भारतीय संस्कृति के आदर्ष पुरुष श्री राम
डॉ. श्रीमती अल्पना जैन, ग्वालियर
राम का नाम आते ही भारतीय संस्कृति की परिकल्पना साकार होने लगती है, मर्यादा मानों मूर्तिमान हो रही हो। मानव जीवन के बहुआयामी रूपों को राम के जीवन चरित्र से सजाया, संवारा जा सकता है। सम्पूर्ण भारतीय समाज के लिए आदर्ष के रूप में भगवान राम को समस्त धर्मों में स्वीकार किया है। राम ये दो अक्षर अजर-अमर बन गये, कल्पवृक्ष के समान फलप्रदाता बन गये। इस अजर-अमरता के पीछे राम का त्याग एवं तप है । ‘मनुष्य जीवन में आने वाले समस्त सम्बन्धों को पूर्ण एवं उत्तम रूप से निभाने की षिक्षा देने वाला प्रभु राम के चरित्र के समान दूसरा कोई चरित्र नहीं है। राम का मंगलमय चरित्र केवल भारतवर्ष के लिए ही नहीं अपितु सम्पूर्ण विष्व के मानवमात्र के लिए आदर्षभूत एवं अनुकरणीय हैउनका पराक्रम समस्त भारत की एकता का प्रत्यक्ष चित्र है। आदि कवि ने उनके सम्बन्ध में कहा है – “समुद्र इव गाम्भीर्य धैर्येण हिमवानिव' इस प्रकार के षब्दों का प्रयोग करके मानों उन्होंने यह बात रखी कि -"आसेतु हिमालय” भारत के लिए श्री राम आदर्ष हैं। राम भारतीय संस्कृति के महान् प्रतीक हैं, जिस पर समूची आर्य संस्कृति को गर्व है। वह एक जाज्वल्यमान प्रकाष स्तम्भ है। जिसकी प्रकाष किरणें जैन, बौद्ध और वैदिक संस्कृति व साहित्य को प्रकाषित कर रहीं हैंभारत के कोटि-कोटि नर-नारी निष्ठा के साथ राम का स्मरण करते हैं। लगभग ग्यारह लाख वर्ष का दीर्धकाल व्यतीत हो जाने पर भी जिनके जीवन की चमक-दमक (आभा) किसी प्रकार कम नहीं हुई है। जैन संस्कृति में आठवें बलदेव के रूप में प्रतिष्ठित हैं तो बौद्ध साहित्य में बौधिसत्त्व के रूप में विख्यात हैं और वैदिक धर्म में विष्णु के अवतार के रूप में प्रसिद्ध हैंइस प्रकार भारत की तीनों प्रमुख संस्कृतियों में 'राम' के चरित्र का विराट् समन्वय है। अत: राम के जीवन प्रवाह का प्रभाव समस्त एषिया की जनता के हृदय में ही नहीं विदेषी जन-मन पर भी गहरी छाप है___श्री राम जब माता कौषल्या के गर्भ से धराधाम पर अवतीर्ण हुए तब उनके षरीर की अभिरामता देखकर गुरु एवं पिता ने उनका नाम 'राम' रख दिया। आगे चलकर वही श्री राम लोकाभिरामी बन गये – 'लोकाभिरामं श्री रामं भूयो भूयो नमाम्यहम्। राम के जन्म लेते ही समस्त भूलोक दुर्भिक्ष आदि दोषों से रहित हो गया और सर्वत्र दीर्धायु, आरोग्य, ऐष्वर्य आदि गुण प्रकट हो उठेउस समय ऐसा प्रतीत हुआ कि धरती पर राम के साथ-साथ स्वर्ग भी अवतीर्ण हो गया हो। दार्षनिक जिसे ब्रह्म कहते हैं, वैष्णव उसी को महाविष्णु तथा राम भक्त उसी को ब्रह्मराम समझते हैं। ब्रह्मराम सम्बन्धी यह मान्यता राम के स्वरूप-विकास का परमोच्च विन्दु हैराम के जीवन में सर्वत्र मधुरता के सन्दर्षन होते हैं। गुलाबी वचपन से लेकर सुनहरी संध्या तक वही मधुर और सरस मर्यादा की स्वर लहरी झंकृत होती रहती है।
