बड़की,बड़ी ना हुई......






 

बड़की,बड़ी ना हुई......

 

कहते है कि बेटियां जल्दी बड़ी हो जाती हैं पर यह आधा सच है....और आधा सच यह है कि बेटियां कभी बड़ी होती ही नही हैं....सयानी होती बेटी से अक्सर उसके पिता कह देते....तू कभी बड़ी होगी भी.... या नही.....अपनी बेटी में स्वयं को निहारती मैं बहुत दूर तक कि यात्रा कर आती....जहाँ आज भी सब कुछ वैसा का वैसा ही है...अम्मा की एक ना सुनने वाली मैं बाबा की बात उनके कहने से पहले ही समझ जाती....जैसे राजा की जान तोते में बसती थी,वैसे ही बाबा की जाना बरकी (बड़की) में बसती थी....बड़ी होती गई और आदतें बदलती गई....पर कुछ आदतें कहाँ बदलती है....बाबा कभी भी अपनी चाय पूरी नही पीते थे.....हमेशा थोड़ी बचाके मुझे दे देते...उनकी जूठी चाय का साधिकार पीना. किसी ईनाम से कम ना होता....थरिया में जानबूझकर भात ज्यादा परोसती कि कहीं उन्हें कम ना पड़ जाए.....बाबा  परसन (बाद में) जो नही लेते थे और फिर मेरा अंश भी तो उस थरिया में रहता जो बाबा पहले बरका-बरका चार कौर मुझे खिलाते...उस चार कौर से पेट भर जाता था।बाबा के हाथों से तृप्ति मिलती थी....वो चार कौर खाने के बाद बाबा के धोती से ही मुँह को पोछ लेना...और बाबा का कहना....बरकी कभी बर (बड़ी)होई भी कि ना!! और बड़की का बाबा की तरफ देखते हुए खिलखिला उठना...बाबा कहते बरकी की हँसी से अंगना भी हँसने लगता.....जब बात सादी (शादी) की चली तो बरकी सहम गई..... सहम गई कि उसके बाबा कैसे रहेंगे.....कौन देगा थरिया परोसकर, कौन उनकी धोती में हाथ पोछेगा.... अम्मा से छुपाकर कौन उन्हें लोंगलत्ती व गट्टा खिलायेगा.... खटिया पर बैठे शाम से तारों सितारों की बात बाबा से कैसे होगी..... क्या सादी के बाद फुआ की तरह मैं भी चिठ्ठी-पत्री से बतियाउंगी....मन में उठे हजारों सवाल जैसे बड़की को बड़ा बनने का आग्रह कर रहा हो.....पर बड़की की भी जिद्द थी.....जब तक बाबा के पास हूँ.... ऐसे ही रहूंगी..............सच में आज भी बाबा की बरकी कहाँ बड़ी हुई है.....वो धुंधले यादों में जाकर अब भी बाबा की धोती पकड़ खिंचती है.....लोंगलत्ती व गट्टा खाती है...और कभी-कभी अम्मा की बुराई कर हम दोनों बाप बेटी देर तक हँसते हैं....और बाबा कह उठते....बरकी हँसते रहना....देख अँगना हँस रहा है.....

बाबा की बड़की...

प्रतिभा


 

 



 



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