(प्रासंगिक-प्रेरक-आलेख)
(पहली-किस्त)
✍🏻 प्रो. सुदीप कुमार जैन, नई दिल्ली
एक कहावत है कि "रूढिः शास्त्राद् बलीयसी" अर्थात कोई बात शास्त्र में किसी भी रूप में कही गयी हो, किन्तु उसके विषय में प्रचलित-रूढ़ियों को ही दुनियाभर में लोग शास्त्र के वचनों से बढ़कर मानते हैं, भले ही वे रूढ़ियाँ उस आम्नाय के शास्त्र-निर्देशों से ठीक-विपरीत ही क्यों न हो?
इसी का एक विचारणीय एवं संशोधनीय-प्रकल्प है 'रक्षाबंधन', जो कि जिस रूप में जिनाम्नाय में प्ररूपित है, उस रूप में जैन-समाज के लोग बिल्कुल भी नहीं मनाते हैं; बल्कि उसके विपरीत जैनेतर-समाज में प्रचलित-कथाओं के आधार पर दूसरों की देखा-देखी बिना निजधर्म/जिनधर्म के विवेक के हम सब मनाने लग गये हैं।
इसके लौकिक-पक्ष पर मैं कोई प्रतिक्रिया यहाँ न देते हुये यह ज्ञापित करना चाहता हूँ कि जिनाम्नाय में भाई-बहिन के प्यार, आपस में रक्षा करने के संकल्प, मिष्ठान्न व भेंट आदि देने के रूप में इस पर्व का जैन-परम्परा में कहीं कोई उल्लेख तक नहीं है और न ही इस रूप में इस पर्व का जिनाम्नाय से किसी तरह का कोई संबंध है।
जी हाँ, मैं पूरीतरह से सोच-विचारकर व जिम्मेदारी के साथ यह सिद्ध करनेवाला हूँ कि 'श्रावणी-पूर्णिमा' तिथि के दिन भाई-बहिन के पारस्परिक-प्रेम, सौहार्द, रक्षा-संकल्प एवं लेन-देनपूर्वक हर्ष मनाने जैसा 'रक्षाबंधन-पर्व' जिनाम्नाय-सम्मत है ही नहीं। यह तो जिनाम्नाय से बाहर की बात है।
जो अपनी आम्नाय के समीचीन-ज्ञान के अभाव में तथा मौज-मस्ती की लोकमान्यता/आदत के कारण हम भी इसे भाई-बहिन के पर्व के बहाने बस पार्टी-पर्व के रूप में मनाने लगे हैं। जबकि जैन-पर्व तो संयम-साधना के पर्व होते हैं, और उनमें त्याग की भावना प्रधान होती है।
इस विषय में सर्वप्रथम यह तथ्य भलीभाँति समझ लेना होगा कि जिनाम्नाय के अनुसार इस श्रावणी-पूर्णिमा-पर्व का भाई-बहिन के रिश्ते से कोई संबंध दूर तक नहीं है।
भाई-बहिन के रिश्तेवाली कथा वैदिक-साहित्य में आगत 'यम-यमी की वैदिक-परम्परा की कथा' है, जिसकी जिनाम्नाय में किसी भी रूप में कोई मान्यता नहीं है और न ही जिनाम्नाय से इसका किसी भी रूप में इसका कोई संबंध है।
जैन-समाज के लोग अपनी परम्परा के विषय में अज्ञान के कारण दूसरों की देखा-देखी लोकरूढि से इसे मनाते हैं, क्योंकि भाई-बहिन के रिश्ते की लौकिक-मान्यता तो सम्पूर्ण भारतीय-जनमानस में है। तथा लौकिकरूप में सभी भाई अपनी बहिनों के प्रति अपना दायित्व मानते हैं; और उसे लोक-परम्पराओं के अनुसार यथाशक्ति जहाँ जैसा प्रचलन है, वैसे लोकाचार निभाते हैं; किन्तु इस दिन के लिये राखी बाँधने, बंधवाने व रक्षा का संकल्प लेने जैसी कोई मान्यता इस पर्व के विषय में जिनाम्नाय में कहीं नहीं बतायी गयी है--- यह बात मैं पूरी जिम्मेदारी के साथ जिनवाणी की साक्षीपूर्वक कह रहा हूँ।
