सूरज है आदर्श हमारा

 सूरज है आदर्श हमारा 


आलोकित करें जग सारा

 सूरज है आदर्श हमारा। जल


अंधियारा जब भी इतराया

सूरज उसको सबक सिखाया।


 जर्रे जर्रे में वही विराजित

 कण कण उससे है प्रकाशित।


बाबा की महिमा जग जानी

जड़ चेतन के हैं वो स्वामी।।


आशाएं जब है कुम्हलाती

सूरज की नवकिरणें आती।


ऊर्जा का है असीम भंडार 

ऊर्जा का करता सतत संचार।


जीव जगत का करता पोषण

कष्ट विकार का करते शोषण।


जीवन का है वही आधार 

उनकी महिमा जाने संसार।


रोज सबेरे सूरजमल आते

साथ जादू का पिटारा लाते।


सोयी कलियों को हैं जगाते

जीवन का नवगीत सुनाते।


अंधियारा जिससे है हारा

सूरज है आदर्श हमारा।


 मीरा सिंह "मीरा"

झोंपड़ी में बसते भगवान


झोंपड़ी का करिए सम्मान,

  झोंपड़ी में बसते भगवान। 

    झोंपड़ियों में भी प्रतिभाएं, 

      अगणित मिली महान।।

बहुत बड़ा दिल रखें झोंपड़ी,

   उनमें रत्न मिलेंगे ।

       उनके श्रम से ही भूतल पर,

         उन्नति- सुमन खिलेंगे।।

 ख़ुद रहती हैं अंधकार में,

    जग में करें उजाला।

       दूर सदा रहता है उनसे,

         सुख- अमृत का प्याला।।

प्रासादों को बन जाती हैं,

  झोंपड़ियां वरदान।

    झोंपड़ी का करिये सम्मान, 

     झोंपड़ी में बसते भगवान।

झोंपड़ियों से ऊर्जा पाकर ,

  उपवन हरे- भरे हैं ।

    सजे- धजे हैं महल- अटारी,

       नव शृंगार धरे हैं।।

रहे नहीं बदहाल झोंपड़ी,

    उसकी सुधि लेनी है।

      मिटे नहीं अस्तित्व किसी का,

          गति सबको देनी है

करे झोंपड़ी उन्नति, होगा-

  भारत का उत्थान।

     झोंपड़ी का करिये सम्मान,

       झोंपड़ी में बसते भगवान

प्रासादों में वैर उपजता,

  घृणा-द्वेष जगता है।

     असंतोष और षड्यंत्रों का,

        बीज वहीं उगता है।।

 रहे झोंपड़ी मानवता और,

    ममता की हमजोली।

      है अक्षय संतोष वहां पर,

         समता की रंगोली।।

प्रेम- शांति को सदा चढ़ाती,

  झोंपड़ियां परवान।

    झोंपड़ी का करिये सम्मान, 

      झोंपड़ी में बसते भगवान।।3।

भूचालों में अडिग झोंपड़ी,

   अपना दमख़म रखती। 

     चिंताओं का भी हल पाती,

         पीड़ाओं को चखती।।

 प्राणों पर पाहन रखकर भी,

    सब शूलों को सहती।

      लेकिन सदा सत्य की अंतः,

         गंगा उर में बहती।।


श्रम के साधक बसें वहां पर,

  नभ का खुला वितान।

    झोंपड़ी का करिये सम्मान,

      झोंपड़ी में बसते भगवान।।4।

मानवता का तीर्थ झोंपड़ी,

   शांति- उटज संस्कृति का।

      पारिजात जहां पलें प्रेम के,

        है प्रवाह संस्कृति का।।

 मर्यादा के विहग जहां पर,

   मधुमय कलरव करते।

     भाव,अभावों में भी रहते,

         मानस-हंस विचरते।।

झोंपड़ियों में विश्व शांति के,

  गूंजा करते गान।

    झोंपड़ी में बसते भगवान,

     झोंपड़ी का करिये सम्मान ।।5

झोंपड़ियों को चाह नहीं है,

   ऊंची उठे गगन में,

      तृष्णाएं उनकी सीमित हैं,

        आह छिपाएं मन में ।।

सदा झोंपड़ी की पीड़ाएं,

    सबको रहें अजानी।

       करते रहें उपेक्षित उनको,

          नित-प्रति ही अभिमानी ।।

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हर इक चोट सहन करके भी,

  रखे नीति की आन।

   झोंपड़ी का करिये सम्मान,

    झोंपड़ी में बसते भगवान।।6।।

दुर्गम पथ, दुर्गम जीवन में,

  दुर्लभ है सुख पाना।

     व्योम तले पीड़ित प्राणों को,

       जीवन पड़े बिताना।।

 मुक्त पवन ही जीवन का धन,

    राशि तृणों की वैभव।

      इच्छाएं क्वारी रहती हैं,  

         स्वाभिमान है गौरव ।।

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तभी झोंपड़ी बना सकी है,

  अपनी भी पहचान।

   झोंपड़ी का करिये सम्मान,

     झोंपड़ी में बसते भगवान।।7।

दीनों में ही दीनबंधु हैं,

    दीनों में ही ईश्वर।

        दीनों में सच्चे इंसां हैं ,

          हैं भावों के निर्झर।।

दीनों में ही दिनकर होते,

   हैं प्रताप दीनों में ।

     उज्ज्वल दीप झोंपड़ी में हैं,

      सहनशक्ति दीनों में।।

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रहे नहीं अनमनी झोंपड़ी,

  करे अब विष-पान।

   झोंपड़ी का करिये सम्मान,

    झोंपड़ी में बसते भगवान।।8।।

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वैभव और विलासों से तो,

   इसका मेल नहीं है ।

     करनी पड़े साधना इसको,

       जीवन खेल नहीं है।।

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जग के झंझावातों में भी,

  इसको टिकना पड़ता।

    इतिहासों का स्वर्ण-पृष्ठ भी,

      इसको लिखना पड़ता।।

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 रही सदा ख़ुद्दार झोंपड़ी,

  लाती नया बिहान।

   झोंपड़ी का करिये सम्मान, 

    झोंपड़ी में बसते भगवान।।9।।

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तपस्थली जब बनी झोंपड़ी,

   तब- तब मान बढ़ा है।

     उस में रहकर ऋषि-मुनियों ने ,

        नव इतिहास गढ़ा है ।।

🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀

जब- जब विध्वंसों ने अपने,

   भारी शीश उठाए।

     तब झोंपड़ियों ने निर्माणों,

         के शुभ शंख बजाए।।

🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻

 विदुर और शबरी की कुटिया,

   बनी सिद्धि- स्थान।

   झोंपड़ी का करिये सम्मान,

    झोंपड़ी में बसते भगवान।।10

❤️❤️❤️❤️❤️❤️❤️❤️

झोंपड़ियों में रहती आई,

   जीवन की सच्चाई।

      युग के अंधकार की पड़ती,

         महलों पर  परछाई।।

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झोंपड़ियों को निज गोदी में ,

   भू ने सदा सहेजा ।

      भीषण तूफ़ानों से इनका,

         कांपा नहीं कलेजा।।

🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸

सत्ता इनके संकेतों से,

  करती पथ आसान।

   झोंपड़ी का करिये सम्मान,

      झोंपड़ी में बसते भगवान।11

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फूल बने अंगारा चाहे,

   बुझे नहीं ध्रुव- तारा।

     झोंपड़ियों में सद्भावों की,

        बहती पावन धारा।।

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 इनके हृदय- सरोवर का है,

    सुंदर- सरस किनारा।

       सदा झोंपड़ी ने महलों के,

         सिर का भार उतारा।।

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राम- रतन- धन की मंजूषा,

  मिलती यहां महान ।

   झोंपड़ी का करिये सम्मान,

    झोंपड़ी में बसते भगवान।।12

🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹

कभी झोंपड़ी को पापों की,

   ज्वाल नहीं छू पाई।

       क्रूर घृणा- ईर्ष्या- कांटों की,

          बाड़ न यहां लगाई।।

🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃

 सदा संस्मरणों मैं इसका,

    नित उल्लेख हुआ है।

     धैर्य-सलिल पी शांत झोंपड़ी,

        देती सदा दुआ है।।

💥💥💥💥💥💥💥💥

 दुनिया बदले मगर झोंपड़ी,

   बदले ना ही ईमान।

    झोंपड़ी का करिये सम्मान,

     झोंपड़ी में बसते भगवान।।13


झोंपड़ियों ने किया यहां पर,

   लंबा सफ़र समय का ।

      जब देखा है मुखड़ा इनने,

         स्वर्णिम- सूर्योदय का।

 कितने ही सन्नाटे झेले,

     होंगे निज छाती पर।

        लेकिन गर्व किया है अपनी,

           संस्कृति की थाती पर।।

 उजड़ा ना आकाश सुहाना,

   भटका ना संधान।

     झोंपड़ी का करिये सम्मान,

      झोंपड़ी में बसते भगवान।14

महलों में ही फ़सल मोतियों,

   की केवल कब होती।

       झोंपड़ियों में भी मिल जाते,

          अनगिन हीरे- मोती ।।

आओ मिलकर झोंपड़ियों की,

   पोंछें गीली पलकें।

      दिल को ठेस लगे ना कोई ,

         अब ना आंसू छलकें।।

 शोषण- मुक्त बना लें आओ,

  अपना हिंदुस्तान।

    झोंपड़ी का करिये सम्मान,

      झोंपड़ी में बसते भगवान।15

वेद प्रकाश शर्मा "वेद" भरतपुर 

सामाजिक-सांस्कृतिक-साहित्यिक सम्मान समारोह का अनूठा आयोजन संपन्न


 


कोरेगांव पार्क, 29 सितंबर (आ.प्र.)

 

पृथा फाउंडेशन के वार्षिक उत्सव दिवस के अवसर पर सामाजिक सांस्कृतिक साहित्यिक सम्मान समारोह का आयोजन कर एक बड़ी पहल की गई. यह पहल न केवल नारी शक्ति बल्कि साहित्य और सामाजिक कार्यों का जश्न मनाने की भी थी. यह कार्यक्रम 26 सितंबर को पुणे के कोरेगांव पार्क में आयोजित किया गया था. इस अवसर पर पृथा फाउंडेशन की संस्थापक और अध्यक्ष मीनाक्षी भालेराव ने कहा कि वह 20 वर्षों से, वह पुणे में हिंदी भाषा को बढ़ावा देने के लिए लगन से काम कर रही हैं. नवोदित कलाकारों को उनकी उत्कृष्ट प्रतिभा के लिए पहचानने और प्रोत्साहित करने वाला एक मंच बनाने में उनका प्रयास सराहनीय है. इस कार्यक्रम में विभिन्न पृष्ठभूमि के विभिन्न गणमान्य व्यक्तियों ने भाग लिया.

 कार्यक्रम के मुख्य अतिथि पूर्व विधायक मोहन जोशी थे तथा विशेष अतिथि कामगार सेना और माथाड़ी संघ, एनसीपी पुणे की अध्यक्षा वैशाखा गायकवाड़, दैनिक आज का आनंद के प्रबंध संपादक आनंद अग्रवाल, लेखिका डॉ.नीलम जैन, विमाननगर महिला क्लब की बॉबी करनानी, आर्ट कल्चराटी के संस्थापक कोमल जैन और कुमार वैभव शामिल थे.

