जागरण का शंखनाद 






लघु  कथा

 

जागरण का शंखनाद 

              

जागरण अपने साथियों के साथ ,प्रतिदिन मिलन उद्यान में खेलने जाता है /वह कई दिनों से एक बुजुर्ग दादाजी को देख रहा है /दादा जी कभी किसी बेंच पर उदास बैठे हैं ,कभी मायूस टहल रहे हैं /तो कभी कांति हीन ,दीन हीन से ,टुकुर-टुकुर इस बेदर्द दुनिया को देख रहे हैं /जागरण ने सोचा आज खेल के बाद दादाजी से मिलूंगा ,पर ऐसा हो ना सका /जागरण घर पहुंचा तो अपने दादू का कमरा खाली था /मां दादू कहां है ? बेटा ,दादू अपने मित्रों से मिलने बाहर गए है /मैंने तो उनका कोई मित्र आज तक नहीं देखा ,होता तो मिलने नहीं आता /मां तुम सच बताओ दादू कहां है ? नहीं तो मैं  भोजन नहीं करूंगा /मां सन्न रह गई /क्या कहें ,इतने में जागरण के पापा अपने पिता को ,वृद्ध आश्रम छोड़ कर आ गए /मन में संतोष था एक झंझट टली , रोज-रोज की किच -किच  मिटी /जागरण ने पूछा पापा दादू कहां है ?बेटा किसी से मिलने कुछ दिनों के लिए बाहर गए हैं ,आ जाएंगे /तू तैयार होकर स्कूल जा /

जागरण उदास हो गया ,स्कूल में उसने अपने मित्रों से चर्चा की ,आज मेरे दादू कहीं चले गए ,मुझे अच्छा नहीं लग रहा है /तभी मित्र मंडली में उछलता कूंदता हुआ उल्लास आ गया /जागरण भाई आज उदास क्यों ?जागरण ने पूरा हाल सुना दिया /उल्लास बोला मुझे लगता है ,तेरे पापा दादू को किसी वृद्ध आश्रम में छोड़ आए है /जागरण हतप्रभ रह गया , उसके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा ,कोई पुत्र अपने पिता की ऐसे भी अपेक्षा कर सकता है /इतना गहरा दर्द दे सकता है /कुछ करना पड़ेगा /स्कूल के बाद सांझ उद्यान में खेलने गया /

आज  सौभाग्य से  दादा जी  मिल गए /  दादा जी एक बात पूछूं ,आप उदास क्यों रहते हैं ?तुझ जैसा प्यारा बच्चा , मेरे पास जो नहीं है /तुम्हारा कोई नहीं  है दादू /सब है ,अपनी दुनिया में /मेरे चार बेटे हैं ,सब मुझसे दूर रहते हैं /मैं अकेले ही अपनी जिंदगी का बोझ ढोता हूं /जागरण ने सोचा ,समस्या  गंभीर  है, कुछ करना पड़ेगा /दादा जी चिंता ना करो मैं तुमसे रोज मिलूगा , बातें करूंगा /

जागरण गहरी सोच में पड़ गया /क्या करूं ,कैसे अपने दादू का पता करु /तभी उसके स्कूल में ,वार्षिक उत्सव की तैयारी होने लगी /जागरण ने अपने  सभी मित्रों से  सलाहे की  और एक नाटक तैयार किया / स्कूल प्रबंधन ने अपने भूतपूर्व शिक्षकों ,एवं प्रिंसिपल का सम्मान भी रखा /उद्यान वाले दादाजी भी इस स्कूल के प्रिंसिपल थे /वार्षिक उत्सव मंगलाचरण स्वागत गान के साथ प्रारंभ हुआ / मंच संचालिका राधिका जी ने उद्घोषणा की ,शांति से बैठे रहे ,

अब प्रस्तुत है नाटक ,बुड्ढा बिकाऊ है /हाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज गया /

 प्रथम दृश्य में एक वृक्ष के नीचे धीर गंभीर मुद्रा में ,संत  ज्ञान सागर जी  महाराज विराजमान है /भक्त  प्रतीक्षारत है , संत मोन की गहराई से निकलकर कुछ  हितोपदेश दे /संत श्री ने  मोन की  अतुल गहराई से  निकल कर ,धीर गंभीर  बानी में  कहा , संसार में मां बाप की सेवा से बड़ा कोई धर्म नहीं है /गुरु जी एक प्रश्न है ,पूछो पुत्र, महाराज श्री क्या  उन  मां बाप की  सेवा भी  धर्म है ?जो  अपने  मां बाप को  वृद्ध आश्रम  में  छोड़ आए हैं , उन्हें अपमान उपेक्षा के  दंश दे रहे हैं / क्या  उन मां-बाप की  सेवा भी  धर्म है  जो अपने मां बाप को  अलग अलग रखते हैं / सर्वेंट क्वार्टर में रखते हैं / उनसे नौकरों जैसा काम लेते हैं /उन्हें पुराने वस्त्र पहनने को देते हैं / उनका सम्मान नहीं करते , उन्हें  बचा खुचा  भोजन देते हैं / उन्हें बोझ समझते है / नहीं नहीं नहीं ऐसे मां बाप की सेवा मैं तो नहीं करूंगा / संत श्री वोले,शांत हो बच्चा , आप सबको ऐसे मां बाप की सेवा भी करना चाहिए, वरना माता पिता पर अत्याचार का यह सिलसिला कभी नहीं रुकेगा /तुम अपने मां बाप के साथ दुर्व्यवहार करोगे ,फिर तुम्हारी संतान तुम्हारे साथ दुर्व्यवहार करेगी /यदि हमारा व्यवहार दूसरे के व्यवहार के अनुसार ही होगा ,तो हम कभी भी अच्छा नहीं बन पाएंगे /

 सभी दर्शक गहरी सोच में पड़ गए ,संत मोन हो गए / मंच पर पर्दा गिर गया ,पर दर्शकों के दिमाग से भी एक पर्दा उठ गया / कई दर्शक तो बोल पड़े , जैसी करनी वैसी भरनी /भाई वाह ,बच्चों ने तो कमाल कर दिया / मंच संचालिका ने घोषणा की , आप सभी  पैरंट्स  आज उपस्थित हैं  और आपने  अपने  बच्चों की अभिनय क्षमता को  देखा / उनकी कला इतनी जीवंत होकर प्रस्तुत हुई कि आप गहरे विचार में खो गये  और ताली बजाना भी भूल गए /अब प्रस्तुत है नाटक बुड्ढा बिकाऊ का अंतिम दृश्य /

दर्शक टकटकी लगाए विचार मग्न है ,अब क्या होता है ,किस चीज से पर्दा उठता है /मंच से पर्दा उठते ही आवाज गूंजती है , बुड्ढा बिकाऊ है माल यह टिकाऊ है ,खाता दो रोटी है ,घर का पहरेदार यह सदाबहार है /बच्चों के लिए यह घोड़ा है ,मनोरंजन का साधन है /आईए मेहरबान कदरदान बुड्ढा बिकाऊ है /क्या कहते हो बुड्ढा बिकाऊ है ,ऐसा भी कभी होता है ,बुजुर्ग के अपनी कहां है /बुजुर्ग के जो अपने हैं इसी जहां में हैं ,पर उनका अव अपना जहां है ,जिसमें मां-बाप की खांसी छींक ,रोक टोक, रात विरात पुकारना उन्हें स्वीकार नहीं है /भीड़ में से दयाल चाचा बोले ,हरे राम राम राम ,क्या जमाना आ गया है /यही बात बच्चे जब छोटे थे, मां बाप ने सोची होती ,तो बच्चे आज बड़े ही नही हो पाते / इनके लिए कई कई रात जागे हैं मां-बाप /घोर कलयुग /ऐसा क्या पाप किया था मां बाप ने ,कि यह  दुर्दिन देखना पड़ रहे हैं /इतना सुनते ही दयाल का साथी प्रकाश बोला ,इसका सबसे बड़ा पाप है इसने गुरु की बात नहीं मानी , गुरुदेव ने कहा था बच्चा संसार में अपनी आत्मा को छोड़ कोई अपना नहीं ,पर इसने पुत्र को अपना माना /उसके लिए  धर्म छोड़ा , पाप किया ,अपने भाई से  भेदभाव किया ,तीसरा साथी  कहां चुप रहता उसने कहा  मुझ बुद्धू लाल की बात ध्यान से सुनो /  पुत्र के लिए मां बाप यह सब करते ही हैं यह कोई पाप नहीं है / इसका सबसे बड़ा पाप है ,इसने बेटी पैदा नहीं की / यदि  इसकी  बेटी होती  तो  इसकी  यह  दुर्दशा  नहीं होती / बेटी अपने मां-बाप का  जितना ख्याल रखती है ,उतना  बेटे नहीं रख पाते /क्या कहते हो भाई ,इसकी बहू भी तो किसी की बेटी है /अरे भाई हर स्त्री चाहती है उसका बेटा श्रवण कुमार बन उसकी सेवा करें ,पर वह अपने पति को अपने मां-बाप के प्रति श्रवण कुमार बनता नहीं देख सकती / इसी विडंबना के चलते घर घर में कलह हैं / बुड्ढा बेचने वाला अभी भी आवाज लगा रहा था , बुड्ढा बिकाऊ है / भीड़ में से किसी ने पूछा ,भाई इसकी कीमत क्या है / कीमत , कीमत का क्या है भाई ,बुड्ढे से ही पूछ लो /