भाई-बहिन का रिश्ता लौकिक है, धार्मिक नहीं , तथा संस्कारवश भाई यावज्जीवन बहिनों के प्रति अपने कर्त्तव्य के दायित्व का अनुभव करते हैं, मैं उनके लौकिक-व्यवहार के विषय में कुछ भी पक्ष या विपक्ष में कमेंट्स नहीं कर रहा हूँ; क्योंकि इस विषय में कुछ भी लिखना मेरे इस आलेख का विषय/प्रतिपाद्य ही नहीं है।
किन्तु यहाँ मुख्य-बात यही है कि भाई-बहिन के इस पारस्परिक-स्नेह एवं दायित्व का किसी भी दिन-विशेष से किसी भी रूप में कोई संबंध जिनाम्नाय में कहीं नहीं बताया गया है
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जिनाम्नाय के अनुसार तो इस दिवस अर्थात् 'श्रावणी-पूर्णिमा' को मात्र वैराग्य, वैय्यावृत्ति, प्रभावना एवं वात्सल्य-पर्व के रूप में ही मनाना चाहिये।
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भाई-बहिन के पारस्परिक वात्सल्य एवं रक्षा की लौकिक-रागरूप भावना के समर्थन या विरोध इस आलेख का विषय नहीं है, अपितु इस आलेख में मैं यह समझाना चाहता हूँ कि हम जैनों को यह वात्सल्य-पर्व किस रूप में मनाना चाहिये? क्योंकि इस पर्व पर जो कुछ हम कर रहे, वह कम से कम जैनत्व की इस दिवस-संबंधित संवेदनाओं का उपहास उड़ाने जैसा है।
मैं इस तथ्य को स्पष्ट करता हूँ----
(मैं श्रावणी-पूर्णिमा के दिन घटित घटनाक्रम-वाली जैनकथा की पुनरावृत्ति नहीं करूँगा, क्योंकि उससे विस्तार हो जायेगा और कथ्य भी विषयान्तरित होगा। आप सभी 'श्रावणी-पूर्णिमा' के समय अकंपनाचार्य आदि सात सौ मुनिराजों पर बलि, नमुचि, प्रह्लाद आदि तीव्रकषायी-नरपिशाचों के पैशाचिक-अत्याचारों के बीभत्सरूप-उपसर्ग के घटनाक्रम से एवं उसके निवारण के लिये विष्णुकुमार-मुनिवर के द्वारा किये गये जिनधर्म-वात्सल्य के अविस्मरणीय-प्रसंग से सुपरिचित ही हैं। इसलिये वह कथानक मैं यहाँ नहीं बता रहा हूँ। इसका उल्लेख मैं अति-आवश्यक होने पर सांकेतिकरूप से ही इस आलेख में करूँगा।)
1. श्रावणी-पूर्णिमा को घटित इस परम-अहिंसक-मुनिराजों पर अकल्पनीय-अत्याचार के प्रसंग को 'रक्षाबंधन' संज्ञा देना सही प्रतीत नहीं होता है।
क्योंकि मुनिराजों ने अपने धैर्य, संयम व सहिष्णुता के बल पर वास्तव में जिनधर्म और निर्ग्रन्थ-मुनिधर्म के गौरव की प्रतिष्ठापना की थी। वे तो अपने तपःसाधना के मार्ग में स्वयंरक्षित थे। उनकी रक्षा कौन कर सकता था?