 जीवन के सभी क्षेत्रों से विभिन्न कला रूपों और कलाकारों का पोषण करने के लिए एक पारिस्थितिकी तंत्र बनाने के लिए एक प्रमुख संगठन के रूप में वे एक साथ कला संस्कृति का नेतृत्व करते आ रहे हैं अन्य अतिथियों में सुनील, अनुराधा चिचंवड़े शीतल बिनयानी, परिमल सर, निशान्त सोमानी, प्रतिष्ठा सोमानी, टीकम शेखावत, दीप्ति शेखावत, संगीता तिवारी और नीलम जाधव उपस्थित थे. सम्मानित अतिथि के रूप में कोमल सागरे, बाबा गोलन्दाज, विनीत शंकर, व्योमा गोरे, डॉ रंजीता बिन्दरा, आरजे निसर्ग, डॉ. ममता जैन, रूपाली साइखेड़कर, सीमा तनवर, सेजल राय, शुभांगी गोले , हुमायूं कबीर, सुनीता तोमर, नेहा वर्मा मदान एवं पंकज झा तथा जिया बागपति शामिल थे.

 पुणे में आयोजित इस कार्यक्रम में कुछ बेहतरीन कलाकार शामिल हुए.यह शाम भावपूर्ण कविता और संगीत प्रदर्शन के साथ अपने चरम पर पहुंच गई जिसने उपस्थित लोगों को मंत्रमुग्ध कर दिया. खास बात यह है कि यह कोविड -19 प्रतिबंधों और लॉकडाउन के बाद लाइव आयोजित किया जाने वाला अपनी तरह का एक अनूठा उत्सव था, इस आयोजन के उत्साह और आकर्षण में इजाफा हुआ.







https://www.eaajkaanand.com/Encyc/2021/9/30/PRUTHA-FOUNADATION-KOREGAON-PARK.html

बेटी

माता, बहन, प्रेयसी जैसे, महक रही घर -आँगन में l

कितने ही किरदार निभाती, बेटी  अपने  जीवन  में l


.             कोई कथानक गढ़ा गया हो,

              माँ  की  शीतल  छाव  तले l

              सामाजिक बंधन में फिर क्यों,

              बेटी  के  निज  स्वप्न  जले?


फूल सी कोमल तितली जैसी, चंचलता है तनमन में l

कितने ही  किरदार निभाती, बेटी  अपने  जीवन  में l


              जिसके दम पर तो सृष्टि का,

              कालचक्र  भी   चलता  है l

              प्राणों का सुन्दर सृजन नव,

              जिसके   हाथों   ढलता  है l


जीवन देने वाली ममता,  निज  प्राणों की  उलझन में l

कितने ही  किरदार  निभाती, बेटी  अपने  जीवन  में l


              भोर की प्रथम प्रभा सी बेटी,

              माँ   के  अंगना  खेल   रही l

              मंद -मंद मुस्कान सी आभा,

              अंधकार   को   ठेल    रही l


महक  रही  बनकर  गुलाब  तू, कांटे  तेरे  दामन  में l

कितने  ही  किरदार  निभाती, बेटी  अपने जीवन में l


              राम  चले  मर्यादा  पथ पर,

              वैदेही  बनकर  साथ चली l

              कभी राष्ट्र सम्मान के ख़ातिर,

              पद्मिनी  बन  अंगार  जली l


शीश  काट  निज हाड़ा  रानी, संबल देती है रण में l

कितने ही  किरदार  निभाती, बेटी अपने जीवन में l


       .       जिस घर में बेटी लक्ष्मी हो,

               वो  घर   जन्नत   होता  है l

               संस्कार के फूल जो महके,

               वो  घर   उन्नत   होता  है l


मधुर कंठ से कोयल गाये, जैसे रिमझिम सावन में l

कितने  ही  किरदार निभाती, बेटी अपने  जीवन में l


               युगों -युगों से बिटिया का मन,

               घायल   होता   आया   है l

               भोग वासना के छल में तन,

               कायल   होता  आया   है l

बेटी के अरमान कहीं अब, छलक न जाए नैनन में l

कितने ही किरदार  निभाती, बेटी  अपने जीवन में l

दोस्तों..


आज तक जो भी मशहूर हुए या कामयाब हुए हैं.. उन सब में मैंने एक बात सामान्य रूप से देखी है.. पढ़ी है..सीखी है कि.. उन्होंने अपने साथ हुए हर हादसे का बराबर हिसाब रखा है.. साथ ही जो अधूरे रहे ग‌ए उन ख्व़ाबो को अपने सीने में सदा जिंदा रखा है..आज कुछ उन्हीं कामयाब लोगों की जिंदगी से प्रेरणा लेकर कुछ लिख रही है क़लम-ए-कमल..!


ज़िंदगी के हर हादसे का जो भी बराबर हिसाब रखते हैं..!

जो अधूरे रह गए सीने में दफ़न सदा वो ख्वाब रखते हैं..!


लाख गर्दिश में हों वक्त के सितारे वो कामयाब होते हैं..!

जो अपने हौसलों की तलवार पर सदा आब रखते हैं..!


चांद सूरज हर किसी को कहां मिलते हैं जिंदगानी में..!

उन्हें भी मंजिल मिली जो अंधेरों में साथ चराग रखते हैं..!


पूरा कौन है जमाने में हर कोई कहीं ना कहीं से अधूरा है..!

जिसने यह जान लिया वो कब किसी से विवाद रखते हैं..!


धरा पर आज मानव की भीड़ है इंसान कहां मिलता है..!

सयाने लोग इसीलिए तो हर एक से कब संवाद रखते हैं..!


कुछ हादसों का असर ही है जो कमल ने क़लम थामी है..!

उनसे रुबरू न मिलते कलम की नोक पे फरियाद रखते हैं..!


आब=धार


मौलिक

अप्रकाशित


कमल सिंह सोलंकी

रतलाम मध्यप्रदेश

पर्यावरण के प्रति हमारा कर्तव्य

जी हां ! ईश्वर ने, खुदा ने मनुष्य के लिए बेहद ख़ुशगवार, खूबसूरत, हसीन दुनिया बनाई है । जिसका जर्रा - जर्रा मनुष्य के उपयोग के लिए है  । हवा श्वास लेने के लिए ,पानी पीने व अन्य  कामों के लिए , फल-  सब्जी  अनाज खाने के लिए। इसके अलावा और भी अनगिनित चीजें जो इस धरती पर पाई जाती हैं ।  ईश्वर की तरफ से इंसानों को दिया गया नायाब तोहफा है जो कभी खत्म नहीं होने वाला है। अब चूंकि यह सभी चीजें हम मनुष्यों के लिए खुदा की तरफ से  सौगात है, उपहार है अर्थात इंसान की  है तो फिर इसका मतलब यह हुआ कि एक तरह से इंसान इन सब चीजों का मालिक हैं और रक्षक भी। 

 लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या मनुष्य  मालिक होने का, रक्षक  होने का फर्ज शिद्दत से निभा रहा  हैं या अपनी ही चीज को बिगाड़ने , नष्ट करने पर या प्रदूषित करने पर तुला  हुआ है। हम अगर अपने कार्यों को और उसके नतीजों को, परिणामों को  देखे,गौर करें  तो यही लगता है कि हम अपने ही धरती के  फल - फूल पेड़, नदियां जल ,हवा ,नदी, पहाड़ आदि के शत्रु बन बैठे हैं और साथ ही शत्रु बन बैठे हैं हमारे बच्चों की भविष्य के  जो कि हमारी  सबसे बड़ी संपत्ति है  । आज हम मनुष्य  नदियों को प्रदूषित कर बोतलबंद पानी पीने को मजबूर हैं। वायु को प्रदूषित कर बीमारियों से पीड़ित  है। अनाज ,  सब्जी,  फल को रसायनों के बेजा इस्तेमाल  से दूषित कर असाध्य रोगों से पूरी मानवता को दुखी किए हुए हैं । बात यहीं पर  खत्म नहीं होती क्योंकि हमारे मूर्खता पूर्ण कार्यों से इंसान ही नहीं पशु-पक्षी भी प्रभावित हो रहे हैं । यही कारण है कि  बहुत से पशु पक्षियों की प्रजातियां समाप्त हो गई हैं या नष्ट होने के कगार पर हैं । पहाड़ खत्म होते जा रहे हैं । जंगल स्माप्त हो रहे हैं तो शहर  सीमेंट  - बजरी के जंगल बनते जा रहे हैं। नदियां गंदे पानी की नालियां बनती जा रही है । दरिया जहाजों  ,युद्ध पोतों  और नेट के वायर का डिब्बा बनते जा रहे हैं ।  जीवनदाई वायू जहरीली  हो चुकी हैं । इन्हीं सब  बातों का परिणाम है कि प्रकृति हमें तूफान , भूकंप महामारी जैसे प्रकोपों से  जैसे सचेत कर रही हैं, संकेत दे रही है ।  आज दुनिया जिस तरह कोरोनावायरस से आशंकित औऱ भयभीत है।  जिस तरह से ये रोग मनुष्यों  को काल का ग्रास बना रहा  हैं । हमारे लिए खतरे की घंटी है ,सूचना है , सावधान, सचेत रहने की।  लेकिन  अगर मनुष्य अभी भी  नहीं सुनता है  तो  प्रकृति  कभी ऐसे ही किसी जलजले  से , महामारी से सभ्यता का अंत कर सकती  हैं, जीवन चक्र को समाप्त कर सकते हैं । आज के दौर में लोक डाउन जो कि एक अप्रत्याशित घटना है आज की दुनिया के लिए , उसके बाद भी मनुष्य  जागरूक नही  होता है तो यह अपने ही कुल्हाड़ी मारने वाला कदम साबित होगा इसलिए अति आवश्यक है कि हम इको फ्रेंडली बने । प्रकृति को अपने अनुकूल बनाने की बजाय स्वयं प्रकृति के अनुकूल  बने । उस पर शासन करने की बजाय उसके सेवक बने भक्षक बनने की बजाय रक्षक बने  ताकि अगली पीढ़ी को एक स्वस्थ  सुंदर , प्रदूषण रहित पर्यावरण की सौगात दे  सकें  ।  अगर हम ये कर   पाते हैं तो  हमारा ये कदम  उनके लिए सबसे बड़ा उपहार होगा, वसीयत होगी।

इसलिए परम् आवश्यक है कि हम अपनी सोच बदले ,  मानसिकता बदले और अपने आपको बदलाव के लिए जेहनी तौर पर तैयार करें ।  इसके लिए हमें कोई बड़ा त्याग  करने की जरूरत नहीं  बल्कि छोटे-छोटे सुधारात्मक कदम उठाने की जरूरत है। जैसे कि --  प्लास्टिक थैली की जगह कपड़े या कागज की थैली का प्रयोग करें । जन्मदिन पर केक की जगह  पौधारोपण  कर यादें  सुरक्षित करें । एसी कूलर का कम से कम प्रयोग करें और परिवार के साथ करें। शादी उत्सव में माला की जगह पौधे भेंट करे।  लाल बत्ती पर गाड़ियां बंद करें  ।      सार्वजनिक यातायात का प्रयोग करें।  पेड़ लगाने से पहले पालन-पोषण की जिम्मेदारी लें। एक पेड़ काटने से पहले पांच पेड़ लगाएं । घर आंगन में पेड़ पौधों के लिए थोड़ी जगह जरूर रखें। पहाड़ों पर सड़क बिजली की बजाय उनके  निवासियों को मैदान पर बसाए। पहाड़ों के वास्तविक स्वरूप को बनाए रखें  दाल सब्जी का पानी इकट्ठा कर पेड़ पौधों में डालें। जानवरों के लिए कुंडे,  पक्षियों के लिए परिंडे लगाए।  एक रोटी गाय-  कुत्ते के लिए जरूर दें ।  घूमने जाते समय  गंदगी ना फैलाएं । कचरा  प्लास्टिक की थैली में बंद करके ना फेंकें।  अनावश्यक रूप से  वाहनों का प्रयोग ना करें। साइकिल का उपयोग शुरू करे। पैदल चलने की आदत डालें।  जंगलों को बचाएं। 

