे अधिकाधिक लोग समझते थे। स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई  हिंदी भाषा के साथ ही लड़ी गई । हमारे बहुत से स्वतंत्रता सेनानियों, समाज सेवियों ने ने हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार में अपनी जान लड़ा दी थी।   हिंदी  - हिंदू-  हिंदुस्तान के नारे गली गली लगाए जाते रहे । हिंदी हैं हम वतन है हिंदुस्तान हमारा जैसे गीत हमारा सीन ऊंचा कर देते हैं लेकिन इतना सब होने के पश्चात भी हिंदी आज भी अपने वास्तविक गौरव पद को नहीं प्राप्त कर पाई है तो फिर कहीं ना कहीं मन में प्रश्न जरूर उठता है कि क्यों ?

आखिर क्यों ? हिंदी राष्ट्रभाषा नहीं बन पाए ? क्यों राजभाषा बन कर रह गई? क्यों यह अपने ही देश में अंग्रेजी से पिछड़ गई?  क्यों यह अपने ही देश में दोयम दर्जे की भाषा बन कर रह गई? जहाँ अंग्रेजी के लिए एक और हिंदी के लिए दो दबाना पड़ता है और क्यो हम हिंदी भाषी  नब्बे प्रतिशत लोग अपनी भाषा को छोड़ हस्ताक्षर अंग्रेजी में करना पसंद करते हैं ।  इन सब प्रश्नों के उत्तर ढूंढने के लिए जब हम इतिहास की गलियों में चक्कर लगाते हैं तो पाते हैं कि गैर हिंदी भाषी प्रदेशों का विरोध, उनका अपनी  क्षेत्रीय भाषाओं के प्रति  अतिशय प्रेम ,हठधर्मिता , निजी स्वार्थ व ऐक्य  की भावना का अभाव जैसे बहुत से कारण दिखाई देते हैं  । जिस  सब के चलते  हमारे संविधान निर्माताओं को लाख चाहते हुए भी हिंदी को राष्ट्रभाषा न  बनाकर राजभाषा बनाना पड़ा और जिस के फलस्वरूप  भाषा के आधार पर आंध्र प्रदेश का निर्माण हुआ लेकिन गैर हिंदी भाषी प्रदेशों के सर ठीकरा फोड़ हम अपने कर्तव्य की इतिश्री नहीं कर सकते क्योंकि और भी ऐसे बहुत से कारण हैं जिनके  लिए कोई और नहीं हम स्वयं ही उत्तरदाई है और  जिन  से हम  चाह कर भी आंखें नहीं मूंद सकते  क्योंकि हिंदी भाषी राज्यों में भी  हिंदी की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। जिसके लिए हम स्वयं सीधे तौर पर जिम्मेदार  हैं । जिनमे  प्रमुख कारण हैं   हिंदी बोलने में शर्म, हिचकिचाहट ।  मुख सुख भी इसके पीछे एक बड़ा कारण है जिसके चलते पढ़ा-लिखा अभिजात्य वर्ग भी हिंदी में न  बोलकर क्षेत्रीय  स्थानीय भाषा का प्रयोग ज्यादा करता है । दूसरा बड़ा कारण है अंग्रेजी के प्रति  प्रगाढ़ प्रेम  ।  आज अंग्रेजी बोलना और पढ़ना सम्मान का सूचक बन गया है । डॉक्टर फादर कामिल बुल्के ने कहा था- 

 " संस्कृत रानी, हिंदी गृहिणी और अंग्रेजी नौकरानी है " लेकिन आज हम हिंदी संतति की  उपेक्षा के चलते आज हिंदी नौकरानी और अंग्रेजी घर की मालकिन बन बैठी है। जो कि बहुत ही विचारणीय प्रश्न है । इसलिए आवश्यकता है कि हम हिंदी दिवस, हिंदी सप्ताह,  हिंदी पखवाड़ा मनाने के बजाय  अपनी स्वभाषा को तन मन से,  हृदय से अपनाए। हिंदी बोलने में सम्मान का अनुभव करें।  गर्व का अनुभव करें । हिंदी के प्रति यही हमारी सच्ची सेवा होगी। अंत में मैं इतना ही कहना चाहूंगी ---

 

मैं नहीं कहती कि अन्य भाषा मत सीखो,

 मैं नहीं कहती कि मातृभाषा मत बोलो,

 लेकिन ......

मैं चाहती हूं कि राष्ट्रभाषा मत भूलो।

 

 जिसके लिए देश भक्तों ने दिया बलिदान,

 जिसे लेखकों कवियों ने किया सहर्ष स्वीकार,

 कुछ और नहीं कर सकते तो..

 हिंदी बोलकर ही इसका करो विस्तार।

 

द्वारा ----

शबनम भारतिय, फ़तेहपुर शेखावाटी, सीकर,राजस्थान


 

 



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