दादाजी आप ही वोलो ,क्या है आपकी कीमत /दादा जी ने  काँपते लरजते होठों से ,धीरे से कहा ,थोड़ी सी घर के किसी कोने में ,और  थोड़ी सी  दिल में  जगह /  दो जोड़ी कपड़े ,दो रोटी ,और दो मीठे बोल /इससे ज्यादा नहीं है मेरा मोल / भीड़ में से किसी ने फिर कहा ,इससे हमें क्या फायदा होगा / बुजुर्ग दादा जी ने कहा मेरे घर में होने के कई फायदे हैं /बुजुर्गों के रहते घर में बुराइयां आसानी से प्रवेश नहीं कर सकती /मेरी खांसी से चोर डरते हैं / बुजुर्ग  आदमी के चेहरे की एक -एक झुर्री पर हजार हजार अनुभव लिखे होते हैं /बूढ़ा आदमी इस धरती का चलता फिरता सबसे बड़ा शिक्षालय होता है / बुजुर्ग के  कांपते हुए हाथ  कहते हैं , जो करना है  आज कर लो  कल नहीं कर पाओगे / बुजुर्ग के डगमगाते  पैर कहते हैं ,जितनी तीर्थ यात्राएं करनी है ,अभी कर लो ,बुढ़ापे में  नहीं कर पाओगे /बुजुर्गों के प्रति  अपनों की  उपेक्षा कहती है  ,बच्चों का कर्तव्य मानकर लालन पालन करो   नाता तो  उस परम पिता परमात्मा से जोड़ो /बुजुर्गों की झुकी हुई  कमर कहती है , ज्यादा अकड़ कर मत चलो ,  एक दिन  खुद अपना बोझ नहीं उठा पाओगे / और सबसे बड़ी बात बुजुर्गों की दुआ दुआओं का कोई रंग नहीं होता लेकिन जब वो रंग लाती है तो जीवन में सुख शांति का सतरंगी इंद्रधनुष बन जाता है

थोड़ी सी सेवा से प्रसन्न हो बुजुर्ग दुआओं का ,आशीर्वादो का खजाना लुटा देते हैं /जिस घर में बुजुर्गों का आदर होता है ,उस घर से सुख शांति कभी नहीं रूठती / और सबसे बड़ी बात आज जो तुम्हारे बच्चे हैं वह जब अपने माता-पिता के द्वारा घर के बुजुर्गों की सेवा होते देखते हैं तो उनके अंदर भी सेवा करने का संस्कार पैदा होता है / भीड़ में से  एक युवक  रोता हुआ  आया  और बुजुर्गों के चरणों में  नमन कर  कहने लगा  दादाजी  मैं  अज्ञान बस , अपने पिता की उपेक्षा करता रहा / उनकी सेवा नहीं कर पाया  /वो हताश  निराश  दुखी मन के साथ ,इस दुनिया से चले गए /  आप मेरे साथ  मेरे घर चलो  शायद  आपकी सेवा से  मेरे कुछ पाप धुल जाए /  दर्शकों को पता ही ना चला कि मंच से पर्दा कब गिर गया , कब उनकी आंखों से आंसू बह निकले ,महिलाएं तो सिसक सिसक कर रो रही थी /कुछ लोग गहरे सन्नाटे में थे ,और टकटकी लगाए मंच की ओर देख रहे थे ,कि शायद अभी कुछ दृश्य और बाकी है /तभी जागरण का शंखनाद  करने वाला , नाटक का  डायरेक्टर  "जागरण " अपने साथी कलाकारों के साथ  मंच पर आया , सब को प्रणाम करके बोला ,हमारे इस छोटे प्रयास से  यदि आपके मन में  करुणा भाव जगा है  ,तो आज से  अपने माता-पिता की तो  सेवा करना ही  , तुम्हारे आसपास  कोई और बुजुर्ग भी  उपेक्षित हैं  उनकी भी सेवा करना / बुजुर्ग तो अंधेरे घर में , रोशनदान की तरह होते हैं ,जो रोशनी ही लुटाते हैं /जागरण के  माता-पिता उठे और जागरण को गले से लगा कर बोले ,चल बेटा तेरी दादू को वृद्ध आश्रम से घर ले आए /तू कितना बड़ा हो गया है /आज हमारी आंखों से अज्ञान का  पर्दा हटा दिया / उद्यान वाले दादू के बच्चों ने भी दादू के पैर पड़ कर क्षमा मांगी और उन्हें अपने साथ ले गए / 

मात-पिता की करो ना उपेक्षा ,

यही इस कहानी की शिक्षा /

"त्रिलोकी"धरती के भगवान यही है ,

कभी ना करें इनकी उपेक्षा //

साहित्य मित्र 

विधानाचार्य ब्रःत्रिलोक जैन 

बर्णी दिगंबर जैन गुरुकुल जबलपुर


 

 



 



प्रख्यात साहित्यकार गोवा की राज्यपाल डॉ मृदुला सिन्हा का निधन






25.11.2020  गोवा की पूर्व राज्यपाल, प्रख्यात साहित्यकार और वरिष्ठ भाजपा नेत्री मृदुला सिन्हा का उनके 78 वें जन्मदिन से कुछ ही दिन पहले बुधवार को दिल्‍ली में निधन हो गया। वह एक कुशल लेखिका भी थीं, जिन्होंने साहित्य और संस्कृति की दुनिया में व्यापक योगदान दिया था। 77 वर्षीय मृदुला सिन्हा बिहार में मुजफ्फरपुर की रहने वाली थी, पहले जनसंघ और फिर भाजपा से जुड़ीं। उन्होंने भाजपा की महिला शाखा की प्रमुख के रूप में भी काम किया। 

 श्रीमती सिन्हा अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमन्त्रित्व-काल में केन्द्रीय समाज कल्याण बोर्ड की अध्यक्ष.भी रह चुकी हैं। उनकी पुस्तक एक थी रानी ऐसी भी की पृष्ठभूमि पर आधारित राजमाता विजया राजे सिन्धिया को लेकर एक फिल्म भी बनी थी।वे एक कुशल वक्ता थीं  जैन धर्म का भी उन्हें तलस्पर्शी ज्ञान था ,अनेक कार्यक्रम में वे हमारे निमंत्रण पर  पधारीं 


उनके निधन पर श्री देशना परिवार की हार्दिक श्रद्धांजलि 

 



 



आदमी स्तंभ सा








































आदमी स्तंभ सा

 

कर्तव्यों के मिलान खांचो में

पूरी ना हुई जरूरतें रखी 

बाहर की धूप अंदर की आग में

 इच्छाओं को पिघला लिया

 पूरी की उसने  जिम्मेदारियां 

परिवार को टेका रहा

आखिर तक खड़ा रहा

आदमी स्तंभ सा

 

मिट्टी से लीपे निर्माण के आधार में

रिसाव पर पत्थर की खप्पचियां रखी 

हवा के थपेड़ों परेशानियों में

 मरम्मत कर हौसला बना लिया 

 ढलवा छतो को भी संभाला

बच्चों के लिए छाया बना 

पानी में तूफान में खड़ा रहा 

आदमी स्तंभ सा

 

ऐठदार घुमावो में पानी पीती दरारो में

इंतजाम की गठरी पहले से रखी 

भीगता खुद सिकुड़ता थामने को  

हर परिस्थिति में बनाता विश्वास 

जिम्मेदारियों को एहसास कहा 

और उठाता रहा गुजर के लिए 

परिवार के बसर के लिए 

है आदमी स्तंभ सा

             

🌹गरिमा खंडेलवाल🌹

            उदयपुर


 

 



 



 















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नमन








































नमन

 

प्रभु तुम्हें नमन हो

ना करे कभी नफ़रत

इस जहां में किसी से

क्या पता किसी रूप में

नाथ के दर्शन हो जाएं।

 

 

एक वही है सबका दाता

जो देता प्यार सभी को

नफरत नहीं सिखाता

इस जहां में किसी को।

 

प्रतिभा हमारी तुझसे

हे मेरे नाथ मालिक

नतमस्तक रहे सदा ही नहीं

अहंकार ना हो कभी भी।

 

मिट्टी का तन है अपना

 मिट्टी में ही तो मिल जाना

फिर काहे का गरूर इतना

किसी का दर्द ना समझ पाना

प्रभु तुम्हें नमन हो।

 

 

रमा भाटी


 

 



 



 













 










 

 








 

 







 







 




 





 




 



 



 


 


 


















 

 





 



 





 


 



 


 


*वफ़ा सीखना है 






*दोस्तों..*

*वफ़ा (वचन पालन, निष्ठा) आजकल मानवीय किरदार में अंशमात्र भी दिखाई नहीं देती हैं

.. ये शब्द मानवीय किरदारों से कुछ यूॅ गायब है

जैसे की धरा से डायनासोर..आज बात वफ़ा शब्द पर..!*

 

*वफ़ा सीखना है 

 

*वफ़ा सीखना है तो ताले से सीखो,*

*टूट जाता हैं मगर चाबी नहीं बदलता..!*

*एक मानव हैं की सुबह खाई कसम,*

*शाम होते होते अक्सर तोड़ देता..!*

*बड़ा तोड़ू क़िस्म का हो गया मानव,*

*ताले सी वफ़ा आज कहाॅ निभाता..!*

*किस पर यकीं करें किस पर न करें,*

*आज किसी को ये समझ नहीं आता..!*

*बड़ा सोचनीय किरदार हो गया मानव का,*

*जिस थाली में खाता छेद कर जाता..!*

*वफ़ा आजकल किताबों में मिलती,*

*हक़ीक़त में देखो आज कौन निभाता..!*

 