ध्यान रहे कि श्रामण्य की गुरुतर-साधना ही उनका गौरव है, और उसकी रक्षा स्वयं वे मुनिराज ही कर सकते थे; जिसे उन्होंने बखूबी करके प्रमाणित किया था। किसी अविरति-गृहस्थ ने वास्तव में उनके श्रामण्य की रक्षा नहीं की थी।
हाँ, इतना अवश्य है कि विरोध की आग में धधकते हुये उन बलि आदि विधर्मी-शासकों के उन मुनिवरों की देहों के ऊपर निर्दयतम-अत्याचारों के निवारण और उचित-कर्त्तव्य के निर्वाह के लिये 'विष्णुकुमार मुनिराज' मुनिपद का त्यागकर 'बावनियां-ब्राह्मण' के रूप में मुनिधर्म-साधकों की रक्षा करने के लिये वरदान की तरह सिद्ध हुये। मुनिवर विष्णुकुमार ने विक्रिया-ऋद्धि के द्वारा बलि आदि दुष्टों का मानमर्दन करते हुये उन्हें जिनधर्म की शरणागति का मार्ग दिखाया था।
इस प्रसंग में 'रक्षा' की बात तो किसी रूप में कदीचित् कही भी जा सकती है, किन्तु 'बंधन' तो किसी का किया ही नहीं गया था। किसी को भी बाँधकर जेल में नहीं डाला गया था या कोई दंड दिया गया था ; क्योंकि वीतरागी-जिनधर्म की परम्परा 'क्षमादान' की है, 'दंडविधान' की नहीं।
और इस दिन भी उन निर्दयी, क्रूरता के अपराधी 'बलि' आदि चार को भी उन अकम्पनाचार्य आदि मुनिवरों ने क्षमा ही किया था। तो क्षमा में बंधन की बात कैसे कही जा सकती है?
इसलिये जिनाम्नाय में इस दिन की घटना के प्रसंग में 'रक्षाबंधन' की बात सिद्ध ही नहीं होती है। इसलिये कह सकते हैं कि 'रक्षाबंधन' नाम का कोई पर्व जिनाम्नाय में नहीं है।
2. दूसरी आपत्ति इसे लौकिक-पर्वों के रूप में आमोद-प्रमोद के साथ मनाने की है। --यह प्रक्रिया जिनाम्नाय-विरुद्ध तो है ही, अमानवीय भी है।
जरा विचार करें कि इस दिन जिन अकंपनाचार्य आदि सात सौ मुनिराजों का उपसर्ग-निवारण हुआ था, उन्होंने इसके पहले के दिनों में क्या-क्या सहा था और उनकी उपसर्ग-निवारण के समय क्या हालत थी?
हम यदि एकाध घंटे तक भी तेज-गर्मी के दिनों में खुली-धूप के नीचे चारों ओर धधकती प्रचंड-अग्नि के बीच फँस जायें, तो असहनीय-ताप एवं दमघोंटू-धुयें के बीच हमारी क्या दशा होगी? हम घबराकर भागने के प्रयास करेंगे या बेहोश होकर गिर पड़ेंगे। ऐसी असहनीय-स्थिति में वे मुनिराज कई दिनों से बिना अन्न-जल के दिन-रात घिरे हुये थे। उन्हें एकमात्र-सहारा अपने आत्मबल एवं धैर्य का था। वे स्वरूप के अनुभव के सहारे ही परिणामों में स्थिरता बनाये हुये थे। किन्तु भौतिकरूप से तो उनकी देह बुरीतरह झुलसीं हुईं थीं। प्यास के कारण मानों गला तड़क रहा था, और धुयें की घुटन के कारण श्वास-प्रश्वास भी अवरुद्ध होने को थे। शरीर की त्वचा झुलसकर अधजली-अवस्था में पहुँच चुकी थी और उस पर चारों ओर से प्रचंड-अग्नि की उड़ती हुई गर्म-राख ने मानो ढँक दिया था। कुछ तो मूर्च्छित-अवस्था में पहुँच चुके थे, तो कुछ मरणासन्न जैसे हो रहे थे।
