सजगता संवेदनशीलता की पूर्वानुगामिनी है, पूर्वपीठिका है... पूर्वशर्त है।


– कमलेश कमल 

लाओत्से एक सूखे पत्ते को झड़ते देख बोध को उत्पन्न हो गए, तो राबिया ने पानी भरे घट के टूटने में जीवन की निस्सारता देख ली और बुद्धत्व को प्राप्त हो गई। यह सजगता की पराकाष्ठा है।


जिन क्षुद्रताओं में हम उलझते हैं, उनके मूल में तंद्रा, जड़ता, नासमझी या भविष्य और जीवन के प्रति संकुचित दृष्टि होती है। अगर बस ठीक से देख सकें, सजग हो सकें; तो ये मूढ़ताएँ स्वयमेव  समाप्त हो जाएँ! इन क्षुद्रताओं में उलझी न जाने कितनी जिंदगियाँ प्रतिदिन यूँ ही बिना कुछ ठोस किए या पाए समाप्त हो जाती हैं...यह अनुभव, यह सजगता पर्याप्त है तंद्रा को तोड़ने के लिए।


जब घर में आग लगी हो, तो कौन सोता है, कौन दूसरे पर दोषारोपण करने या लड़ने-झगड़ने में समय व्यर्थ करता है? तब तो बाहर निकलना और आग बुझाने का उद्यम करना ही स्वाभाविक प्रतिक्रिया होती है। जीवन के आयामों के प्रति मननशील होने पर यही मनोदशा जन्म लेती है।

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