राम का जीवन सत्य सदाचार और कर्त्तव्य पालन किन्तु सहर्ष विपत्ति सहन की वेदनापूर्ण कहानी का ज्वलंत उदाहरण है, जो आर्य पुत्रों का सफल प्रतिनिधित्व करते हैं, राम के चरित्र में पग-पग पर मर्यादा का दर्षन होता है, राम मानव धर्म के प्रतीक हैं, राम त्याग की मूर्ति हैं, राम प्रेम की सजीव प्रतिमा हैं, राम लोक व्यवहार के उपदेष्टा हैं, राम मर्यादा के रक्षक हैं, राम सदाचार के षिक्षक हैं। राम का चरित्र इतना विषुद्ध है कि उनमें ऋटि–षंका की सम्भावना ही नहीं, क्योंकि प्रारम्भ से ही राम की षिक्षा-दीक्षा भी ऐसी हुई कि परोपकार और सेवा जीवन के परम आदर्ष बन गये। लोकरंजन के लिए उन्होंने यातना एवं यंत्रणा को सहर्ष सहन करना अपना स्वभाव बना लियाराम लोक चेतना के प्रतीक हैं। लोकमत राम के लिए सदैव सर्वोपरि एवं मान्य थाराम एक स्थान पर कहते हैं - "जौ अनीति कछु भाषौं भाई। तौ मोहि बरजहु भय बिसराई ।। अर्थात् यदि मैं कुछ अनीति करूँ, तो आप लोग निर्भीक होकर मेरा तर्जन कर सकते हैं। राम व्यक्तिगत जीवन में स्वयं कष्ट उठाकर भी लोकरंजन करते थे। त्याग उनके जीवन का श्रृंगारभूत अंग हो गयात्याग ऐसी होमाग्नि है, जिसमें आत्माहुति देकर मनस्वी अपने को दग्ध कर लेता है, किन्तु दूसरों को प्रकाष देता है तथा उनका पथ-प्रदर्षन करता हैदीपवर्तिका अपना देह फूंककर ही अन्धकार चीरती है तथा भटके हुए लोगों को प्रकाष देकर राह सुझाती है। सूर्य स्वयं तपकर ही जगत् को आलोक एवं ऊर्जा प्रदान करता है। राम कहते हैं - “परहित बस जिन्ह के मन माहींतिन्ह कहुँ जग दुर्लभ कछु नाहीं।। 4 भगवती श्रुति कहती हैं – मातृ देवो भव। पितृ देवो भव। आचार्य देवो भवअतिथि देवो भव। इस श्रुति को अक्षरष: राम ने सार्थक किया हैतत्त्वज्ञ होने पर भी गुरु भक्ति के कारण प्रवृत्ति पथ को प्रषस्त कियाराम को लक्ष्मण सहित विष्वामित्र वन ले जाते हैं, जहाँ वे यज्ञ विध्वंसक-राक्षसों का वध करते हैं और ऋषि-मुनियों को निष्चिन्त कर देते हैं। परदुःखकातर राम विष्वामित्र के संकेत पर आत्मग्लानि के कारण जड़ीभूत अहिल्या का भी उसकी अंतष्चेतना के जागरण द्वारा उद्धार करते हैं और सीता से पाणिग्रहण करते हैं। क्षात्र धर्म के रूप में श्री राम का अद्भुत व्यक्तित्व देखने को मिलता है। मिथला में धनुष भंग के अवसर पर परषुराम जी स्वयं उन्हें युद्ध के लिए चुनौती दे रहे थे, ऐसी उत्तेजना पूर्ण चुनौती के पष्चात् भी राम षान्त रहे, क्योंकि क्षात्र धर्म का अर्थ वे युद्ध के लिए व्यग्रता नहीं मानते, इसीलिए क्षात्र धर्म की व्याख्या के साथ कुछ षब्द और जोड़कर राम ने क्षात्र धर्म को संतुलित अर्थ प्रदान किया। निर्भयता क्षत्रिय का गुण है, यह तो सर्वत्र प्रतिपादित किया गया है किन्तु राम का यह वाक्य सर्वथा अनुपम है, जब वे क्षात्र धर्म के साथ भय का लक्षण और जोड़ देते हैं। राम का जीवन-दर्षन भी यही है। अभय के साथ-साथ जीवन में सत्पुरुषों से भय मानना यही सच्चा क्षात्र धर्म है। इस संदर्भ में वे परसुराम जी से कहते हैं कि ब्राह्मण
