'कविता-वैचारिकी'

 कविता में वह शक्ति है जो निर्जीव वस्तुओं में भी प्राण फूँक सकती है।


राष्ट्रवादी लेखक संघ द्वारा आयोजित स्वतंत्रता दिवस की 75वीं वर्षगाँठ के अवसर पर कविता वैचारिकी का आयोजन किया गया।  इस कार्यक्रम में आजादी के संघर्ष में गीतों कविताओं के योगदान को कवि एवं साहित्यकारों द्वारा प्रखरता से रखा गया।



 *मुख्य अतिथि के रुप में बोलते हुए भारत लेखक संघ के अध्यक्ष डॉ. संदीप अवस्थी ने कहा कि साहित्य ने वातावरण का निर्माण किया, तो देश को आजादी मिली लेकिन आजाद भारत में राष्ट्रवादी रचनाकारों को चुन-चुन कर किनारे कर दिया गया। महान् शुंगवंश, गुप्त वंश और मौर्य वंश को परे रखकर मुगल शासन का यशोगान भारत के इतिहास में किया गया। गलत इतिहास पढ़ा कर देशवासियों का मान-मर्दन करने की कोशिश की गयी। अब समय आ गया है कि अकादमिक संस्थाओं में बैठे नकारात्मक प्रवृति के लोगों को किनारे किया जाए। आजाद, सुभाष, भगत, सावरकर, तिलक जैसे राष्ट्रीय नायकों के आदर्श को आगे रखा जाए। देशभक्ति के गीतों को नई पीढ़ी में लोकप्रिय बनाने का प्रयास भी होना चाहिए। भूलना नहीं चाहिए कि आजादी की लड़ाई में राष्ट्रवादी  काव्यधारा ने प्राण फूँकने का अप्रतिम कार्य किया है। वंदे मातरम् नारे ने युवाओं के मन को अग्निमा प्रदान की थी। भगत सिंह का प्रिय गीत 'मेरा रंग दे बसंती चोला', दिनकर की कविता 'सिंहासन खाली करो कि जनता आती है' सहित तमाम कविताएं आजादी की लड़ाई का तराना बन गई थीं।


लंदन के प्रसिद्ध संस्कृति कर्मी नीलेश जोशी (अध्यक्ष, सनातन शक्ति) ने विशिष्ट वक्ता के रूप में बोलते हुए कहा कि भारत में 133 करोड़ की बड़ी संख्या है। यहाँ राष्ट्रवाद की ज्वालामुखी धधकाई जा सकती है, लेकिन अफसोस कि सनातनी आज भी सोए हुए हैं। उन्होंने सन 1928 में माधव शुक्ला द्वारा लिखित कविता 'मेरी माता के सर पर ताज रहे' का उदाहरण देते हुए कहा कि ऐसे तमाम गीत ग्राम्य-अंचल में रचे गए, जो आजादी की लड़ाई का हिस्सा भी बने, लेकिन आजादी मिलने के बाद बड़े कद वालों का कद घटाया गया और बौने कद वालों का कद बढ़ा दिया गया। वीर सावरकर, पटेल, भगत, राजगुरु , आजाद , सुभाष, लाहिडी को भरसक भुलाने की कोशिश राजनैतिक रूप से हुई। उन्होंने कहा कि मुझे भारत की धरती पर नाज है और साथ ही बल दिया कि हम हिंदू नहीं, सनातनी हैं। हिंदू शब्द तो बाइबिल ग्रंथ से सत्ता की चाल में निकाला गया था।


अतिथि वक्ता रामायण केंद्र भोपाल के निदेशक डॉ राजेश श्रीवास्तव ने कहा कि रचनाकारों ने स्वतंत्रता आंदोलन को दिशा दी है। हमें अपनी दिशा का निर्धारण स्वयं करना होगा। समय को देखकर दृष्टि नहीं बदलनी चाहिए बल्कि संविधान और संवैधानिक व्यवस्था का पालन करना चाहिए। आजादी बहुत बड़ी नेमत है, तभी तो तुलसी बाबा ने 'पराधीन सपनेहु सुख नाहीं' लिखा था। इसके अलावा पै धन चलि जात विदेश इहै अति ख्र्वारी (भारतेंदु), 'जिसको न निज गौरव तथा निज देश पर अभिमान है' (मैथिली शरण गुप्त)  'मुझे तोड़ लेना वनमाली' (माखन लाल चतुर्वेदी), एक घड़ी की परवशता भी कोटि नरक से भारी है (रामनरेश त्रिपाठी), अरुण यह मधुमय देश हमारा (जयशंकर प्रसाद), विजयी विश्व तिरंगा प्यारा (श्याम लाल पार्षद), एक शीश मेरा मिला लो(सोहनलाल द्विवेदी) तथा शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले लिखकर जगदंबा प्रसाद मिश्र ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को आत्मिक बल प्रदान किया था।


सारस्वत वक्ता डॉ. राजेश्वर उनियाल ने चर्चा की शुरुआत करते हुए कहा कि गोरे की जगह पर काले बैठ जाएं, यह स्वतंत्रता संग्राम का उद्देश्य नहीं था।  700 वर्षों में जो खोया उसे वापस पाने का उद्देश्य था, किंतु भारत माता के पुत्रों ने सत्ता के लिए देश को ही बांट दिया। 1946 में विभाजन के मुद्दे पर हुए मतदान में भारत के 86% लोगों ने पाकिस्तान के पक्ष में जाने के लिए मत दिया था, लेकिन जब बंटवारा हुआ तो 10% से ज्यादा लोगों को जाने ही नहीं दिया गया। देशवासियों ने आजादी का सपना देखा था, लेकिन राजनेताओं ने सत्ता को ही ध्येय मान लिया। सत्ता पाने के बाद किया यह  कि भारत के छ लाख गांवों  में दो लाख वैदिक परंपरा के विद्यालय थे। उनको खत्म कर दिया गया। नालंदा विश्वविद्यालय को नष्ट करके पुस्तकालय में आग लगा दी गई जो 6 महीने तक जलती रही। तक्षशिला तो हमारे अधिकार में ही नहीं रह गया।  


क्षोभ की बात यह कि  आजादी से पहले साहित्यकारों पत्रकारों की जो भूमिका रही, वह आजादी के बाद बदल गयी। कविता वैचारिकी के इस कार्यक्रम में देशभर के चुने हुए चार कवियों ने राष्ट्रीय भावनाओं से ओतप्रोत अपनी रचनाओं का पाठ किया और वाहवाही लूटी। कवि गुरु अमिताभ मिश्र ने देश के काम आने वाले शहीदों को अर्पित अपनी रचना में पढा कि -'प्राण देकर बचाया वतन, उन शहीदों को भूल न जाना। शीश पर  जिसने बांधे कफन।

उन शहीदों को भूल न जाना।।


डीआरडीओ दिल्ली में वैज्ञानिक श्रीमती आशा त्रिपाठी कानपुर के श्री आदित्य विक्रम और लखनऊ के श्री अनूप नवोदयन ने राष्ट्रवादी भावनाओं से भरी हुई रचनाएँ राष्ट्र के नाम समर्पित करते हुए सुनाईं, जो बहुत सराही गईं। 


कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए राष्ट्रवादी लेखक संघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री कमलेश कमल ने आज के विषय की प्रासंगिकता और तदनुरूप वक्ताओं के विचारों को प्रासंगिक और सुग्राह्य बताया । उन्होंने कविता वैचारिकी के अंतर्गत कवियों की रचनाओं की प्रशंसा की और कहा कि राष्ट्रवादी लेखक संघ द्वारा इस भावधारा के रचनाकारों को प्राथमिकता देने का काम किया जाएगा।


कार्यक्रम का सफल संचालन राष्ट्रवादी  लेखक संघ की प्रकाशन प्रमुख हेमा जोशी ने किया और कहा कि देश की विषम परिस्थितियाँ एक कवि के अंतर्मन को निरंतर मथती हुई बेचैन कर देती हैं और वह अपने भीतर के कवि-सृष्टा को संबोधित करते हुए कह उठता है- 'हो उठे ज्वालामुखी सा तप्त, हिमगिरि का हिमांचल। आग की लपटें बिछा दे, व्योम जग में इंदु चंचल।' कहना न होगा कि ये क्रांतिकारी और स्वातंत्र्य चेतना से संम्पन्न विद्रोही कवि ही अपनी लेखनी से माँ भारती के सेवा करने वाले सच्चे सपूत हैं। अतिथियों का स्वागत राष्ट्रवादी लेखक संघ के राष्ट्रीय सचिव अनूप कुमार नवोदय ने किया। संस्थापक न्यासी आदित्य विक्रम श्रीवास्तव ने सभी अभ्यागत वक्ताओं और रचनाकारों के प्रति धन्यवाद ज्ञापित किया। ऑनलाइन आयोजित इस गोष्ठी में डॉ.अखिलेश्वर मिश्र, डॉ. धर्मेंद्र सिंह तोमर, डॉ. रघुनाथ पांडेय, धर्मेंद्र जिज्ञासु, विनीत पार्थ (पाठक मंच रा.ले.सं.), अरविंद मौर्या, सहित भारी संख्या में न्यासी और गणमान्य जन उपस्थित रहे।


