भगवान कैसे दर्शन दे

      *भगवान कैसे दर्शन दे*

 

एक राजा था। वह बहुत न्याय प्रिय तथा प्रजा वत्सल एवं धार्मिक स्वभाव का

था। वह नित्य अपने इष्ट देव की बडी श्रद्धा से पूजा-पाठ और याद करता था।

 

एक दिन इष्ट देव ने प्रसन्न होकर उसे दर्शन दिये तथा कहा --

"राजन् मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हैं। बोलो तुम्हारी कोई इछा हॆ?"

 

प्रजा को चाहने वाला राजा बोला --

"भगवन् मेरे पास आपका दिया सब कुछ हैं ।आपकी कृपा से राज्य मे सब प्रकार सुख-शान्ति है । फिर भी मेरी एक ही ईच्छा हैं कि जैसे आपने मुझे दर्शन देकर धन्य किया, वैसे ही मेरी सारी प्रजा को भी कृपा कर दर्शन दीजिये।" 

 

"यह तो सम्भव नहीं है" -- ऐसा कहते हुए भगवान ने राजा को समझाया ।

परन्तु प्रजा को चाहने वाला राजा भगवान् से जिद्द् करने लगा ।

 

आखिर भगवान को अपने साधक के सामने झुकना पडा ओर वे बोले --

"ठीक है, कल अपनी सारी प्रजा को उस पहाड़ी के पास ले आना और

मैं पहाडी के ऊपर से सभी को दर्शन दूँगा ।"

 

ये सुन कर राजा अत्यन्त प्रसन्न हुअा और भगवान को धन्यवाद दिया । अगले दिन सारे नगर मे ढिंढोरा पिटवा दिया कि कल सभी पहाड़ के नीचे मेरे साथ पहुँचे, वहाँ भगवान् आप सबको दर्शन देगें। दूसरे दिन राजा अपने समस्त प्रजा और स्वजनों को साथ लेकर पहाडी की ओर चलने लगा।

 

चलते-चलते रास्ते मे एक स्थान पर तांबे कि सिक्कों का पहाड देखा। प्रजा में से कुछ एक लोग उस ओर भागने लगे । तभी ज्ञानी राजा ने सबको सर्तक किया कि कोई उस ओर ध्यान न दे,क्योकि तुम सब भगवान से मिलने जा रहे हो, इन तांबे के सिक्कों के पीछे अपने भाग्य को लात मत मारो ।

 

परन्तु लोभ-लालच मे वशीभूत प्रजा के कुछ एक लोग तो तांबे की सिक्कों वाली पहाड़ी की ओर भाग ही गयी और सिक्कों कि गठरी बनाकर अपने घर कि ओर चलने लगे। वे मन ही मन सोच रहे थे, पहले ये सिक्कों को समेट ले, भगवान से तो फिर कभी मिल ही लेगे ।

 

राजा खिन्न मन से आगे बढे । कुछ दूर चलने पर चांदी कि सिक्कों का चमचमाता पहाड़ दिखाई दिया । इस वार भी बचे हुये प्रजा में से कुछ लोग, उस ओर भागने लगे ओर चांदी के सिक्कों को गठरी बनाकर अपनी घर की ओर चलने लगे। उनके मन मे विचार चल रहा था कि ऐसा मौका बार-बार नहीं मिलता है । चांदी के इतने सारे सिक्के फिर मिले न मिले, भगवान तो फिर कभी मिल ही जायेगें. इसी प्रकार कुछ दूर और चलने पर सोने के सिक्कों का पहाड़ नजर आया।अब तो प्रजा जनो में बचे हुये सारे लोग तथा राजा के स्वजन भी उस ओर भागने लगे।

 

वे भी दूसरों की तरह सिक्कों कि गठरीयां लाद-लाद कर अपने-अपने घरों की

ओर चल दिये । अब केवल राजा ओर रानी ही शेष रह गये थे । राजा रानी से कहने लगे --

"देखो कितने लोभी ये लोग । भगवान से मिलने का महत्व ही नहीं जानते हैं। भगवान के सामने सारी दुनियां की दौलत क्या चीज हैं..?"

 

सही बात है -- रानी ने राजा कि बात का समर्थन किया और वह आगे बढने लगे कुछ दुर चलने पर राजा ओर रानी ने देखा कि सप्तरंगि आभा बिखरता हीरों का पहाड़ हैं । अब तो रानी से भी रहा नहीं गया, हीरों के आर्कषण से वह भी दौड पड़ी और हीरों कि गठरी बनाने लगी । फिर भी उसका मन नहीं भरा तो साड़ी के पल्लू मेँ भी बांधने लगी । वजन के कारण रानी के वस्त्र देह से अलग हो गये, परंतु हीरों का तृष्णा अभी भी नहीं मिटी। यह देख राजा को अत्यन्त ही ग्लानि ओर विरक्ति हुई । बड़े दुःखद मन से राजा अकेले ही आगे बढते गये ।

 

वहाँ सचमुच भगवान खड़े उसका इन्तजार कर रहे थे । राजा को देखते ही भगवान मुसकुराये ओर पुछा -- "कहाँ है तुम्हारी प्रजा और तुम्हारे प्रियजन । मैं तो कब से उनसे मिलने के लिये बेकरारी से उनका इन्तजार कर रहा हूॅ ।" राजा ने शर्म और आत्म-ग्लानि से अपना सर झुका दिया । 

 

तब भगवान ने राजा को समझाया --

"राजन, जो लोग अपने जीवन में भौतिक सांसारिक प्राप्ति को मुझसे अधिक मानते हैं, उन्हें कदाचित मेरी प्राप्ति नहीं होती और वह मेरे स्नेह तथा कृपा से भी वंचित रह जाते हैं..!!"

:

सार..

 

जो जीव अपनी मन, बुद्धि और आत्मा से भगवान की शरण में जाते हैं, और

सर्व लौकिक सम्बधों को छोडके प्रभु को ही अपना मानते हैं वो ही भगवान के प्रिय बनते

 

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डॉक्टर, डाक्टर और आचार्य वाजपेयी की चिट्ठी'






'चिन्तन 

 

डॉक्टर, डाक्टर और आचार्य वाजपेयी की चिट्ठी'

 

 कमलेश कमल

 

 

शब्दों के उच्चारण पर वक्ता विशेष के क्षेत्र का प्रभाव पड़ता है, जिसे अंग्रेजी में gravitational pull of the tongue कहते हैं। प्रयोक्ता को चाहिए कि इसे कम करने का प्रयास करे और अगर कम न भी हो सके, तो कम-से-कम लिखते समय शुद्ध या मानक रूप का ही प्रयोग करे।

 

आजकल सोशल मीडिया पर आचार्य किशोरीदास वाजपेयी का एक पत्र घूम रहा है। इसमें उन्होंने 'डॉक्टर' को 'डाक्टर' लिखने की हिदायत देते हुए 'ऑ' लगाने से मना किया है। बात इतनी ही नहीं हैं, बल्कि उन्होंने इस 'ऑ' को आगत ध्वनि ही नहीं माना है।

 

मित्रो, निवेदन है कि उक्त पत्र को युगीन सीमा समझ कर आगे बढ़ जाएँ, उसका अंधानुकरण न करें! आज 'ऑ' का प्रयोग मानक है और उचित भी।  न डोक्टर, न डाक्टर - डॉक्टर ही लिखें और बोलें! आ +ओ /2= ऑ का सूत्र एकदम सटीक है। 

 

मित्रो, यह उस समय की बात है जब मानकीकरण की बात उठी ही थी। आचार्य वाजपेयी ने तर्क दिया है कि डाक्टर को डॉक्टर कोई नहीं कहता।  पहली बात कि यह किसी  क्षेत्र-विशेष के संदर्भ में सही है, पूर्णतः नहीं। उत्तरप्रदेश के कुछ हिस्सों में डॉक्टर को डाक्टर और हॉस्पीटल को हास्पीटल कहा जाता है। इतना ही नहीं वॉलीवुड को वालीवुड, वॉलीवॉल को वालीवाल कहा जाता है। इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि यही मानक रूप है और आप भी ऐसा ही कहना आरम्भ कर दें। 

 

अंग्रेजी से आगत अनेक शब्दों के उच्चारण में 'ऑ' ध्वनि है और अगर आपको यह ध्वनि पसंद नहीं है, तो  उस शब्द का प्रयोग ही मत कीजिए। हॉस्पीटल को चिकित्सालय  और डॉक्टर को चिकित्सक कहिए, लेकिन ग़लत उच्चारण मत कीजिए। आचार्य ने तो नुक्ता का भी विरोध किया लेकिन जरा-ज़रा,  राज-राज़ ऐसे शताधिक शब्द और शब्द-युग्म हैं, जहाँ इसके बिना या इसके ग़लत प्रयोग से अर्थ का अनर्थ हो जाएगा। मानकीकरण का नियम इसे स्वीकार करता है पर इसके अनावश्यक प्रयोग को नकारता है, जो एकदम समीचीन प्रतीत होता है। उदाहरण के लिए, क़लम को अब कलम ही लिखा जाना चाहिए क्योंकि यह तद्भव के रूप में हिंदी में स्वीकृत है।

 

विचारणीय यह भी है कि हरियाणा के बहुत-से मित्र स्कूल को सकूल कहते हैं, तो बिहार का एक बड़ा तबका 'र' को 'ड़' और स्मिता को अस्मिता या इसमिता कहता है, तो क्या यही इसका लिखित रूप भी हो जाए? 