ऐसे छोटे छोटे  कदम उठाकर हम न सिर्फ जन जागरूकता फैला सकते हैं बल्कि साथ ही अपनी पृथ्वी को ,  धरती माता को , सुरक्षित  रख सकते हैं।



       शबनम भारतीय

    फतेहपुर शेखावाटी

       सीकर,राजस्थान

बोल लेखनी कुछ तो बोल

बोल लेखनी कुछ तो बोल,

अपने मन की गांठे खोल,

सदियों से जो दर्द पल रहा,

उसकी सारी परतें खोल,

बोल लेखिनी कुछ तो बोल,

दुनिया में जो कोहराम मचा हैं,

उसकी सारी परतें खोल,

बोल लेखिनी कुछ तो बोल,


त्राहि - त्राहि मची हुई है,

बेरोज़गारी मुँह फाड़ रही है,

भूख - प्यास से व्याकुल हैं सब,

सरकार ने जो ख़्वाब दिखाये,

उनकी सारी परतें खोल,

बोल लेखनी कुछ तो बोल,


हवस के दरिंदे घूम रहें हैं,

इज़्ज़त के ठेकेदार जो बने - फ़िरते हैं,

वो ही इज़्ज़त लूट रहें हैं,

तूने जब आवाज़ उठाई,

उनकी करनी आगे आई,

उनको बीच चौराहें पे रौंद,

बोल लेखिनी कुछ तो बोल,


जिसकी जग में सत्ता आई,

उसने अपनी बीन बजवाई,

कशीदे अपनी शान में लिखवाये,

जो सच्चाई लिखना चाहें,

उसके कलम संग हाथ कटवाये,

खोल उनकी सबकी पोल,

बोल लेखिनी कुछ तो बोल,


सोने की चिड़िया था भारत,

किसने यहाँ पर लूट मचाई,

आपस में जंग छिड़वाई,

मच गई चारों तरफ तबाही,

बन गये यहाँ सभी सौदाई,

किसने यहाँ पर लाशें बिछवाई,

कैसे मच गई होड़म - होड़,

बोल लेखिनी कुछ तो बोल,


अपने मन की गांठे खोल,

जिनको हम पूज रहें हैं,

वही हमको लूट रहें हैं,

भीख माँगने वोट की आये,

फिर हमको आँखें दिखलाये,

पैसा हमारा तिजोरी उनकी,

भूख उनकी बढ़ती जाये,

लाशों के भी मोल लगाये,

उनकी सारी सच्चाई खोल,

बोल लेखिनी कुछ तो बोल,


कितनों के घर बर्बाद हुए हैं,

कितनों के चिराग बुझ गये हैं,

कितने ही बच्चें अनाथ हुए हैं,

किसकी मिली - भगत से महामारी आई,

कौन करेगा लाशों की भरपाई,

उनकी काली कमाई का चिट्ठा खोल,

बोल लेखिनी कुछ तो बोल,

"शकुन" अपने मन की गांठे खोल।


- शकुंतला अग्रवाल

क्या 'क्षमावणी' के लिये "मिच्छामि-दुक्कडं" कहना गलत है??

(तथ्याधारित मननीय-आलेख)


        'पर्यूषण-पर्व' और 'दसलक्षण-महापर्व' की पिछले आलेख में की गयी चर्चा से प्रेरित होकर आजकल एक नयी जिज्ञासा जनमानस में चल रही है और जनमानस को मथ भी रही है कि "तो फिर हम 'क्षमावणी-पर्व' के प्रसंग में श्वेताम्बर-आम्नाय के शब्द 'मिच्छामि दुक्कडं' का प्रयोग क्यों कर रहे हैं? हम अपने आम्नाय में प्रचलित 'उत्तम-क्षमा' का व्यवहार क्यों नहीं कर रहे हैं?"

        ऊपरी तौर पर एवं पिछले सन्दर्भ को ध्यान में रखते हुये यह प्रश्न समीचीन प्रतीत होता है। किन्तु जो बात एक सन्दर्भ में फिट बैठे, कोई जरूरी नहीं है कि वही फार्मूला सभी जगह फिट बैठे। यही बात 'क्षमावणी-पर्व' पर 'मिच्छामि दुक्कडं' के प्रयोग पर भी लागू हो रही है।

       सबसे पहले तो यही जान लिया जाये कि 'मिच्छामि दुक्कडं' का प्रयोग मूलतः कहाँ का है? 

       उत्तर यह है कि 'प्रतिक्रमणसूत्र' की प्रत्येक 'अंचलिका' के अंत में संकल्प-वचन के रूप में यह वाक्यांश प्रयुक्त होता है। इसका प्रयोग 'श्रावक-प्रतिक्रमण' और 'यति-प्रतिक्रमण' --दोनों में अनिवार्य रूप से किया जाता है। अतः यह कहना कि "यह वाक्यांश ('मिच्छामि दुक्कडं') मूलतः दिगम्बर-जैन-आम्नाय का नहीं होकर श्वेताम्बर-आम्नाय का है"-- पूरी तरह गलत है। यह मूलतः दिगम्बर-जैन-आम्नाय का ही है। यह अलग बात है कि इसका प्रयोग दोनों आम्नायों में समान रूप से पाया जाता है। 

       अब जिज्ञासा यह होती है कि क्या इसका मूलतः अर्थ "क्षमायाचना करना" होता भी है? क्योंकि हम तो 'क्षमावणी पर्व' के सुअवसर पर आपस में क्षमायाचना करते हैं? यह बहुत महत्त्वपूर्ण-प्रश्न है। 

     यह सच है कि 'मिच्छामि दुक्कडं' का शाब्दिक-अर्थ "मैं आपसे क्षमायाचना करता हूँ"-- यह सीधे रूप में नहीं होता है। इसका शाब्दिक-अर्थ होता है कि "मैं अपने दुष्कृतों को मिथ्या करता हूँ"। 


        तब प्रश्न होता है कि 'क्षमावणी-पर्व' के प्रसंग में इसका प्रयोग करना कितना व क्यों उचित है? 

      इसका सटीक-उत्तर जानने के लिये हमें 'क्षमावणी-पर्व' की वास्तविकता को गहराई से पहिचानना होगा।

      क्या हम यह मानते हैं कि 'क्षमावणी-पर्व' पर की जाने वाली क्षमायाचना एक सामाजिक-औपचारिकता मात्र है? या इसका हमारे जीवन में कोई नैतिक और आध्यात्मिक-महत्त्व भी है और उसके लिये शाब्दिक-औपचारिकता से हटकर कोई भावपक्ष का दायित्व भी हमारा बनता है? सीधे शब्दों में कहें तो क्या हमारी 'क्षमावणी' मात्र शब्द-वर्गणा तक सीमित है। इसके पीछे हमारी संवेदनायें बिल्कुल भी नहीं हैं? और क्या हम हृदय से किसी को क्षमा करना या क्षमा माँगना नहीं चाहते हैं? क्या हम मात्र एक सामाजिक-रूढि का निर्वाह कर रहे हैं?


       हो सकता है कि आज के परिवेश में यह आक्षेप किसी सीमा तक सत्य भी हो। परन्तु यह तो कदापि सत्य नहीं हो सकता है कि सदा से लोगों की श्रद्धा और समर्पण की यह महती-क्रिया ऐसे दिखावे और आडम्बर की शिकार रही होगी। हमारी संस्कृति में ऐसी परम्परायें मूलतः अत्यन्त सार्थक और भावप्रवण रहीं हैं।  

        अतः मूल में तो क्षमाभाव की वास्तविकता ही रही होगा, और आजकल भी न्यूनाधिक रूप में कुछ न कुछ भावप्रवण-क्षमावणी भी होती ही होगी। भले ही उसका प्रतिशत कितना ही न्यूनतर क्यों न रह गया हो। अतः हमें उस भावप्रवणता को समझना होगा, जिसके परिणामस्वरूप हमारे पूर्वज 'क्षमावणी-पर्व' को जीवन में चरितार्थ करते होंगे।

        क्षमाभाव की इस सार्वजनीन और व्यापक-अभिव्यक्ति के लिये यह अनिवार्य-शर्त है कि इसको अनुष्ठित करनेवाले सभी लोग उस पावन-प्रक्रिया में समानरूप से सहभागी हों, जिसके फलस्वरूप 'क्षमावणी' की अद्वितीय-प्रक्रिया इतने व्यापकरूप में जीवन्त हो सकती है। वह है पहले दिन से अर्थात् 'उत्तम-क्षमा-धर्मांग' के दिन से, जो कि 'दसलक्षण-महापर्व' के पहले दिन अर्थात् भाद्रपद शुक्ल पंचमी-तिथि को अनुष्ठित होता है, सभी क्षमाभाव को अपने हृदयों में संजोयें। न केवल एक दिन, बल्कि प्रतिदिन निरन्तर इतने परिमाण में संजोयें, कि अंततः वह हृदय में न समाये और वचनों के द्वारा छलक पड़े। 

       इस उदात्त-अभिव्यक्ति के लिये हमें मानरहित होना (मार्दव) भी अनिवार्य-शर्त है, अन्यथा यह मानकषाय हमें चाहते हुये भी न तो किसी को क्षमा करने देगी और न ही क्षमायाचना करने देगी। अतः क्षमायाचना के लिये 'उत्तम-मार्दव-धर्मांग' की आराधना भी अनिवार्यतः अपेक्षित होगी।

     तथा यदि हमारा अन्तःकरण पूरी तरह से निश्छल नहीं होगा, तो हमारी क्षमायाचना 'सशर्त' बन जायेगी। वह हृदय की निर्मलता का प्रतीक नहीं रहकर एकतरह का व्यापारिक-अनुबंध (बिजनेस-डील) बन जायेगी, जिसमें कहा जायेगा कि "तुम इतना कहोगे, इन शब्दों में कहोगे, इस जगह आकर कहोगे; तभी मैं क्षमा करूँगा या क्षमा माँगूँगा।" अतः 'उत्तम-आर्जव-धर्मांग' की आवश्यकता भी रहेगी ही 