*कमल सिंह सोलंकी*

*रतलाम मध्यप्रदेश*


 

 



 



*क्या बहन बेटियाँ मायके सिर्फ लेने के लिए आती हैं*








































*क्या बहन बेटियाँ मायके सिर्फ लेने के लिए आती हैं*

मधुबाला 

खिडकी के पास खड़ी सिमरन सोचती हैं *भाईदूज* आने वाली है पर इस बार न तो माँ ने फोन करके भैया के आने की बात कही और न ही मुझे आने को बोला ऐसा कैसे हो सकता है। *हे भगवान बस ठीक हो सबकुछ। अपनी सास से बोली माँजी मुझे बहुत डर लग रहा है। पता नहीं क्या हो गया। मुझे कैसे भूल गए इस बार।* आगे से सास बोली कोई बात नही बेटा तुम एक बार खुद जाकर देख आओ। सास की आज्ञा मिलने भर की देर थी सिमरन अपने पति साथ मायके आती हैं परंतु इस बार घर के अंदर कदम रखते ही उसे सबकुछ बदला सा महसूस होता है। *पहले जहाँ उसे देखते ही माँ-पिताजी के चेहरे खुशी से खिल उठते थे इसबार उनपर परेशानी की झलक साफ दिखाई दे रही थी, आगे भाभी उसे देखते ही दौडी चली आती और प्यार से गले लगा लेती थी पर इसबार दूर से ही एक हल्की सी मुस्कान दे डाली।भैया भी ज्यादा खुश नही थे।*

 सिमरन ने जैसे-तैसे एक रात बिताई परन्तु अगले दिन जैसे ही उसके पति उसे मायके छोड़ वापिस गये  तो उसने अपनी माँ से बात की तो उन्होंने बताया इसबार *कोरोना* के चलते भैया का काम बिल्कुल बंद हो गया।ऊपर से और भी बहुत कुछ ।बस इसी वजह से तेरे भैया को तेरे घर भी न भेज सकी । सिमरन बोली कोई बात नहीं माँ ये मुश्किल दिन भी जल्दी निकल जाएँगे आप चिंता न करो।

*शाम को भैया भाभी आपस में बात कर रहे थे जो सिमरन ने सुन ली। भैया बोले पहले ही घर चलाना इतना मुश्किल हो रहा था ऊपर से बेटे की कॉलेज की फीस, परसो भाईदूज है सिमरन को भी कुछ देना पड़ेगा।*

 

आगे से भाभी बोली कोई बात नहीं आप चिंता न करो।ये मेरी चूड़ियां बहुत पुरानी हो गई हैं।इन्हें बेचकर जो पैसे आएंगे उससे सिमरन दीदी को त्योहार भी दे देंगे और कॉलेज की फीस भी भर देंगे। सिमरन को यह सब सुनकर बहुत बुरा लगा।

वह बोली भैया-भाभी ये आप दोनों क्या कह रहे हो। क्या मैं आपको यहां तंग करके कुछ लेने के लिए ही आती हुँ। वह अपने कमरे में आ जाती हैं।तभी उसे याद आता है अपनी शादी से कुछ समय पहले जब वह नौकरी करती थी तो बड़े शौक से अपनी पहली तनख्वाह लाकर पापा को दी तो पापा ने कहा अपने पास ही रख ले बेटा मुश्किल वक़्त में ये पैसे काम आएंगे। इसके बाद वह हर महीने अपनी सारी तनख्वाह बैंक में जमा करवा देती। शादी के बाद जब भी मायके आती तो माँ उसे पैसे निकलवाने को कहती पर सिमरन हर बार कहती अभी मुझे जरूरत नही, पर आज उन पैसों की उसके परिवार को जरुरत है।वह अगले दिन ही सुबह भतीजे को साथ लेकर बैंक जाती है और सारे पैसे निकलवा पहले भतीजे की कॉलेज की फीस जमा करवाती है और फिर घर का जरूरी सामान खरीद घर वापस आती है। अगले दिन जब भैया का टीका कर दिए तो भैया भरी आँखी से उसके हाथ सौ का नोट रखते है ।सिमरन मना करने लगती है *तो भैया बोले ये तो शगुन है पगली मना मत करना*

 

सिमरन बोली भैया बेटियां मायके शगुन के नाम पर कुछ लेने नही बल्कि अपने माँ बाप की अच्छी सेहत की कामना करने,भैया भाभी को माँबाप की सेवा करते देख ढेरों दुआएं देने, बडे होते भतीजे भतीजियो की नजर उतारने आती हैं। 

*जितनी बार मायके की दहलीज पार करती हैं ईश्वर से उस दहलीज की सलामती की दुआएं माँगती हैं।* 

जब मुझे देख माँ-पापा के चेहरे पर रौनक आ जाती हैं, भाभी दौड़ कर गले लगाती है, आप लाड़ लड़ाते हो,मुझे मेरा *शगुन* मिल जाता हैं।

 

अगले दिन सिमरन मायके से विदा लेकर ससुराल जाने के लिए जैसे ही दहलीज पार करती हैं तो भैया का फोन बजता है। उन्हें अपने व्यापार के लिए बहुत बड़ा आर्डर मिलता है और वे सोचते है सचमुच बहनें कुछ लेने नही बल्कि बहुत कुछ देने आती हैं मायके और उनकी आंखों से खुशी के आंसू बहने लगते है।

सचमुच बहन बेटियाँ मायके कुछ लेने नही बल्कि अपनी बेशकीमती दुआएं देने आती हैं। जब वे घर की  दहलीज पार कर अंदर आती हैं तो बरक़त भी अपनेआप चली आती हैं। हर बहन बेटी के दिल की तमन्ना होती हैं कि उनका मायका हमेशा खुशहाल रहे और तरक्की करे। *मायके की खुशहाली देख उनके अंदर एक अलग ही ताकत भर जाती हैं* जिससे ससुराल में आने वाली मुश्किलो का डटकर सामना कर पाती है। मेरा यह लेख सभी *बहन बेटियों* को समर्पित है और साथ ही एक अहसास दिलाने की कोशिश है कि वे मायके का एक *अटूट* हिस्सा है !!!!


 

 



 



 













 










 

 








 

 







 







 




 





 




 



 



 


 


 


















 

 





 



 





 


 



 


 


महावीर जयंती को मुनि दीक्षा व महावीर निर्वाण उत्सव पर समाधि का अद्भुत योग












































सराकोद्धारक आचार्यश्री ज्ञानसागरजी महाराज की समाधि 

महावीर जयंती को मुनि दीक्षा व महावीर निर्वाण उत्सव पर समाधि का अद्भुत योग

 


 

आचार्यश्री शांतिसागरजी महाराज छाणी महाराज की परम्परा के षष्ठ पट्टाचार्य, सराकोद्धारक राष्ट्रसंत आचार्यश्री ज्ञानसागरजी महाराज की समाधि 15 नवंबर 2020 (भगवान महावीर निर्वाण दिवस दीपावली) की शाम 6 बजे श्री शांतिनाथ दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र नसियाजी बारां (राजस्थान) में वर्ष 2020 के वर्षायोग कर रहे थे । श्री मुनिसुव्रतनाथ दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र जहाजपुर (राजस्थान) में पंचकल्याणक प्रतिष्ठा के बाद वे मार्च 2020 से बारां राजस्थान में विराजमान थे । आचार्य सुमतिसागरजी महाराज के प्रिय शिष्य का जन्म मध्यप्रदेश के मुरैना नगर में 1 मई 1957 को हुआ था । श्रावक श्रेष्ठी श्री शांतिलालजी - अशर्फीदेवीजी जैन के यहां आपका जन्म हुआ था । बचपन से सांसारिक वैराग्य को धारण करते हुए आपने 1974 में संत शिरोमणि आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज से ब्रहमचर्य व्रत अजमेर (राजस्थान) में लिया था । 5 नवंबर 1976 को सिद्धक्षेत्र सोनागिरिजी में आचार्यश्री सुमतिसागरजी ने उन्हें क्षुल्लक दीक्षा प्रदान कर गुणसागर नाम दिया था । उपरांत सन् 1988 में महावीर जयंती 31 मार्च 1988 को उन्हें सोनागिजी में मुनि दीक्षा प्रदान की गई और वे मुनि ज्ञानसागरजी महाराज के नाम से प्रसिद्ध हुए । 1989 में सरधना जिला मेरठ (उ.प्र.) में उन्हें उपाध्याय पद पर प्रतिष्ठित किया गया । 2013 में उन्हें अतिशय क्षेत्र बड़ागांव (उ.प्र.) में पंचम पट्टाचार्य विद्याभूषण सन्मति सागरजी के उपरांत छाणी परम्परा का षष्ठ पट्टाधीश आचार्य घोषित किया गया था ।