 

स्मरण रहे कि मुख-सुख, प्रयत्न-लाघव और उच्चारण-सौकर्य आदि को देखते हुए जब मानकीकरण किया जाता है तब भी व्याकरण और विस्तृत  प्रयोक्ता वर्ग को देखा जाता है। अतः, अनुरोध है कि उस पत्र का संदर्भ देकर 'ऑ' के प्रयोग को अनुचित ठहराना बन्द हो!

 

आपका ही,

कमल


 

 



 



.शरद की ये रात.*






.शरद की ये रात.*

 

*आज शरद पूर्णिमा पर्व..आप सभी आत्मीयजनो को इस पर्व की दिल से दिल वाली शुभकामनाएं..इस पर्व का प्रमुख किरदार चांद हैं..तो चांद की शान में कुछ यूॅ कहेंगे हम तो साहब..!*

 

*औरों से रोशनी उधार लेकर,तू यूॅ जमाने पर लुटाता हैं..!*

*तेरे जैसी दरियादिली ये चांद,आज कौन दिखाता है..!*

 

*कहां से सीखा तू ये हुनर,जरा हमें भी बता ये मंयक..!*

*हर एक प्रिय को तुझमें,अपना महबूब क्यों नज़र आता है..!*

 

*हर रोज तू अपना रुप बदलता रहता,सुन जरा वो बहरुपिए..!*

*फिर भी ना जाने क्यों,तू हर एक को हरदम सुहाता हैं..!*

 

*कभी करवा चौथ,कभी ईद,तो कभी शरद की ये रात..!*

*हर एक शुभ अवसर पर,तू अपना सदा नूर बरसाता हैं..!*

 

*कमल सिंह सोलंकी*

*रतलाम मध्यप्रदेश*


 

 



 



ढाई अक्षर








































मुझे ठीक से याद नहीं है कि मैने कब पढा था *पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ पंडित भया न कोय *ढाई अक्षर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय* 

अब पता लगा ये ढाई अक्षर क्या है-

 

*ढाई अक्षर के ब्रह्मा और ढाई अक्षर की सृष्टि*

*ढाई अक्षर के विष्णु और ढाई अक्षर की लक्ष्मी*

*ढाई अक्षर के कृष्ण और ढाई अक्षर की कान्ता।(राधा रानी का दूसरा नाम)*

 

*ढाई अक्षर की दुर्गा और ढाई अक्षर की शक्ति*

*ढाई अक्षर की श्रद्धा और ढाई अक्षर की भक्ति*

*ढाई अक्षर का त्याग और ढाई अक्षर का ध्यान*

 

*ढाई अक्षर की तुष्टि और ढाई अक्षर की इच्छा*

*ढाई अक्षर का धर्म और ढाई अक्षर का कर्म*

*ढाई अक्षर का भाग्य और ढाई अक्षर की व्यथा*

 

*ढाई अक्षर का ग्रन्थ और ढाई अक्षर का सन्त*

*ढाई अक्षर का शब्द और ढाई अक्षर का अर्थ*

*ढाई अक्षर का सत्य और ढाई अक्षर की मिथ्या*

 

*ढाई अक्षर की श्रुति और ढाई अक्षर की ध्वनि*

*ढाई अक्षर की अग्नि और ढाई अक्षर का कुण्ड*

*ढाई अक्षर का मन्त्र और ढाई अक्षर का यन्त्र*

 

*ढाई अक्षर की श्वांस और ढाई अक्षर के प्राण*

*ढाई अक्षर का जन्म ढाई अक्षर की मृत्यु*

*ढाई अक्षर की अस्थि और ढाई अक्षर की अर्थी*

 

*ढाई अक्षर का प्यार और ढाई अक्षर का युद्ध*

*ढाई अक्षर का मित्र और ढाई अक्षर का शत्रु*

*ढाई अक्षर का प्रेम और ढाई अक्षर की घृणा*

 

*जन्म से लेकर मृत्यु तक हम बंधे हैं ढाई अक्षर में।* 

*हैं ढाई अक्षर ही वक़्त में और ढाई अक्षर ही अन्त में।*

 *समझ न पाया कोई भी है रहस्य क्या ढाई अक्षर में।*


 

मधुबाला 





 














 

 








 

 







 







 




 





 




 



 



 


 


 


















 

 





 



 





 


 


 


*वैश्विक राम महोत्सव भव्यता से सम्पन्न 






*वैश्विक राम महोत्सव भव्यता से सम्पन्न 

 


विजय दशमी के शुभ अवसर पर, *राम चरित भवन* द्वारा 17 October 2020 शनिवार से 25 October तक *वैश्विक राम महोत्सव* के कार्यक्रम का आयोजन किया। हर दिन भिन्न-भिन्न प्रवृत्तियां  थीं। इन में मुख्य थीं: 

 

जाने माने वक्ताओं के वक्तव्य

राम काव्य पठन

ग्लोबल रामायण क्विज़

राम काव्य पीयूष  का विमोचन


 

राम चरित भवन अमेरिका के तत्त्वाधान में  वैश्विक राम महोत्सव में विश्व के शताधिक विद्वानों ने विविध भूमिका मे सहभागिता की। सर्व श्री शैल अग्रवाल (यू के) हरिहर झा(आस्ट्रेलिया) आरती गोयल (यू ए ई) शार्दूल नोगजा (सिंगापुर) शैलजा सक्सेना (कनाडा) विनोद राना (यू के) उषा मेहरा (यू एस ए ) मनोहर लेले (डलास)  डॉ  नीलम जैन  मधु चतुर्वेदी  प्रभु मिश्र राम लक्ष्मण गुप्त  विनीता मिश्रा दीपा रस्तोगी  अंशु टण्डन  (भारत )आदि अनेक मनीषियों ने सहभागिता की   .. ग्लोबल  रामायण क़्विज  में  612  प्रतिभागियों ने भाग लिया।राम काव्य पियूष काव्य संग्रह में भगवन राम एवं रामायण से सम्बंधित 13 देशों के 123 कवियों की कविताओं का प्रकाशन हुआ संगोष्ठी संयोजक श्री ओम गुप्ता  (अमेरिका) के कुशल संचालन एवं संयोजन में नव दिवसीय कार्यक्रम अति भव्यता से सम्पन्न  हुआ। 

 








 


 

 



 




 



 



प्रेम सदा जिन्दा रहता है








































प्रेम सदा जिन्दा रहता है

      

        अमर  है प्रेम  दुनियाँ  में

        पुराणों   ने  जिसे  गाया।

        ऋषी मुनि संत की वाणी

        विवेकानन्द   अपनाया।।

        वो आखर  प्रेम  का ढाई

        कवीरा    बोल   देता  है।

        पढे जो ध्यान से  उसको

        तो आँखे  खोल देता है।।

ज़माने की नज़र में वो,बसा बन्दा रहता है।

मैट कर नफ़रतों को प्रेम,सदा जिन्दा रहता है।।

         

          मुसीवत  पार  हो  हद  से

          मगर विचलित नहीं होता।

          मोहब्बत  की  करे   खेती

          वो चद्दर  तान  कर सोता।।

          विषैली  हो  हवा  फिरभी

          सुगन्धित  गन्ध   फैलाये।

          न जाती  धर्म  का  वंधन

          बेर शबरी  के  खा  जाए।।

बुरायी हो कहीं इक दिन,वो शर्मिन्दा रहता है।

मैट कर नफ़रतों को प्रेम------------------------

   