 राष्ट्रवादी लेखक संघ

आजकल


हर गली में बात तेरी आजकल

दिख रही है घात तेरी आजकल

तुम तो कहते हम रहेंगे साथिया

दरस तेरे हो ना पाते आजकल

हर सुबह आगाज होता प्यार से

मौन क्यों पसरा हुआ है आजकल

बात करना लाजिमी था एकदिन

हाल तक ना पूछते तुम आजकल

खूब हँसना-खेलना था रात-दिन

मौन का व्यवहार है क्यों आजकल

साथ देखे भोर के तारे कभी

और सूरज भी छुपा है आजकल

हम लगे थे  प्राणवायु से सखे

क्यों हुए निर्वात तुमको आजकल

 शलभ तो प्यारे रहे थे हे शिखा

अब बुझा क्यों दीप है ये आजकल

लखन पाल सिंह शलभ

 भरतपुर

प्रकृति और मां

लेखकदीनानाथ लाल ,मु०+पो०रुपसागर, जिला_बक्सर _बिहार 

प्रकृति में ही सभी ज्ञान समाहित है। साहित्य किसी भी ज्ञान की जननी है। चाहे वह किसी भी भाषा से संबंधित क्यों न हो। दिमाग भौतिकवाद सोच उत्पन्न करता है, लेकिन दिल प्रकृतिवाद  सोच एवं संवेदना को उत्पन्न करता है। देखो दहशत में जीवन चक्र कुछ समय के लिए रुक गया। भावना एवं रिश्ता दोनों जीवन चक्र के परिधि से बाहर हो गए। माया मोह दोनों से लोग विरक्त हो गए ।न वह क्षण सोचने का है, न समझने का है, यह स्थूल शरीर भी कहां जा रहा है, यह भी पता नहीं। किधर भागे किधर न भागे यह भी समझने का समय नहीं । प्रकृति के कंपन से धरती कांपी और धरती के कंपन से जीव कांपने लगे। जीवन में वह कंपन हुआ की जीव भूल नहीं पाता है। जीवन की सच्चाई जब सामने आती है, तो सब कापते हैं। जब प्रकृति उस सच्चाई को जीवन के सामने लाकर रख देती है ,तो जीव दहशत में आ जाता है। सूझ बुझ विवेक सब समाप्त हो जाता है। भौतिकता जीवन का संचालन कर सकता है। लेकिन जीवन का सूत्र नहीं है। भौतिकता प्रकृति के अंदर है, प्रकृति भौतिकता के अंदर नहीं है ।प्रकृति जब अपना अधिकार का प्रयोग करती है, तो सब काप जाते हैं ।अगर मानव अपना लक्ष्य खोजता है, तो प्रकृति लक्ष्य का आधार प्रदान करती है। लेकिन वही लक्ष्य के आधार के साथ मानव जब अनुचित व्यवहार करने लगता है, तो प्रकृति भी अपना दामन खींच लेती है। यही कारण है, कि सब दहशत में आ जाते हैं। प्रकृति (का दूसरा नाम ईश्वर )से गुहार लगाने लगते हैं। उस समय सब अपने भाग्य को कोसने लगते हैं। और अपने किए गुनाहों को स्वीकार नहीं करते हैं। आजकल विकास को लोग लेकर प्रकृति के साथ अनेक तरह का खिलवाड़ कर रहे हैं वह थोड़ा सा भी ध्यान दें, कि भौतिकवाद विकास के साथ साथ  प्रकृति विकास भी होनी चाहिए तो दहशत संभवतः नहीं होगी। विकास के नाम पर लोग प्रकृति से संघर्ष करने लगे ।यह नहीं सोचते कि प्रकृति से ही सब उत्पन्न है ।और प्रकृति में उसका पतन होता है ।जो प्रकृति से संघर्ष करने को सोचते हैं वह प्रकृति से संधि करने को सोच ले तो प्रकृति उसे बहुत कुछ देगी। प्रकृति से संघर्ष नहीं संधि करनी होगी। मां अपने शिशु को अपने गर्भ में यह सोचकर पालती है कि शिशू जन्म लेकर हमारी रक्षा करेगा। और हमारे दूध का उचित प्रयोग करेगा। वह यह नहीं जानती कि यह हमारे द्वारा प्रदत व्यवस्था एवं भावना के साथ खिलवाड़ करेगा। प्रकृति भी एक मां की तरह है। जन्म से पहले हमारी तुम्हारी आवश्यकता की पूर्ति इस संसार में बरकरार रहता है। इसके बावजूद भी हम और आप प्रकृति के साथ क्या कर रहे हैं ।यह हम सब विवेकशील लोग को सोचने वाला पहलू है। मुझे यह कहने में हिचक नहीं होता है, कि प्रकृति दिल है और भौतिक दिमाग, कहने का मतलब यह है, कि विचार दिल है तो विकास दिमाग जिंदगी में अनेक पडाव मिलते हैं अब आपको विचार करना है, कि किस पड़ाव से किस तरह आगे बढ़ना है। वही तो प्रकृति का वरदान है, जो प्रकृति द्वारा प्रदत आपके पास बुद्धि और विवेक है। जो आप हमें हर पड़ाव पर रुक कर अच्छे से विचार कर लेने को कहता है ।तब अगला पड़ाव के लिए मार्गदर्शन करता है। लेकिन आप उसके संकेत को नहीं समझते हैं। और अगले पड़ाव की  बढ़ जाते हैं ।यही तो आप की विडंबना है ।यदि अपने कर्तव्य को आप परीक्षा समझकर करें तो जरूर आप सफल होंगे। और प्रकृति के सूत्र से भी अवगत होंगे। प्रकृति शेरनी की तरह है। यह स्वयं अपनी रक्षा कर लेगी। यदि आप अपनी रक्षा करना चाहते हैं, तो प्रकृति की शरण में चले जाएं ।प्रकृति आप की भी रक्षा करेगी। नैतिकता मूल संस्कार और सुंदर जीवन के लिए प्रकृति एकमात्र हथियार हैं प्रकृति शक्तिशाली है। और प्रभावशाली भी। बुद्धिहिन दुर्बल मनवाले और कायर प्रकृति की शक्ति और प्रभाव को नहीं समझ पाते हैं। इसकी शक्ति और प्रभाव को समझने के लिए व्यक्ति को उन्मुक्त और उतना ही विशालतम होना चाहिए, जितना कि आकाश विशाल है ,जो  व्यक्ति प्रकृति एवं जीवन के प्रति छोटे-छोटे मुद्दे पर लापरवाह रहता है, उस व्यक्ति पर महत्वपूर्ण मुद्दों के लिए भरोसा कैसे किया जा सकता है ।प्रकृति अंततः वही जीवन सुंदर बनाती है जहां उसे उजागर करने के लिए कष्ट उठाए गए हो।

धन्यवाद

गार्वी का विमोचन

 

मानक एकडमी  में  ज्योति मिश्रा  जी की काव्य  संकलन 
 आदरणीय  मुख्य अतिथि  मीना भट्ट  जी के करकमलों द्वारा  सम्पन्न हुआ ।

                                    अध्यक्ष  डाॅ-राजलक्ष्मी ने ज्योति  जी के उज्ज्वल  भविष्य की शुभकामनाएँ  दी।

                                विशिष्ट  अतिथि  भावना दीक्षित  जी ने कहा लेखन एक कला है।

                                इस अवसर पर डाॅ-आर.एल.शिवहरे,आदरणीय  भट्ट  जी,राजेश मिश्रा जी उपस्थित  थे।

                                संचालन  चन्द्रा  दीक्षित  जी ने किया।

                                इस अवसर पर तृप्तिजी,उषा जी,अर्चना जी ,प्राची, पलक,मिथलेश, अजय आदि की गरिमामय उपस्थिति थी।

कान्हा



     कान्हा की मुरलिया

     बाजी रे बाजी रे।

     मैं  भागी सारे काम छोड़।

     सास मोहे मारे ननद

     ताना देवे।

     सुध बुध खोई रे।

     ललना पालने में  रोये रे।

    पति दे उलाहना ।

     जंगल  जंगल  डोली  रे।

     इत उत भागुं 

 
    नहीं  पाऊँ घनश्याम  रे।

     घर बार छोड़ी

      पत राखिए गिरधारी रे।

     ये जगत काजल  की कोठरी 

     श्याम तुम्हारे  शरण आई रे।

     कान्हा की बाँसुरी  बाजी रे बाजी रे

         

              डाॅ-राजलक्ष्मी शिवहरे

नाम अनेक तू एक है

हे मेरे कृष्णा, मेरे कन्हैया

तू  ही नैया ,तू ही खेवईया

तू ही साध्य और तू ही साधन

तू ही मृत्यु और तू ही जीवन

 साथी तू ही मेरा सहारा

तेरे सिवा ना कोई हमारा

तेरे पूजन से मुरलीधर

हो जाए यह जीवन पावन

हे अच्युतम हे यशोदा नंदन

दयानिधि हे देवकीनंदन

तेरी चरण लगे हैं उपवन

हे ज्ञानेश्वर तू ही गोविंदा

कर न सकूं मैं किसी का निंदा

हिरण्यगर्भा,तू ही जगदीशा

कृपा करहु देहु आशिषा

हे द्वारिकाधीश, हे मधुसूदन

अजया ,जयंतह कमलनयन

भजहु तुम्हारे नाम अनंता

हे  ज्ञानेश्वर हे श्रीसंता।

दिन रात करूं तेरी पूजन

कर दे यह जीवन भी उपवन

अद्भुतह,अचला हे अजन्मा

पूर्ण करो सबकी मनोकामना

अनया, अनंतजीत, अनंता

तेरो नाम भजो श्रीसन्ता।

कृपा करो हे कृपानिधान

पार्थ सारथी , परब्रह्मण

राधा प्रिय हे देवकीनंदन

नंदगोपल ,आदित्य, निरंजन

कंद मूल तेरे भोग लगाऊं

धर्माध्यक्ष तेरी आरती गाऊं

देवाधिदेव,गोपाल, ज्ञानेश्वर

अनादिह,देवेश , जगदीश्वर।

वृंदावन का रास  रचैया

कामसानतक, कंचलोचन कन्हैया

 पद्महस्ता, पद्मनाभ,रविलोचन

केशव ,कृष्ण ,तू ही मनमोहन

नाम अनेकों मैं भजु तुम्हारे

तेरे सिवा ना कोई हमारे

करूं प्रार्थना कृष्ण गोपाला

दयानिधि जगत प्रतिपाला

बनूं मैं तेरी चरणों की दासी

 अजन्मा, अजया, अविनाशी।

स्वरचित-पूजा भूषण झा।

हाजीपुर,वैशाली ,बिहार।

कृष्ण ने लिया मनुज अवतार

अपने मामा   कंस का,  करने  को  संहार 

द्वापर में श्री कृष्ण ने लिया मनुज अवतार, 

लिया मनुज अवतार, ब्रजके दुख हरने को, 

असुरों  से  निर्मूल  पूर्ण  मथुरा  करने  को, 

पूर्ण  किये  वसुदेव  देवकी  के सब सपने, 

ब्रज कर दिया पवित्र डाल कर के पग अपने। 

उधौ हारे कृष्ण की भोली गोपिन बीच, 

बुरी भली सुननी पड़ी, बौराए औ नीच, 

बौराए औ नीच, ज्ञान कहलाया कूड़ा, 

ऊधौको सखियोंने घोषित करदिया बूढ़ा, 

उठौ जाउ फुर्ती से सुन मथुरा कों सूधौ, 

नहिं या हाट के काबिल तुम व्यौपारी ऊधो।

ब्रज रज कण में व्याप्त है, राधे कृष्णा नाम, 

सब धामों से है बड़ा, तब ही यह ब्रज धाम, 

तब ही यह ब्रज धाम, पूज्य गोकुल वरसाना, 

सारे  जग  में  गोबर्धन  सम  नहीं  ठिकाना, 

नंदगांव, कामवन, निधि वन औ वृंदावन, 

सब में राधे  नाम जप रहे हैं ब्रज रज कण। 


🙏 ज्ञानेश कुमार मिश्र

चिन्तन के आयाम'...एक श्रेष्ठतम कृति

 