वंष की यह अद्भुत महिमा है कि जो आप लोगों से डरता है वह अभय हो जाता हैमानसकार लिखते हैं कि - ‘विप्रबंस कै असि प्रभुताई। अभय होई जो तुम्हहि डेराई।। राम के जीवन पर विहंगम दृष्टिपात करते हैं तो उसमें कहीं भी अपूर्णता दृष्टिगोचर नहीं होतीजिस समय जैसा कार्य करना चाहिए, राम ने उस समय वैसा ही कार्य किया। राम रीति-नीति–प्रीति तथा भीति सभी जानते हैंराम परिपूर्ण हैं, आदर्ष हैं। राम ने नियम का, त्याग का एक आदर्ष स्थापित कियाउन्होंने मानवता का उत्कृष्ट आदर्ष उपस्थित किया तथा मानव जाति को मानवता का पाठ अपने आचरण से पढ़ाया। राम के जीवन की परिस्थितियाँ परिवर्तित होती हैंउन्हें राज्य सिंहासन के स्थान पर वनवास मिलता है। राम को राज्य पाकर भी राग नहीं था, तभी उन्होंने उसे तुरन्त त्याग दिया। वे राज्य के प्रति निर्लेप, राग रहित, आसक्ति रहित थे। आध्यात्म रामायण के अनुसार – जब लक्ष्मण को यह विदित हुआ तो उन्होंने राम से कहा कि – आपको पिताजी ने वनवास दे दिया। तो राम ने कहा – नहीं. वनवास नहीं, दण्डकारण्य का राज्य कहो, वनवास कहना पिताजी का अपमान करना है। आनन्द रामायण में लिखा है कि – लक्ष्मण ने राम से कहा कि – मैंने धनुष धारण कर रखा है, मैं देखता हूँ कि कौन आपको आपके अधिकार से वंचित कर सकता है ? आप वन में नहीं जा सकतेतब राम ने कहा कि – हे लक्ष्मण ! यदि हम राज्य करने के लिए परस्पर में लड़ेगे, पिता से विरोध करेंगे तो कैसा इतिहास बनेगा, उससे लोग कैसी षिक्षा लेंगे ? तुम धनुष छोड़ दोजिसके लिए तुम (राज्य के लिए) धनुष उठा रहे हो, क्या वह अजर-अमर रहने वाली सम्पदा है ? लक्ष्मण ने कहा नहीं। जब वह अजर-अमर नहीं, तो उसके लिए लड़ना किस लिए ? हमें तो अजर-अमर कार्य करना है, जो इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाये और जिसे लोग अपना सकें, जो आदर्ष बन सके। राम के जीवन दर्षन और चरित्र से स्पष्ट होता है कि देष, काल और व्यक्ति के प्रति वे अनासक्त होते हुए भी उदासीन नहीं हैं। वे पिता के वचनों की रक्षा के लिए स्वेच्छा से अयोध्या के वैभव-विलास का परित्याग सहज भाव से कर देते हैं। उस समय की समस्त परिस्थितियों उनके अनुकूल थीं, वे बड़ी सरलता से अयोध्या के राज्य पर अधिकार कर सकते थे। समस्त प्रजा उनके पक्ष में थी, स्वयं महाराज दषस्थ की भी यही अभिलाषा थी, किन्तु धर्म के लिए बड़े से बड़ा त्याग भी श्री राम के चरित्र का अंग है। धर्म हीन जीवन कोई जीवन है (किं जीवनं धर्म विवर्जितं यत् ?) जैसे फूल की षोभा सौरभ से, नदी की षोभा जलधारा से और षरीर की षोभा प्राणों से है, उसी प्रकार जीवन की षोभा धर्म से है। धर्ममय जीवन ही जीवन हैराम यह नहीं चाहते कि उनके मोहवष पिता असत्य के भागी बनेंअत: वे वन जाते हैं पिता के वचन की रक्षा के लिए। सचमुच श्री राम जैसा पुत्र संसार में दुर्लभ ही है, जो पिता वचन निभाने के लिए राज्य को त्याग देते हैं और चौदह वर्षों के लिए तपस्वी के वेष में वन में रहना स्वीकार करते हैं। उन्हें लगता है कि लोक कल्याण के लिए इससे अच्छा कोई सुअवसर नहीं हो सकता है। उन्हें