अहिंसा, शाकाहार, सामाजिक सरोकार के साथ प्रणी मात्र के प्रति संवेदनशील होकर अपनी चर्या में दृढ़ रहने वाले दिगम्बर मुनि के रुप में आपने उत्तर-दक्षिण-पूर्व-पश्चिम संपूर्ण भारत की पद यात्रा की । आपके 43 वर्ष के दीक्षाकाल में वार्षिक जैन प्रतिभा सम्मान समारोह, इंजीनियर्स सम्मेलन, डाॅक्टर्स सम्मेलन, अभिभाषक सम्मेलन, प्रशासनिक/पुलिस अधिकारियों का सम्मेलन, पत्रकार सम्मेलन, कर्मचारी/अधिकारी सम्मेलन, जैन विधायकों एवं सांसदों का सम्मेलन, वैज्ञानिक सम्मेलन, सी.ए.कांफ्रेस, बैंकर्स कांफ्रेंस, सराक सम्मेलन, ज्योतिषी सम्मेलन, एकेडमिक एडमिनिस्ट्रेटर कांफे्रंस, आई.आई.टी.छात्र सम्मेलन, जैन कॅरियर काउंसलिंग आदि के सफल आयोजन होते रहे । कोरोना संकट के दौरान भी झुम एप एवं गुगल मीट के माध्यम से कई आयोजन संपन्न हुए । 

बिछड़े हुए जैन जिन्हें सराक कहते है उन्हें अपना भाई बनाकर श्रावक बनाने का काम आचार्यश्री ने किया इस कारण उन्हें सराकोद्धारक के नाम से जाना जाता है । झारखण्ड बिहार के भीषण जंगल तड़ाई सराक क्षेत्र पेटरवार, रांची, गया आदि जगह उन्होंने ऐसे स्थानों पर चातुर्मास किए जहां रहने के लिए मात्र झोपड़ी ही थी और अनेक सराक बंधुओं को उनका मूल धर्म जैन श्रावक बताकर उन्हें जैन धर्म में शिक्षा-दीक्षा प्रदान की, जो कि उनका ऐतिहासिक कार्य था । सामाजिक सरोकारों से वे जुड़े हुए थे । जैन एकता के प्रबल पक्षधर थे । उन्होंने सोसायटी फाॅर सराक वेलफेयर एण्ड डेवलपमेंट मेरठ, श्री दिगम्बर जैन सराकोत्थान समिति गाजियाबाद, अखिल भारतीय दि.जैन सराक ट्रस्ट, संस्कृति संरक्षण संस्थान दिल्ली, श्रुत संवर्धत संस्थान मेरठ, ज्ञानसागर साइंस फाउण्डेशन दिल्ली, ज्ञान गंगा शाकाहार समिति दिल्ली, ज्ञान प्रतिभा संस्थान सूर्यनगर गाजियाबाद, श्रमण ज्ञान भारती मथुरा, गुरु ज्ञान सागर भारतीय सामाजिक संस्थान, देवबंद सहारनपुर सहित अनेको संस्थाओं के गठन में अपना आशीर्वाद एवं मार्गदर्शन प्रदान किया साथ ही जिन आगम के चारों अनुयोगों के ग्रंथों को छपवाकर अनेक स्थानों पर भिजवाया ।

आपकी प्रेरणा से अनेक पुरस्कार भी प्रदान किए जाते थे जिसमें ज्ञानसागर साइंस फाउण्डेशन द्वारा जैन लोरेट पुरस्कार भी दिया जाता रहा है । जैन धर्म पर अनुसंधान करने वाले देश एवं विदेशों के अनेक विद्वानों को पुरस्कार प्रदान कर उन्हें देश-विदेश में भेजने का काम भी आप करते थे । आपकी प्रेरणा से जेलों में कैदियों का हृदय परिवर्तन हुआ । आपके प्रवचनों से प्रभावित होकर अनेक खतरनाक अपराधियों ने अहिंसा धर्म को अपनाने का निश्चय किया था । पुलिस लाईन, न्यायालय, इंजीनियरिंग काॅलेज, मेडिकल काॅलेज, विश्वविद्यालय, बीएसएफ, मिलिट्रि कैंप सहित अनेकों जगह आपके प्रवचन समाज के लिए प्रेरणादायी होते थे । 

इसके अतिरिक्त आपकी प्रेरणा से जनहित के कार्य जैसे स्वास्थ्य परिक्षण, रोग निदान, तनाव मुक्ति, व्यसन मुक्ति शिविर आदि का आयोजन कर पीड़ित मानवता के प्रति सेवा की प्रेरणा भी आपके द्वारा दी जाती रही है । आपके द्वारा 14 मुनि आर्यिका एवं क्षुल्लक दीक्षा प्रदान की गई । आपके मार्गदर्शन में प्रशम मूर्ति आचार्यश्री शांतिसागरजी छाणी महाराज का समाधि हीरक महोत्सव 2019-20 में आयोजित किया गया जिससे छाणी परंपरा की प्रसिद्धी संपूर्ण देशभर में हुई । देश को विभिन्न माध्यमों से अपनी प्रेरणा प्रदान करने वाले आचार्यश्री का विजन बहुत बड़ा था वे हर व्यक्ति की प्रतिभा देखकर उसे समाज सेवा के कार्य में लगाते रहे । आपके मार्गदर्शन में अनेकों विधान, अनेकों पंचकल्याणक प्रतिष्ठा, वेदी प्रतिष्ठा, अनेक विद्यालय, पाठशाला आदि का आयोजन होता रहा । 

बच्चों से लेकर बड़ों तक सभी का मार्गदर्शन करने वाले आचार्यश्री का अशीर्वाद देश के प्रमुख राजनेताओं ने भी प्राप्त किया था । जिनमें उपराष्ट्रपति सर्वश्री भैरोसिंह शेखावत, लालकृष्ण आडवाणी, राजनाथसिंह, नरेन्द्रसिंह तोमर, अशोक गेहलोत, मुलायमसिंह यादव, शिवराजसिंह चैहान, दिग्विजयसिंह, कल्याणसिंह, प्रदीप जैन आदित्य, शीला दीक्षित, ज्योतिरादित्य सिंधिया, सचिन पायलट, साहिबसिंह वर्मा, अरविंद केजरीवाल, कपूरचंद घुवारा सहित अनेक राजनेता सम्मिलित है । आपका मार्गदर्शन समाज के लिए प्रेरणादायी था । देश के सभी वर्गों को आप एकत्रित करते रहे और एकता के साथ अहिंसा का संदेश देते रहे । आपके आशीर्वाद से अनेक प्रतिभाशाली विद्यार्थी बड़े होकर उच्च पदों पर पहुंचे और प्रतिदिन पानी छान कर पीने व मंदिर जाने व रात्रि भोजन न करने का नियम लेने के कारण वे जैनत्व का प्रचार करते रहे ।

पूज्य आचार्यश्री ज्ञानसागरजी महाराज कोरोना काल में मार्च 2020 से अतिशय क्षेत्र बारां  (राज.) में प्रवासरत थे, वहीं उनका वर्षायोग 14 नवंबर 2020 को ही संपन्न हुआ था । 15 नवंबर को भगवान महावीर का निर्वाण उत्सव उनके सान्निध्य में सानंद संपन्न हुआ । सायं 5 बजे आचार्यश्री ने अपनी दिनचर्या अनुरुप कार्य संपन्न किया । बारां के श्रावकों ने उनसे आशीर्वाद प्राप्त किया और आचार्यश्री नियमित प्रतिक्रमण हेतु अपने कक्ष में विराजमान थे उसी समय उन्हें संभवतः साइलेंट अटैक आया जिससे वे समाधि को प्राप्त हो गए । उल्लेखनीय तथ्य है कि आचार्यश्री की दीक्षा भगवान महावीर जयंती पर 31 मार्च 1988 को सोनागिर में हुई थी और उनकी समाधि भगवान महावीर के निर्वाण महोत्सव 15 नवंबर 2020 को हुई । यह उनकी तपस्या का उल्लेखनीय तथ्य है कि वे हमेशा भगवान महावीर के पथ पर चलकर अपने आपको तपा कर कुंदन बनाने की प्रक्रिया में संलग्न थे । ऐसा बताया जाता है कि वे कभी लेटकर विश्राम नहीं करते थे हमेशा उन्हें बैठा ही पाया गया । ऐसे अद्वितीय, अद्भुत संत जो बाल ब्रह्मचारी, क्षुल्लक, मुनि, उपाध्याय, आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए और हर पद की गरिमा को उन्होंने जिम्मेदारी से निभाया  जिसके कारण उनका दिगम्बर जैन श्रमण परम्परा में उल्लेखनीय योगदान रहा है जो स्वर्णिम अक्षरों में लिखा जाएगा ।

विनम्र विनयांजलि सहित... 

