"खुली आंखों से देखा है एक सपना"
अनंत रोशनी के बीच,
क्यों धुंधली है राह?
राह- जो जाती है उस पार,
हां, उस पार-
जहां छिपा है जीवन का सार,
क्यों ओझल है?
राह पर बने पुल के नीचे बहता निर्झर?
निर्झर वो कैसा?
जिसका स्रोत ब्रम्ह है-
किन्तु है सबके लिए सीमित।
नहीं बना सकता कोई भी,
इस नदी पर बांध,
सवाल है क्यों?
क्योंकि स्वयं 'काल' भी,
पीता है इसी घाट का पानी;
अनगिनत मुश्किलें और भी हैं,
इसी राह पर,
जो हो रही 'प्रकीर्णित',
जीवन की अनंत रोशनी में बिखरे अंधकार के कणों द्वारा;
खुली आंखों से देखा है एक सपना,
सबकी आंखों पर हो एक चश्मा,
चश्मा वो कैसा?
छांट सके जो अंधकार के इन कणों को,
और रोक सके इस 'प्रकीर्णन' को;
क्योंकि,
इस राह की शुरुआत 'जन्म' है,
और इसका मुहाना है- 'मृत्यु का द्वार'!!
मनीष कुमार सिंह
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