मॉ की इस आज्ञा पालन करने में अपरमित प्रसन्नता हुई। उन्होंने तत्काल मुनि वेष धारण किया। राज्य वैभव श्रृंगार सभी का परित्याग कर देने के पष्चात् भी धनुष बाण का परित्याग नहीं करते हुए उन्होंने अपने जीवन दर्षन का ही परिचय दिया। साधारणतया मुनिवेष से धनुष बाण की कोई संगति नहीं थी, पर राम अपनी अनासक्ति की सीमाओं को स्पष्ट कर देते हैं। व्यक्तिगत स्वार्थ और सत्ता के लिए वे उदासीन रहेंगे, किन्तु लोक कल्याण से उन्होंने उदासीनता स्वीकार नहीं की। मुनिवेष मॉ की आषंकाओं को दूर करने के लिए ग्रहण किया था। इसी संदर्भ में उन्होंने इसका प्रयोग भी किया । विष्व इतिहास का सबसे बड़ा युद्ध “राम-रावणोर्युद्ध राम रावण योरिव' उन्होंने मुनि वेष में लड़ा। अधर्म अन्याय और अत्याचार से लोक का संरक्षण वे अपना सबसे बड़ा कर्त्तव्य मानते हैं। वास्तव में श्री राम की पितृ एवं मातृ भक्ति भावावेष वष नहीं है। यह उनके चरित्र की स्थायी प्रकृति हैवाल्मीकी रामायण में लिखा है कि – राम-लक्ष्मण जब वन जाने लगे, तब सीता भी साथ जाने को उद्यत हुईं तो राम ने उन्हें कोमलांगी होने के कारण अयोध्या में रहने के लिए कहा, इस पर सीता ने उत्तर दिया कि विपत्ति के समय पति के आगे रहकर राह के कॉटों कंकरों को कुचलती चलूँगी और सुख सम्पत्ति के समय आपके पीछे चलूँगी। सीता के विचार उनके धर्म ज्ञान की देन थे। जिनसेनाचार्य ने कहा है कि – 'नारी गुणवती स्त्रीसृष्टेअग्रिमं पदं अर्थात् जो विदुषी नारी होगी वह स्त्री जगत् में अग्रिम पद पायेगी। सीता ने राम का वन में भी साथ निभाया। घर में थोड़े से अभाव के कारण लोग दुःखी व चिन्तित हो जाते हैं और उस दुःख एवं चिन्ता में ही जीवन खत्म कर लेते हैंवनवास के समय भयानक जंगलों के महामार्ग पर बढ़ते समय राम-सीता-लक्ष्मण के चेहरों पर खिन्नता नहीं है, दु:ख नहीं है, पूर्ववत् ही आनन्द है। अयोध्या की जनता के समक्ष अंधकार था, किन्तु राम के समक्ष वही प्रकाष चमक रहा था, उनके चेहरे पर मधुर मुस्कान बिखरी थीआज हम राम राज्य तो चाहते हैं, किन्तु क्या राम की तरह सुख-दु:ख के प्रति समभाव है ? जंगल में उनके पास ओढ़ने-बिछाने के लिए कुछ भी नहीं था, तब भी वे अत्यन्त प्रसन्न थे, क्यों कि उनके मन में धर्म विद्यमान थाजैन कवि बुधमहाचंद्र ने लिखा है - रामचन्द्र अरु सीता रानी, जाय बसे दण्डक वन में। बुधमहाचंद्र कहुँ जाओ, धर्मी के धर्म सदा मन में।राम बनवास में गये तो वे धर्म को अयोध्या में नहीं छोड़ गये। धर्म वहाँ भी उनके साथ था। यदि धर्म मन में, दिल में है तो कहीं भी रहें वहाँ मंगलमय वातावरण रहेगा। धर्म से निर्भीकता आती हैइहलोक भय, परलोक भय, मृत्यु भय, आकस्मिक भय आदि सभी भयों से मुक्त होने में धर्म ही कारण है। राम को एक ओर सिंहासन मिलने की घड़ी आती है, तो दूसरी ओर उन्हें वनवास का आदेष-सन्देष मिलता है। एक ओर सीता के अपहरण का दु:खद सन्देष मिलता है, तो दूसरी ओर वानर जाति का अभीष्ट सहयोग उन्हें मिलता हैफिर भी राम के मुख कमल पर