- राजेन्द्र जैन महावीर, 

संकलन- डाॅ. महेन्द्रकुमार जेन ‘मनुज’

 

 



 







 

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आओ मिलकर दीवाली पर मान बढा़एं माटी का

आओ मिलकर दीवाली पर मान बढा़एं माटी का


छोड़ के सारे फैशन आओ दीप जलाएं माटी का

जननी है यह माटी अपनी, कर्ज चुकाएं माटी का

छोड़ के सारे फैशन आओ दीप जलाएं माटी का

 

इसकी कीमत कहीं है ज्यादा , फैशन वालों के आगे

बांह पसारे सदा खड़ी यह, अपने लालों के आगे

बोझ है सहती, आह न करती, और शान से कट जाती

अपने बच्चों की खुशियों और निवालों के आगे

त्याग, धैर्य और कितना बलिदान गिनाएं माटी का

छोड़ के सारे फैशन आओ दीप जलाएं माटी का

 

छोड़ के आधुनिकता को , उस परिवार की तो सोचो

रोजी का जो सदियों से है, उस आधार की तो सोचो

साल-महीने उम्मीदों से, दीप बनाया है उसने

भूल के एक पल दुनिया को, उस कुम्हार की तो सोचो

दीप खरीदें उससे और, अधिकार दिलाएं माटी का

छोड़ के सारे फैशन आओ दीप जलाएं माटी का

 

विक्रम कुमार

मनोरा, वैशाली

बिहार

दीपावली 








































दीपावली 

 

हर परत इस जिन्दगी की है खुशी से बावली ।

नित नये छेड़े तराने कहती "शुभ दीपावली"।।

एक दीपक जगमगाता हर्ष और उल्लास का ।

वो प्रतीक हमेशा सुख-सौंदर्य और विलास का ।।

तारामय अम्बर सजा और कृष्ण-पक्ष की शाम है ।

लक्ष्मी-पूजन पर्व जिसका अमावस्या नाम है ।।

धन-धान्य देवी को करते नित निरंतर हम नमन ।

आनंदमय यह दिवस सबके ही लिये हो एक चमन ।।

प्यार की गंगा दिलों में एकता की हो लड़ी ।

रोशनी हर रूह में छाये जैसें चमके फुलझड़ी ।।

स्नेह के झरने के निर्मल जल से कर लें आचमन ।

फिर इसी के साथ कर लें नई दिशा की ओर गमन ।।

इस तरह ढलने से क़िस्मत भी बने सरताज है ।

शुभकामना के पुष्प अर्पित कर रहा "पुखराज" है ।

छा रहीं खुशियाँ बिखेरें अन्धकारी सांवली ।

नित नये छेड़े तराने कहती "शुभ दीपावली" ।

हर परत इस जिन्दगी की है खुशी से बावली ।

नित नये छेड़े तराने कहती "शुभ दीपावली"।।

(स्वरचित/मौलिक/अप्रकाशित)

 

 बृजेन्द्र सिंह झाला"पुखराज")

       कोटा (राजस्थान)


 

 



 



 













 










 

 








 

 







 







 




 





 




 



 



 


 


 


















 

 





 



 





 


 


 


दूरी 








































दूरी 

 

सुन्दरता की धुरी 

ना धरती सुंदर है 

ना आकाश सुंदर है 

सुंदर है तो 

दोनों के बीच की

दूरी सुंदर है 

ना स्त्री सुंदर है 

ना पुरुष सुंदर है 

सुंदर है तो 

दोनों के बीच की 

दूरी सुंदर है  

🔶🔶🔶🔶🔶🔶

जब हम धरती पर होते हैं 

तो आसमान की ओर देखते हैं 

जब आसमान में 

हवाई जहाज में होते हैं 

अथवा किसी 

पहाड़ पर होते हैं 

तो धरती की ओर देखते हैं 

जो बच्चा पहाड़ पर रहता है 

उसे तलहटी  

सुंदर दिखाई देती है 

वह जमीन पर

आना चाहता है 

जो बच्चा जमीन पर रहता है 

वह पहाड़ पर जाना चाहता है 

🔷🔷🔷🔷🔷🔷🔷🔷

यह मन है "त्रिलोक"

जहां हैं वहां नहीं 

रहना चाहता है 

यही तो दुख यही है पीडा  

अब ठहर जा अपने में  

कुछ ना मिलेगा सपने में 

खुद को पाले अपने में 

🎄🎄🎄🎄🎄🎄🎄🎄

   🔶साहित्य मित्र 🔶

विधानाचार्य ब्रःत्रिलोक जैन 

 


 

 



 



 













 










 

 








 

 







 







 




 





 




 



 



 


 


 


















 

 





 



 





 


 


 


मुझे चांद चाहिए









































मुझे चांद चाहिए

 

वो खिलौना

जिसकी चाहत थी

बचपन में मिल ना सका

बाली उमर का देखा सपना

अधूरा रहा पूरा न हो सका

वो लमहाट, जो बिताना चाहे प्रिय के संग

पर बिता न सके

मुझे वह सब चाहिए

जो महसूस न कर सकी में

कोई है, जो देगा मुझे ये सब

मेरा वादा है मैं महसूस करूंगी

सब कुछ उतनी ही शिद्दत से पहले अनुभूति की तरह

मेरा दिल मेरी आत्मा

कोरी है एक कागज़ की तरह

कोई है जो मुझे देगा,  

क्या सुना ?मुझे चांद चाहिए

हां मुझे चांद चाहिए

 

             कुन्ती

 

 

एक अलग सी अभिव्यक्ति


 

 



 



 













 











 

 








 

 







 







 




 





 




 



 



 


 


 


















 

 





 



 





 


 


 


नहीं होंगे कभी जुदा हम








































 

नहीं होंगे कभी जुदा हम

 

नहीं होंगे कभी जुदा हम

शर्तिया फर्मुला बताते हैं हम

 

रब ने दिल दिया,

दिमाग़ दिया और

दिया ज़ज़्बा

दर्द हम सुबहा-शाम

खुद इज़ाद करते हैं

 

इत्तफ़ाकन हादसा

गर कोई हो जाता है

कभी ग़लतफ़हमी का

दिल शिकार हो जाता है

 

कभी नादानी में

गुनाह कर जाता है

कभी गुमनाम राहों में

लड़खड़ा के चोट खाता है

 

कभी जानबूझ के,

तबाह वज़ूद हो जाता है

कभी गुमनाम राहों में

लड़खड़ा के चोट खाता है

 

पहले अपनों को

गले लगाना सीखो

उनके ज़ख्म को प्यार की,

मरहम से सहलाना सीखो

पुराने खोये रिस्तों को

दिल से निभाना सीखो

 

यह रिस्ता खुदगर्ज़ी नहीं,

आइन है इंसानी खून का

ज़िम्मेवारी से क़ायनात

की यही सांझेदारी है

 

अपनों के अश्कों की सेज पे,

दूजे की ज़िन्दगी,

क्या सँवार पाओगे?

अपनों को ठुकरा के,

औरों को ख़ाक,

अपना अहबाब बन पाओगे

 

अपना बनाना

नहीं उतना मुश्किल

अपना बना के

निभाना बेहद मुश्किल

 

किसी को अपना बना,

ग़र बसर की है

किसी को अपनों से जुदा कर,

गरचे सोहबत की है

 

त़ाज़िंदगी रिस्ता निभाना पड़ेगा

नहीं तो क़ुदरत के कहर से

मिट्टी में मिल जाना पड़ेगा

 

नहीं होंगे कभी जुदा हम

मोहब्बत में पीते हैं गम

आँसुओं को पोछने से

अलविदा कर जाता है गम

 

खुशियाँ बाँटते रहें हरदम

बुझ जाये विरह की अगन

कहता है यहीं कवि का मन

 

नहीं होंगे कभी जुदा हम

शर्तिया फर्मुला बताते हैं हम

 

डॉ. कवि कुमार निर्मल 


 



 



 













 










 

 








 

 







 







 




 





 




 



 



 


 


 


















 

 





 



 





 


 


 


*सीधी कील-ठेड़ी खीर*









































*सीधी कील-ठेड़ी खीर*

 

सीधी कील ठोकना

बड़ी ठेड़ी खीर है 

स्वादिष्ट और पोष्टिक 

खीर को बनाना ही तो 

बहुत कठिन काम है,

सीधी कील ठोके बिना

मजबूती आती भी तो नहीं

ठेड़ी-मेढ़ी कील से

पकड़ बनती भी तो नहीं

बिना पकड़ और मजबूती के

कोई भी तो सामान

काम का होता भी तो नहीं,

सीधी कील बनने के लिये

हर एक इन्सान को 

उचित आकार में

समुचित प्रकार से 

ठलना पड़ता है,

चतुर और चालाक 

इन्सानों से सम्बन्ध

ठेड़ी-मेढ़ी कील की तरह

कामचलाऊ जैसा होता है

सीधी ठुकी हुई कील की तरह

मजबूत और ठिकाऊ नहीं,

सीधा-सादा जीवन

सीधी कील की तरह

मंजिल पर सीधी पहुँच,

ठेड़ी-मेढ़ी कील

मोहमाया का जीवन

बिना मंजिल के पहुँच से दूर 

घुमावदार भटकन ही भटकन

जीवन में अटकन ही अटकन

 

*साथी जहानवी*

अजय कुमार शर्मा


 

 



 



 













 











 

 








 

 







 







 




 





 




 



 



 


 


 


















 

 





 



 





 


 


 


दोहे






"दोहे" 

 

1.सबके केवट राम हैं , 

"वो"हैं दिल के पास,

सरयू सबके लिए है ,

एक मंजिल इक आस .

2. नैया जीवन की चली, देख कर दुनिया दंग , लहर बन लहराए है, जीवन की हर उमंग.

 3.माटी ,पानी ,आग ,हवा

  ,शून्य है क्यों आधार. तीन रंगों की यह जमीन त्रिमयी है संसार  .

4. धर्म अर्थ और काम मोक्ष ,

 जगत रचें   ये चार,

वेद शास्त्र मिलकर सदा, मानव को देत संस्कार. 

 

5.हिम्मत रखो बढ़ते चलो, 

मिल जाएगी  राह  ,   श्रद्धा ,प्रेम व विश्वास से पूरी होगी चाह .