        हृदय और परिणामों की शुचिता के बिना भी यह प्रक्रिया कहीं न कहीं अपने लक्ष्य को प्राप्त ही नहीं कर सकेगी। क्योंकि मलिन-दर्पण में जब अपना ही चेहरा स्पष्ट दिखाई नहीं देता है, तो भला दूसरों का कैसे स्पष्ट दिखाई दे सकेगा? अभिप्राय स्पष्ट है कि उत्तम-शौचधर्म के बिना न तो अपनी गल्तियाँ समझ में आ सकेंगीं और न ही किसी दूसरे की गल्तियों को क्षमा कर सकने की उदारता मैले-मन में जन्म ले सकेगी। अतः परिणामों की शुचिता भी 'उत्तम-शौच-धर्मांग' के रूप में अनिवार्य-अंग होगा।

        वचनों से हम कहना कुछ चाहते हैं, और अनुपयुक्त-वचन के प्रयोग से कहा कुछ और ही जाता है। अतः आत्मिक-सत्य के साथ-साथ वाचिक-सत्य के रूप में व्यावहारिक 'उत्तम-सत्य-धर्मांग' की भी अपेक्षा 'क्षमावणी-पर्व' को अनुष्ठित करने के लिये अपरिहार्य है।

        क्षमा को पहले दिन से लेकर अंत तक संजोयें रखने के लिये व्यक्ति को आत्म-नियंत्रण की भी आवश्यकता होती ही है। अतः उत्कृष्ट-नियंत्रक के रूप में 'उत्तम-संयम-र्मांग' भी अपेक्षित है ही। 

          संसारी-व्यक्ति के लिये सांसारिक-प्रवृत्तियाँ और तत्संबंधी-अभिलाषायें तो अनादि-संस्कार के कारण सदैव विद्यमान रहतीं ही हैं। उनका निरोध किये बिना चित्त की चंचलता बनी रहेगी और क्षमा जैसी निधि का संरक्षण संभव नहीं हो सकेगा। इसके लिये "इच्छानिरोधस्तपः" की अनिवार्यता रहेगी ही। अतः 'उत्तम-तपः-धर्मांग' भी क्षमाभाव को संजोने के लिये अपरिहार्य हो जाता है।

        "निश्चय राग-द्वेष निरवारै" के वचनानुसार वास्तविक-त्याग तो राग-द्वेष की कुत्सित-वृत्तियों का ही किया जाता है। क्योंकि जब तक राग-द्वेष की कुत्सित-वृत्तियाँ मानसपटल पर छायीं रहेगी, व्यक्ति लाख चाहे, तब भी वह "सबको क्षमा, सबसे क्षमा" जैसे सूत्रों को अमली-जामा नहीं पहिना सकता है। अतः 'उत्तम-त्याग-धर्मांग' के बिना भी 'क्षमावणी' संभव नहीं हो सकेगी।

         त्याग की बात करना तब तक 'बात' तक सीमित रहेगी, जब तक कि मनुष्य का हृदय सांसारिक-अभिलाषाओं से ऊपर उठकर अंतर्मुखी होने की चेष्टा नहीं करता है। अतः अपने स्वरूप की परिपूर्णता के बोध के साथ पर-पदार्थों के प्रति अपनी निःस्पृहता को अकिंचन-वृत्ति में अनुष्ठित करके 'उत्तम-आकिंचन्य-धर्मांग' को चरितार्थ करते हुये ही संभव हो सकता है।

        अन्ततः जिस अन्तर्मुखी-वृत्ति को पर-पदार्थों की आकर्षण-विहीन 'अकिंचनता' को पर्यवसित करने के लिये निजात्मस्वरूप में / चिद्ब्रह्म में अपने उपयोग को विश्रान्त करना ही होगा। तभी चित्तवृत्ति की हिलोरें शांत हो सकेंगीं और निज-नाथ-निरंजन का साक्षात्कार होकर कषायभाव की कलुषता नष्टप्रायः हो जायेगी। तभी तो वह साधक "सबको क्षमा सबसे क्षमा" को अन्तःप्रेरणा से कर सकेगा। जिसमें कोई दिखावा या बनावटीपन नहीं होगा। यही तो 'उत्तम-ब्रह्मचर्य-धर्मांग' का मूर्तिमान प्रतीक होगा।

       इसप्रकार जब कोई साधक क्षमाभाव रूपी निधि को पहले दिन से सारी बाधाओं से बचाता हुआ निर्मल-हृदय में संजोकर जनसमूह के बीच पहुँचता है, तो उसे अतीत की कलुषता का स्मरणमात्र भी व्यथित कर देता है। चूँकि अब उसके पास धर्माराधना से प्राप्त इतना पर्याप्त आत्मबल भी है कि वह अपनी उन कलुषताओं और दुष्कृतों को मात्र "मिच्छामि दुक्कडं" कहकर न केवल अपने हृदयपटल से मिटा सकता है; बल्कि उसी आत्मबल के द्वारा वह दूसरों को भी उसीप्रकार की निर्मलता से ओतप्रोत पाता हुआ उनसे भी "मिच्छा मे दुक्कडं" अर्थात् "मेरे दुष्कृतों को मिथ्या कीजिये, अपने मानसपटल से मिटा दीजिये" -- ऐसा साग्रह-अनुरोध करता है। 

      यह एक जीवन्तरूप है , जिसमें 'क्षमा' शब्दों में नहीं, बल्कि साँसें लेती हुई हर धड़कन में व्याप्त होकर जीवन की प्रतिध्वनि बन जाती है। 

         इसलिये मैं यह कह सकता हूँ कि जब कोई साधक 

"खम्मामि सव्वजीवाणं, सव्वे जीवा खमंतु मे"-- के आदर्श को मात्र शब्दायित करने की जगह जीवन की प्रतिध्वनि बनायेगा , तो उसके निर्मल-हृदय से केवल यही शांत-उच्छ्वास प्रतिध्वनित होगा कि "मिच्छामि दुक्कडं"-- "मैं अपनी ओर से अपने दुष्कृतों को मिथ्या करता हूँ अर्थात् मेट देता हूँ।"  

        और समानधर्मी सज्जनों से वह अनुरोध कर सकता है कि "हे साधर्मी! 'मिच्छा मे दुक्कडं' अर्थात् तुम भी मेरे दुष्कृतों को अपने मन से मिथ्या कर दो, मिटा दो।" ताकि दुष्कृतों को कम से कम हमारे व तुम्हारे हृदयों में बसने की जगह नहीं मिल सके। 

        यही सच्चा 'क्षमावणी-पर्व' है, जो औपचारिकता से हटकर यथार्थ के धरातल पर पुष्पित और पल्लवित होकर सामाजिक-पर्यावरण के साथ साथ हमारी हर साँस और हर सोच की विशुद्धि करता है।

       परन्तु इसके लिये आवश्यकता किसी एक दिन की औपचारिकता की नहीं है। बल्कि एक पवित्र-जीवनशैली और चिंतनपद्धति की है; जिसमें 'क्षमा' माँगना और करना कोई अनुष्ठान न होकर अपनी चादर साफ करने जैसा हो। और जिस की अभिव्यक्ति "मिच्छामि दुक्कडं" से लेकर "मिच्छा

 मे दुक्कडं" तक सहजरूप से हो। 


प्रो. सुदीप कुमार जैन, नई दिल्ली 

हंसता परिवार

हंसो दिल खोलकर हंसो । जितना हो सके जीवन में उतना हंसो। क्योंकि हंसना मनुष्य के ही नसीब में होता है। हंसना जानवरों के नसीब में नहीं होता है। दुख_ सुख की घड़ी में जो मनुष्य नहीं हंसता है।वह जानवर के समान होता है। जानवर का परिवार नहीं होता है। इसलिए उस के नसीब में हंसना नहीं होता है ।जिसका परिवार होता है ।उस के नसीब में हंसना  होता है। जानवर तो बेजुबान होता है। मनुष्य जुबान वाला होता है। इसलिए उस भला बेजुबान के नसीब में हंसना नहीं होता है। जब चाहो तब उसके परिवार को तोड़ देते हो ।अपने स्वार्थ में अपने लालच में। वह हंसेगा कैसे। जिसका परिवार होता है। वही हंसता है ।परिवार ही सकारात्मक उर्जा का सर्वोपरि स्रोत होता है। हंसो लेकिन सकारात्मक, दूसरों के तकलीफ पर मत हंसो दूसरो को तकलीफ पर हंसना वह अपने तकलीफ का बुलावा देना होता है। दूसरे के कष्ट में सहयोग दो, उसके उर्जा को सकारात्मक बनाओ ।और उसे हंसने के लिए मजबूर करो ।ताकि वह अपने जीवन में हंस सके। हंसना एक चकित्सा भी है। जो व्यक्ति हमेशा हंसता है या हंसमुख रहता हैं। वह अपने जिंदगी में कभी असफल नहीं होता है ।क्योंकि वह दुख को भी हंसते-हंसते झेल जाता है। और तनाव से मुक्त रहता है। हंसमुख चेहरा हमेशा संकट की घड़ी में भी दृढ़ता पूर्वक अपने विकराल समस्या से टकराने में सक्षम होता है। और उसका श्रेय परिवार से संबंधित होता है। परिवार समाज की ऐसी इकाई है जिसमें हंसना बोलना समझना और आपस में चिंतन करना सभी रहस्यों को एहसास कराता है इसलिए जीवन में दुख हो या सुख हंसते रहना चाहिए ।तुम कुछ कर नहीं सकते हो। मारना शाश्वत सत्य है। हंसकर मरना सीखो क्योंकि मरने के बाद भी मौत तुम पर गर्व करेंगी ।और सोचने पर मजबूर हो जाएगी ।यह इंसान कैसा है। जो मुझसे से डरा नहीं और हंसते हंसते मुझे आलिंगन किया। जीवन में कभी रोना मत सीखो। कितना भी तकलीफ हो उसको हंसकर जीना सीखो हंसना एक हथियार है ।जो आपको हर समस्या से लड़ने का ताकत देता है। परिवार और हंसने का तात्पर्य है कि बनावटी परिवार और बनावटी हंसी नहीं होनी चाहिए। यह घातक होता है । कहने का

 तात्पर्य है, कि बिना मतलब का हंसना

 वर्जित है ।वास्तविक हंसी हंसो जिससे सकारात्मक ऊर्जा पैदा हो और जीवन में कुछ कर सको।

दीनानाथ

मु+पो०रुपसागर, जिलाबक्सर

जीवन


जीवन सच में है वही,

            आए परहित काम,

अपने हित को जो जिए , 

            बस जीवन है नाम।

बस जीवन है नाम ,  

            निरर्थक साँसें लेते ,

नदियाँ बादल वृक्ष , 

            सभी फल परहित देते।

नहीं भले हों काम , 

            कहो फिर कैसा ये धन?