         प्रेम    पूजा    तपस्या   है

         प्रेम  भगवान  का  घर  है।

         पिया विष प्रेम का प्याला

         बनी   मीरा   दिवाकर  है।।

         कहीं    पर   रामबोला  है

         कहीं  नानक  की वानी है।

         कहीं   प्रहलाद   ध्रुवतारा

         अमर  हो  गयी कहानी है

प्रेम है सार जीवन का,पी वो छरछन्दा रहता है।

मैट कर नफ़रतों को प्रेम------------------------

 

 

राजबीर सिंह"क्रान्ति"

धौलपुर---राजस्थान


 

 



 



 













 










 

 








 

 







 







 




 





 




 



 



 


 


 


















 

 





 



 





 


 


 


मुक्तक








































मुक्तक

 

 

 सुना है नया चुनाव आया है।

 प्रजातंत्र में तूफान आया है।

 रैली के पर सुर्खाब लगे हैं ।

 वायदोंका संसार आया है ।

 

 

सफेद कपड़ो की मांग बढ़ी है।

 गांधी टोपी सिर चढ़ी है ।

आसमान कदमों पर होता था।

 अब तले जमीन खिसकी पड़ी है।

 

 गली गली बंदरवार सजे हैं।

 ढोल नगाड़े जोरो बजे हैं ।

लगे हैं कोई त्यौहार आया है।

 जनता के देखो बहुत मजे हैं।

 

 नेता जी से मिलने जब जाते।

 पसीने से सरोबार हो जाते ।

अब यहां ऊंट पहाड़ के नीचे हैं।

 हाथ जोड़े जन-जन को लुभाते।।

 

 

विकास का सपना दिखाते हैं।

 विकास पीछे खुद भाग जाते हैं।

 अबकी जो झूठों  की बहार है।

 कुर्सी दौड़ कौन जीत पाते हैं ।

 

 

चंद्र किरण शर्मा,

 भाटापारा।


 

 



 



 













 










 

 








 

 







 







 




 





 




 



 



 


 


 


















 

 





 



 





 


 


बहारों की मंजिल








































बहारों की मंजिल

 

सुधा की शादी के कुछ समय पश्चात ही पति विनय का एक्सीडेंट हो गया और वह भरे हुए संसार में अकेली रह गई। ससुराल में उसकी पहचान एक अशुभ  के रूप में बनकर रह गई जिसकी वजह से पति की अकाल मृत्यु हो गई थी ।  वह ससुराल से अपने पीहर आ गई और छोटी सी नौकरी करके अपना जीवन बिताने लगी।  उसकी उम्र को देखकर अक्सर लोग उसे कहते कि उसको दूसरा  विवाह कर लेना चाहिए लेकिन सुधा कुछ नहीं बोलती और मन मन मे ये सोच कर रह जाती कि कभी तो उसे फिर बहारों की मंजिल मिलेगी । । कभी  तो कोई ना कोई  मेरे जीवन में आएगा । जब आना होगा आ जाएगा य। ये सोच उसने कभी इस नजर से कोई प्रयास नही किया और ये फैसला ईश्वर पर छोड़ दिया क्योंकि उसे विश्वास था कि वो जो  करेगा acha ही करेगा।   इसी तरह तरह से काफी समय बीत गया और एक दिन सुधा के जीवन में उसकी सहेली नीलम के जरिए एक पुरुष का प्रवेश हुआ। शीघ्र ही दोनों बहुत करीब आ गए । उसने सुधा के सामने विवाह प्रस्ताव रखा।सुधा भी अब तक उसे पसन्द करने लगी थी। दोनों ने विवाह का निश्चय किया ।  सुधा ने अंततः बहारों की मंजिल को प्राप्त कर ही  लिया ।

 

          शबनम भारतीय


 

 



 



 














 

 








 

 







 







 




 





 




 



 



 


 


 


















 

 





 



 





 


 


हे मां






हे मां

 

हे वैभव दायिनी 

ज्ञान का वैभव दो 

हे परममृते

सत्य का अमृत पिला दो 

हे पाप हारिणी 

मानव मन के पाप हर लो 

हे प्रकाश धारणी 

जग में स्नेह का प्रकाश दो 

हे अज्ञात स्वरूपे 

जग को संवेदनाओं का ज्ञान दो

हे शत्रु संहारिणी 

कोरोना का अब तो हरण करो 

हे मां शक्ति स्वरूपा

 नारियों में अपना अंश भर दो 

 

                 शशि सक्सैना


 

 



 



प्रेम सदा ज़िन्दा रहता है
















 
















 










































प्रेम सदा ज़िन्दा रहता है

 

जीवन भर सपनों में खोया,

देख बुढ़ापा अंत में रोया।

चढ़ा जो सूरज ढलता है,

सन्त सदा ,यही कहता है।

बस! प्रेम सदा,ज़िंदा रहता है।।

 

जीवन भर की पाप कमाई,

अंत समय न  काम आयी।

साथ नहीं कुछ चलता है,

सन्त सदा यही कहता है।

बस! प्रेम सदा,ज़िन्दा रहता है।।

 

जीवन धारा को मोड़ दो,

राग-द्वेष को तुम छोड़ दो।

क्यों ग़फ़लत में  रहता है?

सन्त सदा,यही कहता है।

बस!प्रेम सदा ज़िन्दा रहता है।।

 

नफ़रत को दिल से निकाल,

वक़्त कम है, वृति सम्भाल।

क्यों दुःख-सुख  सहता है?

सन्त  सदा यही कहता है।

बस ! प्रेम सदा ज़िन्दा रहता है।।

 

टूट जाते हैं,सुंदर सपनें,

छूट जाते हैं,प्यारे अपने।

जड़-चेतन सब मरता है,

सन्त सदा यही कहता है।

बस!प्रेम सदा ज़िन्दा रहता है।।

                         तारा "प्रीत"

                       जोधपुर (राज०)


 

 



 



 













 











 

 








 

 







 







 




 





 




 



 



 


 


 


















 

 





 



 





 


 







 



 





 


 


 


बड़की,बड़ी ना हुई......






 

बड़की,बड़ी ना हुई......

 

कहते है कि बेटियां जल्दी बड़ी हो जाती हैं पर यह आधा सच है....और आधा सच यह है कि बेटियां कभी बड़ी होती ही नही हैं....सयानी होती बेटी से अक्सर उसके पिता कह देते....तू कभी बड़ी होगी भी.... या नही.....अपनी बेटी में स्वयं को निहारती मैं बहुत दूर तक कि यात्रा कर आती....जहाँ आज भी सब कुछ वैसा का वैसा ही है...अम्मा की एक ना सुनने वाली मैं बाबा की बात उनके कहने से पहले ही समझ जाती....जैसे राजा की जान तोते में बसती थी,वैसे ही बाबा की जाना बरकी (बड़की) में बसती थी....बड़ी होती गई और आदतें बदलती गई....पर कुछ आदतें कहाँ बदलती है....बाबा कभी भी अपनी चाय पूरी नही पीते थे.....हमेशा थोड़ी बचाके मुझे दे देते...उनकी जूठी चाय का साधिकार पीना. किसी ईनाम से कम ना होता....थरिया में जानबूझकर भात ज्यादा परोसती कि कहीं उन्हें कम ना पड़ जाए.....बाबा  परसन (बाद में) जो नही लेते थे और फिर मेरा अंश भी तो उस थरिया में रहता जो बाबा पहले बरका-बरका चार कौर मुझे खिलाते...उस चार कौर से पेट भर जाता था।बाबा के हाथों से तृप्ति मिलती थी....वो चार कौर खाने के बाद बाबा के धोती से ही मुँह को पोछ लेना...और बाबा का कहना....बरकी कभी बर (बड़ी)होई भी कि ना!! और बड़की का बाबा की तरफ देखते हुए खिलखिला उठना...बाबा कहते बरकी की हँसी से अंगना भी हँसने लगता.....जब बात सादी (शादी) की चली तो बरकी सहम गई..... सहम गई कि उसके बाबा कैसे रहेंगे.....कौन देगा थरिया परोसकर, कौन उनकी धोती में हाथ पोछेगा.... अम्मा से छुपाकर कौन उन्हें लोंगलत्ती व गट्टा खिलायेगा.... खटिया पर बैठे शाम से तारों सितारों की बात बाबा से कैसे होगी..... क्या सादी के बाद फुआ की तरह मैं भी चिठ्ठी-पत्री से बतियाउंगी....मन में उठे हजारों सवाल जैसे बड़की को बड़ा बनने का आग्रह कर रहा हो.....पर बड़की की भी जिद्द थी.....जब तक बाबा के पास हूँ.... ऐसे ही रहूंगी..............सच में आज भी बाबा की बरकी कहाँ बड़ी हुई है.....वो धुंधले यादों में जाकर अब भी बाबा की धोती पकड़ खिंचती है.....लोंगलत्ती व गट्टा खाती है...और कभी-कभी अम्मा की बुराई कर हम दोनों बाप बेटी देर तक हँसते हैं....और बाबा कह उठते....बरकी हँसते रहना....देख अँगना हँस रहा है.....