 

 

रजनी अग्रवाल 


 

 



 



 रिश्ते बड़े या पैसा






 रिश्ते बड़े या पैसा

 

राम और श्याम दोनों बहुत ही अच्छे दोस्त थे ।

राम की पत्नी बहुत ही समझदार 

और पॉजिटिव सोच रखती थी जिससे उसका परिवार बहुत ही सुखी था। राम की पत्नी ने करवा चौथ का व्रत रखा था लेकिन वह हमेशा की तरह चेहरे पर मुस्कान लिए सास ,ससुर ,देवर सबकी सेवा मे लगी थी। रात के समय जब ,अपने पति के हाथ व्रत छोड़ा। तो राम ने अपनी पत्नी से कहा मैं बहुत शर्मिंदा हूँ। कि मैं तुम्हारे लिए एक भेंट भी न ला सका। तो उसकी पत्नी ने कहा आपने तो इतना अच्छा परिवार दिया है ।सास ,ससुर ,देवर और आपका प्यार मेरे साथ है, इससे बड़ा क्या तोहफा होगा।

इधर शाम की पत्नी ने भी करवा चौथ का व्रत रखा था, लेकिन वह अपने पति से नाराज थी कि उसके लिए डायमंड का सेट नहीं लाए ।

फिर श्याम की पत्नी ने राम की पत्नी को फोन किया और पूरा वृतांत बताया। तो उसने समझाया की सबसे बड़ा तोहफा तो यह रिश्ते होते हैं ,यह अनमोल होते हैं ।पैसे तो आते जाते हैं ,इन रिश्तो को संजोके  रखो। उसको बहुत पश्चाताप हुआ अपने पति से माफी मांगी और खुशी खुशी अपने परिवार के साथ रहने लगी।

 

मुस्कान बच्चानी

बिलासपुर छत्तीसगढ़


 

 



 



घर -- मेरा नीड़









































*।।  घर -- मेरा नीड़ ।।*

 

विश्वास की जमीन,

         कड़वे अनुभवोंकी गिट्टी,

   सहनशीलतासे ओतप्रोत रेत,ब

        और  चुप्पीसे बनी सीमेंट,

     खुशीसे सराबोर पानी,

         भरौसे की नींव के पत्थर,

      समझौते की  सलाखें,

          सामंझस्य की फर्श,

      इंसानियत के दरों--दरवाजें,

           अच्छाई की खिड़कियां,

     और  सादगिसे बनी छत,

            क्षमा और मैत्रीके रंग बिखेर कर,

     एक मकान नुमा बने घरको,

             मैने बडेही जतनसे संवारा है।

       जहां हम हंसी--ठिठोली करते,

          इठलाते, प्यारभरी ऊष्मा के संग  

                   रहते है, वो  है,

            

        ।। मेरा घर------ मेरा नीड़।।

 

             *किरण सेठ, अमरावती*


 

 



 



 













 











 

 








 

 







 







 




 





 




 



 



 


 


 


















 

 





 



 





 


 


 


 आस्था








































 आस्था

 

 विश्वास पर जीवन बना है।

 देखो  पेड़ कैसा तना है।

 जमीं से जुड़ वह तो खड़ा है।

 मांँ की छाँव बच्चा बड़ा है।।

 

 विश्वास की सीढ़ी बनी है।

 यही सफलता की जननी है।

 कर भरोसा आजअपने पर।  

 पूरा कर झूमें सपने पर।।

 

 आस्था पग रख जो गगन पर।

 डूबा हो काम में मगन पर।

 मिल जाए जो चाहता है।

 देगा वही जो मांगता है।।

 

 जला प्रेम के दीपक सारे।

 घनी रात तम भी जो हारे ।

चल निकल कर नाद आशा का।

 लिख व्योम नई परिभाषा का।।

 

देख प्रभंजन भी है हारे ।

झुकता गगन चमके नजारे ।

मान ले बार उठा अष्त्र भी।

 भेद दे गगन उठा शस्त्र भी।।

 

 चंद्र किरण शर्मा ,

भाटापारा छत्तीसगढ़।।


 

 



 



 














 

 








 

 







 







 




 





 




 



 



 


 


 


















 

 





 



 





 


 


 


      *ईश्वर का न्याय*

      *ईश्वर का न्याय*

 

*भिक्षा ले कर लौटते हुए एक शिक्षार्थी ने मार्ग में मुर्गे और कबूतर की बातचीत सुनी। कबूतर मुर्गे से बोला- “मेरा भी क्या भाग्य है? भोजन न मिले, तो मैं कंकर खा कर भी पेट भर लेता हूँ। कहीं भी सींक, घास आदि से घोंसला बना कर रह लेता हूँ। माया मोह भी नहीं, बच्चे बड़े होते ही उड़ जाते हैं। पता नहीं ईश्वर ने क्यों हमें इतना कमजोर बनाया है? जिसे देखो वह हमारा शिकार करने पर तुला रहता है। पकड़ कर पिंजरे में कैद कर लेता है। आकाश में रहने को जगह होती तो मैं कभी पृथ्वी पर कभी नहीं आता।"*

 

*मुर्गे ने भी जवाब दिया-“ मेरा भी यही दुर्भाग्य है। गंदगी में से भी दाने चुन चुन कर खा लेता हूँ। लोगों को जगाने के लिए रोज सवेरे सवेरे बेनागा बाँग देता हूँ। पता नहीं ईश्वर ने हमें भी क्यों इतना कमजोर बनाया है? जिसे देखो वह हमें, हमारे भाइयों से ही लड़ाता है। कैद कर लेता है। हलाल तक कर देता है। पंख दिये हैं, पर इतनी शक्ति दी होती कि आकाश में उड़ पाता तो मैं भी कभी भी पृथ्वी पर नहीं आता।“*

 

*शिष्य ने सोचा कि अवश्य ही ईश्वर ने इनके साथ अन्याय किया है। आश्रम में आकर उसने यह घटना अपने गुरु को बताई और पूछा-“ गुरुवर, क्या ईश्वर ने इनके साथ अन्याय नहीं किया है?*

 

*ॠषि बोले- “ईश्वर ने पृथ्वी पर मनुष्य को सबसे बुद्धिमान प्राणी बनाया है। उसे गर्व न हो जाये, इसलिये शेष प्राणियों में गुणावगुण दे कर, मनुष्य को उनसे, कुछ न कुछ सीखने का स्वभाव दिया है। वह प्रकृति और प्राणियों में संतुलन रखते हुए, सृष्टि के सौंदर्य को बढ़ाए और प्राणियों का कल्याण करे।* 

 

*मुर्गे और कबूतर में जो विलक्षणता ईश्वषर ने दी है, वह किसी प्राणी में नहीं दी है। मुर्गे जैसे छोटे प्राणी के सिर पर ईश्वर ने जन्मजात राजमुकुट की भाँति कलगी दी है। इसीलिए उसे ताम्रचूड़ कहते हैं। अपना संसार बनाने के लिए, उसे पंख दिये हैं किन्तु उसने पृथ्वी पर ही रहना पसंद किया। वह आलसी हो गया।* *इसलिए लम्बी उड़ान भूल गया। वह भी ठीक है, पर भोजन के लिए पूरी पृथ्वी पर उसने गंदगी ही चुनी। गंदगी में व्याप्त जीवाणुओं से वह इतना प्रदूषित हो जाता है कि उसका शीघ्र पतन ही सृष्टि के लिए श्रेयस्कर है। बुराई में से भी अच्छाई को ग्रहण करने की सीख, मनुष्य को मुर्गे से ही मिली है। इसलिए ईश्वर ने उसके साथ कोई अन्याय नहीं किया है।“* 

 

*”किन्तु ॠषिवर, कबूतर तो बहुत ही निरीह प्राणी है। क्या उसके साथ अन्याय हुआ है?” शिष्य ने पूछा।* 

 

*शिष्य, की शंका का समाधान करते हुए ॠषि बोले-“पक्षियों के लिए ईश्वर ने ऊँचा स्थान खुला आकाश दिया है, फिर भी जो पक्षी पृथ्वी के आकर्षण से बँधा, पृथ्वी पर विचरण पसंद करता है, तो उस पर हर समय खतरा तो मँडरायेगा ही। प्रकृति ने भोजन के लिए अन्न बनाया है, फिर कबूतर को कंकर खाने की कहाँ आवश्यकता है।* *कबूतर ही है, जिसे आकाश में बहुत ऊँचा व दूर तक उड़ने की सामर्थ्य है। इसीलिये उसे “कपोत” कहा जाता है। वह परिश्रम करे, उड़े, दूर तक जाये और भोजन ढूँढे । “भूख में पत्थर भी अच्छे लगते हैं” कहावत, मनुष्य ने कबूतर से ही सीखी है, किन्तु अकर्मण्य नहीं बने। कंकर खाने की प्रवृत्ति से उसकी बुद्धि कुंद हो जाने से कबूतर डरपोक और अकर्मण्य बन गया। यह सत्य है कि पक्षियों में सबसे सीधा पक्षी कबूतर ही है, किन्तु इतना भी सीधा नहीं होना चाहिए कि अपनी रक्षा के लिए उड़ भी नहीं सके। बिल्ली का सर्वप्रिय भोजन चूहे और कबूतर हैं। चूहा फिर भी अपने प्राण बचाने के लिए पूरी शक्ति से भागने का प्रयास करता है, किंतु कबूतर तो बिल्ली या खतरा देख कर आँख बंद कर लेता है और काल का ग्रास बन जाता है। जो प्राणी अपनी रक्षा स्वयं न कर सके, उसका कोई रक्षक नहीं। कबूतर के पास पंख हैं, फिर भी वह उड़ कर अपनी रक्षा नहीं कर सके, तो यह उसका दोष। ईश्वर ने उसके साथ भी कोई अन्याय नहीं किया 

