कहानी बड़ी सुहानी

कहानी बड़ी सुहानी

 

(1) कहानी 

!! अंत का साथी !!


एक व्यक्ति के तीन साथी थे। उन्होंने जीवन भर उसका साथ निभाया। जब वह मरने लगा तो अपने मित्रों को पास बुलाकर बोला- “अब मेरा अंतिम समय आ गया है। तुम लोगों ने आजीवन मेरा साथ दिया है। मृत्यु के बाद भी क्या तुम लोग मेरा साथ दोगे?”


पहला मित्र बोला, “मैंने जीवन भर तुम्हारा साथ निभाया। लेकिन अब मैं बेबस हूँ। अब मैं तुम्हारी कोई मदद नहीं कर सकता।”


दूसरा मित्र बोला, “मैं मृत्यु को नहीं रोक सकता। मैंने आजीवन तुम्हारा हर स्थिति में साथ दिया है। मैं यह सुनिश्चित करूंगा कि मृत्यु के बाद तुम्हारा अंतिम संस्कार सही से हो।


तीसरा मित्र बोला, “मित्र! तुम चिंता मत करो। मैं मृत्यु के बाद भी तुम्हारा साथ दूंगा। तुम जहां भी जाओगे, मैं तुम्हारे साथ रहूंगा।”


मनुष्य के ये तीन मित्र हैं- माल (धन), इयाल (परिवार) और आमाल (कर्म)। तीनों में से मनुष्य के कर्म ही मृत्यु के बाद भी उसका साथ निभाते हैं।


शिक्षा:-

 हमें अच्छे कर्म करने चाहिए। यही वो दौलत हैं जो मरने के बाद भी इंसान के साथ जाती हैं। अतः अच्छे कार्यों में इस अनमोल जीवन को बिताना चाहिए।


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(2) कहानी


घर महक उठा


✍️"बहू!.तुमसे एक बात कहनी थी।"


"जी मम्मी जी!"


अभी-अभी दफ्तर से लौटकर झटपट फ्रेश होकर रसोई में पहुंच सभी के लिए चाय बना रही सौम्या ने चूल्हे की आंच थोड़ी कम कर दी।


"आज पड़ोस में रहने वाली मिसेज शर्मा हमारे घर आई थी।" धीमी आंच पर खौलते चाय को संभालती सौम्या ने हुंकार भरी..


"जी मम्मी जी!"


"उनके बेटे की शादी पिछले वर्ष हुई थी और तुम्हारी तरह उनकी बहू भी घर के सारे काम अच्छे से संभालती है।"


चाय का स्वाद बढ़ाने के लिए अपनी सास की मनपसंद इलायची कूटकर चाय ने मिलाती सौम्या मुस्कुराई कुछ बोली नहीं। लेकिन प्रभा जी ने अपनी बात आगे बढ़ाई..


,"थोड़ी कम पढ़ी लिखी है इसलिए तुम्हारी तरह ऑफिस नहीं जाती लेकिन उसके माथे से पल्लू कभी नहीं हटता।"


अपनी सास के मन की बात समझने की कोशिश करती सौम्या ने काफी देर उबल चुके चाय का स्वाद कड़वा होने से पहले ही चूल्हे की आंच बुझा दी लेकिन सौम्या की सास प्रभा जी ने अपनी बात पूरी की..


"लोग ऐसी-वैसी बातें करें मुझे पसंद नहीं!. इसलिए तुम कल से सूट-सलवार या ट्राउजर नहीं!.साड़ी पहनकर अपने ऑफिस जाया करना।"


सास की बातों पर सर हिलाकर हांमी भरती सौम्या ने छन्नी रख प्याली में चाय छानकर अपनी सास को थमा दिया और घर के अन्य सदस्यों को चाय देने रसोई से बाहर चली गई।


सास-बहू के बीच हुए बातों की चर्चा बिना किसी से किए अगले दिन दफ्तर जाने के लिए सौम्या एक सुंदर सी साड़ी में तैयार हुई।


हमेशा सूट-सलवार या ट्राउजर पहनकर ऑफिस जाने वाली सौम्या को साड़ी में देख उसका पति मुस्कुराया लेकिन उसके ससुर तनिक हैरान हुए।


रोज की तरह सौम्या ने अपने पति के साथ दफ्तर के लिए निकलने से पहले सास-ससुर के पांव छुए और रोज की तरह प्रभा जी और उनके पति ने हाथ हिलाकर खुशी-खुशी बेटे बहू को दफ्तर के लिए विदा किया।


"आज सौम्या के ऑफिस में कोई फंक्शन है क्या?" वहीं बरामदे में रखी कुर्सी पर बैठते हुए सौम्या के ससुर ने आखिर अपनी पत्नी से पूछ ही लिया।


