अवतार बाबू आज आप बहुत चुप बैठे हैं क्या बात है? विवेक ने पहुँचते ही पूछा. वास्तव में अवतार और विवेक दोनों साथ साथ पास के मैदान में, जब से करोना का भय कुछ कम हो गया, मिलते थे. हालांकि दोनों मास्क लगाये रहते थे और एक दूसरे से दूरी बनाए रखते थे. अवतार ने कहा विवेक कल मुझे एक सब्जी बेचने वाली महिला ने एक ऐसी बात कही कि मैं सोंच में पड़ गया हूँ.
ऐसी क्या बात उसने कह दिया, जरा मैं भी सुनु, विवेक ने कहा. असल में कल सुबह मैं टहलने निकला था. वह जो पुलिया के पास दो औरतें बैठती हैं न जो सब्जी रखे रहतीं हैं , मुझे वो दिखाई पड़ी. मैंने सोंचा चलो इन्हीं से सब्जी ले लेते हैं. पास पहुचने पर मैंने यूँ ही पूछ लिया कि काकी कैसा चल रहा है. वह बोली इस लाकडाउन में बिक्री तो कुछ हो नहीं रहा और उपर से मेरा आदमी जहाँ काम करता था, वह दुकान भी बंद हो गया है. वह भी बेकार बैठा है. बाबू जी खर्चा तो कम होता नहीं, काहे कि परिवार का पेट तो भरना ही है.
उसकी बात तो सही ही थी. मैंने कहा काकी तुम्हारी बात तो सही है, आज कल अधिकांश लोगों की आर्थिक स्थिति ऐसी ही है.
विवेक मैंने यूँ ही सहानुभूति के कारण उससे कहा कि देखो काकी सरकार और कई स्वयंसेवी संस्थायें राशन और अन्य दैनिक उपयोग की चीज़ें , शहर में बांट रहीं हैं, आप वहाँ से जा कर अपने जरूरत के लिए सामान ले सकती हो. आपकी परेशानी कुछ कम हो जायेगी. उसने मेरी बात सुन कर कुछ इस तरह मेरी ओर देखा जैसे मैंने कोई बहुत गलत बात कह दी हो. मुझे आश्चर्य हुआ. मैंने पूछा क्या बात है काकी. विवेक उसने जो बात कही उससे मैं हैरान हो गया.
उस सब्जी बेचने वाली ने कहा बाबू मैंने भी सुना है. लेकिन यह सहायता उन्हें मिलनी चाहिए जिनके पास वास्तव में आज जीवन चलाने के लिए कुछ भी नहीं है और भूखे मर रहे हैं. मैं क्यों लूं? मेरा आदमी, अगर उसका दूकान कुछ दिन और नहीं खुला, तो मेरी तरह वह भी सब्जी या फल गलियों में घूम घूम कर बेचेगा परन्तु यह सहायता जिनके लिए है, उन्हें ही लेना चाहिए. अभी हमारी हालत ऐसी नहीं है.
विवेक मैं तो सुन कर हतप्रभ रह गया. जिस देश में झूठ बोल कर बड़े बड़े आदमी पैसा कमाने में लगे हैं , रिश्वत लेने वालों की लाइन लगी है, इस महामारी में भी दवाईयों के मनमाने दाम लिए जा रहे हैं, बड़े बड़े कारपोरेट अस्पताल मनमाना पैसे ले रहे, वहीं पर आज एक थोड़ी सी सब्जी बेचने वाली महिला शान से कह रही है कि जब तक उसका काम चलेगा वह कोई सहायता नहीं लेगी.
विश्वास करो विवेक पहले तो मुझे अपनी कानों पर विश्वास नहीं हुआ , लेकिन वह यही कह रही थी. उसका स्वाभिमान, ईमानदारी और स्पष्ट सोंच ने मुझे स्तब्ध कर दिया. शायद ऐसे ही करोड़ों ईमानदार लेकिन सामान्य लोगों के कारण आज भी मेरा देश जीवित है और चल रहा है.
(ओमप्रकाश पाण्डेय)
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