चिन्तन के आयाम'...एक श्रेष्ठतम कृति



आदरणीय डॉ. मुक्ता जी की नवीन श्रेष्ठतम कृति '  चिन्तन के आयाम' आलेख-संग्रह के विषय में मुझे कुछ शब्द लिखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है, अपितु कृति की रचनाकार के सम्मुख मेरी लेखनी बहुत ही बौनी है। फिर भी उनके लिए माँ शारदे की कृपा से कुछ लिखने का साहस जुटा पा रहा हूँ। वैसे तो लेखिका डॉ. मुक्ता ने पुस्तक के आवरण पृष्ठ पर स्वयं का विस्तृत रूप से विवरण प्रस्तुत किया है, उनके बारे में मेरा लिखना इतना आवश्यक नहीं। फिर भी उनके विषय में संक्षिप्त रूप में कुछ लिखना मेरा भी दायित्व बनता है। डॉ. मुक्ता एक महान्, यशस्वी, सुविख्यात कवयित्री व साहित्यकार के रूप में साहित्य जगत् में प्रतिष्ठित हैं, जो समस्त हिन्दी साहित्य जगत् का गर्व व गौरव हैं तथा उन्हें विशिष्ट हिन्दी सेवाओं के निमित्त भारत के पूर्व राष्ट्रपति स्व. प्रणव मुखर्जी जी द्वारा सन् 2016  में सम्मानित भी किया जा चुका है। आप महिला महाविद्यालय की पूर्व-प्राचार्य व हरियाणा साहित्य अकादमी व हरियाणा ग्रंथ अकादमी की निदेशक रही हैं और केंद्रीय साहित्य अकादमी की सदस्या के रूप में भी आपने दायित्व को बखूबी वहन किया है। आपकी विविध विधाओं में तेतीस कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी है। आपकी रचनाओं पर कई विद्यार्थी एम• फिल• कर चुके हैं तथा एक छात्रा को पीएच• डी• की उपाधि भी प्राप्त हो चुकी है। दो अन्य विद्यार्थी पीएच• डी• कर रहे हैं। अनेक साहित्यिक पुस्तकों में भी आपके आलेख, कहानी व कविताएं प्रकाशित हो चुके हैं तथा आपका साहित्य-सृजन निरन्तर जारी है । 'चिन्तन के आयाम' आपका सद्य:प्रकाशित आलेख-संग्रह है। इस पुस्तक के जितने भी स्तम्भ चुने गये हैं, वे वास्तव में प्रशंसनीय व सराहनीय हैं। सभी स्तम्भ अपने भीतर विशेष-वैचित्र्य संजोए हैं, जिसका आकलन आप पुस्तक पढ़ने के पश्चात् स्वयं ही कर पाएंगे।डॉ• मुक्ता ने अपने नवीनतम आलेख-संग्रह 'चिन्तन के आयाम' में समाज में घटित अनेक तथ्यों को छुआ है; अनगिनत विषमताओं, विकृतियों, विसंगतियों, कु-नीतियों, कुरीतियों आदि का विशद् विवेचन किया है। विभिन्न घटनाएं--तन्दूर काण्ड, तेज़ाब काण्ड, दहेज व घरेलू हिंसा की भीषण घटनाएं, नशे की लत के कारण लूटपाट, फ़िरौती व अपहरण कर बच्चियों के साथ बलात्कार के जानलेवा किस्से सामान्य हैं। एक-तरफ़ा प्यार, 'लिव-इन', 'मी-टू' और 'ऑनर किलिंग' में अंजाम दी गई हृदय-विदारक हत्याओं से कौन अवगत नहीं है...यह तो घर-घर की कहानी है। डॉ. मुक्ता ने अपनी कृति 'चिंतन के आयाम' में अनेक सामाजिक विसंगतियों की ओर ध्यान केन्द्रित किया है। लेखिका ने लगभग हर विषय को छूने का अदम्य साहस किया है, जिससे यह पुस्तक किसी भी विषय से अनछुई नहीं रही है, जिस पर प्रश्न उठाकर, लेखिका ने समाज को जाग्रत करने का हर सम्भव प्रयास किया है? उन्होंने हर विषय का चिंतन-मनन ही नहीं, नीर-क्षीर विवेकी दृष्टि से मन्थन भी किया है तथा समाज की जड़ों को खोखला करने वाली मान्यताओं की ओर केवल हमारा ध्यान ही आकृष्ट नहीं किया, उन्हें समूल नष्ट करने का संदेश भी दिया है। सबसे बड़ी बात यह है कि लेखिका का ध्यान विशेष रूप से नारी-उत्पीड़न पर ही रहा हैं। नारी-वेदना को बुद्धिमत्ता के साथ उद्घृत किया है। नारी-शोषण, घरेलू-हिंसा, मासूम बच्चों से भीख मंगवाना व नादान बच्चियों को देह-व्यापार में झोंकना व उनकी तस्करी करना धनोपार्जन का मुख्य उपादान बन गया है। दहेज-उत्पीड़न एवं दहेज के लालची दानवों द्वारा नव-विवाहिता की कभी गैस से जला-कर, कभी बिजली का करंट लगाकर, कभी फांसी लगा कर, कभी गोली व चाकू मार कर हो रही हत्याएं हृदय को उद्वेलित करती हैं, कचोटती हैं। अक्सर वारिस को जन्म न दे पाने के नाम पर तिरस्कृत किया जाना व पुन:विवाह की अवधारणा सामान्य-सी बात है। कन्या भ्रूण-हत्या समाज का कोढ़ है, जो ला-इलाज है। मिथ्या अहंतुष्टि के लिए 'ऑनर किलिंग' जैसा घिनौना अपराध करना जन-मानस में कूट-कूट कर भरा है। अबोध-निर्दोष बच्चियों का शील-भंग व बलात्कार कर हत्या करना वासना के भूखे भेड़ियों का शौक है। यदि पीड़िता शिकायत दर्ज कराने, किसी भी पुलिस-स्टेशन व अदालत में जाती है, तो उससे अधिवक्ताओं द्वारा बार-बार विभिन्न प्रकार के अश्लील प्रश्न पूछना, केवल चिन्तन के नहीं, चिंता के विषय ही तो हैं। इस कारण वह इस भ्रष्ट व कुत्सित समाज में कुलटा, कुलक्षिणी, पापिनी, कुल-नाशिनी आदि संबोधनों से अलंकृत की जाती है, जो विडम्बना तो है ही, परंतु बहुत दुर्भाग्यपूर्ण भी है । हाँ! यहाँ मैं इतना कहना उचित समझता हूँ कि इस कृति में पुरुष का उल्लेख बहुत ही कम है... है भी तो एक नारी के उपेक्षक व शोषक के स्वरूप में। ग़ौरतलब है कि नारी-शोषण व नारी-उत्पीड़न में पुरुष की ही नहीं, नारी की भी अहम् भूमिका होती है। परन्तु इस सन्दर्भ में नारी की कम और पुरुष का अधिक... । कहने का तात्पर्य यह है कि किसी भी बात का निर्णय अधिकतम/ न्यूनतम के हिसाब से किया जाता है, यहाँ भी यही समझना होगा। परन्तु हर परिस्थिति में पीड़ित तो नारी ही होती है, शारीरिक यातना व मानसिक प्रताड़ना भी उसे ही झेलनी पड़ती है।इसके अतिरिक्त लेखिका अपने गृह राज्य की महिमा का गुणगान करना भी नहीं भूली हैं। उन्होंने समाज में हो रहे अनाचार, भ्रष्टाचार, अत्याचार व गरीबी की मार झेल रहे लोगों की ओर ही ध्यान आकृष्ट ही नहीं किया है बल्कि शासन-प्रशासन में हो रही त्रुटियों को भी उजागर करने का प्रयास किया है। ज्ञातव्य है कि लेखिका ने राष्ट्रीय व साहित्यिक मंचों पर हो रही ठेकेदारी, चुटकलेबाज़ी, निज-यशोगान व स्वार्थपरता के कारण पुरस्कारों के आदान-प्रदान व धन के लेनदेन पर भी अपनी चिंता व्यक्त की है। साहित्यिक मंचों पर कुछ मठाधीशों के आधिपत्य से नवांकुर, उदीयमान कवियों/ लेखकों के भविष्य पर भी चिंता जताई है। कश्मीर समस्या के समाधान पर भी प्रसन्नता व्यक्त की गयी है। देश में आरक्षण के नाम पर हो रही भ्रष्ट-राजनीति व गलत नीतियों का बखान करना भी वे भूली नहीं हैं तथा देश के प्रति कर्त्तव्य-विमुख लोगों को भी चेताने का प्रयास भी उन्होंने बखूबी किया है।उपरोक्त कृति को 'चिन्तन के आयाम' कहना कदाचित् अनुचित नहीं होगा, क्योंकि यह अत्यन्त -उत्तम कृति है, जो भावनाओं को झकझोरती है तथा श्रेय-प्रेय व औचित्य-अनौचित्य के बारे में सोचने पर विवश करती है। मैं समझता हूँ कि समाज में घटित कोई भी ऐसा घटनाक्रम नहीं है, जिसकी ओर लेखिका ने इंगित नहीं किया है। यह पुस्तक विलक्षण है, सबसे भिन्न है तथा इसमें पाठक को लगभग हर विषय पर, पढ़ने-समझने व चिंतन-मनन करने को सामग्री प्राप्त होगी। सो! मेरा मंतव्य यह है कि 'चिन्तन के आयाम' कृति सभी सुधीजनों को अवश्य पढ़नी चाहिए तथा इस स्तुत्य कृति के लिए लेखिका डॉ. मुक्ता जी को हार्दिक बधाई व साधुवाद।

शुभापेक्षी,

पवन शर्मा परमार्थी

कवि-लेखक, पूर्व-सम्पादक

परशुराम एक्सप्रेस, फ़ास्ट इंडिया

दिल्लीचिन्तन के आयाम'...एक श्रेष्ठतम कृति

आदरणीय डॉ. मुक्ता जी की नवीन श्रेष्ठतम कृति '  चिन्तन के आयाम' आलेख-संग्रह के विषय में मुझे कुछ शब्द लिखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है, अपितु कृति की रचनाकार के सम्मुख मेरी लेखनी बहुत ही बौनी है। फिर भी उनके लिए माँ शारदे की कृपा से कुछ लिखने का साहस जुटा पा रहा हूँ। वैसे तो लेखिका डॉ. मुक्ता ने पुस्तक के आवरण पृष्ठ पर स्वयं का विस्तृत रूप से विवरण प्रस्तुत किया है, उनके बारे में मेरा लिखना इतना आवश्यक नहीं। फिर भी उनके विषय में संक्षिप्त रूप में कुछ लिखना मेरा भी दायित्व बनता है। डॉ. मुक्ता एक महान्, यशस्वी, सुविख्यात कवयित्री व साहित्यकार के रूप में साहित्य जगत् में प्रतिष्ठित हैं, जो समस्त हिन्दी साहित्य जगत् का गर्व व गौरव हैं तथा उन्हें विशिष्ट हिन्दी सेवाओं के निमित्त भारत के पूर्व राष्ट्रपति स्व. प्रणव मुखर्जी जी द्वारा सन् 2016  में सम्मानित भी किया जा चुका है। आप महिला महाविद्यालय की पूर्व-प्राचार्य व हरियाणा साहित्य अकादमी व हरियाणा ग्रंथ अकादमी की निदेशक रही हैं और केंद्रीय साहित्य अकादमी की सदस्या के रूप में भी आपने दायित्व को बखूबी वहन किया है। आपकी विविध विधाओं में तेतीस कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी है। आपकी रचनाओं पर कई विद्यार्थी एम• फिल• कर चुके हैं तथा एक छात्रा को पीएच• डी• की उपाधि भी प्राप्त हो चुकी है। दो अन्य विद्यार्थी पीएच• डी• कर रहे हैं। अनेक साहित्यिक पुस्तकों में भी आपके आलेख, कहानी व कविताएं प्रकाशित हो चुके हैं तथा आपका साहित्य-सृजन निरन्तर जारी है । 'चिन्तन के आयाम' आपका सद्य:प्रकाशित आलेख-संग्रह है। इस पुस्तक के जितने भी स्तम्भ चुने गये हैं, वे वास्तव में प्रशंसनीय व सराहनीय हैं। सभी स्तम्भ अपने भीतर विशेष-वैचित्र्य संजोए हैं, जिसका आकलन आप पुस्तक पढ़ने के पश्चात् स्वयं ही कर पाएंगे।डॉ• मुक्ता ने अपने नवीनतम आलेख-संग्रह 'चिन्तन के आयाम' में समाज में घटित अनेक तथ्यों को छुआ है; अनगिनत विषमताओं, विकृतियों, विसंगतियों, कु-नीतियों, कुरीतियों आदि का विशद् विवेचन किया है। विभिन्न घटनाएं--तन्दूर काण्ड, तेज़ाब काण्ड, दहेज व घरेलू हिंसा की भीषण घटनाएं, नशे की लत के कारण लूटपाट, फ़िरौती व अपहरण कर बच्चियों के साथ बलात्कार के जानलेवा किस्से सामान्य हैं। एक-तरफ़ा प्यार, 'लिव-इन', 'मी-टू' और 'ऑनर किलिंग' में अंजाम दी गई हृदय-विदारक हत्याओं से कौन अवगत नहीं है...यह तो घर-घर की कहानी है। डॉ. मुक्ता ने अपनी कृति 'चिंतन के आयाम' में अनेक सामाजिक विसंगतियों की ओर ध्यान केन्द्रित किया है। लेखिका ने लगभग हर विषय को छूने का अदम्य साहस किया है, जिससे यह पुस्तक किसी भी विषय से अनछुई नहीं रही है, जिस पर प्रश्न उठाकर, लेखिका ने समाज को जाग्रत करने का हर सम्भव प्रयास किया है? उन्होंने हर विषय का चिंतन-मनन ही नहीं, नीर-क्षीर विवेकी दृष्टि से मन्थन भी किया है तथा समाज की जड़ों को खोखला करने वाली मान्यताओं की ओर केवल हमारा ध्यान ही आकृष्ट नहीं किया, उन्हें समूल नष्ट करने का संदेश भी दिया है। सबसे बड़ी बात यह है कि लेखिका का ध्यान विशेष रूप से नारी-उत्पीड़न पर ही रहा हैं। नारी-वेदना को बुद्धिमत्ता के साथ उद्घृत किया है। नारी-शोषण, घरेलू-हिंसा, मासूम बच्चों से भीख मंगवाना व नादान बच्चियों को देह-व्यापार में झोंकना व उनकी तस्करी करना धनोपार्जन का मुख्य उपादान बन गया है। दहेज-उत्पीड़न एवं दहेज के लालची दानवों द्वारा नव-विवाहिता की कभी गैस से जला-कर, कभी बिजली का करंट लगाकर, कभी फांसी लगा कर, कभी गोली व चाकू मार कर हो रही हत्याएं हृदय को उद्वेलित करती हैं, कचोटती हैं। अक्सर वारिस को जन्म न दे पाने के नाम पर तिरस्कृत किया जाना व पुन:विवाह की अवधारणा सामान्य-सी बात है। कन्या भ्रूण-हत्या समाज का कोढ़ है, जो ला-इलाज है। मिथ्या अहंतुष्टि के लिए 'ऑनर किलिंग' जैसा घिनौना अपराध करना जन-मानस में कूट-कूट कर भरा है। अबोध-निर्दोष बच्चियों का शील-भंग व बलात्कार कर हत्या करना वासना के भूखे भेड़ियों का शौक है। यदि पीड़िता शिकायत दर्ज कराने, किसी भी पुलिस-स्टेशन व अदालत में जाती है, तो उससे अधिवक्ताओं द्वारा बार-बार विभिन्न प्रकार के अश्लील प्रश्न पूछना, केवल चिन्तन के नहीं, चिंता के विषय ही तो हैं। इस कारण वह इस भ्रष्ट व कुत्सित समाज में कुलटा, कुलक्षिणी, पापिनी, कुल-नाशिनी आदि संबोधनों से अलंकृत की जाती है, जो विडम्बना तो है ही, परंतु बहुत दुर्भाग्यपूर्ण भी है । हाँ! यहाँ मैं इतना कहना उचित समझता हूँ कि इस कृति में पुरुष का उल्लेख बहुत ही कम है... है भी तो एक नारी के उपेक्षक व शोषक के स्वरूप में। ग़ौरतलब है कि नारी-शोषण व नारी-उत्पीड़न में पुरुष की ही नहीं, नारी की भी अहम् भूमिका होती है। परन्तु इस सन्दर्भ में नारी की कम और पुरुष का अधिक... । कहने का तात्पर्य यह है कि किसी भी बात का निर्णय अधिकतम/ न्यूनतम के हिसाब से किया जाता है, यहाँ भी यही समझना होगा। परन्तु हर परिस्थिति में पीड़ित तो नारी ही होती है, शारीरिक यातना व मानसिक प्रताड़ना भी उसे ही झेलनी पड़ती है।इसके अतिरिक्त लेखिका अपने गृह राज्य की महिमा का गुणगान करना भी नहीं भूली हैं। उन्होंने समाज में हो रहे अनाचार, भ्रष्टाचार, अत्याचार व गरीबी की मार झेल रहे लोगों की ओर ही ध्यान आकृष्ट ही नहीं किया है बल्कि शासन-प्रशासन में हो रही त्रुटियों को भी उजागर करने का प्रयास किया है। ज्ञातव्य है कि लेखिका ने राष्ट्रीय व साहित्यिक मंचों पर हो रही ठेकेदारी, चुटकलेबाज़ी, निज-यशोगान व स्वार्थपरता के कारण पुरस्कारों के आदान-प्रदान व धन के लेनदेन पर भी अपनी चिंता व्यक्त की है। साहित्यिक मंचों पर कुछ मठाधीशों के आधिपत्य से नवांकुर, उदीयमान कवियों/ लेखकों के भविष्य पर भी चिंता जताई है। कश्मीर समस्या के समाधान पर भी प्रसन्नता व्यक्त की गयी है। देश में आरक्षण के नाम पर हो रही भ्रष्ट-राजनीति व गलत नीतियों का बखान करना भी वे भूली नहीं हैं तथा देश के प्रति कर्त्तव्य-विमुख लोगों को भी चेताने का प्रयास भी उन्होंने बखूबी किया है।उपरोक्त कृति को 'चिन्तन के आयाम' कहना कदाचित् अनुचित नहीं होगा, क्योंकि यह अत्यन्त -उत्तम कृति है, जो भावनाओं को झकझोरती है तथा श्रेय-प्रेय व औचित्य-अनौचित्य के बारे में सोचने पर विवश करती है। मैं समझता हूँ कि समाज में घटित कोई भी ऐसा घटनाक्रम नहीं है, जिसकी ओर लेखिका ने इंगित नहीं किया है। यह पुस्तक विलक्षण है, सबसे भिन्न है तथा इसमें पाठक को लगभग हर विषय पर, पढ़ने-समझने व चिंतन-मनन करने को सामग्री प्राप्त होगी। सो! मेरा मंतव्य यह है कि 'चिन्तन के आयाम' कृति सभी सुधीजनों को अवश्य पढ़नी चाहिए तथा इस स्तुत्य कृति के लिए लेखिका डॉ. मुक्ता जी को हार्दिक बधाई व साधुवाद।