बाबा की बड़की...

प्रतिभा


 

 



 



जीवन

जीवन

 

जिसकी वाणी बोली

में मिठास,नम्रता,

सभ्यता होती है,

उस के जीवन में

भव्यता एवं दिव्यता

होती है।

 

🔍

प्रशंसा करनी हो तो

दिल से करे, और

प्रतिक्रिया विवेक से दे,

वरना समझदारी यही है

कि बोलने के बजाए

मौन ही बेहतर है।

 

एक *मास्क* 😷

प्यार, स्नेह और

विश्वास का भी 

पहन लीजिए..

ताकि घृणा और

नफरत के

*वायरस*

एक- दूसरे मे

ना फैल सकें।

 

राजकुमारी 

 मेरी पहचान है कविता

 मेरी पहचान है कविता

 

                    रघुराज सिंह कर्मयोगी

 

 जब तक भीड़ में छिपा रहा था।

 स्व को तब तक जान रहा था।

 वरदान मिला वीणा पाणी से।

 शब्द फूट गए मेरी वाणी से। 

 अब मेरी पहचान है कविता।

 ज्ञान और सम्मान है कविता।

 चारों धाम तीर्थ हैं कविता।

 गंगा का पावन जल कविता।

 वेदों का हर शब्द  है कविता।

 ईश्वर का चरणामृत कविता।

 शंकर का डमरू है कविता।

 रविंद्र नाथ गीतांजलि कविता।

 जय शंकर कामायनी कविता।

 संपूर्ण ज्ञान का मर्म है कविता।

 

  बिटिया खुश रहना ससुराल 

 














 

  बिटिया खुश रहना ससुराल 

 

छुटे  बाबुल  का यह घर

बचपन , आंगन और दर

बिछडे  संगी और सखी 

पीहर की ये  प्यारी गली 

बिटिया चली ससुराल को......

 

छुटे माँ,बापू,काका,काकी 

बहन  और   भैया -भाभी 

अपने  पिया के संग चली

अपनी ससुराल  की गली 

बिटिया चली ससुराल को......

 

भूल ना जाना यह घरबार 

बिटिया खुश रहना ससुराल 

बसे तेरा प्यारा घर संसार 

हर  दिन हो  नया  त्यौहार 

बिटिया चली ससुराल को......

 

ससुराल का रखना मान

रहना पीहर सा घर जान

वहीं  बसे  तेरे  मन प्राण 

कभी करना यंहा का ध्यान 

बिटिया चली ससुराल की......

 

     --------- *संजय गुप्ता देवेश*


 

 



 



 













 










 

 








 

 







 







 




 





 



 




यह   मेरी  पहचान   है   कविता












यह   मेरी  पहचान   है   कविता

               

माँ वाणी का वरदान  है कविता।

सकल विश्व की जान है कविता।।

ग्रन्थ  सभी  कविता  से सोभित।

यह   मेरी  पहचान   है   कविता।।

 

सब     धर्मों    की   राजकुमारी।

काव्यशास्त्र  जिसका   आभारी।।

गंगा    सी    निर्मल    काया   है।

हिमगिरि  सी  इसकी  छाया   है।।

संसकार      को      देने    वाली।

जीवन  का  विज्ञान  है   कविता।।

यह मेरी------------------------

 

कविता  मन   मे  भाव   जगाती।

सच  कहने  की  हिम्मत   लाती।।

क्रूर     और     अन्यायी     सारे।

डरते   हैं    कविता    के    मारे।।

समय   समय   पर   दुष्टों    का।

लेती  रहती  संज्ञान  है  कविता।।

यह मेरी-------------------------

 

तुलसी     सूरदास     है    मीरा।

नन्ददुलारे    पन्त    की    पीरा।।

इलाचन्द     जयशंकर     प्यारे।

गीता    महाभारत    रस   वारे।।

रामायण    वेदों    की    वाणी।

सबसे  बडी  महान है  कविता।।

यह मेरी------------------------

 

भूषण   और   निराला   आली।

तन   मन  झंकृत   करने वाली।।

महादेवी      चौहान      सुभद्रा।

भर     हुंकार     उतारे     भद्रा।।

श्री कृष्न   का   चक्र   सुदर्शन।

राम  और  हनुमान  है कविता।।

यह मेरी-----------------------

 

कविता  ने  ही  साख   बनाई।

कविता  ने  दुनियाँ  दिखलाई।।

माँ की   कृपा  तार  वीणा  के।

शब्द   तैरते   हैं   आ  आ  के।।

कलम खडग सी चले छपा छप।

जैसे  लाल  कमान  है कविता।।

यह  मेरी  पहचान  है  कविता।।

 

©®

राजबीर सिंह"क्रान्ति"

धौलपुर---राजस्थान


 

 



 





 

 



 



यह मेरी पहचान है रचना 






यह मेरी पहचान है रचना 

 

मेरे अनुभवों का आधार है रचना, 

यह मेरी अपनी पहचान है रचना, 

 

दिल से निकली, दिल में है रची, 

मेरे अंतर्मन में ही है ये  बसी रची, 

 

दिल की आह को करती उजागर रचना, 

विरह की वेदना से ओतप्रोत हो सजी है रचना, 

 

आंतरिक भावों का ताना -बाना बनाती है रचना, 

बाहरी दुनिया की रूप -रेखा बनती है रचना, 

 

अकेलेपन को दूर कर रचनाकार की आस है रचना, 

यह मेरी सहेली बन लगती मेरी पहचान है रचना, 

 

कागज़ और कलम के मिलन से बनती एक अद्भुत रचना,

आपबीती की सबके सामने सुन्दर अभिव्यक्ति करती है रचना, 

 

यह मेरी अनुपम और स्वरचित भावुक है रचना, 

यह मेरी और तेरी ख्वाबों से सुसज्जित है रचना, 

 

दिपाली मित्तल


 

 



 



*अनावश्यक स्तरहीन टीका टिप्पणियों से बचें प्रवचनकार*








































*अनावश्यक स्तरहीन टीका टिप्पणियों से बचें प्रवचनकार*

 

डॉ अनेकान्त कुमार जैन

 

                       चाहे कोई भी प्रवचनकार हों ,उनकी सभा में हजारों लाखों श्रोता आते हों ,भले ही वे करोड़ों में खेलते हों किन्तु किसी भी प्रवचनकार को चाहे वह गृहस्थ हो या सन्यासी उन्हें स्वयं को भगवान मानने की भूल कभी नहीं करनी चाहिए|

 

श्रोता भक्ति के अतिरेक में भले ही उन्हें भगवान से भी बड़ा मानते या कहते हों पर उन्हें हमेशा यह मान कर चलना चाहिए कि वे सर्वप्रथम एक मनुष्य हैं और सामाजिक भी।

 

 वर्तमान में प्रायः यह देखने में भी आ रहा है कि धार्मिक ग्रंथों के प्रमाण दे दे कर अपने से अन्य सम्प्रदाय के अनुयायियों और उनके देवी देवता, आराध्यों तथा साधुओं पर भी खुल कर टीका टिप्पणी हो रहीं हैं तथा उन्हें मिथ्यात्वी,मायावी और भ्रष्ट करार देने का सिलसिला चल रहा है । यह अशुभ संकेत है।

                        सबसे पहला सिद्धांत है कि निंदा किसी की भी नहीं करनी चाहिए। यह रागद्वेष भाव का सूचक है जो कि धर्म क्षेत्र में निषिद्ध है ।

 

हम यह ध्यान रखें कि हमारी जरा सी भूल कितने रक्त पात और दंगों को जन्म दे सकती है । कुछ असामाजिक तत्त्व तो हमेशा इसी तलाश में रहते हैं कि उन्हें कुछ मौका मिले और वो उसमें मिर्च मसाला मिला कर उसका दुरूपयोग करें  । इन टिप्पणियों से कुछ हासिल नहीं होता|बल्कि हमारी सामाजिक समरसता और सौहार्द में बाधा पहुँचती है।