ऐसी हालत जिन मुनिवरों की हो रही थी, उनका यदि वह परकृत-उपसर्ग रुक भी गया, तो क्या हुआ? जब तक उपसर्ग चालू था, तब तो उनकी दैहिक-करुणदशा बहुत-स्पष्ट दिख नहीं रही थी। किन्तु वह उपसर्गकृत-अग्नि शमित होते ही जो बीभत्स-रूप लोगों ने अपने पूज्यपाद-मुनिवरों का देखा, उसे देखकर मानो उनके प्राण ही कंठ में आ गये थे।
कल्पना कीजिये कि कोई अग्निशामक-दल (फायर-फाइटर) किसी जगह लगी भीषण-अग्नि को बुझा भी ले, तो क्या उसका दायित्व पूरा हो जाता है? क्या वह अपनी पीठ थपथपाये और आपस में मिठाइयाँ बाँटने एवं बधाइयाँ देने का काम करने लगता है? और यदि कदाचित् कोई ऐसा करे, तो क्या आप उसे धिक्कारेंगे नहीं? क्योंकि अग्निशामक-दल का मुख्य-कार्य मात्र लगी हुई आग को बुझाने का नहीं होता है, बल्कि उस आग में घिरी हुई जिन्दगियों को खोजने और उन्हें बचाने का भी होता है। इसे पूर्ण किये बिना कोई भी अग्निशामक अपना कर्त्तव्य पूरा नहीं मानता है।
क्या कोई व्यक्ति इन तथ्यों की उपेक्षा करके तालियाँ बजाने एवं आनन्दित होने की सोच भी सकता है? और यदि ऐसा वह करे, तो क्या आप उसे 'विक्षिप्त' एवं 'संवेदना-विहीन' , 'अविवेकी' नहीं कहा जायेगा?
तो हम विचार करें, कि इस करुणतम-स्थिति में उस समय के लोगों ने अपने पूज्य-मुनिवरों की दग्धवत्-देहों का उपचार, उनकी वैय्यावृत्ति की होगी। उन्हें उनकी धर्मविधि के अनुरूप किसी तरह आहार आदि की व्यवस्था की होगी। या मात्र उपसर्ग दूर होने के नाम पर मिठाइयाँ बाँटने और बधाइयाँ देने का काम किया होगा?
कदापि नहीं, क्योंकि जैन-समाज सदा से प्राणीमात्र के प्रति अत्यन्त-करुण, संवेदनशील-आचरण के लिये जाना जाता है, तो अपने परमपूज्य मुनिवरों के प्रति तो उनकी संवेदनशीलता और भी अधिक व्यापक एवं विवेकशील ही रही होगी।
जरा ठहरिये, और संसार के विषय-भोगों के बारे में नानाविध-कल्पनायें करने में कुशल अपने हृदय को इस विषय में तत्कालीन-परिस्थितियों के अनुरूप चिंतन करने के लिये प्रेरित कीजिये।
परन्तु सावधान, आज के उद्धत-हृदय-लोगों की कल्पनाओं की तरह नहीं, बल्कि मुनिधर्म की मर्यादाओं की जानकारी के साथ उन मर्यादाओं की रक्षा करते हुये सोचिये कि उन झुलसी हुई देहयष्टिवाले मुनिवरों को सबसे पहले श्रावकों ने क्या पानी पिलाया होगा या पक्वान्न-भोजन कराया होगा? कदापि नहीं। क्योंकि निर्ग्रन्थ-श्रमण कभी भी इसतरह बिना विवेकपूर्ण-विधि के आहारचर्या नहीं करते हैं।
जब से मुनिसंघ पर उपसर्ग प्रारम्भ हुआ था, तबसे हस्तिनापुर और उसके आसपास, जहाँ तक इस उपसर्ग की सूचना पहुँच सकी थी, जैन-श्रावकों के घर चूल्हे नहीं जले थे। सभी मुनिवरों के उपसर्ग-निवारण की प्रतीक्षा करते हुये आतुर थे कि कब उपसर्ग-निवारण की सूचना मिले। भला जिनका नियम हो कि
"मुनि को भोजन देय, फेर निज करहिं अहारै"