शुभापेक्षी,

पवन शर्मा परमार्थी

कवि-लेखक, पूर्व-सम्पादक

परशुराम एक्सप्रेस, फ़ास्ट इंडिया

दिल्ली

जय कन्हैया लाल की

 




गाओ गाओ हे खुशी के गीत   हमारे घर हर आए।
गाओ गाओ हे खुशी के गीत   हमारे घर हर आए।

1. सो गए दरबारी सारे सो गया जग सारा जी
परम पिता ने जेल के अंदर रूप बाल का धारा जी
सिखाने सही सनातन रीत हमारे घर हर आए।

2. जब पापों से पापियों ने बढा धरा का भार दिया
तीन लोक के मालिक ने फिर कृष्ण का अवतार लिया
वे तो करने धर्म की जीत हमारे घर हर आए

3. चला सुदर्शन चक्र उनका ऐसा कत्लेआम किया
दुराचारियों का फिर जग से बिल्कुल काम तमाम किया 
भगतों के बनकर मीत हमारे घर हर आए

4. जिसने उसको ध्याया पाया उसने ही गिरधारी को
जगबीर कौशिक बसा हिय में प्यारे कृष्ण मुरारी को
करो दिल से सभी प्रीत हमारे घर हर आए

जगबीर कौशिक

गुरुकृपा

 





गुरुकृपा सिर पर रहे,
रहे प्रभु का ध्यान ।
मिले अनुग्रह सरस्वती,
मिलता अनुपम ज्ञान ।।
गुरूकृपा बिन कुछ नहीं ,
होय न गुरु बिना ज्ञान ।
जीवन बोझिल सा लगे ,
पल पल घुटते प्राण ।।
गुरु वशिष्ठ सानिध्य से,
दशरथ नंदन राम।
सब विधि पारंगत भये
आये अपने धाम।।
संदीपनी आश्रम गये,
श्री कृष्ण भगवान।
गुरु चरणों में बैठ कर,
पाया सच्चा ज्ञान ।।

     पदम प्रवीण

नेताजी सुभाषचन्द बोस

युवाओं का आदर्श रूप, आजादी का परवाना था ।

जिसके एक इशारे पर , हर युवा जोश दीवाना था ।

जिसकी नस-नस में था जुनून, आजादी का प्रण ठाना था ।

"तुम मुझे खून दो ,मैं आजादी दूंगा" छेड़ा अलमस्त तराना था ।

स्वतन्त्र राष्ट्र का हितचिंतक , जन-मन का था दृढ़ विश्वास ।

हर भारतीय गर्व से कहता था , जिसको "नेताजी सुभाष"।

जिसके गाये तरानों से, आजादी ने ली अंगड़ाई थी ।

जिसने देश के जन-जन में ,स्वातन्त्र्य की अलख जगाई थी ।

'जय हिन्द' बोल कर गरजा था, वह युवा 

जोश निर्भीक लाल ।

उसके हर एक इशारे पर, तरुणाई करती थी कदमताल ।

उस तरुणाई की मुखर गूँज, झंकृत करती थी हृदय तार ।

वह गूँज सुनाई देती थी, सरहदों के भी बहुत-बहुत पार ।

जिसने विदेश में जाकर के, आजाद हिंद फौज का गठन किया ।

जिससे घबराकर छल बल से, अंग्रेजों ने उसका दमन किया ।

राजनीति के छल बल से , वह युवा जोश था छला गया ।

आजाद हिंद का सपना ले, वह बलिदानी तो चला गया ।

किंतु स्थापित प्रतिमान आज , आजाद देश में जिंदा हैं ।

'शील' सुभाष हर जन-जन में , आजादी पाकर के जिंदा हैं।

शील चन्द्र जैन 'शील'

ललितपुर, उत्तर-प्रदेश (भारत)

चांद ने कब कहा

 चांद ने कब कहा मेरी धरती पर मत उतरो पर तुमने तो मानव होड़ लगा दी 

मुझतक आने के लिए प्रतियोगिता कर ली मुझ तक आकर  अपने आप को सफल मान लिया

 अपने जीवन का पैमाना मान लिया

 आज चांद मानव से कह रहा है 

कितनी सफलता से झंडे और गाडोगे 

अपनी सफलता पर इतरा रहे हो 

फिर क्यों बिलबिला रहे हो

 अपनी यह जिद छोड़ो एक ही राह है तुम्हारी और वह है अहिंसा वह हिंसा तो मत करो जिसकी तुम्हें जरूरत नहीं 

ध्यान रहे प्रकृति की भी सहन करने की सीमा है

 वक्त रहते तुम भी सहन करना सीख लो आवश्यकता अपनी जगह है  संचय य की भी सीमा है परिस्थितियां  विपरीत हो जाएं  तब यह मत कहना क्या हो गया

 मैं तो चांद पर जाना चाहता था 

मेरा आशिया ही उजड़ गया 

यह आग हमने ही लगाई है

 हमें ही जलना होगा हम यही  बुझाना होगा  सुकून पाने के लिए चांद सी शीतलता लाना होगा

 रत्नप्रभा जैन

मर्यादा

1-

मर्यादा  देती सदा, सबको मान  अपार ।

नेक काम तो कीजिए,खूब मिलेगा प्यार ।।

2-

मर्यादा से ही मिले,मानव को सम्मान ।

दुख सारे ही दूर हों, मिले सुखी संतान।। 

3-

मर्यादा में सब रहें, सदा रखें यह ध्यान।

प्यार सभी से ही करें, तभी मिलेगा मान ।।

4-

राम राम के जाप से ,  मिटता है अभिमान ।

मन के दूर विकार हों , खूब मिले सम्मान ।।

5 -

मर्यादा से इस धरा ,  मिलता अतुलित प्यार ।

जीवन हो जाता सफल,सभी

करें सत्कार ।।


डॉ. राजेश कुमार जैन

 श्रीनगर गढ़वाल 

उत्तराखंड

हिम्मती जमुना की सूझबूझ


 


लघु कथा

जमुना एक बहुत मेहनती और सुलझी हुई औरत थो। वह प्रीतमपुरा नाम गांव में रहती थी। बच्चे के जन्म के समय उसके पति का देहांत हो गया था ।एक बार गांव में बाढ़ आ गई ।सारा गांव पानी में सराबोर हो गया । जमुना भी अपने घर से बेघर हो गई। उसे अपने बच्चे की चिंता सता रही थी। वह बच्चा ही उसकी जिंदगी का एक मात्र सहारा था। कई लोगों को वह पानी के बहाव में बहते हुए देख रही थी। ऐसे में उसे उम्मीद की कोई किरण नजर नहीं आ रही थी। तभी एक छोटी सी झाड़ू के सीक  से बनी टोकरी उसे पानी में तैरती हुई दिखाई दी ।उसने झट उस टोकरी को पकड़ा, और अपने बच्चे को टोकरी में लिटा कर अपना हाथ उपर कर लिया। वह भी धीरे-धीरे पानी के बहाव में बहती जा रही थी । उस समय उसका एक ही प्रण था ,किसी तरह अपने बच्चे की जान की रक्षा करना। बारिश के पानी का स्तर लगातार उसके शरीर के उपर होते जा रहा था ।फिर भी वह हिम्मत जुटा कर ,अपने हाथ की टोकरी को ,ऊपर कर ,पानी के बहाव में यह सोच कर बहे जा रही थी कि, शायद कहीं कोई किनारा नजर आ जाए।

संकट आने पर सभी अपनी हिम्मत और सूझ-बूझ खो देते हैं ,पर संकट में जो सूझबूझ और हिम्मत से काम ले कर अपना और अपनी परिवार को बचा लेता है ,वही सच्चा इंसान कहलाता है।  साहसी यमुना ने भी हिम्मत दिखाकर अपने बच्चे को बचाते हुए पानी के बहाव की ओर ही बहना शुरू किया।

नीता गुप्ता 

रायपुर छत्तीसगढ़

मनमंदिर

आस्था विश्वास रहते, प्रेम सद्भाव बहते।

मनमंदिर में जोत, जगाते चले जाइए।

महकते पुष्प खिले, खुशबू जग में फैले। 

शब्द मोती चुन चुन, रिश्तों को महकाइये।

चंदन अक्षत रोली, धूप दीप नैवेद्य से। 

जगत करतार की, सब आरती गाइए।

मोदक माखन मेवा, मिश्री अरु नारियल। 

छप्पन भोग प्रभु को, मुदित हो लगाइए।


रमाकांत सोनी नवलगढ़

जिला झुंझुनू राजस्थान

वैष्णव जन तो

 डाॅ-राजलक्ष्मी शिवहरे

   वैष्णो जन तो तेते  कहिये

   पीर पराई जाने रे।

     बापू आप अभी भी चरखा कात रहे हैं । पता है काबुल  का हवाई  अड्डे  को उड़ा दिया है  ।

    ये तो होना ही था।हरिजनों को मत दबाओ कहता था।किसी ने नहीं  सुनी।

    अमेरिका  के अठारह  सैनिक  मारे गये।

    तो क्या?हमारे बँटवारे  में  तो कयी हजारों  लोग मारे गये थे। किसी को फर्क  पड़ा था क्या?