"ऐसा कुछ तो उसने मुझे नहीं बताया।"


"असल में आज सौम्या साड़ी पहनकर ऑफिस के लिए निकली इसलिए मैंने तुमसे पूछा।"


"अब से रोज साड़ी पहनकर ऑफिस जाने के लिए मैंने ही उसे कहा है।"


नई-नवेली बहू पर अपने सास होने का धौंस जमाने की कोशिश करती पत्नी की ओर देख सौम्या के ससुर मुस्कुराए लेकिन आज प्रभा जी अपने पति पर भी तनिक नाराज हुई।


"और तुम!.बहू को हमेशा उसके नाम से क्यों पुकारते हो?"


"अरे! तो क्या कह कर पुकारूं?"सौम्या के ससुर हैरान हुए।


"बहू कहा करो!"


 प्रभा जी ने सलाह दी।


"क्यों?"


"अच्छा लगता है।"


प्रभा जी की बात सुन सौम्या के ससुर मुस्कुराए..


"जैसी तुम्हारी मर्जी!. लेकिन आज मैंने एक बात गौर किया।"


"क्या?"


"बहू ने रोज की तरह ऑफिस के लिए निकलने से पहले तुम्हारे पांव छुएं लेकिन रोज की तरह आज तुम्हारे गले नहीं लगी।"


"अगर सास को मांँ की तरह समझती तो जरूर गले लगती।"


पति की बात सुन कर प्रभा जी तनिक चिढ़ गई लेकिन पत्नी के चेहरे के भाव पढ़ते सौम्या के ससुर जी अपने मन की बात कहने से नहीं चूके..


"मुझे लगता है कि,.अगर तुम बहू को बेटी की तरह समझती तब भी वह जरूर तुम्हारे गले लगती!"

 

पति की बात सुनकर प्रभाजी गहरी सोच में पड़ गई।


शाम को दफ्तर से घर लौटी सौम्या ने महसूस किया कि घर के भीतर सौंधी खुशबू फैली थी। उसकी सास रसोई में कुछ पका रही थी।


सौम्या ने घड़ी पर नजर डाली। उसे ऑफिस से आने में बिल्कुल देर नहीं हुई थी वह रोज की तरह वक्त पर घर पहुंची थी। खैर सौम्या झटपट फ्रेश होकर रसोई में पहुंची।


रसोई में उसकी सास चूल्हे पर एक ओर पकौड़े तल रही थी और दूसरी ओर चाय चढ़ी हुई थी। सौम्या ने आगे बढ़कर सास के हाथ से कलछी ले ली..


"मम्मी जी!.मैं तो बस आ ही गई थी,.आपने खामखा इतनी मेहनत कर दी।"


"बहू!.तुम रोज दुगनी मेहनत करती हो मैंने तो आज बस यूंँही मन बहलाने के लिए..."


प्रभाजी मुस्कुराई लेकिन सौम्या बीच में ही बोल पड़ी..


"मेरे रहते आपको यह सब करने की क्या जरूरत?"


"जरूरत है बहू!"


"क्यों मांँजी?"


"एक समझदार बहू अपनी सास को मांँ समझती है लेकिन एक सास को भी समझदारी के साथ अपनी बहू को बेटी मानने का अभ्यास करना चाहिए।" प्रभाजी भावुक हो उठी।


सौम्या ने आगे बढ़कर अपनी सास को गले लगा लिया.. "मैंने तो हमेशा ही आपको अपनी मांँ समझा है!"


"लेकिन बहू मैंने तो दूसरों की बातों में आकर तुम्हें सिर्फ बहू समझने की भूल की है।".


प्रभा जी ने अपनी गलती मान मांँ बनकर अपनी बहू के माथे पर हाथ रखा और रसोई में सास-बहू के रिश्तो में आए बदलाव से पूरा घर महक उठा।


**************


(3) कहानी


जब मैं छोटा था,

. तो मेरी मां एक प्रौढ़ सब्ज़ीवाली से हमेशा घर के लिए सब्जियां लिया करती थीं, 

.जो लगभग रोज ही हमारे घर एक बड़े टोकरे में ढेर सारी सब्जियां लेकर आया करती थी।

.... इस रविवार को वह पालक के बंडल भी लेकर आयी, और दरवाज़े पर बैठ गई।

 ....मां को पालक बहुत पसंद थी, और मुझे भी। 

मां ने पालक के दो चार बंडल हाथ में लेकर सब्ज़ीवाली से पूछा:-

"पालक कैसे दी?"