अर्थात् सच्चे-मुनिराज को आहारदान देकर या फिर मुनिवरों की आहारचर्या का समय बीत जाने के बाद ही जो भोजन करते हों, ऐसे श्रावकगण मुनिसंघ पर इतने भीषण-उपसर्ग की जानकारी पाकर कैसे भोजन कर सकते थे? इसलिये सभी आतुरता से मुनिसंघ पर उपसर्ग-निवारण की सूचना की प्रतीक्षा कर रहे थे।
उपसर्ग-निवारण की सूचना मिलते ही पुरुष-वर्ग तो मुनिवरों की वैय्यावृत्ति में लग गये और महिलाओं ने तत्काल मुनिसंघ की योग्य-आहारचर्या के लिये सात्त्विक-व्यवस्थायें शुरू कीं, ताकि उपसर्ग से क्षीण-देहवाले मुनिवरों को आहारदान दिया जा सके।
पुरुषों ने शास्त्रोक्त-विधि से मुनिवरों की देह पर जम रही तप्त राख को दूरकर उन्हें शीतल-छाँव में लाने के उपक्रम किये। और जिसकी जैसी वैय्यावृत्ति अपेक्षित थी, शास्त्रोक्त-विधि से वह सब विनयपूर्वक की। उन्हें किसीतरह अपने पैरों पर खड़ा होने लायक बनाया, ताकि इस भीषण गर्मी के बीच अग्निताप की असहनीय-दैहिक-वेदना से वे कुछ स्थिरता प्राप्त करने हेतु आहारचर्या के लिये चल सकें। क्योंकि निर्ग्रन्थ-श्रमण किसी भी स्थिति में मुनिधर्म की चर्या का उल्लंघन नहीं करते हैं। अतः आहारचर्या तो वे अपने पैरों से चलकर विधिपूर्वक ही करते।
उनकी देह में भीषण-ताप की अनवरतता के कारण निर्जलीकरण (डी-हाइड्रेशन) की स्थिति हो रही थी, अतः उन्हें पेयजल, पेयपदार्थों का ग्रहण करना अति-आवश्यक था। किन्तु निर्ग्रन्थ-श्रमण आहारचर्या की विधि के अन्तर्गत ही अन्न-जल का ग्रहण करते हैं, इसके अलावा कदापि नहीं करते हैं।
अतः जब तक प्रत्येक मुनिवर की योग्य आहारचर्या आदि की विधि सम्पन्न नहीं हो गयी, तब तक मानो श्रावकों के प्राण कंठ में ही रखे रहे। आहारचर्या के बाद भी श्रावकों ने मुनिवरों की परिचर्या-हेतु उन्हीं के पास वह दिन बिताया था।
इन परिस्थितियों में क्या किसी को ऐसी कोई संभावना लगती है कि किसी ने किसी को बधाई दी होगी, या उपसर्ग-निवारण की मिठाई बाँटी होगी? यदि नहीं, तो फिर हम जैनीजन मुनिसंघ पर जानबूझकर तीव्रकषायभाव से किये गये भीषण-उपसर्ग के निवारण और मुनिसंघ की सेवा-वैय्यावृत्ति की श्रावणी-पूर्णिमा-तिथि को मिलने-जुलने, बधाइयाँ देने, लड्डू-पकौड़े जैसे पकवान खाने, भेंटें देने और संसारीजनों से प्यार बढ़ानेवाले पर्व के रूप में क्यों मनाते हैं?
क्या हमें आत्मालोचन नहीं करना चाहिये? क्या हमें विवेकपूर्वक अपनी त्रुटियों को नहीं सुधारना चाहिये? क्या हमें अपनी भावी-पीढ़ियों को इस तिथि की जिनाम्नाय में वास्तविकता नहीं बतानी चाहिये? क्यों हम रूढिचुस्त होकर पीढ़ियों की इस भूल को अपना आदर्श बनाकर ढो रहे हैं?
(क्रमशः, आगे जारी)
{यह आलेख बड़ा हो रहा था, किन्तु विषय बेहद-महत्त्वपूर्ण है, इसलिये संक्षिप्त करने के व्यामोह में इसके साथ अन्याय नहीं कर सकता हूँ। अतः दो भागों में इसे प्रस्तुत कर रहा हूँ। --- सुदीप कुमार जैन}
संपर्क दूरभाष : 8750332266
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