   बापू आपको हुआ  क्या है। आप तो शांति  स्थापित  करने की बात करते थे।

   कर पाया क्या ।मारा गया मुझे।

   हे भगवान  ।

   तभी नींद  खुल गयी।ओह बापू आप भी

बुरे वक़्त की एक ख़ास आदत

बुरे वक़्त की एक ख़ास आदत है.. वह इंसान को ख़ुद चलना सिखा देता है.. क्योंकि इस समय आपको मीठे बोल कम कड़वे बोल ज्यादा सुनने को मिलते हैं.. जो व्यक्ति बुरे वक़्त में भी अपने क़दमों को ठहरने नहीं देता वही फलक पर अपना नाम लिखता है.. आज की शाम सकारात्मक सोच की ख़ुशबू से महकती हुई आपकों महसूस होगी..गर कभी आप बुरे वक़्त के दौर से गुजरे हैं तो..??बुरे वक़्त के दामन के जो कोई पाले होते है

बचपन में जिसके नसीब में ना निवाले होते हैं..!

कर्मठता से जो जीता है अपनी जिंदगानी को..!

हमने देखा है उन्हीं तक़दीर में उजाले होते हैं..!

अंधेरों से खौफ खाने वाले क्या ख़ाक जीते हैं..!

जो अंधेरों से लड़ते हैं वही तो दिलवाले होते हैं..!

फर्श से अर्श तक का सफ़र बड़ा ही मुश्किल है..!

अर्श पर पहुंचने वाले लोग बड़े निराले होते हैं..!

कर्म को पूजा माना उन्हीं ने ही इतिहास रचा है..!

ख़ून में रवानी हो उनके नसीब पे कब ताले होते हैं..!

कमल सिंह सोलंकी

रतलाम मध्यप्रदेश

न करना ऐसा श्रृंगार,

करना जरूर श्रृंगार , अहिंसक

न करना ऐसा श्रृंगार,

न करना हिंसक श्रृंगार,

न करना फूहड़ता प्रदर्शन,

गर मन ललचाये करने को श्रृंगार,

उसे करना समज़ के जरूर.....

जब पिया का मन कर जाये,

दिल के भावों को रख लेना जरूर,

उनके मन की बातों को रखकर,

साजन के नाम सोलह श्रृंगार कर लेना जरूर...........

इन सोलह श्रृंगारसे तन सोहे,

दिलवरजी का मन मोहे,

खुद के मन को मोहित करे,साथ ऐसा करना श्रृंगार,

सेवा सुख शांति का तारणहार,

उसे करना जरूर.........

चूड़ी बिंदी सोलह श्रृंगार चमके दमके,

उसकी मधुर ख़नक घर में बजती रहे,

प्यारकी चमक दमक से घर का कोना कोना चमके,

उस आभासे तेरे रिश्ते दर्पण बन चमके,

ऐसा श्रृंगार उसे करना जरूर......

जब अस्त व्यस्त होकर,

स्वयंको  भूल घर  काम में लगी रहो,

किन्तु चुपके से सजना से शरारत करना न भूलना,

ये नेह,बचपना,

तपती दुपहरिया में सावन बन जाता.

ये मासूमियत  श्रृंगार........

संस्कारो की जड़ें गहरी,

माँ बाबूजी बच्चों के संग धर्म लहरी,

अहिंसा शाकाहार श्रृंगार,

जीव हिंसा से बचो ऐसे सन्देश दे करना  श्रृंगार जरूर .......

स्वरचित प्रभा जैन इंदौर।

प्रेम मय सदन

 साँची-सुरभि

 प्रेम मय सदन

सदन सुगंध युक्त, सुख देता ।

दुखद दुरूह कष्ट, हर लेता ।

सब निज पीर भूल, सुख पाते ।

मधुर सुगीत गान, सब गाते ।।

सुमन भरे पराग, मन भाते ।

मनुज सुबुद्धि धार, हरषाते ।

कपट न द्वेष भाव, मन जागे ।

कर शुचि प्रेम गान, बढ़ आगे ।।

सुदृढ अटूट बंध, जब होता ।

सहज दुरूह काम, तब होता ।

सुखद निवास गेह, शुभकारी ।

कट हर कष्ट जाय, अति भारी ।।

मनुज कुसंग त्याग, सजते हैं ।

प्रभुवर को सदैव, भजते हैं ।

प्रभु पद कंज ध्यान, कर प्राणी ।

मधुर सुभाषितान, कर वाणी ।।

विनय दयानिधान, सुन लीजे ।

अतुल समृद्धि कीर्ति, प्रभु दीजे ।

अमृत समान भाव, सब पाएँ ।

मधुरिम प्रेम गीत, सब गाएँ ।।


         इन्द्राणी साहू"साँची"

         भाटापारा (छत्तीसगढ़)

आज फुर्सत की दोपहरी

आंगन में उतर आयी है

जैसे बरसों बाद

बचपन की

कोई सहेली घर आयी है

चुप रहने का नहीं 

आज तो बातों का दिन है

कुछ बकाया काम

भी निपटाने का भी

आज मन है

बकाया होमवर्क की हमने

पाठशाला लगाई है

हाथ सूनें हैं

पैरों में महावर लगाना है

सफेद बालों को

फिर से काला करना है

अम्मा बाजार से

मेंहदी के कोन लायी है

आज  फुर्सत की दोपहरी

आंगन में उतर आयी है

पैरों में फटती विवाई

झुर्रियों को नकारते दर्पण

सुनाती है उम्र की शहनाई

खिड़की से देखती हूँ

गुज़रते हुए फुर्सत का फिर एक दिन

यूँ ही हो जायेगी फिर शाम 

कट जायेगा फिर उम्र का यूँ ही एक दिन

भूल जाती हूँ कभी माथे पे सिंदूर लगाना, अम्मा चिल्लाती है फिर ऐसा गज़ब मत करना

सैंकड़ों काम होतें है अम्मा

फुर्सत का दिन तो एक होता है

कैलेंडर बदल बदल कर भी

जाने क्यों मन उदास रहता है

जाने क्यों अम्मा बाऊजी की याद आयी है

आज फुर्सत की दोपहरी

फिर आंगन में उतर आयी है||

शोभा टण्डन... जोधपुर

खुले पैसे

 खुले पैसों की अपनी अलग अहमियत होती है ।पैसों की कीमत समय के साथ साथ बदलती रहती है ,और खुले पैसे भी चलन से बाहर  होते रहते हैं, और हो जाते हैं। कभी-कभी नोट भी चलन के बाहर हो जाते हैं। इस बदलाव से अनेक लोगों को नुकसान भी हुआ है। अधिकतर बच्चे गुल्लक में खुले पैसे ही जमा करते हैं। खरीदारी में भी खुले पैसे का महत्व है। आजकल लोग रुपयों को भी पैसा कहते हैं। चलन में बोलचाल में यही कहते हैं। मेरे पास पैसे नहीं है ।उसका मतलब रुपयों से भी होता है ।खुले पैसे और रुपयों के बिना लेनदेन और व्यापार हो ही नहीं सकता ।आजकल चलन में होने वाले खुले पैसे सिक्के वर्तमान में भारत में 50 पैसे ₹1 दो रुपए ₹5 ₹10 ₹20 मूल्य के सिक्के जारी किए जा रहे हैं 50 पैसे तक के सिक्कों को छोटे सिक्के कहा जाता है तथा एक रुपए और उससे अधिक के सिक्कों को रुपया सिक्का कहा जाता है इस प्रकार खुले पैसों की आवश्यकता हर समय रहती है और इनका बहुत महत्व है।


रजनी अग्रवाल जोधपुर

मगसम--राजसमन्द

कहता तिरंग

 सशक्त विचारधारा

हम लोग आजाद भारत के आजाद नागरिक हैं। हमारा देश आजाद है ।आजादी की लड़ाई अट्ठारह सौ सत्तावन से लेकर लेकर 1947 तक यानी कि यह लड़ाई 90 सालों तक चली। इससे पूर्व छोटे-छोटे राज्य अपनी आजादी , स्वतंत्रता के लिए लड़ते रहते थे। तीन अक्षर गुलामी गई और तीन अक्षर आजादी आई। मुगलों से लड़ाई लड़ी गई ।अंग्रेजों से लड़ाई लड़ी गई ।और आज की लड़ाई वर्चस्व की लड़ाई लड़ी जा रही है। हमारा तिरंगा कुछ कहता है ।वह हमारे देश का धरोहर है। स्वाभिमान है, शान है, और आजाद हिंद की पहचान है। लेकिन कम मानसिकता वाले लोग केवल 365 दिनों में 364 दिन उस विषय पर नहीं सोचते हैं। सिर्फ एक दिन तिरंगा को परंपरागत रूप मेंअपनाने की प्रक्रिया चल पड़ी है ।लोग जाते हैं तिरंगा लहराते हैं ।तालियां बजाते हैं ।मिठाइयां खाते हैं ।अपने अपने मंतव्य को अपने अपने विचार को वहां रखते हैं। जयकार मनाते हैं और पुनः उस तिरंगा की छत्रछाया से हटते ही अपने अपने कार्यों में लग जाते हैं। तिरंगा द्वारा दिया गया संदेश कम मानसिकता वाले लोग नहीं समझ पाते हैं।वे भूल जाते हैं। तिरंगा का कहना है कि, हमारी डोरी कोई और बनाता है। हमारा रंग कोई और देता है। हमारी सिलाई कोई और करता है। हमको लहराने वाला कोई और होता है ।अपने अपने विचारों को समाहित कर मुझे भाग्यशाली देश का स्वाभिमान बनाया गया।अब कहां है वेलोग जिन्होंने मेरा अपमान नहीं कर सकते थे। हम पर बलिदान हो जाते थे । मेरे संदेश को मेरे विचार को समझते थे ।शायद अब मेरा अस्तित्व समाप्त होता जा रहा है और मैं एक परंपरागत स्थिति में पहुंच रहा हु।मुझे लहराने का अधिकार उसी का है,जो देश के लिए सुरक्षा, त्याग करने की शक्ति रखता हो,सच्चाई का दामन पकड़ा हो।जिसमें न्याय करने की क्षमता हो,खुशहाली, हरियाली दे सकें और प्रगति पथ पर राष्ट्र को निरन्तर अग्रणीय रख सके। लेकिन अब धीरे धीरे खिलौना का रूप लेता जा रहा हु। उन शहीदों की शहादत का सन्देश को अपने जीवन में अमल न कर , यादगार रूप में मनाया जा रहा । मैं खुशी और गम दोनों का प्रतीक हूं। मुझे एक मामूली कपड़ा का टुकड़ा समझ कर कम मानसिकता वाले लोग गली _नाली में फेंक देते हैं । उचित स्थान पर नहीं रख पाते हैं। दुकानों पर बिक रहा हूं ।मेरी यही कीमत। मेरे प्रिय देशवासियों मैं राष्ट्र की एकता,अस्था और विश्वास का प्रतीक हु। मैं तुम्हारा स्वाभिमान हूं ,मैं तुम्हारा पहचान हु। मुझे रुकने मत दो ,मुझे झुकने मत दो ।अपनी भूल सुधारों, मुझे विश्व में लहराओ।पुरी उम्मीद के साथ।जय हिन्द,जय हिंदूस्तानी।

व ०च०__दीनानाथ

बोस का जोश

 



आओ हम सब मिलकर सच्ची गाथा गाते हैं 

रखा जोश में होंस बोस की कथा सुनाते हैं

1. अंग्रेजों की नींव रखी बर्बादी की उसने

क्या खूब बजाई शहनाई आजादी की उसने

तरह-तरह से उन सबके  छक्के छुड़वाते हैं

2.  आजादी के लिए दाँव पर जान लगाई थी

सब गोरों की उसने भाई नींद उड़ाई थी

शक्तिशाली हिंद की सेना बोस बनाते हैं

3. धन दौलत घर बार आपने देश की खातिर छोड़ा

खूब दौड़ाया रण में अपना आजादी का घोड़ा

उन महान आत्मा को श्रद्धा से शीश नवाते हैं

4. आए कोई मुसीबत आप जरा सा हँस देना

आजादी मैं दूंगा मुझे तुम खून बस देना

जय हिंद के फौजी दुश्मन को मार भगाते हैं

    जगबीर कौशिक

स्वाभिमान

 


अवतार बाबू आज आप बहुत चुप बैठे हैं क्या बात है? विवेक ने पहुँचते ही पूछा. वास्तव में अवतार और विवेक दोनों साथ साथ पास के मैदान में, जब से करोना का भय कुछ कम हो गया, मिलते थे.  हालांकि दोनों मास्क लगाये रहते थे और एक दूसरे से दूरी बनाए रखते थे. अवतार ने कहा विवेक कल  मुझे एक सब्जी बेचने वाली महिला ने एक  ऐसी बात कही कि मैं सोंच में पड़ गया हूँ.