                         धार्मिक प्रवचनों में राजनेताओं पर भी कोई टिपण्णी नहीं होनी चाहिए।शास्त्र सभा की अपनी एक मर्यादा होती है।आज जो पब्लिक प्रवचन के नाम पर व्यंग्य ,शेर और शायरियां से युक्त भाषणबाजी चल रही है वह दुर्भाग्यपूर्ण है।यह धर्म प्रचार नहीं है । यह धोखा है।बिजिनेस है।आज यह अच्छा लग रहा है कल इनकी कीमत भी हमें ही चुकानी पड़ेगी।

         

 

मेरा सभी आदरणीय प्रवचनकारों से विनम्र अनुरोध है कि कृपा करके मात्र धर्म अध्यात्म की ही चर्चा किया करें,अनावश्यक टीका टिप्पणियों से बचें,अपनी भाषा मधुर और विनम्रता वाली रखें | सत्य का प्रतिपादन चिल्ला चिल्ला कर नहीं किया जाता |

 

धार्मिक शास्त्रों में भी यदि कोई ऐसे प्रसंग आते भी हैं जिनसे सामाजिक सौहार्द को नुकसान होता हो तो उन्हें भी अचर्चित रखें ,उनकी उपेक्षा करें ।

 

ऐसे सत्य का भी उद्घोष नहीं करना चाहिए जिससे शांति भंग होती हो। कहा भी है -

यद्यपि सत्यं लोकविरुद्धं,न चलनीयं न करणीयं और न वदनीयम् मेरी तरफ से जोड़ लें ।

 

*कहते हैं बोलना सीखने में दो या तीन वर्ष लगते हैं किन्तु क्या बोलना, कब बोलना,और कैसे बोलना यह सीखने में पूरा जीवन लग जाता है।*

 

कुछ हल्के स्तर के लोग अधिक प्रसिद्धि प्राप्त करने के लिए जानबूझ कर भी विवाद उठाते हैं , तिल का ताड़ बनाते हैं । बड़े, प्रतिष्ठित और प्रसिद्ध लोगों पर टिप्पणी करके स्वयं को लाइम लाइट में लाने का प्रयास करते हैं । 

 

कई बार वक्ता यह कहते पाए जाते हैं कि मैं धर्म की रक्षा के लिए ही बोलता हूं । मैं तो सच के साथ हूँ , मैं सच कह रहा हूँ ,और सच तो कड़वा होता ही है ,किसी को बुरा लगे तो मैं क्या करूँ । कोई सच कहने की हिम्मत कर तो रहा है , इसके लिए बहुत साहस चाहिए । ऐसा कह कर कुछ भी बोलने की आजादी के पक्ष में तर्क मजबूत करने लगते हैं । यह बात सही है कि सच बोलना आसान बात नहीं है उसके लिए बहुत साहस की जरूरत होती है किंतु इस साहस के साथ साथ सलीका भी उतना ही आवश्यक होता है । मैं तो यहां तक कहता हूं कि *यदि सलीके का प्रशिक्षण न हो तो सच बोलने का साहस भी नहीं करना चाहिए* । क्यों कि सलीके के अभाव में सच झूठ से भी ज्यादा खतरनाक हो जाता है ।

 

वैसे सच्चे धर्म की रक्षा के तर्क के आधार पर ही सभी तरह के आतंकवाद का जन्म होता है ।

 

*यह भी बिडम्बना ही है कि धर्म की रक्षा के लिए ही तलवार और बंदूकें उठाकर  अधर्म करने की शिक्षा अधिकांश धर्म क्षेत्र में ही दी जाती है ।*

 

पहले प्रवचन मंदिरों की चार दीवारी में ही होते थे,कोई बात ऐसी वैसी हो भी जाय तो वहीँ तक सीमित रहती थी ।

 

भक्त श्रोता भी तत्कालीन देश काल परिस्थिति की अपेक्षा समझते थे ।  कोई विवाद हो भी जाय तो उसका शमन भी वहीं हो जाता था । 

 

किन्तु आज टी.वी.पर प्रसारित होते हैं, सी.डी.में बिकते हैं ,यू.ट्यूब पर दीखते हैं, फ़ेसबुक ,व्हाट्सएप,इंस्टाग्राम आदि पर चलते हैं । 

तब ऐसे दौर में अत्यंत सावधानी पूर्वक वो ही बातें बोलनी चाहिए जो सार्वजनीन हों तथा सभी के हित की हों । 

 

अन्य धर्मों तथा अपने ही धर्म के विभिन्न पंथों पर अशिष्ट ,स्तरहीन और शर्मनाक टिप्पणी करके हम किस दिशा में जा रहे हैं ? हमें यह कब समझ में आएगा कि हम अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी चला रहे हैं ।

 

  गलत को गलत कहने के लिए भी शिष्टाचार को तिलांजलि देना क्या उचित है ? क्या विनम्रता से अपनी असहमति प्रगट करने की कला हमारे गुरुजनों से हमने नहीं सीखी ? 

 

हमारी इस तरह की करतूतों से हमारी पीढ़ी, परिवार ,समाज और धर्म को उसकी कितनी कीमत चुकानी पड़ सकती है इसका अंदाजा है हमें ?  

 

कार्ल मार्क्स ने कहा था कि धर्म एक अफीम है । यद्यपि हम ऐसा नहीं मानते हैं । लेकिन जब सिरफिरे प्रवचन सुनते हैं तो लगता है कि धर्म के नाम पर जो कुछ परोसा जा रहा है वह जरूर किसी नशे की ही उपज है,जिसका नशा बिना विवेक के बोलने को प्रेरित करता है ।

 

यदि हम एक समझदार, सलीकेदार और जिम्मेदार वक्ता नहीं बन सकते तो हम शास्त्र गद्दी पर और धार्मिक मंचों पर बोलने के अधिकारी नहीं हैं ।

 

 हम सभी को इस विषय पर गंभीरता से विचार करना चाहिए । ध्यान रहे-

 

*कुछ ऐसे भी मंजर गुजरे है तारीखियों में*

*लम्हों ने खता की है और सदियों ने सजा पायी है*


 

 



 



 














 

 








 

 







 







 




 





 




 



 



 


 


 


















 

 





 



 





 


 


 


तिरस्कार






 तिरस्कार

 

 राज की बुरी आदतों से उसका दोस्त विवेक बहुत परेशान था बचपन की दोस्ती थी पर दोनों के संस्कार अलग थे स्वभाव अलग था पर दिलों जान से एक दूसरे के साथ जुड़े रहकर हर सुख दुख के साथी थे।

       जहां विवेक बहुत संयम धैर्य वाला , वही राज इसके विपरीत बहुत गुस्से वाला मारपीट करने वाला किसी को भी कभी भी कुछ भी कह देना उसकी आदत में शुमार था।

      राह चलती लड़कियों को छेड़ना राज के लिए आम बात थी।

      हद तो तब हुई जब शाम के दिन लगे में सुनसान रास्ते पर जाती एक कम उम्र की लड़की को राज ने धर दबोचा, उस जगह किसी का आना जाना बहुत कम हो पाता था।

     नशे में धुत राज उस लड़की पर पूरी तरीके से हावी होने की कोशिश कर रहा था और वह मासूम लड़की अपने बचाव के लिए सीख नहीं पा रही थी क्योंकि उसके मुंह पर कपड़ा बांध दिया था।

       राज कुछ गलत कर पाता इसके पहले उस पर लातों घुसो की बरसात होने लगी।

        इतनी पिटाई की गई राज की किउसमें इतनी ताकत नहीं थी कि वह सामने वाले से अपने बचाव के लिए कुछ कर पाता।

       लड़की के फटे कपड़ों पर अपनी शर्ट पहनाते हुए उसे सा सम्मान विदा करके---------

       विवेक ने राज को नफरत और तिरस्कार की नजर से देखते हुए बिना कुछ कहे खामोशी से अपनी राह चल दिया।

 

डॉ प्रियंका सोनी "प्रीत"


 

 



 



युद्ध के परिणाम

युद्ध के परिणाम


 



दुशासन के लहू से,


अपने केशों को धो चुकी थी।


दुर्योधन की भी जंघा टूट चुकी थी।


कौरव वंश ख़ाक में मिल चुका था।


घर - घर में चिता जल रही थी।


विधवा और बच्चें रो रहे थे।


द्रौपदी मौन धारण कर,


शून्य में ताक रही थी।


अपने आप को दोषी मान रही थी।


कृष्ण पर नज़र पड़ते ही,


लिपटी और रो पड़ी।


अविरल अश्रु धारा रुकने का,


नाम नहीं ले रही थी।


सखा! यह क्या हो गया ?