हर्ष-विषाद का प्रादुर्भाव नहीं हुआ। तुलसीदास जी बड़े ही मार्मिक षब्दों में लिखते हैं - प्रसन्नतायां न गताभिषेक्तस्तथा न मम्ले वनवासदु:खतः। मुखाम्बुजश्री रधुनन्दनस्य मे, सदाऽस्तु सा मंजुलमंगलप्रदा।। अर्थात् एक ओर राज्याभिषेक जैसे इष्ट संयोग के नष्ट होने पर जिनके मुख कमल की षोभा न तो प्रसन्नता में लीन रही, दूसरी ओर वनवास के दुःख से वह मुरझाई भी नहींइस प्रकार जीवन के अमर नाटक में जिन रधु पुत्र राम की मुखकमल श्री समता की पगडण्डी पर अटल रही, वह मंजुल और मंगल प्रदायी श्री मुझे सदा प्राप्त हो। उत्तम प्रषासक स्वयं ही प्रजाजन की कठिनाइयों को देखने, समझने और दूर करने का प्रयत्न करता है। राम अरण्य में मुनियों के अस्थि समूह को देखकर करुणार्द्र हो गये। यह विदित होने पर कि राक्षसगण मुनियों को ही खा गये। राम ने उनको निर्मूल करने का प्रण किया तथा मुनिगण के आश्रमों पर स्वयं जाकर उनके कष्ट दूर किये। राजा राम ने उन्हें अपने द्वार पर खड़ा करके उनके प्रार्थना-पत्र मॉगने में गौरव नहीं समझा, बल्कि स्वयं उनके पास जाकर उन्हें अभय करके उनकी समस्याओं का समाधान करने में अपने पौरुष की कृतार्थता का अनुभव किया तथा अपने को कृतज्ञ एवं धन्य माना। श्री राम को सदादर्षों का खजाना कहा जाए तो भी अत्युक्ति नहीं होगी। उनके चरित्र से मनुष्य सब तरह की सत् षिक्षा प्राप्त कर सकता है। मनुष्यों की सषिक्षा के लिए जितना गुरुपद का कार्य श्री राम चरित्र कर सकता है, उतना अन्य किसी का नहीं कर सकता। राम के इस जीवन प्रसंग में भारतीय संस्कृति की आत्मा गुंजायमान हो रही है। जब युद्ध के मैदान में लक्ष्मण षक्तिवाण से घायल होकर मूर्च्छित हुए और हनुमान संजीवनी बूटी लेने गए हुए थे, उस समय राम के कोमल हृदय में एक ही प्रष्न उठ रहा था, जिसके कारण उनकी ऑखों में आंसू आये, वह यह है कि जब विभीषण मेरे पास में आए थे तब मैंने उन्हें लंकेष कहकर संबोधित किया था, यदि इस समय सूर्योदय हो गया तो लक्ष्मण की मृत्यु हो जायेगी, सूर्योदय होते ही इसके षरीर के कण-कण में जहर फैल जायेगा और भाई लक्ष्मण की बिना सहायता के मैं लंका किस प्रकार जीत सकूँगा ? यही चिन्ता या बात राम को व्यथित कर रही थी। "ता रणभूमि में राम कहे, मुझ सोच विभीषण भूप कहे को।" राम के जीवन का यह लघु प्रसंग यह चिन्तन करने के लिए बाध्य करता है कि – राम वचन का कितना ख्याल रखते थे। मनुष्य आखिर सेवाभाव से ही जीवित रह सकता है। तभी तो तत्त्वार्थसूत्र में “परस्परोपग्रहो जीवानाम् कहा और गोम्मटसार (जीवकाण्ड) में भी लिखा है कि - अण्णोण्णुवयारेण य, जीवा वटंति पुग्गलाणि पुणोदेहादीणिव्वत्तणकारण भूदा हु णियमेण।। जीव परस्पर में उपकार करते हैं। एक जीव दूसरे जीव की सेवा व उपकार करके ही जीवित रह सकता है। धर्म सीमित नहीं है, विषाल है। धर्म का यथार्थ स्वरूप मनुष्य को मनुष्य से जोडना है। व्यक्तिगत रूप से आत्मकल्याण कर लेने के बाद उससे सबका कल्याण करने की प्रेरणा देते हैं। वाल्मीकी जी ने लिखा है कि - राम ने हनुमान से कहा कि तुमने मेरी जो सेवा की है, उसे मैं लौटाना नहीं चाहता, क्यों कि सेवा लौटाने का तात्पर्य है तुम पर भी मेरे जैसे संकट व उपसर्ग आदि आवें और उस समय मैं तुम्हारी सेवा करूं, तुम्हारी सेवा का बदला चुकाऊं। मैं तो चाहता हूँ कि तुम पर कोई उपसर्ग कष्ट ही न आवें। मेरा यही आषीर्वाद है। जिसने आपकी सेवा की आप भी उसकी सेवा चुकाना चाहते हैं, पर ऐसी भावना नहीं लाना चाहिए कि उस पर भी संकट आये और आप उसकी सेवा करें। आपने सेवा की थी तो देखिए हम भी आपकी सेवा कर रहे हैं। यह विचार नहीं आना चाहिए क्यों कि यह तो मान कषाय हो जायेगीइक्ष्वाकुवंष के राजकुमार राम वनवास के बाद नदी पार करना चाहते थे, तब उन्होंने एक मल्लाह से पूंछा – उस पार जाने का क्या लोगे, मल्लाह ने कहा कुछ नहीं लूंगा। केवल आषीर्वाद लूंगा, मुझे आपकी सेवा का अवसर दीजिए। आषीर्वाद दीजिए। राम ने जातिमदकुलमद किया होता तो वे कभी भी बधिक पुत्री षवरी का आतिथ्य स्वीकार नहीं करते, पर उन्हें किसी प्रकार का मद नहीं था, इसलिए उन्होंने उनका आतिथ्य स्वीकार किया और उसे अमर होने का आषीर्वाद दिया। राम ने रावण और उसकी पापमय षक्तियों को ध्वस्त करके उसका साम्राज्य उसके ही धर्मात्मा अनुज विभीषण को सौंप दिया। प्रायः विजय से बैर बढ़ता है, क्यों कि पराजित व्यक्ति के मन में क्षोभ उत्पन्न हो जाता है। राम जय-पराजय के भाव से ऊपर उठे हुए थे। राम के युद्ध का उद्देष्य राज्य हड़पना नहीं था, बल्कि आततायी, अत्याचारी रावण का निर्मूलन करना, उसके धर्मात्मा भाई विभीषण के साथ मित्रता का निर्वाह करके वचन पूरा करना, सीता का संकट दूर करना और धर्म की संस्थापना करना थापुरुषार्थ की सफलता एवं सार्थकता संकटग्रस्त जीवों के विपत्ति निवारण में निहित होती हैराम को एक ऐसे समाज का आदर्ष प्रिय था, जिसमें दण्ड की कोई व्यवस्था न हो और राम राज्य के रूप में उन्होंने इसी आदर्ष को चरितार्थ किया। श्री राम लोकमंगल की कामना से अभिभूत होकर अपनी प्रजा को उपदेष देते हुए षरीर के सदुपयोग पर बल देते हैं। राम के जीवन में विषम परिस्थितियों से पलायन नहीं, बल्कि अतिषय संधर्ष है, किन्तु वह स्वार्थ सिद्धि के लिए नहीं, अपितु परोपकार के लिए है, कर्तव्य पालन के लिए है, आदर्षो एवं मूल्यों की प्रस्थापना के लिए है। राम का षौर्य सात्त्विक एवं सहज है। अप्रत्याषित हित के लिए कैकेयी का धन्यवाद देते हुए राम उसका भी उपकार मानते हैंवे तदभव मोक्षगामी थे, इसलिए वैभव का मोह उन्हें न ग्रस सका। राम सर्व सद्गुण सम्पन्न आदर्ष पुरुषोत्तम थे, फिर वे मूलत: 'नर' मानव थे। अत: यह विल्कुल अस्वाभाविक नहीं है कि उनमें मानवीय विकार आदि के कारण कई बार दुर्बलता उत्पन्न हुई होयदि ऐसी मानवीय दुर्बलता उनमें न पायी जाती तो वे विषुद्ध सद्गुणों की मूर्ति बन जाते, तब उनका चरित्र निर्जीव जान पड़ता, उतना हमारे निकट न पहुँच पाता, जितना आज वह जान पड़ता है। आज राम श्रेष्ठ सही, फिर भी हम आप में से एक जान पड़ते हैं। यह