 ... "सस्ता है दीदी, एक रुपया बंडल।" सब्ज़ीवाली ने कहा 

 ..... माँ ने कहा "ठीक है, दो रुपये में चार बंडल दे दे।"

  ....इसके बाद कुछ देर तक दोनों अपने-अपने ऑफर पर झिकझिक खिटपिट करते रहे। 

...  सब्ज़ीवाली कुछ नाराज़गी जताते हुए बोली-

  "इतनी तो मेरी खरीदी भी नहीं है, दीदी।" 

  ....और फिर उसने एक झटके के साथ टोकरा उठाया, अपने सर पर लादा, और उठ कर जाने लगी।

......लेकिन चार कदम आगे बढ़ने के साथ ही पीछे मुड़ी और चिल्लायी,  

"चलो चार बंडल के 3 रु दे देना दीदी, आप से ज़्यादह क्या कमाऊंगी ?"

...... मेरी माँ ने अपना सिर "नहीं" में हिलाया। 

 "2 रु में 4 बंडल मैं बिल्कुल ठीक बोल रही हूं, क्योंकि तू हमेशा की पुरानी सब्जीवाली है। चल अब दे भी दे।"

 परंतु सब्जीवाली रुकी नहीं, आगे बढ़ गई।

...... वे दोनों एक-दूसरे की रणनीतियों को भली-भांति जानते थे। यह तो खरीदने वालों और बेचने वालों के बीच रोज ही हुआ करता था। हर घर में हुआ करता था।

 ... 8-10 कदम जाकर सब्ज़ीवाली मुड़ी और हमारे दरवाजे पर वापस आई।  

 .....माँ दरवाजे पर ही इंतज़ार कर रही थी। उसके चेहरे पर एक अदृश्य-सी मुस्कान थी।

......सब्ज़ीवाली अपना टोकरा सामने रख कर कुछ ऐसे निढाल-सी बैठ गयी, जैसे कि वह किसी सम्मोहन की समाधि में हो। 

....... मेरी माँ ने अपने दाहिने हाथ से प्रत्येक बंडल को टोकरे से निकाल-निकाल कर कर दूसरे हाथ की खुली हथेली पर हल्के से मारा। 

 .... और इस तरह पीढ़ी दर पीढ़ी के सीखे हुए मात्रात्मक, गुणात्मक और आलोचनात्मक मानदंडों से प्रत्येक बंडल की जाँच की।

.....फिर सब्ज़ीवाली के टोकरे में रखे हुए सभी बंडलों की प्रारंभिक शॉर्ट-लिस्टिंग से, मां ने अंततः अपनी संतुष्टि से चार बंडलों का चयन किया।

 .....  थकी हुई निढाल बैठी सब्जी वाली ने पालक के बाकी बंडलों को फिर से अपने टोकरे में सजाया। छोटे मूल्यवर्ग के सिक्कों में भुगतान लेकर बिना गिने ही पैसे अपने बटुए में डाल लिए। 

  .....सब्जीवाली ने बैठे ही बैठे टोकरा अपने सर पर रखा और उठने लगी, लेकिन टोकरा सिर पर रखकर जैसे ही वह उठने लगी, वह उठ न सकी और धप से नीचे बैठ गई।

... मेरी माँ ने उसका हाथ थाम लिया और पूछा-

  "क्या हुआ? चक्कर आ गया क्या? क्या सुबह कुछ नहीं खाया था?"

 ....  सब्जीवाली ने कहा, "नहीं दीदी। चावल कल खत्म हो गया था। आज की कमाई से ही, मुझे कुछ चावल खरीदना है, घर जाकर पकाना है। उसके बाद ही हम सब खाना खाएंगे।"

.... मेरी माँ ने उसे बैठने के लिए कहा। फिर फुर्ती से अंदर चली गई।  चपाती व सब्ज़ी के साथ तेजी से वापस आई,और सब्ज़ीवाली को दी।

 ....एक गिलास में पानी उसके सामने रखा। और सब्जीवाली से कहा "धीरे-धीरे खाना, मैं तेरे लिए चाय बना रही हूं।"

....   सब्जीवाली भूखी थी। उसने कृतज्ञतापूर्वक रोटी खायी, पानी पिया और चाय समाप्त की।  

   ....मेरी माँ को बार-बार दुआएं देने लगी।  मां ने टोकरा उनके सिर पर रखने में उसकी सहायता की। फिर वह सब्ज़ीवाली चली गई।

.... मैं हैरान था।  मैंने अपनी माँ से कहा, 

 "मां, आप ने दो रुपये की पालक की भाजी के लिए मोलभाव करने में इतनी कठोरता दिखाई, लेकिन उस सब्जीवाली को इतने अधिक मूल्य का भोजन देने में कई गुना अधिक उदार बन गयीं। यह मेरे समझ में नहीं आया !।

....मेरी माँ मुस्कुराई और बोली, 

 ☆ "मेरे प्यारे बच्चे, व्यापार में कभी कोई दया नहीं होती और दया में कभी कोई व्यापार नही होता।"


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(4) कहानी


एक दिन का पुण्य ही क्यूँ? 