यह तो मैंने सोचा ही नहीं था।


 


युद्ध तो युद्ध है पाँचाली,


जो हारता है, वह तो हारता ही है।


जो जीतता है, वह भी हारता है।


कोई तन, कोई मन, कोई वचन हारता है।


केवल प्रतिशोध लेना चाहता है इंसान।


परिणाम के बारे में कहाँ सोचता है?


क्रोध ऐसी अग्नि है पाँचाली,


हर लेती है हमारी सोच को।


क्या मैं उत्तरदायी हूँ?


इतिहास मुझे किस रूप में पहचानेगा?


इसकी चिंता न करो पाँचाली।


भीष्म पितामाह ने प्रण ना लिया होता,


धृतराष्ट्र ने महत्वकाँक्षा का जामा न पहना होता,


दुर्योधन ने हठ का आवरण न ओढ़ा होता,


 


काश। शकुनि ने बैर की रस्सी का छोर न पकड़ा होता,


अम्बिका प्रतिशोध की ज्वाला में न जली होती,


कर्ण को सूत पुत्र का शूल न चुभा होता,


तुमने अंधे का पुत्र अंधा का कटाक्ष न किया होता,


तुम्हारा यूँ भरी सभा में, चीर हरण न हुआ होता।


काश। कुन्ती ने तुम्हें यूँ पाँचों में न बटवाया होता।


 


काश। कुन्ती ने कर्ण को अपनाया होता।


शायद यह युद्ध ही नहीं हुआ होता।


बच्चें यूँ असहाय सड़कों पे न घूम रहे होते।


विधवाओं का यूँ मातम न होता।


युद्ध कारण है प्रतिशोध का,


शांति विकल्प है, क्रोध का।


 


काश। दुर्योधन ने शांति प्रस्ताव मान लिया होता,


आज बच्चें यूँ यतीम न होते,


यूँ वंशशंकरीसंताने पैदा न होती।


युद्ध के विकल्प में शांति मिले,


उसका कोई सानी नहीं पाँचाली।


मनुष्य को भविष्य में आने वाले,


तूफ़ान की आहट को पहचानना होगा।


तूफ़ान कभी दबे पाँव नहीं आते,


दस्तक़ को नज़रंदाज़ न करो "शकुन",


वरन क्रोध रूपी तूफ़ान में,


बड़े - बड़े सूरमा भी ढह जाते हैं।



शकुन्तला अग्रवाल 


कड़वा ज़ायका







*कड़वा ज़ायका* 

************************

 

सिलबट्टे पर पीसी भावनाएं 

 मजबूरियों को निचोड़ा गया 

एक चम्मच टूटे ख्वाब के टुकड़ों में

मेहनताना चुटकी भर डाला गया 

यूं ही नहीं मेरे अल्फाजों में

 कड़वा जायका पैदा हुआ।

 

मेरे किरदार का स्वाद तीखा 

हसरतो को ढक कर रखा गया 

जिंदगी ने तपाया तेज आंच में 

ऊपर से मर्तबान में दम लगाया गया

यूं ही नहीं मेरी सीरत में

कड़वा ज़ायका पैदा हुआ।

 

मेरे सारे अरमानों को तोड़ा

धोखे के साथ परोसा गया 

नमक मिर्च डाला दुनिया ने

नाम रिवाजों का लगाया गया 

यूं ही नहीं मेरे एहसासों में 

कड़वा ज़ायका पैदा हुआ 

 

गरिमा खंडेलवाल 

उदयपुर







कौंधते विचार

कौंधते विचार


कभी कभी मन बहुत उदास होता है मन करता है कि जी भर कर रोए, लिखते-लिखते आंखों में पानी बह रहा है। आखिर क्यों हम किसी के सही बात न करने या सही तरीके से व्यवहार ना करने से इतने दुखी हो जाते हैं तरह-तरह के विचार आने लगते हैं। खासतौर पर नाकारात्मक विचार बहुत तकलीफ़ होती है दिल में आखिर क्यों हुआ ऐसा क्या था जो इतनी नाराजगी जताई जा रही है। एक ही घर में रहते हुए उम्र ओर रिश्ते का भी लिहाज नहीं आखिर क्यों ओर इसी क्यों का जवाब सारी उम्र नहीं मिलता।


फिर दिमाग में विचार आता है कि क्यों हम अपने विचारों को लोकल ट्रेन में चढ़ने वाले यात्रियों की तरह अपना रहे हैं जो हर स्टेशन पर रुकती हुई चलती है और हर तरह के यात्री यानी विचार उतरते चढ़ते रहते हैं। ट्रेन में भीड़ रहती है। हमें अपने विचारों को राजधानी एक्सप्रेस के यात्रियों की तरह सोचना होगा ये ट्रेन ना तो हर स्टेशन पर रूकती है और यात्री भी कम होते है सिर्फ वो ही यात्री चढ़ते हैं जिन्हें अपनी मंजिल तक पहुंचना है। यानी कि हमें फालतू के विचार अपने मन में ना लाकर अपने दिमाग को राजधानी ट्रेन कि तरह बनाना है जिसमें कम ओर साफ़ यात्री ही चढ़ते हैं। हम अगर फालतू के विचार अपने दिमाग में ना आने दें और अच्छे विचारों


को अपने मन में रखें तो बेहतर होगा ओर जीना भी आसान होगा।


इस सोच के साथ ही मेरे मन में कुछ हद तक उदासी खत्म हुई ये सोच कर कि हम दुसरो की सोच को तो ठीक नहीं कर सकते लेकिन अपने विचारों को सही रखते हुए मन में मैल ना आने दें और अपने को खुश रखना चाहिए। ईश्वर ने जो हमें उपहार में अच्छी सुरत ओर सीरत दी है। उस पर गलत विचारों का आवरण ना चढ़ने दें।


रमा भाटी


कहानी बड़ी सुहानी

*कहानी बड़ी सुहानी*

 

एक पाँच छ: साल का मासूम सा बच्चा अपनी छोटी बहन को लेकर मंदिर के एक तरफ कोने में बैठा हाथ जोडकर भगवान से न जाने क्या मांग रहा था ।

 

कपड़े में मैल लगा हुआ था मगर निहायत साफ, उसके नन्हे नन्हे से गाल आँसूओं से भीग चुके थे ।

 

बहुत लोग उसकी तरफ आकर्षित थे और वह बिल्कुल अनजान अपने भगवान से बातों में लगा हुआ था ।

 

जैसे ही वह उठा एक अजनबी ने बढ़ के उसका नन्हा सा हाथ पकड़ा और पूछा : -

"क्या मांगा भगवान से"

उसने कहा : -

"मेरे पापा मर गए हैं उनके लिए स्वर्ग,

मेरी माँ रोती रहती है उनके लिए सब्र,

मेरी बहन माँ से कपडे सामान मांगती है उसके लिए पैसे".. 

 

"तुम स्कूल जाते हो"..?

अजनबी का सवाल स्वाभाविक सा सवाल था ।

 

हां जाता हूं, उसने कहा ।

 

किस क्लास में पढ़ते हो ? अजनबी ने पूछा

 

नहीं अंकल पढ़ने नहीं जाता, मां चने बना देती है वह स्कूल के बच्चों को बेचता हूँ ।

बहुत सारे बच्चे मुझसे चने खरीदते हैं, हमारा यही काम धंधा है ।

बच्चे का एक एक शब्द मेरी रूह में उतर रहा था ।

 

"तुम्हारा कोई रिश्तेदार"

न चाहते हुए भी अजनबी बच्चे से पूछ बैठा ।

 

पता नहीं, माँ कहती है गरीब का कोई रिश्तेदार नहीं होता,

माँ झूठ नहीं बोलती,

पर अंकल,

मुझे लगता है मेरी माँ कभी कभी झूठ बोलती है,

जब हम खाना खाते हैं हमें देखती रहती है ।

जब कहता हूँ 

माँ तुम भी खाओ, तो कहती है मैने खा लिया था, उस समय लगता है झूठ बोलती है ।

 

बेटा अगर तुम्हारे घर का खर्च मिल जाय तो पढाई करोगे ?