मानवीय दुर्बलता मनुष्य मात्र की जीवन संगनी है। फिर भी महान् वह हो जाता है, जो इन दुर्बलताओं का षिकार नहीं हो जाता, उन पर विजय पाकर ही मनुष्य 'मनुष्य' कहलाने योग्य हो जाता है। श्री राम जी का आदर्ष अपने आप में अनुपम है। आज भी मर्यादा पुरुषोत्तम के नाम से वे विख्यात हैं। राम एक श्रेष्ठ पितृ भक्त व आज्ञाकारी पुत्र थे, उन्होंने पिता की आज्ञा से 14 वर्ष का वनवास स्वीकार किया। वे एक उदारमना भाई थे जिन्होंने भरत के अनुनय को ठुकराकर उसे ही राज्य करने की आज्ञा दी। वे मुनि भक्त, ऋषि भक्त श्रेष्ठ श्रावक थे तभी तो कुलभूषण-देषभूषण मुनिराज का उपसर्ग दूर किया। जिससे उनकी आंतरिक करुणा, दया व पराक्रम के दर्षन होते हैं। राम के अंतस में ‘बसुधैव कुटुम्बकम्' की भावनायें व्याप्त थींइसलिए वनवासकाल के समय दीन-हीन राजाओं का संरक्षण किया। सीताहरण के बाद रावण के साथ न्याय-नीति पूर्वक धर्म युद्ध किया और रावण की मृत्यु के उपरान्त उसके परिवार से आत्मीयता का व्यवहार रखा तथा विभीषण को लंका का राज्य दिया“सीता हरण का होना नियति है, परन्तु सीता को मुक्त कराने के लिए राम के हाथों रावण की पराजय यह पराक्रम है। 10 राम ने रावण से युद्ध सिर्फ अन्याय का प्रतिकार करने हेतु किया, इससे आज तक स्त्री षील रक्षा की षिक्षा का पाठ कायम है। प्रजा की प्रसन्नता और न्याय की सुरक्षा के लिए लोकापवाद के कारण सीता का परित्याग भी किया तथा षील के महात्म्य को प्रकट करने के लिए अग्नि परीक्षा भी की। जैन पद्मपुराण अनुसार अन्त में तपष्चरण भी किया तपस्या के काल में मुनि अवस्था में आत्मध्यान की दृढ़ता भी अतिप्रषंसनीय रही। आत्मसाधना में दृढ़ रहते हुए केवलज्ञान प्राप्त कर तुंगीगिरी से मोक्ष को प्राप्त किया। राम मर्यादा पुरुषोत्तम एवं लोकोत्तर पुरुष थेइसकी प्रतीति उनकी स्वस्थतापूर्ण त्यागवृत्ति में होती हैराम सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धर्मयुक्त मर्यादाओं का पालन करने वाले आदर्ष नरश्रेष्ठ थे। उनका आदर्ष जन-जन के मानस को सहज ही पुण्यरूप प्रकाष से प्रकाषमान कर देता है
सन्दर्भ 1. त्रिकालवर्ती महापुरुष, पृ. 179 सुखसागर चातुर्मास कमेटी वर्ष 2012 छिंदवाडा 2. राम रक्षा स्तोत्र 3. रामचरित मानस, उत्तरकाण्ड दो. 42 चो. 3 पृ. 960 4. रामचरित मानस, अरण्डकाण्ड दो.30 चो.5 पृ, 661 5. तैत्तिरीयारण्यक प्र. पा. 7/11/2 6. रामचरित मानस, बालकाण्ड दो, 283 चो.3 पृ, 261 7. रामचरित मानस, अयोध्या काण्ड ष्लोक 2 पृ. 333 8. तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 5 सू. 21 9. गोम्मटसार जीवकाण्ड पृ. 271 गाथा 606. श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, अगास 10. रामायण मानवता का महाकाव्य, गुणवन्त षाह पृ. 29 पता - डॉ. श्रीमती अल्पना जैन डॉ. षिवहरे के पास, गणेष कालोनी, नया बाजार लष्कर, ग्वालियर (म.प्र.) 474001 मो. - 8989737946 E-mail : drajain09@gmail.com
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