मिले घना यश-मान,

            जिएं जो परहित जीवन।।


        डॉ० शिशुपाल


महल बस अपनी गाते हैं

नहीं होता मोह किसी से,

अपना राग सुनाते हैं।

शान में हो न कोई कमी,

 महल बस अपनी गाते हैं।। 

मुफलिसी से नहीं वास्ता,

गरीबों का मखौल उड़ाते हैं।

कीड़े मकोड़े लगते निर्धन,

हर वक्त औकात बताते हैं।।

उन बिन काम नहीं चलता,

समय आने पर रिरियाते हैं,

शान में हो न कोई कमी,

 महल बस अपनी गाते हैं।। 

रहते आज जिन महलों में,

गरीबों ने ही बनाये हैं।

रात दिन पसीना बहाकर,

इन्हें खड़ा कर पाये हैं।।

बारीक बारीक कामों में,

वो जी जान लगाते हैं।

शान में हो न कोई कमी,

 महल बस अपनी गाते हैं।। 

महलों में लगे उपकरण,

गरीब ही तो बनाते हैं।

एसी फ्रिज और टीवी,

 ऊपर से नहीं आते हैं।।

गरीबों की मेहनत से,

ऐशोआराम पाते हैं।।

शान में हो न कोई कमी,

 महल बस अपनी गाते हैं।। 

गरीबों की मेहनत से,

इन्हें सरोकार नहीं।

खून भी चूस लेते ये,

देते पूरी पगार नहीं।।

गरीबों बिन हस्ती नहीं,

ये समझ नहीं पाते हैं।

शान में हो न कोई कमी,

 महल बस अपनी गाते हैं।।


प्रवेश "अकेला", आगरा

प्यारा है




चंदन वंदन करो , भाल माटी नित्य भरो ,

परम पुनीत  ये , देश मेरा प्यारा है ।।


गाँव गली ओर छोर , इनका सदा ही जोर , 

धरती गगन में , बने ध्रुव तारा है  ।।


दिन लगे सोने जैसे , निशा चाँदी भाये ऐसे ,

उन्नत शिखर में , जय गूँज नारा है ।।


शक्ति अवतार यहाँ , दूजा मिले और कहाँ ,

एकता विशालता ,  प्रेम उरधारा है ।।




आओ कुछ नया करें , सत्य ज्ञान हम धरें ,

जीवनामृत पियें , सबका सहारा हो ।


प्रेम दीप लिए हाथ , चलें हम साथ - साथ ,

मानवता धर्म ले , गढ़ें पंथ न्यारा हो ।।


सर्वहित भावना हो , देशहित कामना हो ,

जीव दया सर्वदा , लक्ष्य ये हमारा हो ।


होठों में उल्लास रहे , परहित दुख सहे ,

एक लक्ष्य धारणा , एक ही किनारा हो ।।


               ----- माधुरी डड़सेना "मुदिता"

आप ऊँचे हैं या लंबे

क्या आपने कभी गौर किया है कि अंग्रेजी में आप अपनी height बताते हैं, length नहीं ; जबकि हिंदी में अपनी लंबाई लिखते हैं।


दैनिक जीवन में कुछ ऐसा ही हम सुनते और बोलते हैं : 

“आपकी लंबाई कितनी है ?”, ‘आपकी height क्या है?" ,  “वह लड़की काफी लंबी है”, “उस लड़की की height बहुत अच्छी है” ..आदि ।


Height का हिंदी समानांतर तो ऊँचाई है, जिसके लिए अंग्रेजी में उपयुक्त शब्द tall है । Height (the vertical dimension of extension / the quality of being tall))  या ऊँचाई को ऊर्ध्वाधर में नापा जाता है। 


लंबाई तो length का हिंदी समानांतर है। length (the linear extent in space from one end to the other)  या लंबाई तो क्षैतिजिक रूप में नापी जाती है–जैसे नदी की लंबाई, टेबल की लंबाई आदि।


हिंदी में भी लंबाई को क्षितिज की रेखा में दूरी के रूप में परिभाषित किया जाता है अर्थात् यह एक किनारे से दूसरे किनारे तक  फैली होती है। इस अर्थ में हम किसी व्यक्ति को लंबा नहीं कह सकते, ऊँचा कह सकते हैं। ध्यान रहे कि ऊँचा का तत्सम ‘उच्च’ एक व्यापक शब्द है, जिसे महत्ता सहित कई अर्थों में प्रयुक्त किया जाता है। पते की बात यह कि किसीकी लंबाई नहीं ऊँचाई देखियेगा और हो सके तो शरीर की नहीं, अपितु व्यक्तित्व की।


लेकिन बात इतनी सी नहीं है। अगर गहराई में उतरें, तो यह मुझे एक बड़ा विषय दिखता है। Height शब्द के मूल को जर्मन से जोड़ा गया जो old english  में hehthu या hiehthu बना । यही डच के प्रभाव से फिर अंग्रेजी में आते-आते highth और high बना। milton ने highth ही प्रयोग किया है। मूल रूप hehthu का अर्थ है किसी का शीर्ष भाग या top of something.

इसी अर्थ में किसी की ऊँचाई के लिए 5 फीट 8 इंच या ऐसा कुछ कहा गया या कहा जाना चाहिए।


जिसे हम लंबा कहते हैं, वह दरअसल लंब से बना है और यहीं पर हिंदी में उलझन हुई। लंब शब्द वस्तुतः plumb से बना है, जिसे अंग्रेजी में लुम्ब पढ़ा जाता है क्योंकि p ध्वनि गौण है। इसी लुम्ब को हिंदी में लंब पढ़ा गया ,जो हिंदी के नियम से ठीक भी है। plumb का अर्थ है गहराई नापना (to measure the depth of something).


Plumb शब्द लैटिन के plumbum से बना है, जिसका अर्थ सीसा है। तो, आरंभ में plumb (लुम्ब) को  ऊपर से नीचे लटके एक शीशे के रूप में लिया गया ।  ध्यान दें कि  हिंदी में भी लंब की परिभाषा की गई - “आधार से समकोण बनाते हुए ऊपर जाने वाली रेखा जो नीचे की और लटकती है”। आगे, इस तरह लंब होने के गुण को लंबा होना या लंबाई कहा गया।  देखें तो व्यक्ति ऊपर से नीचे आधार पर एक समकोण तो बनाता ही है, इसलिए लंबा होना गलत नहीं माना गया। 


ध्यातव्य है कि अंग्रेजी ने height शब्द को इसके लिए अपना लिया और हिंदी में लंबाई की परिभाषा अंग्रेजी के length के समानांतर कर दी गई। इस तरह एक भ्रम की स्थिति उत्पन्न हो गई । एक गाने ने तो हद ही कर दिया : एक ऊँचा-लंबा कद….!


निष्कर्षतः कहना चाहूँगा कि वर्तमान भाषाई आधार और परिभाषाओं के आधार पर हमें height के लिए ऊँचाई का प्रयोग ही करना चाहिए। अतः, वह एक ‘ऊँचे कद का’ या ‘ऊँचा’ लड़का है लिखें, लंबा लड़का न लिखें!



कमलेश कमल

मेरा ध्यान देखिए।।

यूं कर रहे हैं वो मेरा सम्मान देखिए।

आता नहीं है उनको

मेरा ध्यान देखिए।।


जिनको जिताया, सर रखा

पूजा जिन्हें हमें।

घटती है हमसे मिलके

उनकी शान देखिए।।


आऐंगे जब कभी 

तो जरा ध्यान दीजिए।

देना है हरकदम उन्हें

सम्मान देखिए।।


लेते नहीं ख़बर कि हैं किस हाल में प्रियवर।

कहते कभी हमको  हो जी मनप्रान देखिए।।


काटा है पेड ख़ुद ही

कुल्हाड़ी की धार से।

लाने चले हैं उसमें फिर

वो जान देखिए।।


टीपा है हर हरूफ़

किसी की किताब से।

अब छप रहा है उनका भी

दीवान देखिए।।


जलती रही शिखा औ

तडपता रहा शलभ।

दीवानगी में किसको रहा ज्ञान देखिए।।

लखन पाल सिंह शलभ

   भरतपुर

चमक


चमक दमक यहाँ , देख रहे यहाँ -वहाँ , 
फँस गये हाय कहाँ , काँप रहे थरथर ।।

कोई देखता है नूर , देखे कोई यहॉं हूर , 
सब अपने में चूर , उड़ रहे लगा पर ।।

किसी का जमीं पे पाँव , कोई ढूँढ़ रहे गाँव , 
कोई को मिले न ठाँव , कोई खाली कोई भर ।।

यह जग बना मेला , चल रहे रेला -पेला , 
चूर्ण घूर्ण माटी ढेला , वक़्त कहे चलो घर ।।


अंतस्थल भरा प्रेम , पावन भावन नेम ,
रखना कुशल क्षेम , प्यारे मेरे दिलवर ।

 सपन साकार सब , संग रहो तुम तब ,
पूरे होंगे आज अब , हाथ मेरे चल धर ।।

नहीं अब कोई बाधा , जैसे प्रीत कान्हा राधा ,
हमने भी ये है साधा , अपना भी बने घर ।

प्रेरणा से ओतप्रोत , प्रीत रस बहे स्श्रोत ,
शांति सुख का कपोत , किसी का नहीं है  डर ।।


                 माधुरी डड़सेना "मुदिता"