 

(2) 

   *धर्म*

 

_*रूपनगर में एक दानी और धर्मात्मा राजा राज्य करता था। एक दिन उनके पास एक साधु आया और बोला,*_ _*'महाराज,आप बारह साल के लिए अपना राज्य दे दीजिए या अपना धर्म दे दीजिए।'*_ 

 

_*राजा बोला, *'धर्म तो नहीं दे पाऊंगा। आप मेरा राज्य ले सकते है।' साधु राजगद्दी पर बैठा और राजा जंगल की ओर चल पड़ा। जंगल में राजा को एक युवती मिली। उसने बताया कि वह आनंदपुर राज्य की राजकुमारी है। शत्रुओं ने उसके पिता की हत्या कर राज्य हड़प लिया है।*_

                                                     _*उस युवती के कहने पर राजा ने एक दूसरे नगर में रहना स्वीकार कर लिया। जब भी राजा को किसी वस्तु की आवश्यकता होती वह युवती मदद करती।  एक दिन उस राजा से उस नगर का राजा मिला। दोनों में दोस्ती हो गई।*_

                                                           _*एक दिन उस विस्थापित राजा ने नगर के राजा और उसके सैनिकों को भोज पर बुलाया। नगर  का राजा यह देखकर हैरान था कि उस विस्थापित राजा ने इतना सारा इंतजाम कैसे किया। विस्थापित राजा खुद भी हैरान था। तब उसने उस युवती से पूछा, 'तुमने इतने कम समय में ये सारी व्यवस्थाएं कैसे की?'*_

                          

_*उस युवती ने राजा से कहा, *'आपका राज्य संभालने का वक्त आ गया है। आप जाकर राज्य संभाले। मैं युवती नहीं,धर्म हूँ। एक दिन आपने राजपाट छोड़कर मुझे बचाया था,इसलिए मैंने आपकी मदद की।जो धर्म को जानकर उसकी रक्षा करता है, धर्म उसकी रक्षा करता है। जहां धर्म है, वहां विजय है। इसलिए धर्म को गहराई से समझना आवश्यक है।'*_

 

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 "खुली आंखों से देखा है एक सपना"











 "खुली आंखों से देखा है एक सपना"

 


अनंत रोशनी के बीच,

क्यों धुंधली है राह?

 

राह- जो जाती है उस पार,

हां, उस पार-

जहां छिपा है जीवन का सार,

 

क्यों ओझल है?

राह पर बने पुल के नीचे बहता निर्झर?

 

निर्झर वो कैसा?

जिसका स्रोत ब्रम्ह है-

किन्तु है सबके लिए सीमित।

 

नहीं बना सकता कोई भी,

इस नदी पर बांध,

सवाल है क्यों? 

क्योंकि स्वयं 'काल' भी,

पीता है इसी घाट का पानी;

 

अनगिनत मुश्किलें और भी हैं,

इसी राह पर,

जो हो रही 'प्रकीर्णित',

जीवन की अनंत रोशनी में बिखरे अंधकार के कणों द्वारा;

 

खुली आंखों से देखा है एक सपना,

सबकी आंखों पर हो एक चश्मा,

 

चश्मा वो कैसा?

छांट सके जो अंधकार के इन कणों को,

और रोक सके इस 'प्रकीर्णन' को;

 

क्योंकि,

इस राह की शुरुआत 'जन्म' है,

और इसका मुहाना है- 'मृत्यु का द्वार'!!

 

मनीष कुमार सिंह

 



 

 



 



 




 
















 

 







 







"कुछ लोगों को हर संबंध में दुःख क्यों मिलता है?"  








































"कुछ लोगों को हर संबंध में दुःख क्यों मिलता है?"  

 

{आलेख- कमलेश कमल}

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"आप स्वयं दुःखी हैं, तो पार्टनर से दुःख-प्राप्ति की प्रबल संभावना है। आप उदास हैं और अपने पार्टनर से अपनी उदासी भगा देने की अपेक्षा रखते हैं, तो आप निस्संदेह ही एक भोले-भाले मूर्ख व्यक्ति हैं। महत्त्वपूर्ण यह है कि आप अपने रिश्ते को कितना सींचते हैं? कितना खाद-पानी देते हैं? कितनी ऊर्जा देते हैं?"

 

जुड़ने की मानवीय-लालसा संबंधों के बनने का कारण है। इस जुड़ाव से सुख मिले, यह तो अभिकांक्षा रहती ही है। तथ्य तो यह है कि किसी भी रिश्ते में सुख सबसे प्रेरक तत्त्व होता है। पर क्या संबंध सुख देते हैं? निर्भ्रान्त सत्य यह है कि संबंध सुख नहीं देते; न ही दुःख देते हैं। हाँ, हम सुख या दुःख पाते हैं, यह अलग बात है।

 

हमारे संबंध वैसे नहीं होते, जैसे कि हम कामना करते हैं, ये वैसे होते हैं- जैसे हम होते हैं। संबंधों में रस के लिए हमें रसपूर्ण होना होता है। संबंधों में सकारात्मक परिवर्तन के लिए सिर्फ जानना नहीं, करना महत्त्वपूर्ण होता है। महत्त्वपूर्ण होता है कि जब सब हमारी पूर्व धारणाओं के अनुसार नहीं हो रही होती हैं, तब हम बिना उबले, बिना मुँह फुलाए धीरज के साथ कैसे रह पाते हैं। जब सच में ही बदलाव चाहिए तब बैठकर जिज्ञासित को जानने में लगेंगे, तो गाड़ी छूट जाएगी।

 

उपर्युक्त तथ्य को एक उदाहरण से देखते हैं: एक व्यक्ति बैंक में एक हज़ार रुपया जमा कर अगर यह इच्छा करे कि यह एक लाख या दस लाख हो जाए, तो इसे दिवा-स्वप्न कहते हैं। पुनश्च, किसी संबंध में थोड़ा निवेश कर बहुत की कामना करना क्या दिवा-स्वप्न नहीं है? 

 

वैसे, यह भी सम्भव है कि कोई  व्यक्ति भावनात्मक बैंक की जगह किसी भावनात्मक-लॉटरी में निवेश कर दे और 'ड्रा' न निकलने पर भाग्य को या लॉटरी को कोसने लगे। वैसे यह देखा जाता है कि लोग लॉटरी में कम निवेश कर ज़्यादा की उम्मीद करते हैं, नहीं मिलने पर दुःखी होते हैं और मिल जाने पर उसकी कद्र नहीं करते, कुछ ही समय में सारा पैसा हाथ से निकल जाता है। यही हाल भावनात्मक लॉटरी का है। 

 

कहने का आशय बस इतना कि अशांत और उच्छिन्न चित्त से किसी संबंध में होना और उससे दिव्य और उदात्त प्रेम की कामना करना 'भावनात्मक-बचकानापन' है। ऐसे लोग अच्छे-से-अच्छे संबंधों में खटास ले आने की कला में माहिर हो जाते हैं और किञ्चित् यह संबंध पति-पत्नी का हो, तो नित्यप्रति महाभारत घटित होने लगता है। ऐसे लोगों के बारे में ग्रीक नाटककार युरिपीडिस ने सटीक लिखा है-"शादी करें और यह अच्छा जा सकता है; परंतु जब यह असफल होता है, तब जो शादी करते हैं, वे घर में ही जेल की तरह रहते हैं।"

 

निष्कर्षतः, अगर बार-बार या हर बार किसी को संबंध में दुःख मिले, तो उसे इतना तो समझ ही जाना चाहिए कि दिक़्क़त संबंध में या दूसरों में नहीं, अपितु ख़ुद के व्यक्तित्व या नज़रिये में है। देखा गया है कि भावुक-आत्माओं के लिए यह मानना कि किसी संबंध में मिलने वाले दुःख के लिए वे ही ज़िम्मेदार हैं, कठिन होता है, दुर्वह होता है।

 

अपनी ग़लती मानना कष्टप्रद होता है; क्योंकि यह अपराधबोध उत्पन्न करता है। दूसरी ओर, प्रेम में विफलता का ठीकरा नियति या किसी अन्य पर फोड़ना एक आसान विकल्प होता है। यह एक तथ्य है कि मनुष्य आसान विकल्प चुनता है।

 

यह भी एक तथ्य है कि आप दूसरे को जो देंगे, वही आपको भी मिलेगा। अगर आप जिसके साथ संबंध में हैं, उसे दुःख देंगे, तो उससे भी लौटकर दुःख ही मिलेगा।

 

प्रेम और घृणा के इस अंतर्सम्बन्ध पर एक मनोवैज्ञानिक ने एक महत्त्वपूर्ण और श्रेयात्मक शोध किया। उसने किसी विश्वविद्यालय की एक कक्षा के कुछ विद्यार्थियों से कहा कि कक्षा के बाक़ी विद्यार्थियों में से वे जिन्हें भी घृणित पाते हों, तीस सेकेंड के अंदर उसका नाम लिखें।

 

सभी विद्यार्थियों ने जो लिखा, वह एक-दूसरे को नहीं दिखाया गया। एक विद्यार्थी ने किसी को भी घृणित नहीं पाया, तो एक ने तेरह विद्यार्थियों के नाम लिखे।