"बिल्कुलु नहीं"

 

"क्यों"

पढ़ाई करने वाले, गरीबों से नफरत करते हैं अंकल,

हमें किसी पढ़े हुए ने कभी नहीं पूछा - पास से गुजर जाते हैं ।

 

अजनबी हैरान भी था और शर्मिंदा भी ।

 

फिर उसने कहा

"हर दिन इसी इस मंदिर में आता हूँ,

कभी किसी ने नहीं पूछा - यहाँ सब आने वाले मेरे पिताजी को जानते थे - मगर हमें कोई नहीं जानता ।

 

"बच्चा जोर-जोर से रोने लगा"

 

 अंकल जब बाप मर जाता है तो सब अजनबी क्यों हो जाते हैं ?

 

मेरे पास इसका कोई जवाब नही था... 

 

ऐसे कितने मासूम होंगे जो हसरतों से घायल हैं ।

 

अपनी मिट्टी को छोड़ कर


अपनी मिट्टी को छोड़ कर






**************************

छोटे छोटे हाथ जिस पर

लकीरें भी पूरी नहीं बनी 

उनसे सिक्के जोड़कर

बचपने में बड़ा हो गया 

जवानी दे दी प्राइवेट नौकरी को 

जरूरी था जरूरतों से मिलना 

इसलिए अपनी मिट्टी को छोड़ गया।

 

प्यार की भाजी पर

जरूरतों का अचार भारी पड़ गया

वह गरीब था यारों

रोटी का तंबू गाड़ कर

औकात की चादर में 

अपनी मिट्टी को याद कर

सिकुड़ कर सो गया।

 

पैसों की लाचारी पर

रिश्तो की कुर्बानी देखी

नियत का साफ ईमानदार 

था दौलत के लिए

प्यार से मुंह मोड़ गया

पीठ और पेट के बीच दूरी रहे 

इसलिए अपनी मिट्टी को छोड़ गया।

 

      गरिमा खंडेलवाल 

           उदयपुर





दोस्त  दोस्त  न रहा 

लघुकथा 

 

दोस्त  दोस्त  न रहा 

 

गौरव और सोहन बचपन से ही गहरे दोस्त थे खेलना  खाना  पीना पढना  सब साथ साथ होता था  । ऐसे गौरव अमीर घराने से और सोहन सामान्य  परिवार से था।  लेकिन दोनो के बीच  अमीर गरीब का ख्याल  कभी  नही  आया ।  गौरव ने तो घर का बिजनेस  संभाल  लिया और सोहन की आफिस मे  बाबू की नौकरी  लग गई  बडे  पर भी उनकी दोस्ती मे कोई  फर्क नही  आया ।गौरव की शादी हो चुकी थी गरिमा से । लेकिन गरिमा  सोहन के समान्य  होने की  वजह से पसंद नही  करती थी  । उसके साथ कई बार  अच्छा  व्यवहार  नही  किया  । गौरव ने कई बार समझाया हम बचपन से  अच्छे  दोस्त  है । दोस्त  पैसा  देखकर नही  बनाये जाते है ।  ठीक है बचपन के दोस्त  हो। लेकिन  अब तो अपने  बराबरी  वालो मे उठा बैठा करो मुझे  शर्म  आती है अपनी सहेलियो को बताने मे की यह आपका  दोस्त है  । गौरव भी  पत्नी के आगे हार चुका था  उसने भी  धीरे-धीरे  सोहन से दूरी  बना ली  । सोहन भी सब समझ चुका था  कि गौरव भी अब  पत्नी  के आगे मेरा  दोस्त  दोस्त  न रहा ।

 

डॉ ऋचा जायसवाल 

नीमच मध्यप्रदेश

आज आदमी बना स्वार्थी

आज आदमी बना स्वार्थी ,

अपने में ही खोया रहता ।

खुदगर्जी की चादर ओढ़े,

दिन में भी सोया रहता।। 

 

तोड़े सारे रिश्ते नाते ,

अंहकार में मगरूर हुआ।

पास न कोई फटके अपने,

दौलत मद में चूर हुआ।।

 

पास पडौ़स में क्या घटित है,

इसका जरा भी भान नहीं।

अज़नवी सा जीवन जिये,

मानवता का ज्ञान नहीं।।

 

कालचक्र ने पासा पलटा  ,

विपदाओं ने डाले डेरे।

असहाय हो मुँह ताकते ,

पास न कोई आये तेरे।।

 

जब संकट मानव पर आये,

याद करे रिस्तों को मन में।

अहसास तभी हो पाता है,

मधु जरुरी है जीवन में।।

 

     पदम प्रवीण 

       जयपुर

दिल 

अगर चाहते हो 
धड़कता रहे दिल 
तो दिल को 
दिल से खुश रखिए 
मुस्कुराते रहिए 
थोड़ा व्यायाम करिए 
प्राणायाम करिए 
और हो सके 
तो अपना काम 
अपने हाथ से करिए 
ना तनाव दीजिए 
ना तनाव लीजिए 
दुआ दीजिए 
दुआ लीजिए
जितना भी गरिष्ठ
भोजन करना है 
सुबह करिए सांझ नहीं 
रात में तो बिल्कुल नहीं 
अपने भोजन को
 खुद ही समझिए 
क्या प्रतिकूल है
क्या अनुकूल 
जानिए  और मानिए 
और हो सके तो 
अपने भोजन को ही 
औषधि बना लीजिए 
और बच्चों सी निर्मल मुस्कान 
मुस्कुरा लीजिए 
विधानाचार्य त्रिलोक जैन 
वर्णी गुरूकुल जबलपुर


लाल बहादुर शास्त्री और राष्ट्रपिता महात्मा गांधी 

लाल बहादुर शास्त्री 
क्रांति काल का सच्चा योद्धा
कुशल नेतृत्व अनुपम विचार
हिंम सा हौसला सिन्धु सी समझ
भरा राष्ट्र प्रेम हृदय अपार


जय जवान जय किसान का नारा
धरती के लाल ने छेड़ा था 
वो लाल बहादुर था बुद्धिमान
कर मे थी पतवार देश का बेड़ा था


सादा जीवन उच्च विचार 
निर्धनों का सदा सहायक था
ईमानदारी रग रग में भरी
भारत मां का पायक था


बचपन से बाधाओं को झेला 
जो त्याग तपस्वी ज्ञानी थे
दूरदर्शिता के परिचायक 
राष्ट्र प्रहरी सेनानी थे


सामना डटकर करते 
हर संकट तूफानों का
धीरज धर आगे बढ़ते
रखते तोड़ व्यवधानो का


नई प्रेरणा मार्गदर्शन 
उनकी यादें दे जाएगा 
जन्मदिन लाल देश का 
जन मन में उमंग जगाएगा


महा सिंधु महापुरुष की 
जीवनी हमें खूब सिखाती है
सादगी भरे जीवन में ही 
विलक्षण शक्तियां आती है


शांति वार्ता खातिर हम तो
ताशकंद में छले गए 
शांति दूत बन भारत के 
वो लाल देश के चले गए


भारती के लाल आप को 
शत-शत वंदन अभिनंदन है 
पावन है वह जन्मभूमि 
माटी का कण कण चंदन है


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राष्ट्रपिता महात्मा गांधी 


राष्ट्रपिता महात्मा गांधी
अहिंसा के आप पुजारी 
छुआछूत का भेद हटाया
महान विभूति चरखा धारी


दया क्षमा प्रेम सिखाया 
भारत मां का मान बढ़ाया 
नमक आंदोलन जो छेड़ा
सत्याग्रह को आगे बढ़ाया


खादी वस्त्र काम में लाओ 
स्वदेशी को सब अपनाओ 
कम खर्चे में उत्पादन बढ़ाओ 
देश प्रगति पथ पर लाओ


समरसता का भाव जगाना
एकता का पाठ पढ़ाना
उत्तम अनुपम रहे संस्कार
सादा जीवन उच्च विचार


भाईचारा खूब जगाया 
देश प्रेम का भाव बढ़ाया 
राम नाम की जपकर माला
साबरमती का संत कहाया


ऊंच-नीच का भेद मिटाकर 
वतन परस्ती जोत जलाकर
अन्याय विरुद्ध आवाज उठाओ
महान गुणी हम धन्य हुये पाकर


एक लाठी धोती धरकर
जन-मन में जोश भर कर 
लड़ी लड़ाई आजादी की 
अहिंसा का पाठ पढ़ कर


आप देश की शान रहे हैं 
निर्बल का उत्थान रहे हैं 
कर्मशील बन आगे बढ़ना 
आदर्श पुरुष मिसाल रहे हैं


आपको नमन वंदन करते हैं 
हे राष्ट्रपिता अभिनंदन करते हैं
सत्याग्रह के सत्य पुजारी 
वंदन करती जनता शादी



रमाकांत सोनी नवलगढ़ 
जिला झुंझुनू राजस्थान


क्या है आजादी का मतलब

2020 का हिन्दुस्तान.....