 ऐसी क्या बात उसने कह दिया, जरा मैं भी सुनु, विवेक ने कहा. असल में कल सुबह मैं टहलने निकला था. वह जो पुलिया के पास दो औरतें बैठती हैं न जो सब्जी रखे  रहतीं हैं , मुझे वो दिखाई पड़ी. मैंने सोंचा चलो इन्हीं से  सब्जी ले लेते हैं. पास पहुचने पर मैंने यूँ ही पूछ लिया कि काकी कैसा चल रहा है. वह बोली इस लाकडाउन में बिक्री तो कुछ हो नहीं रहा और उपर से मेरा आदमी जहाँ काम करता था, वह दुकान भी बंद हो गया है. वह भी बेकार बैठा है. बाबू जी खर्चा तो कम होता नहीं, काहे कि परिवार का पेट तो भरना ही है.

उसकी बात तो सही ही थी. मैंने कहा काकी तुम्हारी बात तो सही है, आज कल अधिकांश लोगों की आर्थिक स्थिति ऐसी ही है.

विवेक मैंने यूँ ही  सहानुभूति के कारण उससे कहा कि देखो काकी सरकार और कई स्वयंसेवी संस्थायें राशन और अन्य दैनिक उपयोग की चीज़ें , शहर में बांट रहीं हैं, आप वहाँ से जा कर अपने जरूरत के लिए सामान ले सकती हो. आपकी परेशानी कुछ कम हो जायेगी. उसने मेरी बात सुन कर कुछ इस तरह मेरी ओर देखा जैसे मैंने कोई बहुत गलत बात कह दी हो. मुझे आश्चर्य हुआ. मैंने पूछा क्या बात है काकी. विवेक उसने जो बात कही उससे मैं हैरान हो गया.

उस सब्जी बेचने वाली ने कहा बाबू मैंने भी सुना है. लेकिन यह सहायता उन्हें मिलनी चाहिए जिनके पास वास्तव में आज जीवन चलाने के लिए कुछ भी नहीं है और भूखे मर रहे हैं. मैं क्यों लूं? मेरा आदमी, अगर  उसका दूकान कुछ दिन और नहीं खुला, तो मेरी तरह वह भी सब्जी या फल गलियों में घूम घूम कर बेचेगा परन्तु यह सहायता जिनके लिए है, उन्हें ही लेना चाहिए. अभी हमारी हालत ऐसी नहीं है.

विवेक मैं तो सुन कर हतप्रभ रह गया. जिस देश में झूठ बोल कर बड़े बड़े आदमी पैसा कमाने में लगे हैं , रिश्वत लेने वालों की लाइन लगी है, इस महामारी में भी दवाईयों के मनमाने दाम लिए जा रहे हैं, बड़े बड़े कारपोरेट अस्पताल मनमाना पैसे ले रहे, वहीं पर आज एक थोड़ी सी सब्जी बेचने वाली  महिला शान से कह रही है कि जब तक उसका काम चलेगा वह कोई सहायता नहीं लेगी. 

विश्वास करो विवेक पहले तो मुझे अपनी कानों पर विश्वास नहीं हुआ , लेकिन वह यही कह रही थी. उसका स्वाभिमान, ईमानदारी और स्पष्ट सोंच ने मुझे स्तब्ध कर दिया. शायद ऐसे ही करोड़ों ईमानदार लेकिन सामान्य लोगों के कारण आज भी मेरा देश जीवित है और चल रहा है.

(ओमप्रकाश पाण्डेय)

नये आकाश चुने.


परिंदों की तरह नये हौंसले लिए,

हमने भी कई नये आकाश चुने.!

देर लगती है मन क्षितिज बड़ा है,

दूरियाँ देख कर विश्वास भी डिगा है.!

नीड़ को कैसे बान्धू अपने बाहुपाश में,

गिद्ध बैठे हैं झपटने की ताक में.!

जो करता है संघर्ष  यहाँ

वही इस दुनियाँ में जीता है

अभिमन्यु का हश्र

महाभारत में हमने देखा है.!

हौसलें ठंडे हुए अब

सच्चाई भी घुटने लगी

बे करारी सी दिल में

क्यों बढ़ने लगी.?

हंसने रोने का अब

वक्त नहीं है,

कुछ कर गुजरने का ही

जज्बा सही है..!

रेत के घरौंदों की तरह

बिखरे हुए,

सपने कुछ मेरे भी यूँ

पराए हुए..!

मुंह फेर के चल दिए हम

अपना छोटा सा चिराग लिए

थोड़ी सी तासीर बची है

अभी__उजालों के लिए.!

परिंदों की तरह नये विश्वास लिए

हमने भी कयी नये आकाश चुने

शोभा टण्डन 

जोधपुर

को-रोना बनाम रुदाली

 


कोरोना तो रुदाली करने का बस एक बहाना है। बाकी लोग तो पहले से ही अपनों से दूर हो चुके हैं। वे तो पास होने का केवल नाटक करते हैं।' राजेंद्र परदेसी जी का यह कथन कोटिशः सत्य है। 'को-रोना' काहे का और क्यों रोना' विडंबना है जीवन की। वास्तव में आधुनिक युग में विश्व ग्लोबल विलेज बन कर रह गया है और मानव में आत्मकेंद्रितता के भाव में बेतहाशा उछाल आया है, क्योंकि सामाजिक-सरोकारों से उसका कोई लेना-देना नहीं रहा। जीवन मूल्य दरक़ रहे हैं और रिश्तों की अहमियत रही नहीं। सो! परिवार-व्यवस्था में मानव की आस्था न होने के कारण चहुंओर अविश्वास का वातावरण हावी है। पति-पत्नी अपने-अपने द्वीप में क़ैद हैं और बच्चे एकांत की त्रासदी झेलने को विवश हैं। स्नेह, सौहार्द, प्रेम व विश्वास जीवन से नदारद हैं। इन विषम परिस्थितियों में पारस्परिक प्रेम व सहानुभुति के भाव होने की कल्पना बेमानी है।वास्तव में को-रोना तो स्वार्थी मानसिकता वाले  लोगों के लिए वरदान है, जो अपनों के निकट संबंधी होने का दम भरते हैं अर्थात् स्वांग रचते हैं। वास्तव में वे नदी के दो किनारों की भांति मिल नहीं सकते। इसलिए कोरोना तो रुदाली की भांति लोक-दिखावा है... शोक प्रकट करने का एकमात्र साधन है। कोरोना ने तो उनकी मुश्किलें आसान कर दी हैं। अब उन्हें मातमपुर्सी के लिए किसी के वहां जाने की दरक़ार नहीं, क्योंकि वह एक जानलेवा बीमारी है। इसलिए इस रोग से पीड़ित व्यक्ति सरकारी सम्पत्ति बन जाता है और पीड़ित का उसके परिवार से ही नहीं, संपूर्ण विश्व से नाता टूट जाता है। दूसरे शब्दों में वह रिश्ते- नातों के जंजाल से जीते-जी मुक्ति पा लेता है।रुदाली एक प्राचीन परंपरा है और चंद महिलाओं के गुज़र-बसर का साधन, जिसके अंतर्गत उन्हें रोने अथवा मातम मनाने के लिए एक निश्चित अवधि के लिए वहां जाना पड़ता है, जबकि उनका उस व्यक्ति व परिवार से कोई संबंध नहीं होता। आजकल तो संबंध हैलो-हाय तक सीमित होकर रह गए हैं और अपनत्व का भाव भी  जीवन से लुप्त हो चुका है। लोग अक्सर निकट होने का नाटक करते हैं। परंतु संवेदनाएं मर चुकी हैं और रिश्तों को ग्रहण लग गया है। इसलिए कोई भी रिश्ता पावन नहीं रहा। मुझे स्मरण हो रही है विलियम शेक्सपीयर की 'सैवन स्टेजिज़ ऑफ मैन' कविता–जिसमें वे संसार को रंगमंच की संज्ञा देते हुए मानव को एक क़िरदार के रूप में दर्शाते हैं, जो संसार में जन्म लेने के पश्चात् समयानुसार अपने विभिन्न पार्ट अदा कर चल देता है। वास्तव में यही सत्य है जीवन का, क्योंकि सब संबंध स्वार्थ के हैं। सच्चा तो केवल आत्मा-परमात्मा का संबंध है, जो जन्म-जन्मांतर तक चलता है। सो! मानव को सांसारिक मायाजाल से ऊपर उठना चाहिए, ताकि वह मुक्ति को प्राप्त कर सके।


डॉ मुक्ता,

निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी।



मैं एक नारी हुँ


 प्रेम चाहती हूँ और कुछ नही.....

मैं एक नारी हूँ,मैं सब संभाल लेती हूँ

              हर मुश्किल से खुद को उबार लेती हूँ

नहीं मिलता वक्त घर गृहस्थी में 

              फिर भी अपने लिए वक्त निकाल लेती हूँ

टूटी होती हूँ अन्दर से कई बार मैं

              पर सबकी खुशी के लिए मुस्कुरा लेती हूँ

गलत ना होके भी ठहराई जाती हूँ गलत

             घर की शांति के लिए मैं चुप्पी साध लेती हूँ

सच्चाई के लिए लड़ती हूँ सदा मैं

              अपनों को जिताने के लिए हार मान लेती हूँ

व्यस्त हैं सब प्यार का इजहार नहीं करते

        पर मैं फिर भी सबके दिल की बात जान लेती हूँ

कहीं नजर ना लग जाये मेरी अपनी ही

          इसलिए पति बच्चों की नजर उतार लेती हूँ

उठती नहीं जिम्मेदारियाँ मुझसे कभी कभी

          पर फिर भी बिन उफ किये सब संभाल लेती हूँ

बहुत थक जाती हूँ कभी कभी 

          पति के कंधें पर सर रख थकन उतार लेती हूँ

नहीं सहा जाता जब दर्द,औंर खुशियाँ

     तब अपनी भावनाओं को कागज पर उतार लेती हूँ

कभी कभी खाली लगता हैं भीतर कुछ

            तब घर के हर कोने में खुद को तलाश लेती हूँ

खुश हूँ मैं कि मैं किसी को कुछ दे सकती हूँ

     जीवनसाथी के संग संग चल सपने संवार लेती हूँ

हाँ मैं एक नारी हूँ,मैं सब संभाल लेती हूँ

  अपनों की खुशियों के लिए अपना सबकुछ वार देती हूँ।

दोहा

1.कजरी

कजरी गा रही  सखियाँ,नाच रहा मन मोर,

शुभकामना भाव भरे,होय सब जन विभोर ।

2.सुरसरि

शिव जटा से है उद्गम,सुरसरि शोभित गर्व,

कैलाश पर्वत बिराजे,शिव रात्रि का  पर्व ।

3.सावन

सतरंगी इंद्रधनुष,सावन शीत फुहार,

रवि किरणों से चमकती,हीर कण की बहार।

4.रक्षा बंधन

रक्षाबंधन ले  आया,भाई  बहना प्यार

 त्योहार की झड़ी लगे,सावन मास बहार।

5.काजल

गौरी आकर्षक रूप,काजल सजते  नैन,

 स्नेहिल मधुर मुस्कान,करती है बैचेन।

प्रभा जैन इंदौर।

गीत



(मां का कर्ज चुकाना है)

मुझको फर्ज निभाना है

 मां का कर्ज चुकाना है

 बर्फीली चोटी चढता हूं 

दुश्मन से  मैं लड़ता हूं 

जीतने को रहता तत्पर 

आगे हरदम बढ़ता हूं

झंडा निज फहराना है 

मां का कर्ज चुकाना है

दुश्मन को मार गिराऊं

 झंडा छाती पर लहराऊं

 खाकर सीने पर गोली

 लड़ते-लड़ते मर जाऊं

 मां को हमें बचाना है 

मां का कर्ज चुकाना है

 भटको को समझाना है

 वीरों को बतलाना है 

भारत पर आंख उठे ना 

हमको तो दिखलाना है

देश हमें महकाना है 

मां का कर्ज चुकाना है

दीपा परिहार 'दीप्ति'

 जोधपुर (राजस्थान)

रक्षा पर्व



 सम्पूर्ण विश्व के कल्याण की कामना करते हुए समस्त भाई बहिनों को राखी पर्व की शुभकामनाएं 

