प्रकृति और मां

लेखकदीनानाथ लाल ,मु०+पो०रुपसागर, जिला_बक्सर _बिहार 

प्रकृति में ही सभी ज्ञान समाहित है। साहित्य किसी भी ज्ञान की जननी है। चाहे वह किसी भी भाषा से संबंधित क्यों न हो। दिमाग भौतिकवाद सोच उत्पन्न करता है, लेकिन दिल प्रकृतिवाद  सोच एवं संवेदना को उत्पन्न करता है। देखो दहशत में जीवन चक्र कुछ समय के लिए रुक गया। भावना एवं रिश्ता दोनों जीवन चक्र के परिधि से बाहर हो गए। माया मोह दोनों से लोग विरक्त हो गए ।न वह क्षण सोचने का है, न समझने का है, यह स्थूल शरीर भी कहां जा रहा है, यह भी पता नहीं। किधर भागे किधर न भागे यह भी समझने का समय नहीं । प्रकृति के कंपन से धरती कांपी और धरती के कंपन से जीव कांपने लगे। जीवन में वह कंपन हुआ की जीव भूल नहीं पाता है। जीवन की सच्चाई जब सामने आती है, तो सब कापते हैं। जब प्रकृति उस सच्चाई को जीवन के सामने लाकर रख देती है ,तो जीव दहशत में आ जाता है। सूझ बुझ विवेक सब समाप्त हो जाता है। भौतिकता जीवन का संचालन कर सकता है। लेकिन जीवन का सूत्र नहीं है। भौतिकता प्रकृति के अंदर है, प्रकृति भौतिकता के अंदर नहीं है ।प्रकृति जब अपना अधिकार का प्रयोग करती है, तो सब काप जाते हैं ।अगर मानव अपना लक्ष्य खोजता है, तो प्रकृति लक्ष्य का आधार प्रदान करती है। लेकिन वही लक्ष्य के आधार के साथ मानव जब अनुचित व्यवहार करने लगता है, तो प्रकृति भी अपना दामन खींच लेती है। यही कारण है, कि सब दहशत में आ जाते हैं। प्रकृति (का दूसरा नाम ईश्वर )से गुहार लगाने लगते हैं। उस समय सब अपने भाग्य को कोसने लगते हैं। और अपने किए गुनाहों को स्वीकार नहीं करते हैं। आजकल विकास को लोग लेकर प्रकृति के साथ अनेक तरह का खिलवाड़ कर रहे हैं वह थोड़ा सा भी ध्यान दें, कि भौतिकवाद विकास के साथ साथ  प्रकृति विकास भी होनी चाहिए तो दहशत संभवतः नहीं होगी। विकास के नाम पर लोग प्रकृति से संघर्ष करने लगे ।यह नहीं सोचते कि प्रकृति से ही सब उत्पन्न है ।और प्रकृति में उसका पतन होता है ।जो प्रकृति से संघर्ष करने को सोचते हैं वह प्रकृति से संधि करने को सोच ले तो प्रकृति उसे बहुत कुछ देगी। प्रकृति से संघर्ष नहीं संधि करनी होगी। मां अपने शिशु को अपने गर्भ में यह सोचकर पालती है कि शिशू जन्म लेकर हमारी रक्षा करेगा। और हमारे दूध का उचित प्रयोग करेगा। वह यह नहीं जानती कि यह हमारे द्वारा प्रदत व्यवस्था एवं भावना के साथ खिलवाड़ करेगा। प्रकृति भी एक मां की तरह है। जन्म से पहले हमारी तुम्हारी आवश्यकता की पूर्ति इस संसार में बरकरार रहता है। इसके बावजूद भी हम और आप प्रकृति के साथ क्या कर रहे हैं ।यह हम सब विवेकशील लोग को सोचने वाला पहलू है। मुझे यह कहने में हिचक नहीं होता है, कि प्रकृति दिल है और भौतिक दिमाग, कहने का मतलब यह है, कि विचार दिल है तो विकास दिमाग जिंदगी में अनेक पडाव मिलते हैं अब आपको विचार करना है, कि किस पड़ाव से किस तरह आगे बढ़ना है। वही तो प्रकृति का वरदान है, जो प्रकृति द्वारा प्रदत आपके पास बुद्धि और विवेक है। जो आप हमें हर पड़ाव पर रुक कर अच्छे से विचार कर लेने को कहता है ।तब अगला पड़ाव के लिए मार्गदर्शन करता है। लेकिन आप उसके संकेत को नहीं समझते हैं। और अगले पड़ाव की  बढ़ जाते हैं ।यही तो आप की विडंबना है ।यदि अपने कर्तव्य को आप परीक्षा समझकर करें तो जरूर आप सफल होंगे। और प्रकृति के सूत्र से भी अवगत होंगे। प्रकृति शेरनी की तरह है। यह स्वयं अपनी रक्षा कर लेगी। यदि आप अपनी रक्षा करना चाहते हैं, तो प्रकृति की शरण में चले जाएं ।प्रकृति आप की भी रक्षा करेगी। नैतिकता मूल संस्कार और सुंदर जीवन के लिए प्रकृति एकमात्र हथियार हैं प्रकृति शक्तिशाली है। और प्रभावशाली भी। बुद्धिहिन दुर्बल मनवाले और कायर प्रकृति की शक्ति और प्रभाव को नहीं समझ पाते हैं। इसकी शक्ति और प्रभाव को समझने के लिए व्यक्ति को उन्मुक्त और उतना ही विशालतम होना चाहिए, जितना कि आकाश विशाल है ,जो  व्यक्ति प्रकृति एवं जीवन के प्रति छोटे-छोटे मुद्दे पर लापरवाह रहता है, उस व्यक्ति पर महत्वपूर्ण मुद्दों के लिए भरोसा कैसे किया जा सकता है ।प्रकृति अंततः वही जीवन सुंदर बनाती है जहां उसे उजागर करने के लिए कष्ट उठाए गए हो।

धन्यवाद

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