देखो देखो ज़रा आंखें खोल कर,
ये है मेरा,नए साल का जहां...
किसी शैतान बिगड़े बच्चे सा लगता है,
आन बान शान जान इसकी पहले सी कहां?
ये है मेरा 2020 का हिन्दुस्तान....


कभी कोरोना महामारी से जुझता भारत,
तो कभी टिक टोक बेन से रूठना भारत!
चाईनीज उत्पादों का विरोध करता भारत,
तो कभी बाढ़,भूख,रक्त की कमी दे लड़ता भारत!
ये है मेरा 2020 का हिन्दुस्तान...


कोई एसी कार में घूमता दिखता,
तो कोई रिश्वत लिए कोडियो में बिकता,
कभी मजदूर बेचारा हजारो मील पैदल चलता,
तो कभी पायलट गहलोत संग भिड़ता!
ये है मेरा 2020 का हिन्दुस्तान...


बिजली का बिल तो नहीं हुआ माफ़,
ईएमआई माफ़ के जासे का हुआ पर्दा फाश!
पानी भरा गड्ढों में, सड़के यूहीं टूट गई
एक मौत तो पेड़ गिरने से मेरे मोहल्ले में ही हो गई!
ये है मेरा 2020 का हिन्दु…
[10:11, 02/10/2020] Kiran Khatri: विषय - प्रेम का जीवन में महत्व
विधा - कविता



मेरे जीवन में प्रेम का मतलब?
सवाल बहुत उलझा सा है...
महत्व तब दर्शाया जाता है,
जब पहले निभाया जाता है!


मेरे जीवन में प्रेम का मतलब,
शायद एक अदृश्य ताकत है,
जो साथ है हमेशा,दिखती नहीं,
जो रहती सदा है,पर जताती नहीं!


मेरे जीवन में प्रेम का मतलब,
एक छाया है,जो हमेशा साथ है!
बारिश और छाते का जैसे प्यार है,
गुरुद्वारे में जैसे मांगी गई कोई आस है!


मेरे जीवन में प्रेम का महत्व?
अंधेरे में शायद उजाला है,
चिंता में इक संतुष्टी है....
आसमान में जैसे पक्षी है...
नीले गगन में जैसे बिजली है!


मेरे जीवन में प्रेम का महत्व?
शब्दों में बयां हो सकता नहीं,
कविता में लिखा जा सकता नहीं...
क्युकी महसूस हुआ है यह सदा,
पर प्रेम मुझे कभी हुआ नहीं..!
पर प्रेम मुझ से कभी हुआ नहीं..!
पर प्रेम किसी ने मुझे किया नहीं..!


किरन खत्री,
उदयपुर


शास्त्री जी 

शास्त्री जी 
 
शास्त्री जी तुम्हें नमन है
शीश झुकाता ये गगन है 


सत्य से जुड़े विचार थे 
दृढ़ शक्ति के तुम दीवार थे 
वक्त से हार नहीं मानी 
सुंदर भारत के आधार थे 


बचपन गरीबी में बीता 
स्व- विश्वास कभी न रीता 
आई पथ में कई अर्चने
हर युद्ध साहस से जीता 


ईमानदारी तुम्हारी पूंजी थी 
सच्चाई तुम्हारी ऊँची थी 
डिगने नहीं दिया ईमान को  
सफलता तुम्हारी कुंजी थी 


जय जवान-किसान का नारा दिया 
सबको सहारा दिया 
जान फूंकी जनमानस में 
माँ भारती को किनारा दिया 


विजय का डंका बजाया
साड़ी दुनियां को  चौंकाया 
भरम में न रहे दुश्मन 
शक्ति से अपने समझाया 


छोटा कद सोच बड़ी थी 
हर ओर मुसीबत खड़ी थी 
देश के बने जननायक 
विजय के लिए सेना लड़ी थी 


बीच डगर में छोड़ गए 
हमारी राहें मोड़ गए 
गम में डूब गया भारत 
सपने सारे तोड़ गए


श्याम मठपाल, उदयपुर


महात्मा गांधी का जिनवाणी प्रेम

महात्मा गांधी का जिनवाणी प्रेम


डॉ अनेकान्त कुमार जैन , जैन दर्शन विभाग,श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, नई दिल्ली


 मुंबई में आयोजित एक जैन कॉन्फ्रेंस में महात्मा गांधी ने एक व्याख्यान प्रस्तुत किया था, उसमें उन्होंने कहा कि
 मेरे लिए तो मुक्ति का दरवाजा अहिंसा धर्म का पलना है । मुझ पर जैन भाइयों की इस कदर कृपा दृष्टि है कि मुझ को उनकी लेना देनी है। भारतवर्ष में एक सगे भाई के समान भाई बंदी के साथ रहने का दावा जैन ही कर सकते हैं।
 मेरे परम मित्र डॉक्टर प्राणजीवन जैन है जिनके चरित्र का मुझको सम्मान है । रायचंद भाई मेरे मित्र थे और शहर मुंबई में मेरे रहने का जो स्थान है वह भी एक देवाशंकर जैन भाई का है । सफर के मध्य मुझे बहुत से जैन भाइयों से अक्सर वास्ता पड़ा है और बहुत से उस समय मुझसे पूछते हैं कि क्या आप जैन है? इस प्रश्न के उत्तर में मैं यदि नहीं कहूं तो उनको दुख अनुभव करते देखता हूं इसका मतलब इसके सिवा और कुछ नहीं कि यदि में जैन होता तो ठीक इससे उनका प्रेम मेरी ओर होता ऐसा मैं ख्याल करता हूं क्योंकि जिस बात को वह मानते हैं उस पर मैं अमल करता हूं ।.........


मैं वकील हूं और मैंने जैन शास्त्रों का किसी कदर अभ्यास भी किया है और श्रद्धा भी है।


 जब माणिकलाल जेठाभाई ने अहमदाबाद में एक सार्वजनिक पुस्तकालय स्थापित किया तो उसका उद्घाटन महात्मा गांधी जी ने किया उस समय उन्होंने एक मार्मिक भाषण भी दिया था।
इस अवसर पर उन्होंने कहा था कि गुजरात में जैन धर्म की पुस्तकों के अनेक भंडार हैं परंतु वह वणिकों के घर हो रहे हैं ,वह उन ग्रंथों को सुंदर रेशमी वस्त्रों में लपेट कर रखे हुए हैं ,ग्रंथों की यह दशा देखकर मेरा हृदय आहत हो रोता है ।
 पुस्तकालय में जैन धर्म के उपलब्ध जैन ग्रंथ एकत्र हो इतना ही क्यों जब आज किसी भी जैनी को ठीक यह पता नहीं है कि कौन कौन से जैन ग्रंथ विशेष हैं ? तब भला कहिए कि वर्तमान में जैनी अयोग्य हैं या नहीं ? प्रोफेसर हीरालाल जी की योजना जो प्रगट हो चुकी है इस कलंक को मिटाने का ही उपाय बताती है । क्या जैन श्रीमान उस को सफल बनाएंगे ?


यह समाचार उन दिनों के समाचार पत्रों में छपे थे । श्री लाल बहादुर शास्त्री संस्कृत विश्वविद्यालय ,नई दिल्ली के जैन दर्शन विभाग द्वारा आयोजित विशिष्ट व्याख्यान माला में  डॉ अमित जैन (चाणक्य वार्ता ) द्वारा 'स्वतंत्रता संग्राम में जैन'  विषय पर व्याख्यान प्रस्तुत किया गया , उस समय उन्होंने अखबार की कटिंग सहित इन तथ्यों को उजागर किया था और मैंने अपनी डायरी में उस समय जो नोट्स बनाये थे उसके कुछ अंश यहां प्रस्तुत किये हैं ।
आज आवश्यकता है कि गांधी जी के ऊपर जैन धर्म के प्रभाव का गहन अनुसंधान हो और उसे प्रामाणिक रूप से सभी के समक्ष प्रस्तुत किया जाय ।


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