नये अर्थ से मुखरित कर दें,

प्रेम का धागा बांध कलाई

दुखी जनों को नवजीवन दें।

अति दुख से बेहाल खड़े जो

सूनी आँखों से ताक रहे हैं

एक सूत्र सदभाव का बटकर

दुखियारों के कर पर धर दें

उनको अपने गले लगाकर

माथे चंदन टीका कर दें।

आओ!हम सब*नये अर्थ**।

सीमा पर जो डटे हुए हैं

उनको भी तो दुलार चाहिए

अपनी बहिनों से दूर खड़े जो

उनको भी तो प्यार चाहिए

ममता से सराबोर राखी से

उनको भी आप्लावित कर दें।

आओ!हम सब*नये अर्थ से*।

दूर खड़ा वह कृषक खेत में

देखे अपनी सूनी कलाई

जन हित में धान रोपण खातिर

बहना के पास जा ना पाये

हम सब मिल खेतों में जाकर

उसकी कलाई राखी से भर दें।

आओ!हम सब*नये अर्थ से*।

अनगिन कुदरत की छलनायें

छले जा रही हैं मानव को

अवहेलना उसकी भी करके

हमने भी तो लूटा है उसको

राखी एक प्रायश्चित स्वरूप

प्रकृति माँ के चरणों में धर दें।

आओ!हम सब रक्षा पर्व को

नये अर्थ से मुखरित कर दें।

प्रेम का धागा बांध कलाई

दुखी जनों को नवजीवन दें।।

स्वरचित मौलिक रचना

    .लीला कृपलानी(जोधपुर)

साजन की पाती


लघुकथा

नयी नवेली दुल्हन बनी रजनी अपने ससुराल से दो महीने पहले अपने मायके रामनगर आयी थी । मायके में पति बिन एक एक दिन की जिन्दगी उसे पहाड़ जैसी लग रही थी ।

        वह अपने पति सुनिल पास अपने ससुराल श्रीकृष्णनगर जाना चाह रही थी,लेकिन लाज- शर्म के मारे रजनी अपने माँ,बाप,भाई-भौजाई को अपने दिल की बात नहीं  बता रही थी।

       इधर अपने गाँव घर  में रजनी का पति सुनिल अपनी पत्नी के बिना काफी उदास रहता था। सुनिल एक कलाकार हृदय का नवयुवक था। सुनिल को अपनी नयी नवेली दुल्हन रजनी के बिना तनिक भी मन नहीं लग रहा था,वह ससुराल जाने के लिये छटपटा रहा था लेकिन उसे अपने माता-पिता की तरफ से ससुराल जाने के लिये इजाजत नहीं मिल रही थी।

      इधर रजनी अपनी सहेली गहना के द्वारा सुनिल के पास एक चिठ्ठी भिजवाती है। जिसमें लिखा होता है-"पिया हमरा मन नहीं लागत ई अंगनवाँ में,पिया अईया तु जरुर ई फागुनवाँ में।"।



     इधर अपनी सजनी रजनी का पत्र पाकर सुनिल को खुशी का कोई ठिकाना नहीं है। पत्र की बात वह अपने माता- पिता को बताता है। सुनिल के माता पिता सुनिल को फागुन में ससुराल जाने की इजाजत दे देते हैं।

      सुनिल रजनी के नाम एक पत्र लिखता है,जिसमें वह अपने दिल की बात लिखता है-"सजनी आइब हम जरुर फागुनवाँ में,हमरा मन नहीं लागत ई अंगनवाँ में।"

          साजन का पत्र पाकर रजनी को अपनी खुशी का ठिकाना नहीं रहता है। वह साजन का पत्र लेकर मन हीं मन बुदबुदाती है" आज आयी मेरे साजन की पाती, खुशी से चौड़ी हुयी सजनी की छाती "।वह खुशी के मारे कभी  चिडियाँ की तरह चहकने लगती है,फुदकने लगती है,कभी सजती है,कभी संवरती है, हँसती,मुस्कुराती है तो कभी खुद से बातें करती है,मानो आज हीं उसका साजन सुनिल उसे लेने के लिये आया हो।

          अरविन्द अकेला

साथ तुम आ जाओ

आ जाओ, आ जाओ, आ जाओ मेरे यार, साथ तुम आ जाओ।

मातृभूमि का वंदन करते, सीमा पर सेनानी लड़ते। 

रणभूमि में उतर जरा तुम, दो-दो हाथ दिखा जाओ। 

आ जाओ आ जाओ...…

जो पत्थर के बने हुए हैं, कुछ वर्षों से तने हुए हैं।

होठों पर मुस्कान हंसी हो, उर चेतना जगा जाओ। 

आ जाओ आ जाओ.....

खिलते फूल चमन में सारे, कहते चांद गगन और तारे। 

मुस्कानों के मोती चुनकर, प्यार जग में लूटा जाओ। 

आ जाओ आ जाओ...…राम कृष्ण का देश हमारा, सुंदर यह परिवेश हमारा। 

विश्व गुरु सोने की चिड़िया, फिर इसे बना जाओ। 

आ जाओ आ जाओ.......

सद्भावों के फूल खिलाना, राही पथ में मत रुक जाना। 

लेखनी की मशाल हाथ ले, रोशनी पथ करते जाओ।

आ जाओ आ जाओ.....

घट घट पावन गंगा बहती, भारत मां बेटों से कहती। 

आन बान और शान तिरंगा, शान सदा बढ़ाते जाओ। 

आ जाओ आ जाओ....

रमाकांत सोनी नवलगढ़

जिला झुंझुनू राजस्थान

गलती


रोहित के मम्मी पापा ने रोहित को पूरी छूट दी थी।वह अपने विचार उसपर बिल्कुल थोपते नहीं थे। उसे जो चाहिए तब तब सब मिलता था। कॉलेज जानेके लिए गाड़ी, खर्च के लिए पॉकेट मनी। उसे किसी बात की कमी नहीं थी।
रोहीत का सेकंड इयर का रिजल्ट आया वह देखकर मम्मी पापा नाराज हो गए ।
 पापा ने रोहित से कहा  " रोहित, तुम्हें बहुत कम मार्क मिले है।और कोशिश करनी चाहिए।मैं तुलना नहीं कर रहा हूं पर तुम्हारे दोस्त निलेश को देखो गरीब है पार्ट टाइम जॉब करता है दिन रात मेहनत करके पढ़ाई करता है। मार्क भी अच्छे लेता है।"
"पापा, निलेश गरीब है,पैदल कॉलेज आता है, उसके पास रहने के लिए खुद का घर भी नहीं है ।उसके पापा भी कुछ खास कमाते नहीं है ।तो उसे तो दिन रात मेहनत  करनी ही  है ।और मुझे मेहनत करने की क्या जरूरत है ? आपने घर तो इतना बड़ा लेकर रखा है, मेरे पास गाड़ी है, अपनी कार है। पॉकेट मनी के लिए पैसे देते तो देते ही हो। मुझे ज्यादा मेहनत करने की जरूरत क्या है?
पापा को अपनी गलती समझ में आ गई और गलती सुधारने के बारे में वह भी सोचने लगे।

सुवर्णा अशोक जाधव


कहानी बड़ी सुहानी

कहानी बड़ी सुहानी

 

(1) कहानी 

!! अंत का साथी !!


एक व्यक्ति के तीन साथी थे। उन्होंने जीवन भर उसका साथ निभाया। जब वह मरने लगा तो अपने मित्रों को पास बुलाकर बोला- “अब मेरा अंतिम समय आ गया है। तुम लोगों ने आजीवन मेरा साथ दिया है। मृत्यु के बाद भी क्या तुम लोग मेरा साथ दोगे?”


पहला मित्र बोला, “मैंने जीवन भर तुम्हारा साथ निभाया। लेकिन अब मैं बेबस हूँ। अब मैं तुम्हारी कोई मदद नहीं कर सकता।”


दूसरा मित्र बोला, “मैं मृत्यु को नहीं रोक सकता। मैंने आजीवन तुम्हारा हर स्थिति में साथ दिया है। मैं यह सुनिश्चित करूंगा कि मृत्यु के बाद तुम्हारा अंतिम संस्कार सही से हो।


तीसरा मित्र बोला, “मित्र! तुम चिंता मत करो। मैं मृत्यु के बाद भी तुम्हारा साथ दूंगा। तुम जहां भी जाओगे, मैं तुम्हारे साथ रहूंगा।”


मनुष्य के ये तीन मित्र हैं- माल (धन), इयाल (परिवार) और आमाल (कर्म)। तीनों में से मनुष्य के कर्म ही मृत्यु के बाद भी उसका साथ निभाते हैं।


शिक्षा:-

 हमें अच्छे कर्म करने चाहिए। यही वो दौलत हैं जो मरने के बाद भी इंसान के साथ जाती हैं। अतः अच्छे कार्यों में इस अनमोल जीवन को बिताना चाहिए।


**************


(2) कहानी


घर महक उठा


✍️"बहू!.तुमसे एक बात कहनी थी।"


"जी मम्मी जी!"


अभी-अभी दफ्तर से लौटकर झटपट फ्रेश होकर रसोई में पहुंच सभी के लिए चाय बना रही सौम्या ने चूल्हे की आंच थोड़ी कम कर दी।


"आज पड़ोस में रहने वाली मिसेज शर्मा हमारे घर आई थी।" धीमी आंच पर खौलते चाय को संभालती सौम्या ने हुंकार भरी..


"जी मम्मी जी!"


"उनके बेटे की शादी पिछले वर्ष हुई थी और तुम्हारी तरह उनकी बहू भी घर के सारे काम अच्छे से संभालती है।"


चाय का स्वाद बढ़ाने के लिए अपनी सास की मनपसंद इलायची कूटकर चाय ने मिलाती सौम्या मुस्कुराई कुछ बोली नहीं। लेकिन प्रभा जी ने अपनी बात आगे बढ़ाई..


,"थोड़ी कम पढ़ी लिखी है इसलिए तुम्हारी तरह ऑफिस नहीं जाती लेकिन उसके माथे से पल्लू कभी नहीं हटता।"


अपनी सास के मन की बात समझने की कोशिश करती सौम्या ने काफी देर उबल चुके चाय का स्वाद कड़वा होने से पहले ही चूल्हे की आंच बुझा दी लेकिन सौम्या की सास प्रभा जी ने अपनी बात पूरी की..


"लोग ऐसी-वैसी बातें करें मुझे पसंद नहीं!. इसलिए तुम कल से सूट-सलवार या ट्राउजर नहीं!.साड़ी पहनकर अपने ऑफिस जाया करना।"


सास की बातों पर सर हिलाकर हांमी भरती सौम्या ने छन्नी रख प्याली में चाय छानकर अपनी सास को थमा दिया और घर के अन्य सदस्यों को चाय देने रसोई से बाहर चली गई।


सास-बहू के बीच हुए बातों की चर्चा बिना किसी से किए अगले दिन दफ्तर जाने के लिए सौम्या एक सुंदर सी साड़ी में तैयार हुई।


हमेशा सूट-सलवार या ट्राउजर पहनकर ऑफिस जाने वाली सौम्या को साड़ी में देख उसका पति मुस्कुराया लेकिन उसके ससुर तनिक हैरान हुए।


रोज की तरह सौम्या ने अपने पति के साथ दफ्तर के लिए निकलने से पहले सास-ससुर के पांव छुए और रोज की तरह प्रभा जी और उनके पति ने हाथ हिलाकर खुशी-खुशी बेटे बहू को दफ्तर के लिए विदा किया।


"आज सौम्या के ऑफिस में कोई फंक्शन है क्या?" वहीं बरामदे में रखी कुर्सी पर बैठते हुए सौम्या के ससुर ने आखिर अपनी पत्नी से पूछ ही लिया।


"ऐसा कुछ तो उसने मुझे नहीं बताया।"


"असल में आज सौम्या साड़ी पहनकर ऑफिस के लिए निकली इसलिए मैंने तुमसे पूछा।"


"अब से रोज साड़ी पहनकर ऑफिस जाने के लिए मैंने ही उसे कहा है।"


नई-नवेली बहू पर अपने सास होने का धौंस जमाने की कोशिश करती पत्नी की ओर देख सौम्या के ससुर मुस्कुराए लेकिन आज प्रभा जी अपने पति पर भी तनिक नाराज हुई।


"और तुम!.बहू को हमेशा उसके नाम से क्यों पुकारते हो?"


"अरे! तो क्या कह कर पुकारूं?"सौम्या के ससुर हैरान हुए।


"बहू कहा करो!"


 प्रभा जी ने सलाह दी।


"क्यों?"


"अच्छा लगता है।"


प्रभा जी की बात सुन सौम्या के ससुर मुस्कुराए..


