"कुछ लोगों को हर संबंध में दुःख क्यों मिलता है?" {आलेख- कमलेश कमल} ****************************** "आप स्वयं दुःखी हैं, तो पार्टनर से दुःख-प्राप्ति की प्रबल संभावना है। आप उदास हैं और अपने पार्टनर से अपनी उदासी भगा देने की अपेक्षा रखते हैं, तो आप निस्संदेह ही एक भोले-भाले मूर्ख व्यक्ति हैं। महत्त्वपूर्ण यह है कि आप अपने रिश्ते को कितना सींचते हैं? कितना खाद-पानी देते हैं? कितनी ऊर्जा देते हैं?" जुड़ने की मानवीय-लालसा संबंधों के बनने का कारण है। इस जुड़ाव से सुख मिले, यह तो अभिकांक्षा रहती ही है। तथ्य तो यह है कि किसी भी रिश्ते में सुख सबसे प्रेरक तत्त्व होता है। पर क्या संबंध सुख देते हैं? निर्भ्रान्त सत्य यह है कि संबंध सुख नहीं देते; न ही दुःख देते हैं। हाँ, हम सुख या दुःख पाते हैं, यह अलग बात है। हमारे संबंध वैसे नहीं होते, जैसे कि हम कामना करते हैं, ये वैसे होते हैं- जैसे हम होते हैं। संबंधों में रस के लिए हमें रसपूर्ण होना होता है। संबंधों में सकारात्मक परिवर्तन के लिए सिर्फ जानना नहीं, करना महत्त्वपूर्ण होता है। महत्त्वपूर्ण होता है कि जब सब हमारी पूर्व धारणाओं के अनुसार नहीं हो रही होती हैं, तब हम बिना उबले, बिना मुँह फुलाए धीरज के साथ कैसे रह पाते हैं। जब सच में ही बदलाव चाहिए तब बैठकर जिज्ञासित को जानने में लगेंगे, तो गाड़ी छूट जाएगी। उपर्युक्त तथ्य को एक उदाहरण से देखते हैं: एक व्यक्ति बैंक में एक हज़ार रुपया जमा कर अगर यह इच्छा करे कि यह एक लाख या दस लाख हो जाए, तो इसे दिवा-स्वप्न कहते हैं। पुनश्च, किसी संबंध में थोड़ा निवेश कर बहुत की कामना करना क्या दिवा-स्वप्न नहीं है? वैसे, यह भी सम्भव है कि कोई व्यक्ति भावनात्मक बैंक की जगह किसी भावनात्मक-लॉटरी में निवेश कर दे और 'ड्रा' न निकलने पर भाग्य को या लॉटरी को कोसने लगे। वैसे यह देखा जाता है कि लोग लॉटरी में कम निवेश कर ज़्यादा की उम्मीद करते हैं, नहीं मिलने पर दुःखी होते हैं और मिल जाने पर उसकी कद्र नहीं करते, कुछ ही समय में सारा पैसा हाथ से निकल जाता है। यही हाल भावनात्मक लॉटरी का है। कहने का आशय बस इतना कि अशांत और उच्छिन्न चित्त से किसी संबंध में होना और उससे दिव्य और उदात्त प्रेम की कामना करना 'भावनात्मक-बचकानापन' है। ऐसे लोग अच्छे-से-अच्छे संबंधों में खटास ले आने की कला में माहिर हो जाते हैं और किञ्चित् यह संबंध पति-पत्नी का हो, तो नित्यप्रति महाभारत घटित होने लगता है। ऐसे लोगों के बारे में ग्रीक नाटककार युरिपीडिस ने सटीक लिखा है-"शादी करें और यह अच्छा जा सकता है; परंतु जब यह असफल होता है, तब जो शादी करते हैं, वे घर में ही जेल की तरह रहते हैं।" निष्कर्षतः, अगर बार-बार या हर बार किसी को संबंध में दुःख मिले, तो उसे इतना तो समझ ही जाना चाहिए कि दिक़्क़त संबंध में या दूसरों में नहीं, अपितु ख़ुद के व्यक्तित्व या नज़रिये में है। देखा गया है कि भावुक-आत्माओं के लिए यह मानना कि किसी संबंध में मिलने वाले दुःख के लिए वे ही ज़िम्मेदार हैं, कठिन होता है, दुर्वह होता है। अपनी ग़लती मानना कष्टप्रद होता है; क्योंकि यह अपराधबोध उत्पन्न करता है। दूसरी ओर, प्रेम में विफलता का ठीकरा नियति या किसी अन्य पर फोड़ना एक आसान विकल्प