सुख-दुख सारी मन की माया

सुख-दुख सारी मन की माया

ना कोई कुछ ले जाएगा,

ना कोई कुछ संग में लाया।

खाली हाथ सभी को जाना,

सुख-दुख सारी मन की माया।।

जैसा हो प्रारब्ध उसी विधि,

   रहना सबको पड़ता।

      एक पुष्प चढ़ता पूजा में,

       इक अर्थी पर चढ़ता ।।

सुख-दुख के चक्रों में मानव,

   नित प्रति उलझा रहता।

     अवसादों के सर में डूबा,

         चिंताओं में बहता।।

 जो सोचें अनुभूति वही हो,

 मन रहता हरदम भरमाया।

 खाली हाथ सभी को जाना,

 सुख-दुख सारी मन की माया।।1

वैभव तन को सुख दे सकते,

   मन की गति है न्यारी।

      मन को यदि संतुष्टि नहीं तो,

        बढ़ जाए लाचारी।।

मन यदि है कंगाल तो जीवन,

   में आनंद नहीं है ।

    गंध-हीन ज्यों सुमन व्यर्थ,

       जिसमें मकरंद नहीं है ।।

वैसा ही फल पाए मानव,

जिसने जैसा पेड़ लगाया।

खाली हाथ सभी को जाना,

सुख-दुख सारी मन की माया।।2

निज जीवन में सदा प्रगति के,

   देखें सब ही सपने।

     वही मिलेगा जिसके जैसे ,

        यत्न रहेंगे अपने।।

 क़ुदरत ने जीवन सौंपा है,

     शुभ सौग़ात मिली है।

       सदा हौसलों से जीवन की,

         कलिका मृदुल खिली है।।

कर्मनिष्ठ के जीवन में ही,

सुख, सौरभ बनकर के छाया।

खाली हाथ सभी को जाना,

सुख-दुख सारी मन की माया।।3

समय एक सा कब रहता है,

    बदले जैसे छाया ।

     जब हो ग़र्दिश के दिन तो तब, 

      मिले नहीं हमसाया ।।

मन मसोस रह जाना पड़ता,

    कोई पेश चले ना ।

      बुरे दिनों में कभी चैन की,

         शीतल ठौर मिले ना।।

जो समझा पाया, इस मन को,

उसने चैन हृदय में पाया।

खाली हाथ सभी को जाना,

सुख-दुख सारी मन की माया।।4

लाभ- हानि का गणित लगा सब,

   पड़े रहें चक्कर में।

      स्वारथ में सब फंसे हुए हैं,

         शांति कौन के घर में ।।

केवल संग्रह करें रात- दिन, 

   किंतु सभी नश्वर है ।

      करना कूच पड़ेगा सबको,

         कौन रहा स्थिर है।।

राजा- रंक रहा ना कोई,

गया वही जो भू पर आया ।

खाली हाथ सभी को जाना,

सुख-दुख सारी मन की माया।।5

मन का वेग प्रबल होता है,

    सदा दौड़ता रहता।

       कभी रंज में कभी खुशी में ,

          रोता- हंसता रहता।।

 मन माने तो सुख ही सुख है,

    मन माने तो पीड़ा।

     घुन की भांति खोखला करता,

        नित चिंता का कीड़ा ।।

जिसने सभी प्रपंच त्याग दिए,

उसने ही सच्चा पथ पाया।

खाली हाथ सभी को जाना,

सुख-दुखसारी मन की माया।।6

बजता है संगीत सृष्टि में,

 सभी कहां सुनते हैं ।

 अपनी ही उलझन में निशि- दिन,

   सिर अपना धुनते हैं ।।

खग कलरव करते हैं सुमधुर,

   नदियां कल-कल करती।

     सरगम के स्वर वायु, गगन में,

       मीठे पल- पल भरती।।

जो करले तादात्म्य प्रकृति से,

वह सर्वत्र यहां हरसाया।

खाली हाथ सभी को जाना,

सुख-दुख सारी मन की माया।।7

घोर निराशा की रातों का,

   होता कठिन सवेरा।

     सुख -दुख भोगा करता मानव,

       निज कर्मों का प्रेरा।।

दुःख की रातें भी कट जाती,

   सुख के दिन भी बीतें।

      लेकिन आकांक्षाओं के घट ,

         नहीं किसी के रीतें।।

जीता वही ,कभी ना जिसने-

 बाधाओं को शीश झुकाया। 

खाली हाथ सभी को जाना,

सुख-दुख सारी मन की माया।।8

नदी- नाव संजोग सदृश ही,

   रहना है इस जग में।

      सुख-दुख के आएंगे मेले,

        इस जीवन के मग में।।

 सत्कर्मों के बीज लगाएं,

    नित मीठे फल पाएं।

      याद करें ये दुनिया वाले,

         जब दुनिया से जाएं 

जिसने सीख लिया विष पीना,

उसने ही अमृत को पाया।

खाली हाथ सभी को जाना,

सुख-दुख सारी मन की माया।।9


 वेद प्रकाश शर्मा "वेद"

नगर भरतपुर राजस्थान


किससे कैसे बात करना..

किस से कैसे बात करना जिसे ये सलीका आ गया..!

वही जमाने में सदा सभी के दिलों पर छा गया..!


अपनी बातों में जो अदब की कारीगरी रखते हैं..!

दिल जीतने की जो यहां बाजी गिरी रखते हैं..!

वही किरदार तो सभी की नज़र को भा गया..!

किससे कैसे बात करना..


जो अपनी शख्सियत में सदा ही शामिल रखते नज़ाकत..!

उनकी कब कहां कभी किसी से रहती हैं अदावत..!

इनकी रातें सुकूनभरी होती व खुशनुमा दिन सदा गया..!

किससे कैसे बात करना..


कमल सिंह सोलंकी

सशक्त विचारधारा आदर्श

आदर्श जीवन का वह पहलू है जो जीवन को अनन्त शिखर तक पहुंचाने का मार्ग प्रशस्त करता है। सभी सकारात्मक गुणों  से जो व्यक्ति परिपूर्ण होता है। वह आदर्शता का ताज पहनता है। कहने का तात्पर्य यह है की व्यक्ति का व्यक्तित्व ही सर्वोपरि होता है। व्यक्तित्व का सीधा संबंध संस्कार और मर्यादा से होता है ।किसी भी व्यक्ति की पहचान उसके नाम से नहीं बल्कि उसके व्यक्तित्व से करनी चाहिए। व्यक्तित्व उस व्यक्ति का निव होता है ।जिस पर आदर्श रूपी इमारत खड़ी होती है। धनी तो सब होते हैं। ज्ञान में धनी होते है, कोई साहित्य मे धनी

 होते है ,कोई धन में धनी होते है, कोई मन से धनी होते है। अमीर या गरीबी का अर्थ भौतिकवाद ज्ञान या धन से नहीं करनी चाहिए। धनी ,

 अमीरी या गरीबी का अर्थ उसके व्यक्तित्व से करनी चाहिए। भौतिकवाद ज्ञान या धन व्यक्ति के रहने तक ही सीमित है ।लेकिन व्यक्तित्व का धनी आदमी आदर्श ताज पहने हुए हमेशा हमेशा के लिए जीवित रहता है ,या अमर हो जाता है। व्यक्ति का स्थूल शरीर पंचतत्व में तो मिल जाता है। लेकिन उसके व्यक्तित्व को जलाने के लिए संसार में कोई ऐसी चीज नहीं है ।भगवान भी उसे मिटा नहीं सकते, जला नहीं सकते हैं। क्योंकि वह लौकिक से अपने व्यक्तित्व अवर आदर्श ताज पहने अलौकिक हो जाता है। कम मानसिकता वाले लोग संसारीक उपलब्धियों में ही खुश रहते हैं, और अपने अहंकार में वह अपने आप को सर्वोपरि समझने लगते हैं। जबकि यह सत्य नहीं है।लोग उनके नकारात्मक ज्ञान और धन से डरते हैं। उससे अलग रहते हैं। लेकिन व्यक्ति का अहंकार इतना हावी होता है, कि वह यह समझ बैठता है, लोग हमसे डरते हैं। कभी-कभी ऐसा भी देखने को मिलता है, की व्यक्ति किसी व्यक्ति का इज्जत करता है ।वह व्यक्ति अपना अहंकार के वशीभूत होकर यह समझने लगता है, कि वह व्यक्ति डर रहा है। लोगों से मेरा गुजारिश है कि वह अपने व्यक्तित्व को संस्कार मर्यादा और परिश्रम की तराजू पर तौलें तब अपने को धनी अमिर  या गरीब की श्रेणी में रखने का विचार करें ।सहभागिता इमानदारी लगनशीलता और पूर्वजों से मिला हुआ वह ज्ञान जो अपने व्यक्तित्व को निखार सके। और आदर्श रूपी एक इमारत तैयार कर सकें उस तरफ अग्रसर होना चाहिए।

कोई जमीर को बेचकर अमीर बन गया।

जो जमीर नहीं बेचा वह फकीर बन गया।।

दीनानाथ  

रूपसागर, 

हिंदी को हमे बचाना है..

       हिन्द देश के वासी है, हिंदुत्व हमारी पहचान है,

राष्ट्र भाषा है हिंदी हमारी,सारे विश्व में पाया सम्मान है...

14 सितम्बर 1953 का दिन वो प्यारा था,

सर्वसम्मति से आदरणीयों ने हिंदी दिवस का प्रथम त्यौहार मनाया था...

तब से अब तक सुन्दर ये प्रथा चली आई है,

राष्ट्र भाषा के सम्मान दिवस की देते सबको बधाई है.. 

"अ " से "अ:" तक "क "से "ज्ञ "तक वर्णों का सुन्दर मेल है,

समझ जाये जों इनको प्यारे, वो शब्दों का खेले खेल है,

आज हमारे प्यारे बच्चों A, B, C तुमको आता है,

अ से अ: तक बोलने में संकोच तुम्हें क्यों आता है...

"मॉम "शब्द से ज्यादा "माँ "में भरी ममता है,

"पिता" शब्द जों दुलार भरा है "डैड " में क्या रखा है...

राष्ट्र भाषा क सम्मान दिवस की देते सबको बधाई है 

"टीचर" शब्द में वो सम्मान कहाँ जों "गुरूजी "

कहने में लगता है,

"सर "कहने में रोब झलकता "गुरूजी "में आत्मीय स्नेह और सम्मान है...

बस इतना समझो अब प्यारे...

हिंदी को हमे बचाना है..

हिन्द देश के वासी है, हिंदी का परचम फहरना है.....

राष्ट्र भाषा "हिंदी दिवस " की देते सबको बधाई है 


बरखा विवेक बड़जात्या

बाकानेर, जिला. धार

हिन्दी की व्यथा

अनिल ओझा,इंदौर 


हम हिन्दी के पुजारी हैं और हिन्द के वासी।

क्यों  हिन्दी के चलन में  छाई  है ये उदासी?


बोलें जो हिन्दी करते हैं अंग्रेजी मिलावट।

हस्ताक्षर  करें  तो  अंग्रेजी   लिखावट।।

बच्चे पढ़ें कान्वेंट में सब की यही चाहत।

ये हाल अपना देख कर हिन्दी हुई आहत।।

हिन्दी तो आज भी हमारे प्यार की प्यासी।

क्यों हिन्दी के चलन में  छाई है ये उदासी?


हिन्दी  हो  राष्ट्र भाषा से, इनकार नहीं  है।

अन्य भारतीय भाषाओं से तकरार नहीं है।।

है कौन शख़्श जिसको माँ से प्यार नहीं है।

फिर हिन्दी का वर्चस्व क्यों स्वीकार नहीं है?

माँ  को न माने माँ , परदेसी  को माँ-सी।

क्यों हिन्दी के चलन में छाई है ये उदासी?


माँ भारती के भाल पर हिन्दी का ताज हो।

सारे  ही हिंदुस्तान  में हिन्दी  का राज हो।।

हिन्दी में ही सम्पन्न  सभी  राज काज  हो।

होने  का हिंदुस्तानी  हमें भी तो नाज़  हो।।

अब  न कोई चाल  चले  और सियासी।

क्यों हिंदी के चलन में छाई है ये उदासी?


