वह देखो चांद
"वह देखो चांद खिला शरद पूर्णिमा का ,
चारों ओर बिखर गई है शीतल चांदनी
, धवल चांदनी, निर्मल चांदनी,
निहार निहार कर चांद को आंखें नहीं थक रही,
कितनी उपमाएं हम देते हैं चांद की,
न जाने कितने गाने चांद पर फिल्माए गए हैं।
चांद के बिना रात की सुंदरता अधूरी,
आसमान भी लगता फीका फीका ।
पर यह चांद कितना कुछ कह रहा है हमसे
,15 दिन ढलता ,15 दिन बढ़ता, पर कभी ना थकता
,नाहीं रुकता ,चांद की है एक बात निराली,
स्वयं तो चमकता है अपने साथियों को यानि,
तारे- सितारों को भी चमकाता
, सह अस्तित्व का धर्म निभाता,
जीवन का एक संदेश है हमको देता
,सुख दुख जीवन के दो साथी सुख में ना इतराना,
दुख में न हार मानना ,बस चलते जाना चलते जाना।
अपने शांत स्वभाव से
,शीतल वाणी से जगत का मन हर लेना,
शिखर पर चढ़ते हुए ,
अपने साथ अपने साथियों को,
रिश्तेदारों को भी आगे बढ़ाना।
मंजु लोढा़ ,
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