होता है। यह एक तथ्य है कि मनुष्य आसान विकल्प चुनता है। यह भी एक तथ्य है कि आप दूसरे को जो देंगे, वही आपको भी मिलेगा। अगर आप जिसके साथ संबंध में हैं, उसे दुःख देंगे, तो उससे भी लौटकर दुःख ही मिलेगा। प्रेम और घृणा के इस अंतर्सम्बन्ध पर एक मनोवैज्ञानिक ने एक महत्त्वपूर्ण और श्रेयात्मक शोध किया। उसने किसी विश्वविद्यालय की एक कक्षा के कुछ विद्यार्थियों से कहा कि कक्षा के बाक़ी विद्यार्थियों में से वे जिन्हें भी घृणित पाते हों, तीस सेकेंड के अंदर उसका नाम लिखें। सभी विद्यार्थियों ने जो लिखा, वह एक-दूसरे को नहीं दिखाया गया। एक विद्यार्थी ने किसी को भी घृणित नहीं पाया, तो एक ने तेरह विद्यार्थियों के नाम लिखे। शोध के निष्कर्ष में एक महत्त्वपूर्ण बात यह आई कि जिस विद्यार्थी ने किसी को घृणित नहीं पाया, उसे भी किसी ने घृणित नहीं पाया- एक ने भी उसका नाम नहीं लिखा। दूसरी तरफ़, जिस विद्यार्थी ने तेरह अन्य को घृणित पाया, सबसे ज़्यादा विद्यार्थियों ने उसे भी घृणित पाया। इससे यह निष्कर्ष निकला कि हम लोगों को जैसा समझते हैं, वे भी हमें वैसा ही समझते हैं। हमें यदि दुःख मिल रहा है, तो यह अवश्य विचार करना चाहिए कि हमसे भी लोगों को दुःख ही मिल रहा होगा। यह भी महत्त्वपूर्ण है कि हम संबंधों के निर्वहन को गम्भीरता से लें और विवेकपूर्ण व्यवहार करें। अगर असंयम या विवेकरहित होकर किसी संबंधी से बात करेंगे या व्यवहार करेंगे, तो आपसी प्रेम और विश्वास का क्षरण होगा। यह अनुभवजन्य सत्य है कि आकुलित और व्यथित मन परिवार के लोगों से या किसी स्वजन से कुछ भी कह देता है। इसका स्थायी महत्त्व नहीं होता। यह ऐसा ही है जैसे नशे में कही गई बातों का बाद में कोई महत्त्व नहीं होता। ऐसे में, रिश्ते की भलाई के लिए आवश्यक है कि हम विवेक से काम लें और ऐसे व्यथित या व्याकुलित रिश्तेदार की किसी बात को पकड़ कर न बैठे रहें और ताना तो बिलकुल ही न दें। वैसे, यह कर पाना कठिन होता है क्योंकि मानव मन नकारात्मकता के प्रति अतिरिक्त संवेदनशील होता है। यह लोगों के बुरे व्यवहार को अच्छे व्यवहार की तुलना में अधिक याद रखता है। कभी-कभी हमारे व्यक्तित्व की कमज़ोरी हमारे व्यवहार में दिख जाती है, जिससे हमारे अपने आहत हो जाते हैं। अपनी आदतों के ग़ुलाम होकर हम कभी-कभी आपसी संबंधों में भी ग़लत प्रतिक्रिया दे देते हैं, या सही प्रतिक्रिया सही तरह से नहीं दे पाते हैं। यह सामने वाले को आहत और विदीर्ण करता है। संबंध की मिठास और शक्ति को कम करता है। यह कभी विस्मरण न हो कि संबंधित मित्र या रिश्तेदार हमारे लिए पूर्व में कितना कुछ कर चुके हैं। उनके प्रति हमारी कोशिश हो कि सिर्फ़ शब्द ही नहीं...शरीरिक भाव-भंगिमाएँ भी सम्मानजनक हों। जिस चीज़ की हम अवज्ञा करेंगे, अनादर करेंगे, वह टिकती नहीं। अगर विवेकविरुद्ध कार्य या आचरण करेंगे, तो विवेक की वृध्दि रुक जाएगी। इसी तरह विवेकरहित और प्रेमरहित व्यवहार निभाने से संबंध में आपसी प्रेम और विश्वास खो देंगे। अगर संबंध को स्थायी रखना है, तो विवेक और प्रेमयुक्त व्यवहार को विषम परिस्थितियों में भी नहीं त्यागना ही एकमात्र समाधान-विषयक व्यावहारिक उपाय है। कमलेश 'कमल ' |
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