"जैसी तुम्हारी मर्जी!. लेकिन आज मैंने एक बात गौर किया।"


"क्या?"


"बहू ने रोज की तरह ऑफिस के लिए निकलने से पहले तुम्हारे पांव छुएं लेकिन रोज की तरह आज तुम्हारे गले नहीं लगी।"


"अगर सास को मांँ की तरह समझती तो जरूर गले लगती।"


पति की बात सुन कर प्रभा जी तनिक चिढ़ गई लेकिन पत्नी के चेहरे के भाव पढ़ते सौम्या के ससुर जी अपने मन की बात कहने से नहीं चूके..


"मुझे लगता है कि,.अगर तुम बहू को बेटी की तरह समझती तब भी वह जरूर तुम्हारे गले लगती!"

 

पति की बात सुनकर प्रभाजी गहरी सोच में पड़ गई।


शाम को दफ्तर से घर लौटी सौम्या ने महसूस किया कि घर के भीतर सौंधी खुशबू फैली थी। उसकी सास रसोई में कुछ पका रही थी।


सौम्या ने घड़ी पर नजर डाली। उसे ऑफिस से आने में बिल्कुल देर नहीं हुई थी वह रोज की तरह वक्त पर घर पहुंची थी। खैर सौम्या झटपट फ्रेश होकर रसोई में पहुंची।


रसोई में उसकी सास चूल्हे पर एक ओर पकौड़े तल रही थी और दूसरी ओर चाय चढ़ी हुई थी। सौम्या ने आगे बढ़कर सास के हाथ से कलछी ले ली..


"मम्मी जी!.मैं तो बस आ ही गई थी,.आपने खामखा इतनी मेहनत कर दी।"


"बहू!.तुम रोज दुगनी मेहनत करती हो मैंने तो आज बस यूंँही मन बहलाने के लिए..."


प्रभाजी मुस्कुराई लेकिन सौम्या बीच में ही बोल पड़ी..


"मेरे रहते आपको यह सब करने की क्या जरूरत?"


"जरूरत है बहू!"


"क्यों मांँजी?"


"एक समझदार बहू अपनी सास को मांँ समझती है लेकिन एक सास को भी समझदारी के साथ अपनी बहू को बेटी मानने का अभ्यास करना चाहिए।" प्रभाजी भावुक हो उठी।


सौम्या ने आगे बढ़कर अपनी सास को गले लगा लिया.. "मैंने तो हमेशा ही आपको अपनी मांँ समझा है!"


"लेकिन बहू मैंने तो दूसरों की बातों में आकर तुम्हें सिर्फ बहू समझने की भूल की है।".


प्रभा जी ने अपनी गलती मान मांँ बनकर अपनी बहू के माथे पर हाथ रखा और रसोई में सास-बहू के रिश्तो में आए बदलाव से पूरा घर महक उठा।


**************


(3) कहानी


जब मैं छोटा था,

. तो मेरी मां एक प्रौढ़ सब्ज़ीवाली से हमेशा घर के लिए सब्जियां लिया करती थीं, 

.जो लगभग रोज ही हमारे घर एक बड़े टोकरे में ढेर सारी सब्जियां लेकर आया करती थी।

.... इस रविवार को वह पालक के बंडल भी लेकर आयी, और दरवाज़े पर बैठ गई।

 ....मां को पालक बहुत पसंद थी, और मुझे भी। 

मां ने पालक के दो चार बंडल हाथ में लेकर सब्ज़ीवाली से पूछा:-

"पालक कैसे दी?"

 ... "सस्ता है दीदी, एक रुपया बंडल।" सब्ज़ीवाली ने कहा 

 ..... माँ ने कहा "ठीक है, दो रुपये में चार बंडल दे दे।"

  ....इसके बाद कुछ देर तक दोनों अपने-अपने ऑफर पर झिकझिक खिटपिट करते रहे। 

...  सब्ज़ीवाली कुछ नाराज़गी जताते हुए बोली-

  "इतनी तो मेरी खरीदी भी नहीं है, दीदी।" 

  ....और फिर उसने एक झटके के साथ टोकरा उठाया, अपने सर पर लादा, और उठ कर जाने लगी।

......लेकिन चार कदम आगे बढ़ने के साथ ही पीछे मुड़ी और चिल्लायी,  

"चलो चार बंडल के 3 रु दे देना दीदी, आप से ज़्यादह क्या कमाऊंगी ?"

...... मेरी माँ ने अपना सिर "नहीं" में हिलाया। 

 "2 रु में 4 बंडल मैं बिल्कुल ठीक बोल रही हूं, क्योंकि तू हमेशा की पुरानी सब्जीवाली है। चल अब दे भी दे।"

 परंतु सब्जीवाली रुकी नहीं, आगे बढ़ गई।

...... वे दोनों एक-दूसरे की रणनीतियों को भली-भांति जानते थे। यह तो खरीदने वालों और बेचने वालों के बीच रोज ही हुआ करता था। हर घर में हुआ करता था।

 ... 8-10 कदम जाकर सब्ज़ीवाली मुड़ी और हमारे दरवाजे पर वापस आई।  

 .....माँ दरवाजे पर ही इंतज़ार कर रही थी। उसके चेहरे पर एक अदृश्य-सी मुस्कान थी।

......सब्ज़ीवाली अपना टोकरा सामने रख कर कुछ ऐसे निढाल-सी बैठ गयी, जैसे कि वह किसी सम्मोहन की समाधि में हो। 

....... मेरी माँ ने अपने दाहिने हाथ से प्रत्येक बंडल को टोकरे से निकाल-निकाल कर कर दूसरे हाथ की खुली हथेली पर हल्के से मारा। 

 .... और इस तरह पीढ़ी दर पीढ़ी के सीखे हुए मात्रात्मक, गुणात्मक और आलोचनात्मक मानदंडों से प्रत्येक बंडल की जाँच की।

.....फिर सब्ज़ीवाली के टोकरे में रखे हुए सभी बंडलों की प्रारंभिक शॉर्ट-लिस्टिंग से, मां ने अंततः अपनी संतुष्टि से चार बंडलों का चयन किया।

 .....  थकी हुई निढाल बैठी सब्जी वाली ने पालक के बाकी बंडलों को फिर से अपने टोकरे में सजाया। छोटे मूल्यवर्ग के सिक्कों में भुगतान लेकर बिना गिने ही पैसे अपने बटुए में डाल लिए। 

  .....सब्जीवाली ने बैठे ही बैठे टोकरा अपने सर पर रखा और उठने लगी, लेकिन टोकरा सिर पर रखकर जैसे ही वह उठने लगी, वह उठ न सकी और धप से नीचे बैठ गई।

... मेरी माँ ने उसका हाथ थाम लिया और पूछा-

  "क्या हुआ? चक्कर आ गया क्या? क्या सुबह कुछ नहीं खाया था?"

 ....  सब्जीवाली ने कहा, "नहीं दीदी। चावल कल खत्म हो गया था। आज की कमाई से ही, मुझे कुछ चावल खरीदना है, घर जाकर पकाना है। उसके बाद ही हम सब खाना खाएंगे।"

.... मेरी माँ ने उसे बैठने के लिए कहा। फिर फुर्ती से अंदर चली गई।  चपाती व सब्ज़ी के साथ तेजी से वापस आई,और सब्ज़ीवाली को दी।

 ....एक गिलास में पानी उसके सामने रखा। और सब्जीवाली से कहा "धीरे-धीरे खाना, मैं तेरे लिए चाय बना रही हूं।"

....   सब्जीवाली भूखी थी। उसने कृतज्ञतापूर्वक रोटी खायी, पानी पिया और चाय समाप्त की।  

   ....मेरी माँ को बार-बार दुआएं देने लगी।  मां ने टोकरा उनके सिर पर रखने में उसकी सहायता की। फिर वह सब्ज़ीवाली चली गई।

.... मैं हैरान था।  मैंने अपनी माँ से कहा, 

 "मां, आप ने दो रुपये की पालक की भाजी के लिए मोलभाव करने में इतनी कठोरता दिखाई, लेकिन उस सब्जीवाली को इतने अधिक मूल्य का भोजन देने में कई गुना अधिक उदार बन गयीं। यह मेरे समझ में नहीं आया !।

....मेरी माँ मुस्कुराई और बोली, 

 ☆ "मेरे प्यारे बच्चे, व्यापार में कभी कोई दया नहीं होती और दया में कभी कोई व्यापार नही होता।"


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(4) कहानी


एक दिन का पुण्य ही क्यूँ? 


निर्जला एकादशी से अगले दिन एक भिखारी एक सज्जन की दुकान पर भीख मांगने पहुंचा। सज्जन व्यक्ति ने 1 रुपये का सिक्का निकाल ककिर उसे दे दिया।


भिखारी को प्यास भी लगी थी, वो बोला बाबूजी एक गिलास पानी भी पिलवा दो, गला सूखा जा रहा है।

सज्जन व्यक्ति ने गुस्से में कहा: तुम्हारे बाप के नौकर बैठे हैं क्या हम यहां, पहले पैसे, अब पानी, थोड़ी देर में रोटी मांगेगा, चल भाग यहाँ से।


भिखारी बोला: बाबूजी गुस्सा मत कीजिये मैं आगे कहीं पानी पी लूंगा। पर जहां तक मुझे याद है, कल आपने निर्जला एकादशी व्रत कथा का पाठ किया था, तथा कल इसी दुकान के बाहर मीठे पानी की छबील लगी थी और आप स्वयं लोगों को रोक रोक कर जबरदस्ती अपने हाथों से गिलास पकड़ा रहे थे, मुझे भी कल आपके हाथों से दो गिलास शर्बत पीने को मिला था। मैंने तो यही सोचा था,आप बड़े धर्मात्मा आदमी है, पर आज मेरा भरम टूट गया।


कल की छबील तो शायद आपने लोगों को दिखाने के लिये लगाई होगी?

मुझे आज आपने कड़वे वचन बोलकर अपना कल का सारा पुण्य खो दिया। मुझे छमा करना अगर मैं कुछ ज्यादा बोल गया हूँ तो।


सज्जन व्यक्ति को बात दिल पर लगी, उसकी नजरों के सामने बीते दिन का प्रत्येक दृश्य घूम गया। उसे अपनी गलती का अहसास हो रहा था। वह स्वयं अपनी गद्दी से उठा और अपने हाथों से गिलास में पानी भरकर उस बाबा को देते हुए उसे क्षमा प्रार्थना करने लगा।


भिखारी: बाबूजी मुझे आपसे कोई शिकायत नही, परन्तु अगर मानवता को अपने मन की गहराइयों में नही बसा सकते तो एक-दो दिन किये हुए पुण्य कार्य व्यर्थ ही हैं। मानवता का मतलब तो हमेशा शालीनता से मानव व जीव की सेवा करना है।


आपको अपनी गलती का अहसास हुआ, ये आपके व आपकी सन्तानों के लिये अच्छी बात है। आपका परिवार हमेशा स्वस्थ व दीर्घायु बना रहे ऐसी मैं कामना करता हूँ, यह कहते हुए भिखारी आगे बढ़ गया।


सेठ ने तुरंत अपने बेटे को आदेश देते हुए कहा: कल से दो घड़े पानी दुकान के आगे-आने जाने वालों के लिये जरूर रखे हो। उसे अपनी गलती सुधारने पर बड़ी खुशी हो रही थी।


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(5) चिंतन

                

सुखी जीवन जीने का केवल एक ही रास्ता है वह है जीवन में कमियों की तरफ नजर न डालना। आज हमारी स्थिति यह है जो हमें प्राप्त है उसका आनंद तो लेते नहीं,परन्तु जो प्राप्त नहीं है उसका चिन्तन करके जीवन को शोकमय बना लेते हैं।


दुःख का मूल कारण हमारी जरूरतें नहीं, इच्छाएंँ हैं। हमारी जरूरतें तो कभी पूरी भी हो सकती हैं मगर इच्छाएंँ नहीं। इच्छाएंँ कभी पूरी नहीं हो सकतीं और न ही किसी की हुईं आज तक।


एक इच्छा पूरी होती है तभी दूसरी खड़ी हो जाती है। इसलिए दुःख का मूल कारण हमारी इच्छाएंँ ही हैं। इसके अलावा हमें संसार में कोई दुःखी नहीं कर सकता़!


  !!!...मन की सोच सुंदर है तो सारा संसार सुंदर नजर आएगा.. 

जिंदगी में कभी भी अपने किसी हुनर पे घमंड मत करना. 

क्योंकि पत्थर जब पानी में गिरता है

तो अपने ही वजन से डूब जाता है...!!!

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