अनिल ओझा,इंदौर 

हिन्दी मेरी पहचान

खानपान हैं अलग हमारे,

अलग है दामन चोली।

मन के भाव एक हमारे ,

हिंदी अपने दिल की बोली।।


मात्राओं की शान निराली,

व्याकरण सम्मत भाषा।

जैसी बोलें वैसी लिखते,

जन गण मन की अभिलाषा।।


अवधी ब्रज सरस धारायें,

सबके मूल भाव में हिन्दी।

हर बोली अमृत सी इसकी,

ये सबके माथे की बिन्दी।।


अग्रेंजी बोल क्यों इतरायें

छब्बीस वर्ण ही उसमें।

बावन अक्षर से शोभित है,

परम ओज है इसमें।।


राजनीति प्रपंच रचाती,

रुतबे से महरूम है हिन्दी।

हिन्द राष्ट्र का स्वाभिमान,

मेरी भी पहचान है हिन्दी।।


        पदम प्रवीण

           जयपुर

आनन्द-छन्द क्यों रूठ गये

आनंद- छंद क्यों रूठ गए,

  सौहार्द- रंग क्यों धो डाला।

   ईर्ष्या-छल,वैर-घृणा को अब, 

     किसने हृदयों में बो डाला।।

 बुझ गये दृगों के दीप सजग,

   चेतन का अलसा कर सोई।

    लुट गई भावना सरस- सरल,

      डरकर कोमल कलियां रोई।।

गिर गयी चमन पर बिजली सी,

 आतंक- ग्रीष्म झुलसाता है।

  मन तृषित,कथित है व्यक्ति-शक्ति,

  अलगाव-अनल तड़पाता है।।

इस चंचल मन को सबने ही, 

  स्वार्थों में घना भिगो डाला। 

   ईर्ष्या-छल,वैर-घृणा को अब,

    किसने हृदयों में बो डाला।1।।

उपवन से ख़ुशबू रूठ गई,

  झर रहीं आज असमय कलियां।

   सूना सपनों का गांव हुआ,

    गुलज़ार नहीं मन की गलियां।।

 हैं प्रेम -सूत्र टूटे- टूटे,

    सौभाग्य लगें रूठे- रूठे ।

      हो गया खोखला अपनापन,

         संबंध हुए झूठे- झूठे।।

पश्चिम की हवा चली ऐसी,

   सद्गुण- हीरों को खो डाला।

    ईर्ष्या- छल, वैर-घृणा को अब,

     किसने हृदयों में बो डाला।।2।

यह जीवन घोर रणांगण है ,

  संघर्ष यहां है पग-पग पर।

    हम को सचेत रहना होगा,

      रहबर न मिलेंगे हर पथ पर ।।

संशय के धागों में किसने,

   मन- मुक्ता आज पिरो डाला।

     इर्ष्या-छल,वैर-घृणा को अब,

      किसने हृदयों में बो डाला।।3

 वटवृक्ष न अब छाया देते,

   सबको माया भरमाती है।

     जो दिग्गज थे वे डोल गए,

       स्वारथ -सरिता इठलाती है।।

टूटन- विचलन का दौर बढ़ा,

   बढ़ रही घुटन अब जीवन में।

      हो गए संकुचित सीमित सब,

         सौहार्द्र रहें कैसे मन में।।

था नीति-सिन्धु, पावन- उज्ज्वल,

  उसको भी आज बिगो डाला।

    ईर्ष्या- छल,वैर-घृणा को अब,

     किसने हृदयों में बो डाला।।4

मन-विहग थके,नय-शिखर झुके,

   उन्नतियों के रथ रुके- रुके।

    अरमान दिलों के फुंके- फुंके,

      लग रहे हौसले चुके-चुके।।

ख़्वाबों के यान उड़ें कैसे,

   चल रहीं आंधियां धूल भरी।

       विश्वास हो गया आवारा,

         राहें लगतीं हैं शूल भरी।।

हिम्मत ले "वेद"बढ़ो राही,

  अमृत का प्राप्त करो प्याला।

    ईर्ष्या-छल,वैर-घृणा को अब,

     किसने हृदयों में बो डाला।।5


वेद प्रकाश शर्मा "वेद"

 नगर भरतपुर राजस्थान



नारी पर पिरामिड

  

मैं 

नारी 

घुटती 

तड़पती 

संघर्षरत

उदासीनता में

जीवन मेरा यह


मैं 

त्याग 

तपस्या

की मूरत

ममतामयी

अपनत्व भरा

आंचल में समेटे



मैं 

वह

जननी

है जिससे

इस जहां में

मनुष्य नाम का

प्राणी का अस्तित्व है


डॉ दीपिका राव राजस्थान

उषाकाल

 कितना सुंदर समय सुहाना।

 किसी ने इसका मर्म न जाना।

भोर की इस मधुर बेला में,

शीतल पवन का छू कर जाना।।

अंधकार विलुप्त हो गया,

 उषा रानी आई है।

 चहुँ ओर स्वर्णिम आभा,

 किरणों ने फैलाई है।।

 चिड़ियाँ देखो चहक उठी हैं,

सारी बगिया महक उठी है।

 भौंरे गुनगुन गीत सुनाते,

 कली कली पर वे मँडराते।।

 बैलों की घंटी बजी टन-टन,

ग्वालन की चूड़ी बजी खन-खन।

 अजान सुनाई दे रहा है,

 कृषक खेत को जोत रहा है।। 

 मंदिरों में पूजा हो रही है,

घंटी और शंख बज रहे हैं।

 गायें बछड़ों के लिए रंभाती,

 माँ-माँ बछड़े बोल रहे हैं।।

चहुँ ओर लालिमा है छाई,

प्रकृति ने छवि निराली पाई।

 मन बावरा उड़ता जाए ,

दूर-दूर की सैर कर आए।।

 सूरज के घोड़ों वाले,

 रथ पर सवार होकर।

उषा रानी उतर रही है,

 धीरे-धीरे धरती पर ।।

खुशियों का सामान लेकर, 

दिल में कुछ अरमान लेकर।

सूर्य की किरणें उतर रही हैं ,

सबमें उत्साह भर रही हैं।।

 रात अंधेरी बीत चुकी है,

अब सोने का समय नहीं।

भोर लालिमा फैल चुकी है,

 अब अंधियारा कहीं नहीं।। 

लाल रंग परिधान में लिपटी, 

उषा रानी का रूप सुहाना।

सकुचाई सी अपने में सिमटी,

उषा रानी का धरती पर आना।।

 कितना सुंदर समय सुहाना,

 किसी ने इसका मर्म न जाना।

उषाकाल की स्वर्णिम बेला में,

ईश्वर का हमें ध्यान लगाना।।

सरला विजय सिंह 'सरल' चेन्नई

ममता नहीं समता में जिए

          -                                     ममता में कर्म बन्धन है मोह राग-द्वेष द्वन्द है , समता बन्धन रहित है 

, अपने अंदर के सोफ्टवेयर में अपनी सोच के कंसेप्ट को बदलना है , कोई निन्दा करें या प्रशंसा सम रहे ,

 आजकल नेता लोग भी इस गुण को अपना रहे हैं वे अंदर कुछ भी महसूस करे लेकिन बाहर व्यक्त नहीं करते है

 , हम आपसे यह कहते हैं आप अंदर बाहर समता भाव में रहे । अपनों से अपेक्षा व दूसरों की उपेक्षा बिल्कुल भी नहीं

 करें , इससे मन में नफरत का बीज बोया जाता है , यह नफरत का बीज ही हमें जन्म-जन्मांतरो तक कर्मो की सजा

 करवाता रहता है , आप सत्य अहिंसा के पथ पर निर्भिकता के साथ चले, आप अपने अंदर नई ऊर्जा महसूस करेंगे।                                      

अनिल चेतन दशमेश नगर मेरठ

पावन क्षमा पर्व के क्षमा दिवस पर :-


पावन क्षमा पर्व के क्षमा दिवस पर :-

क्षमा बड़न को चाहिये छोटन को उत्पात |

कहा रहीम हरि को घट्यो भ्रगु ने मारी लात ||

          शताब्दियों पहले कवि रहीम जी ने क्षमा भाव को बहुत ही शानदार उदाहरण के साथ क्षमा की महत्ता बताते हुए उपर्युक्त दोहा रचा था |इस दोहे के भावों की हर युग में आवश्यकता और सार्थकता रहेगी |

जैन धर्म ने आज के दिवस को क्षमा पर्व के रुप में अपनाया है और इसे प्रति वर्ष जैन समाज अन्य समाजों के साथ भी बीते वर्ष में किसी भी तरह की हुई भूल चूक जाने अनजाने में हुई त्रुटि, क्रोध प्राकट्य के लिए खेद प्रकट करते हुए क्षमा याचना कर उसे भुला देने का आग्रह करते समरसता से मधुर व्यवहार करने का आश्वासन और आग्रह करते हैं |

                मैं भी इस अवसर पर सविनय निवेदन करता हूँ कि बीते वर्ष में यदि मेरे किसी तरह के व्यवहार से, शब्दों से, ठेस पहुंची हो, अच्छा प्रतीत नहीं हुआ हो, किसी तरह से कष्ट महसूस हुआ हो तो मैं क्षमा प्रार्थी हूँ |

         इस अवसर पर मैं आपके लिए आपके उत्तम स्वास्थ्य की कामना करता हूँ | 

         इस अवसर पर में आपके लिए ईश वंदना करता हूँ |

          इस अवसर पर मैं आपके लिए सुख, समृद्धि की कामना करता हूँ | 

          इस अवसर पर मैं आपके लिए यह सब कुछ करने के लिए ईश्वर को श्रद्धा से नमन करता हूँ | 

                 तेज सिंह राठौड़, सीकर.

हिंदी हमारा अभिमान



     राष्ट्रभाषा देश की आन है ,शान है, सम्मान है और अभिमान है । 14 सितंबर 1949 को भारतीय संविधान मैं हिंदी को राजभाषा का का सम्मान प्राप्त हुआ ।जो इसके महत्व को देखते हुए उचित ही था ।क्योंकि हमारे देश की 70% से अधिक जनता हिंदी भाषा में ही संवाद करती है ।हिंदी भारत की आत्मा में बसी हुई है जो कि हर प्रदेश में बोली जाती है ।संपूर्ण देश को एकता के सूत्र में पिरो कर रखने का काम हिंदी भाषा ही कर रही है ।हिंदी में भारतीय पुरातन परंपराओं की अभिव्यक्ति के साथ ही आधुनिक अवधारणाओं को व्यक्त करने की असीम क्षमता है।

          डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद का कथन है -"हिंदी राष्ट्रभाषा का प्रचार करना ,मैं राष्ट्रीयता का अंग मानता हूं ।हिंदी राष्ट्रीय एकता की भाषा है ।हिंदी भारत माता के ललाट की बिंदी है"।

विविधता में एकता की अभिव्यक्ति हिंदी में ही है। हिंदी की उत्पत्ति भारतीय संस्कृति की भाषा संस्कृत से हुई है। हिंदी में सभी प्रांतीय भाषाओं के शब्दों मिलते हैं ।यह देवनागरी लिपि में लिखी गई है और यह लिपि वैज्ञानिक लिपि है। एक राष्ट्रभाषा जिन चीजों की मांग करती है वह सब हिंदी भाषा में समाहित है। हिंदी भाषा में प्राचीन काल में पर्याप्त मात्रा में साहित्य की रचना हुई है और वर्तमान काल में भी साहित्य हिंदी भाषा में देश के हर कोने कोने में रचा जा रहा है।

गांधी जी के शब्दों में-" अंग्रेजी माध्यम में शिक्षा को पूरी करने में लगभग 16 वर्ष लग जाते हैं जबकि वह शिक्षा हिंदी माध्यम से दी जाए तो मुश्किल से 10 वर्ष में शिक्षा पूरी हो जाती है।"

गांधी जी ने यह भी कहा था कि राष्ट्रभाषा वही हो सकती है जो सरकारी कर्मचारियों के लिए सरल और सुगम हो और जिस भाषा को बोलने वाले लोग अधिक हो।

देश के बाहर दुनिया में भी हिंदी का वही मान और सम्मान है और विदेश की धरती पर भी लोग हिंदी भाषा में संवाद करते हैं। हिंदी देश के भौगोलिक और सांस्कृतिक एकता का ज्वलंत प्रतीक है। राष्ट्रीय मर्यादा के रूप में हिंदी को अपनाना ही राष्ट्रीय धर्म है।


       हिंदी है राष्ट्रभाषा हमारे वतन जैसे है प्यारी

          अनेकता में एकता का नारा है 

             गौरवशाली भारत हमारा है

          सांस्कृतिक मूल आधार है राष्ट्रभाषा

            अक्षण्यु रहे हिंदवासी अभिलाषा

हिंदी भाषा को अंतरराष्ट्रीय भाषा के रूप में स्थापित करने के लिए हिंदी भाषा के सम्मेलनों का आयोजन किया जाता है।

1975 में नागपुर में विश्व हिंदी सम्मेलन का आयोजन किया गया था। इसमें लगभग सभी देशों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया था इसी को आधार मानकर वर्धा में हिंदी की अंतरराष्ट्रीय विद्यापीठ की स्थापना की गई।भोपाल में हिंदी सम्मेलन आहूत किया गया था उसके गरिमामय उपस्थिति तथा भव्यता अपने आप में एक इतिहास है ।उसी सम्मेलन में मॉरीशस की राजधानी पेटलुई मैं सम्मेलन आयोजित करना निर्धारित किया था ।जिसकी तिथि 18 अगस्त 2018 से 20 अगस्त 2018 तक थी। 

    अब वह दिन दूर नहीं जब यह सपना साकार होगा जो भारतेंदु जी का यह कथन हमें हिंदी भाषा के विकास की प्रेरणा दे रहा है-

 निज भाषा उन्नति अहे सब उन्नति को मूल

    बिन निजभाषा ज्ञान के मिटत न हिय को शूल


डॉ दीपिका राव व्याख्याता  

नूतन उच्च माध्यमिक विद्यालय बांसवाड़ा

धुले हों भाव भक्तों के..


