कौंधते विचार
कभी कभी मन बहुत उदास होता है मन करता है कि जी भर कर रोए, लिखते-लिखते आंखों में पानी बह रहा है। आखिर क्यों हम किसी के सही बात न करने या सही तरीके से व्यवहार ना करने से इतने दुखी हो जाते हैं तरह-तरह के विचार आने लगते हैं। खासतौर पर नाकारात्मक विचार बहुत तकलीफ़ होती है दिल में आखिर क्यों हुआ ऐसा क्या था जो इतनी नाराजगी जताई जा रही है। एक ही घर में रहते हुए उम्र ओर रिश्ते का भी लिहाज नहीं आखिर क्यों ओर इसी क्यों का जवाब सारी उम्र नहीं मिलता।
फिर दिमाग में विचार आता है कि क्यों हम अपने विचारों को लोकल ट्रेन में चढ़ने वाले यात्रियों की तरह अपना रहे हैं जो हर स्टेशन पर रुकती हुई चलती है और हर तरह के यात्री यानी विचार उतरते चढ़ते रहते हैं। ट्रेन में भीड़ रहती है। हमें अपने विचारों को राजधानी एक्सप्रेस के यात्रियों की तरह सोचना होगा ये ट्रेन ना तो हर स्टेशन पर रूकती है और यात्री भी कम होते है सिर्फ वो ही यात्री चढ़ते हैं जिन्हें अपनी मंजिल तक पहुंचना है। यानी कि हमें फालतू के विचार अपने मन में ना लाकर अपने दिमाग को राजधानी ट्रेन कि तरह बनाना है जिसमें कम ओर साफ़ यात्री ही चढ़ते हैं। हम अगर फालतू के विचार अपने दिमाग में ना आने दें और अच्छे विचारों
को अपने मन में रखें तो बेहतर होगा ओर जीना भी आसान होगा।
इस सोच के साथ ही मेरे मन में कुछ हद तक उदासी खत्म हुई ये सोच कर कि हम दुसरो की सोच को तो ठीक नहीं कर सकते लेकिन अपने विचारों को सही रखते हुए मन में मैल ना आने दें और अपने को खुश रखना चाहिए। ईश्वर ने जो हमें उपहार में अच्छी सुरत ओर सीरत दी है। उस पर गलत विचारों का आवरण ना चढ़ने दें।
रमा भाटी
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