 

शोध के निष्कर्ष में एक महत्त्वपूर्ण बात यह आई कि जिस विद्यार्थी ने किसी को घृणित नहीं पाया, उसे भी किसी ने घृणित नहीं पाया- एक ने भी उसका नाम नहीं लिखा। दूसरी तरफ़, जिस विद्यार्थी ने तेरह अन्य को घृणित पाया, सबसे ज़्यादा विद्यार्थियों ने उसे भी घृणित पाया।

 

इससे यह निष्कर्ष निकला कि हम लोगों को जैसा समझते हैं, वे भी हमें वैसा ही समझते हैं। हमें यदि दुःख मिल रहा है, तो यह अवश्य विचार करना चाहिए कि हमसे भी लोगों को दुःख ही मिल रहा होगा।  

 

यह भी महत्त्वपूर्ण है कि हम संबंधों के निर्वहन को गम्भीरता से लें और विवेकपूर्ण व्यवहार करें। अगर असंयम या विवेकरहित होकर किसी संबंधी से बात करेंगे या व्यवहार करेंगे, तो आपसी प्रेम और विश्वास का क्षरण होगा। 

 

यह अनुभवजन्य सत्य है कि आकुलित और व्यथित मन परिवार के लोगों से या किसी स्वजन से कुछ भी कह देता है। इसका स्थायी महत्त्व नहीं होता। यह ऐसा ही है जैसे नशे में कही गई बातों का बाद में कोई महत्त्व नहीं होता। ऐसे में, रिश्ते की भलाई के लिए आवश्यक है कि हम विवेक से काम लें और ऐसे व्यथित या व्याकुलित रिश्तेदार की किसी बात को पकड़ कर न बैठे रहें और ताना तो बिलकुल ही न दें। वैसे, यह कर पाना कठिन होता है क्योंकि मानव मन नकारात्मकता के प्रति अतिरिक्त संवेदनशील होता है। यह लोगों के बुरे व्यवहार को अच्छे व्यवहार की तुलना में अधिक याद रखता है।

 

कभी-कभी हमारे व्यक्तित्व की कमज़ोरी हमारे व्यवहार में दिख जाती है, जिससे हमारे अपने आहत हो जाते हैं। अपनी आदतों के ग़ुलाम होकर हम कभी-कभी आपसी संबंधों में भी ग़लत प्रतिक्रिया दे देते हैं, या सही प्रतिक्रिया सही तरह से नहीं दे पाते हैं। यह सामने वाले को आहत और विदीर्ण करता है। संबंध की मिठास और शक्ति को कम करता है। यह कभी विस्मरण न हो कि संबंधित मित्र या रिश्तेदार हमारे लिए पूर्व में कितना कुछ कर चुके हैं। उनके प्रति हमारी कोशिश हो कि सिर्फ़ शब्द ही नहीं...शरीरिक भाव-भंगिमाएँ भी सम्मानजनक हों। 

 

जिस चीज़ की हम अवज्ञा करेंगे, अनादर करेंगे, वह टिकती नहीं। अगर विवेकविरुद्ध कार्य या आचरण करेंगे, तो विवेक की वृध्दि रुक जाएगी। इसी तरह विवेकरहित और प्रेमरहित व्यवहार निभाने से संबंध में आपसी प्रेम और विश्वास खो देंगे। अगर संबंध को स्थायी रखना है, तो विवेक और प्रेमयुक्त व्यवहार को विषम परिस्थितियों में भी नहीं त्यागना ही एकमात्र समाधान-विषयक व्यावहारिक उपाय है।

 


कमलेश 'कमल '

 



 



 













 










 

 








 

 







 







 




 





 




 



 



 


 


 


















 

 





 



 





 


 








 

 


 






 



 



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प्रेम सदा जिंदा रहता है 

प्रेम सदा जिंदा रहता है 



दशक उम्र के बीत जाए
जवानी पर चांदी चढ़ती जाए
शहर बदल ले जीने के सलीखे
मेरी यादो से दूर जाएगी कैसे
प्रेम सदा जिंदा रहता है मिटाएगी कैसे


जीवन की हजार समस्याएं
दुनियादारी की समझाइशे
मौसम पर चढ़ जाए धुंध की चादर
जो लम्हा जी लिया उसे भूलाएगी कैसे
प्रेम सदा जिंदा रहता है मिटाएगी कैसे


हर ख्वाहिश पर भगवान बदलते
हर मौके पर रिवाज बदलते
दिल तो तेरे पास भी एक ही है
सासो पर लिखा था नाम बदलेगी कैसे
प्रेम सदा जिंदा रहता है मिटाएगी कैसे
           
गरिमा खंडेलवाल 
          उदयपुर


   कुण्डलिया 






 

   कुण्डलिया 

 

हित चिंतन यदि राष्ट्र का ,

उपासना भगवान ।

मित्र ! निभा दायित्व हम ,

करें देश उत्थान ।।

  करें देश उत्थान ,

त्याग को गले लगाएँ ।

सच्चरित्र गुणवान ,

श्रेष्ठता को अपनाएँ ।।

  कहे 'रुचिर' कविराय ,

नाथ फल देता वांछित ।

भाव संगठित राष्ट्र ,

होम दें प्राण देश हित ।।

 

   नवनीत राय 'रुचिर


   सोजत शहर (राजस्थान)


 

 



 



संस्कार









































संस्कार*

 

आज का विषय ग़ज़ब निराला,

छोटा सा शब्द,पर बहुत ही गहरा।।

संस्कार वो चीज है जो दिखती नहीं,

संस्कार वो है जो कभी बिकती नहीं।।

 

 

संस्कार आपकी कविताओं में हैं दिखते,

संस्कार आपकी परवरिश भी हैं दिखाते।

आपके विचार है झलकते, आपके भाव हैं दिखते,

आपकी बातें है बताती, आपके ख्यालात है बरसते।।

 

संस्कार केवल पैरों को छूना नहीं,

संस्कार केवल सर पर औढ़ना नहीं।।

कोई जो इज्जत देता है,तो इज्जत देना

कोई कुछ कहे,तो आलोचना न करना।।

बातो को ध्यान से सुनना, बातों पर बेवजह ना हसना।।

एक दूसरे कि तारीफ करना,एक दूसरे को साथ देना,

 

सभी संस्कार की ही रीत हैं,ये तो अनमोल है तोहफ़ा,

हर कोई इसका ख़ज़ाना नहीं संभाल पाता।।

 

 

किरन खत्री


 

 



 



 













 











 

 








 

 







 







 




 





 




 



 



 


 


 


















 

 





 



 





 


 


 


अजमेर में आचार्य श्री का 75 वा अवतरण दिवस 






अजमेर में आचार्य श्री का 75 वा अवतरण दिवस 

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श्री दिगम्बर जैन महासमिति महिला एवं युवामहिला संभाग अजमेर के तत्वावधान में  संत शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के 75 वे अवतरण दिवस  शरद पूर्णिमा के अवसर पर समिति सदस्यों द्वारा कीर्ति स्तंभ पर 75 दीपक प्रज्वलित कर आरती की गई व भजन गाकर आचार्य श्री के अच्छे स्वास्थ्य व दीर्घायु जीवन की मंगल कामना की गई अंत मे गुरुवर जयवंत हो उदघोष से वातावरण को गुंजायमान किया गया 


 

 



 



शिक्षा बहुत जरुरी है  

















 

























शिक्षा बहुत जरुरी है  

 

सुनलो बहना मेरा कहना , शिक्षा है जरुरी 

अनपढ़ रहकर कैसे जीती , देखी है मज़बूरी 

 

काला अक्षर भैंस बराबर , मेरे समझ न आए

आँखें अपनी नीची करके , कितने आंसू बहाए

पढ़ना -लिखना सीखा होता , सर ऊँचा हो जाता

उल्टा -सीधा कौन कहता , शान से जीना होता

 

बड़े शान से सही करती , अंगूठे से दूरी

सुनलो बहना मेरा कहना , शिक्षा है जरुरी 

अनपढ़ रहकर कैसे जीती , देखी है मज़बूरी

 

 

बस रेल समझ न आए , कहाँ जाना कौन बताये 

भागम भाग चलती रहती, किससे पूछा जाए 

उलटे-सीधे रास्तों पर , कुछ समझ न आए 

मोटे अक्षर देख देख कर , अपना मुंह छुपाये

 

बड़े मजे से सौदा करती , हसरत करती पूरी 

सुनलो बहना मेरा कहना , शिक्षा है जरुरी 

अनपढ़ रहकर कैसे जीती , देखी है मज़बूरी

 

पढ़ लिख कर मैं आगे बढ़ती , बच्चो को पढ़ाती

अच्छा बुरा क्या दुनिया में , सबको मैं समझाती

शिक्षा का विश्वास जगता, आगे कदम बढाती 

अज्ञान का अँधेरा हटता, ज्ञान की ज्योति जलाती

 

बैंक डाकखाना जाती , शिक्षा ना हो अधूरी 

सुनलो बहना मेरा कहना , शिक्षा है जरुरी 

अनपढ़ रहकर कैसे जीती , देखी है मज़बूरी 

 

श्याम मठपाल ,उदयपुर


 

 



 



 














 

 








 

 







 







 




 





 




 



 



 


 


 


















 

 





 



 





 


 


 


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