*आओ चलें कुछ वैचारिक मंथन करें*.....

 

विवाह मध्यस्थ की भूमिका निभाते समय आये अनुभवों  में से एक. ....एवं निराकरण।आपके सामने  पद्य स्वरूप में प्रस्तुति.....

 

पिता की अपेक्षा मिले संस्कारवान दामाद, 

माता  की अपेक्षा करोड़पति और छोटे परिवार का शहरी दामाद, 

प्रत्याशी की अपेक्षा... जो हो, मेट्रो सिटी में रहनेवाला- माँ बाप की एकलौती संतान, और  मुट्ठी में रहने वाला *(नखरे उठानेवाला)* पति।

ना हो रही,परिवार की.. सारी  अपेक्षाएं पूरी! और

इसमें बढ़ती जा रही  उम्र औऱ विवाह में हो रही देरी।

 

 उसमें भी विशेष ! *कुंडली मिलान* की अभिलाषा....?

चेहरे पर घिर रही झुर्रियां...निस्तेज हो रही  यौवन  की दशा।

 

छूट जाते हैं,अच्छे रिश्ते कुंडली मिलान की सोच में,

25 की उम्र 28 की होती,

माँ-बाप की ख्वाहिशों के बीच में ।

 

उच्च शिक्षा एवं आधुनिकता के चक्कर का चढ़ता जा रहा नशा,

सपनों का राजकुमार ना मिल पाता तो बदलती जीवन की दशा।

 

करिअर ओर स्वतंत्रता में बिटिया का लगा रहता मन,

अहंम में डूबे माँ बाप बर्बाद करते बिटिया का जीवन।

 

प्यार की भूखी बिटिया का ,

कहीं भटकने लगता है मन,

माँ बाप से अब मिलते नहीं विचार, 

घर में  होती है ,अनबन।

 

 अगर मिल जाए सारी बातें तो  उस घरमें  होती है बिटिया की शादी,

बिदा करते ही दूसरे दिन से उसके घर में चलने लगती माँ की दखलअंदाजी।

 

25 साल तक ना दे पाई माँ

कभी सामंजस्य की कला का परिपाठ 

शादी होते ही,

*स्वार्थी सोच की कला* का करवाने लगती गृहपाठ। 

 

अगर समय पर सींची जाती बिटिया की स्नेह,समर्पण सयंम की क्यारी,

सामंजस्य की ताकत पाती ,

ना लगती डिवोर्स की बीमारी।

  

 है.....माता पिता से थोड़ी सी गुजारिश ,

 घुलने दो, ढलने दो   वैवाहिक  जीवन में,

 उठ छुट ना करो ! फोन पर बातें ,

 ना डालों *जावन*, हरियाले सावन में।

 

आत्मनिर्भर बनाया है ,

सुलझाने दो उसे ही विवाहित जीवन की सभी समस्या, नकारात्मकता के बीज बोकर ना भरें परिवार के प्रति मनमे निराशा।

 

सहजता से सहज रहना सिखाकर करो बिटियां की बिदाई,

करना है वैवाहिक जीवन सफल उसका,

इसमें ही है दोनों कुल की भलाई।

  

सिर्फ हंगामा खड़ा करना  मक़सद नही हमारा,

समस्या का निराकरण करना होगा,

स्वतंत्रता औऱ मेट्रो सिटी की चाहत से थोड़ा दूर निकलना होगा।

 

बदलाव जरूर लाना है,

हमें युग परिवर्तन के साथ,

बचाना है समाज,

तो बांधे रखनी है ड़ोर, 

संस्कार संस्कृति के हाथ।

 

अनजानी जगह जाने से बेहतर है,

जानी पहचानी जगह बेटी ब्याही जाए,

उच्चशिक्षा का आग्रह छोड़,

योग्य उम्र में संस्कारित परिवार में रिश्ता तय किया जाय।

 

हमारे ही हाथों में है बहन-बेटी की रक्षा,

निर्णय लेने में चूकते रहेंगे,  तो देनी पड़ेगी अग्निपरीक्षा।

 

बीत गया सो बात गई,

आओ हम सब  संकल्प करें,

योग्य उम्र में बेटी को ब्याहकर,

बहु की शिक्षा पूरी करें।

 

*बेटी ब्याहो -बहु पढ़ाओ

 

*सौ.सरोज गट्टानी*