निर्जला एकादशी से अगले दिन एक भिखारी एक सज्जन की दुकान पर भीख मांगने पहुंचा। सज्जन व्यक्ति ने 1 रुपये का सिक्का निकाल ककिर उसे दे दिया।


भिखारी को प्यास भी लगी थी, वो बोला बाबूजी एक गिलास पानी भी पिलवा दो, गला सूखा जा रहा है।

सज्जन व्यक्ति ने गुस्से में कहा: तुम्हारे बाप के नौकर बैठे हैं क्या हम यहां, पहले पैसे, अब पानी, थोड़ी देर में रोटी मांगेगा, चल भाग यहाँ से।


भिखारी बोला: बाबूजी गुस्सा मत कीजिये मैं आगे कहीं पानी पी लूंगा। पर जहां तक मुझे याद है, कल आपने निर्जला एकादशी व्रत कथा का पाठ किया था, तथा कल इसी दुकान के बाहर मीठे पानी की छबील लगी थी और आप स्वयं लोगों को रोक रोक कर जबरदस्ती अपने हाथों से गिलास पकड़ा रहे थे, मुझे भी कल आपके हाथों से दो गिलास शर्बत पीने को मिला था। मैंने तो यही सोचा था,आप बड़े धर्मात्मा आदमी है, पर आज मेरा भरम टूट गया।


कल की छबील तो शायद आपने लोगों को दिखाने के लिये लगाई होगी?

मुझे आज आपने कड़वे वचन बोलकर अपना कल का सारा पुण्य खो दिया। मुझे छमा करना अगर मैं कुछ ज्यादा बोल गया हूँ तो।


सज्जन व्यक्ति को बात दिल पर लगी, उसकी नजरों के सामने बीते दिन का प्रत्येक दृश्य घूम गया। उसे अपनी गलती का अहसास हो रहा था। वह स्वयं अपनी गद्दी से उठा और अपने हाथों से गिलास में पानी भरकर उस बाबा को देते हुए उसे क्षमा प्रार्थना करने लगा।


भिखारी: बाबूजी मुझे आपसे कोई शिकायत नही, परन्तु अगर मानवता को अपने मन की गहराइयों में नही बसा सकते तो एक-दो दिन किये हुए पुण्य कार्य व्यर्थ ही हैं। मानवता का मतलब तो हमेशा शालीनता से मानव व जीव की सेवा करना है।


आपको अपनी गलती का अहसास हुआ, ये आपके व आपकी सन्तानों के लिये अच्छी बात है। आपका परिवार हमेशा स्वस्थ व दीर्घायु बना रहे ऐसी मैं कामना करता हूँ, यह कहते हुए भिखारी आगे बढ़ गया।


सेठ ने तुरंत अपने बेटे को आदेश देते हुए कहा: कल से दो घड़े पानी दुकान के आगे-आने जाने वालों के लिये जरूर रखे हो। उसे अपनी गलती सुधारने पर बड़ी खुशी हो रही थी।


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(5) चिंतन

                

सुखी जीवन जीने का केवल एक ही रास्ता है वह है जीवन में कमियों की तरफ नजर न डालना। आज हमारी स्थिति यह है जो हमें प्राप्त है उसका आनंद तो लेते नहीं,परन्तु जो प्राप्त नहीं है उसका चिन्तन करके जीवन को शोकमय बना लेते हैं।


दुःख का मूल कारण हमारी जरूरतें नहीं, इच्छाएंँ हैं। हमारी जरूरतें तो कभी पूरी भी हो सकती हैं मगर इच्छाएंँ नहीं। इच्छाएंँ कभी पूरी नहीं हो सकतीं और न ही किसी की हुईं आज तक।


एक इच्छा पूरी होती है तभी दूसरी खड़ी हो जाती है। इसलिए दुःख का मूल कारण हमारी इच्छाएंँ ही हैं। इसके अलावा हमें संसार में कोई दुःखी नहीं कर सकता़!


  !!!...मन की सोच सुंदर है तो सारा संसार सुंदर नजर आएगा.. 

जिंदगी में कभी भी अपने किसी हुनर पे घमंड मत करना. 

क्योंकि पत्थर जब पानी में गिरता है

तो अपने ही वजन से डूब जाता है...!!!

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