      (मर्मस्पर्शी-हिन्दी-कविता)

धुले हों भाव  भक्तों के,

                भक्ति  हर पाप  धोती है।

मन हो  सीप-गुणग्राही,

                तो हर परिणाम  मोती है।।

भविकजन! भाव को देखो,

                नहीं जड़कर्म को लेखो,

भावना शुद्ध कर लो तुम,

              जो भव का नाश करती है।।1।।


अरे! भवि आत्मसुध लेकर,

                  कर्मबंधन शिथिल करते।

नाद 'केका' का ज्यों सुनकर,

                अहि-बंधन शिथिल होते।।

बात ज्ञानी की त्यों सुनकर,

                मोहदृढ-बंध शिथिलाते।

"सिद्धवत् शुद्ध भगवन् हूँ",

              जानकर कर्म भग जाते।।

अनुभवी साधु की  वाणी,

              सदा अमोघ^ ही होती है।

वाणी हो सम्यग्ज्ञानी की,

              तो भवों के पाप धोती है।।

धुले हों भाव भव्यों के..............।।2।।

(*केका=मोर की आवाज।^अमोघ=अचूक-प्रभावशालिनी)


नाग जहरीले हों कितने,

                नहीं कुछ बात चिन्ता की।

जिघ्रते नागदमनी को ,

                नकुल अस्पृष्ट-विष रहते।।

"मैं त्रिकाल शुध-ज्ञायक", 

                यही है भवनाशिनी-बूटी।

जो भर लेते हैं भावों में,

              वे 'कलि' में भी सुधरते हैं।।

अविनाशी शुद्ध-ज्ञायक की,

                प्रीति पर से न होती है।

अनंतगुण-खान भगवन् हूँ, 

              सिद्धि खुद से ही होती है।।

धुले हों भाव भव्यों के.................।।3।।

(*जिघ्रते=सूँघते)


न कर्त्ता हूँ  न भोक्ता मैं,

                  मात्र ज्ञाता  सदा से मैं।

न पापी हूँ  न पुण्यात्मा,

                सदा शिवरूप  ही हूँ मैं।।

न देही हूँ  न वैदेही,

              नहीं परिचय  किसी पर से।

न परिणति हूँ  न गुणभेदी,

              नित्य निरपेेक्ष ही हूँ मैं।।

स्वयंसत्ता मैं अविनाशी,

            जो खुद आबाद होती है।

मैं हूँ पतितपावनी-गंगा,

              जो पर्यय-पाप धोती है।।

धुले हों भाव भव्यों के............।।4।।


अरे! जो पुण्य-अभिलाषी, 

                  स्वहित का है विरोधी वह।

अरे! पर का जो हित चाहे,

                'सत्' का धुर-विरोधी वह।।

मेरा ईश्वर नहीं कर्त्ता,

            नहीं किसी की कृति हूँ  मैं।

जो पर्यय में नहीं आता,

              मैं वह नित्य अपरिणामी ।।

नहीं कोई कम नहीं ज्यादा,

              सभी परिपूर्ण-प्रभु हैं ये।

यही परिपूर्णता-बुद्धि,

                अनंत-भवभ्रमण खोती है।।

धुले हों भाव भव्यों के..................।।5।।


  प्रो. सुदीप कुमार जैन, नई दिल्ली

देवलटाड ग्राम के जैन सराक बंधु

 

देवलटाड ग्राम के जैन सराक बंधुओं द्वारा दशलक्षण की पूजा करने का एक दृश्य

सृजन का दीप जले दिन रात

सृजन का दीप जले दिन रात

ध्वंस का हो जाए अवसान,

जगे आस्था का नवल प्रभात।

बदल जाएं सबके दिनमान,

सृजन का दीप जले दिन- रात।।

लोक में भर दें हम आलोक,

 रहे ना किसी हृदय में शोक।

 काल के सह लें क्रूर प्रहार,

रहे जग मानवता का ओक।।

चलें ना मानव कभी कुचाल,

सुलगते हों ना विविध सवाल।

मिलें प्रश्नों के उत्तर नेक ,

व्यथित ना करें कभी भूचाल।।

शांति हो भू पर चारों ओर,

 चतुर्दिक्  दृश्य रहें अवदात।

 बदल दें सबके ही दिनमान,

 सृजन के दीप जलें दिन- रात।।1

लेखनी रचे सुहाने गीत ,

बनें सब मानवता के मीत।

 रहे जग मध्य परस्पर प्रीत,

 सदा ही रहे सत्य की जीत ।।

मिटें मन के सब अंतर्द्वन्द,

सुरभि दें सदा भाव- मकरंद ।

रहें जग-जीव सभी सानंद,

गूंजते रहें सृष्टि में छंद।।

रहें निर्मल भू-जल- आकाश ,

शांति की हो पावन बरसात।

बदल जाएं सबके दिनमान,

सृजन का दीप जले दिन- रात।2।

सृजन के चढ़ नूतन सोपान,

 तनें भावों के उच्च वितान।

 मिटें आपस के सभी विभेद,

 सफल हों सारे नीति- विधान।।

 उड़ें चहुं दिशि सद्भाव-विहंग,

 सुनें सब हर क्षण सुखद प्रसंग।

 रहें जीवन के सुंदर ढंग,

 सरस हो वसुधा की उत्संग।।

प्रेम का पायें सब सान्निध्य,

रहें ना घात और प्रतिघात।

 बदल जाएं सबके दिनमान,

 सृजन का दीप जले दिन रात।3।

राष्ट्री-हित में हों एक्य- विचार,

 प्रगति से देश करे विस्तार।

वीथियां उर की हों गुलज़ार ,

करे मर्यादा जहां बिहार।।

प्राणियों के चित हों विस्तीर्ण,

 हृदय हों सरल स्वार्थ से हीन।

 बहे संस्कृति की मधुर सुगंध,

 खिलें उपवन में सुमन नवीन।।

वाड्.मय- वैभव हो उद्दीप्त,

बहे समरसता का मधु वात ।

बदल जाएं सबके दिनमान,

सृजन का दीप जले दिन- रात।4

सृजन की राहें विविध अनंत,

श्रेष्ठ है सदा सृजन का यज्ञ।

 मिले द्वन्द्वों की समुचित काट,

 बने सम्बल ईश्वर सर्वज्ञ ।।

रंगें शब्दों से उज्ज्वल पृष्ठ,

 सृजन के मिलें सुखद परिणाम।

 रचें शब्दों से सुंदर सेतु,

गढ़ें जगहित पथ ललित ललाम।।

सृष्टि के मंगल का ले ध्येय,

चेतना की दें शुभ सौग़ात।

 बदल जाएं सबके दिनमान,

सृजन का दीप जले दिन- रात।5

भावनाओं का शुभ अभिकल्प

 रसायन शब्दों का सिरमौर।

दक्षताओं के विकसें वक्ष,

*साधना-तरु में आये बौर।।

्रणा की गूंजें मंजीर*,

रहे ना किसी ह्रदय में पीर।

चले ना कहीं कपट- शमशीर,

 खिंचें ना द्रोपदियों के चीर।।

उजाला रहे विश्व में व्याप्त,

रहे ना कहीं अंधेरी रात।

बदल जाएं सबके दिनमान,

सृजन का दीप जले दिन- रात ।6

बना लें निज उर को ही दीप,

 प्रेम का भरें उसी में तेल।

 साधना- ज्योति जले निष्कम्प,

 रहे शब्दों का सार्थक मेल।।

कठिन है किंतु सृजन की राह

सुनें हम मानवता की आह।

 रखें जनमंगल की ही चाह,

बहे भावों का पुण्य-प्रवाह।।

 हृदय-वीणा की गूंजे तान,

 बचाएं हिंदी का अहिवात।

 बदल जाएं सबके दिनमान,

 सजन का दीप जले दिन- रात।7

भाव -निर्झरिणी बहे असीम,

 जगें स्वस्तिक सुंदर संकल्प।

 झरे शब्दों से अर्थ- पराग ,

बनें मानव- हित के मधुकल्प।।

अक्षरों का है अक्षय- कोष,

श्रेष्ठ मानव मूल्यों का घोष।

काव्य के शिखर छुएं आकाश,

 सत्य की साध रहे निर्दोष।।

करें अनुचित का नित प्रतिकार,

 प्रेम का अविरल झरे प्रपात।

 बदल जाएं सबके दिनमान,

 सृजन का दीप जले दिन-रात।।8

मिटें जीवन के सब अवरोध,

सत्य, शिव, सुंदर का हो बोध।

 परस्पर त्यागें मनुज विरोध,

 करें मुखरित सर्जक युगबोध।।

"राग हों सरस, सरस लय-तान"

छलकता रहे भाव का नीर

"स्वच्छ हों "जीवन- सर" के तीर"

रहें ना तन- मन कभी अधीर।।

भरे हों 'रस के सिंधु अगाध' ,

"नीति के हों ना शिखर निपात"।

 बदल जाएं सबके दिनमान,

सृजन का दीप जले दिन- रात।9।

रहें सस्मित धरती-आकाश,

रहे आपस में नित विश्वास।

बहे हर उर में नव उल्लास,

रहे सबके अधरों पर हास।।

सृजन का रचें नया इतिहास,

गूंजता रहे स्वरों से व्योम।

भावनाओं के रवि" हों सौम्य,

कल्पनाओं के शुचि हों सोम।

शारदे!दो ऐसा वरदान,

लेखनी हो जाये निष्णात।

बदल जायें सबके दिनमान,

सृजन का दीप जले दिन- रात।10

जगे शब्दों में 'अनहद- नाद',

 रहे विलसित उर में आह्लाद।

"वेदना-विष" पी जगे शिवत्व,

बदल जाये जीवन का स्वाद।।

पिपासाएं हों मन की शान्त,

कामनाएं ना हों उद्भ्रान्त।

"मनुज से मनुज न हों आक्रान्त"

स्वप्न नयनों के हों ना क्लान्त


लिखें जीवन में नयी बहार,

झरें ना "जीवन-तरु" के पात।

बदल जायें सबके दिनमान,

सृजन का दीप जले दिन-रात।11

मिले वीणावादिनि का प्यार,

सजें जीवन के रंग हज़ार।

सिद्धियों के खुल जायें द्वार,

सृजित हो एक नया संसार।।

सृजन में लगे रहें फ़नकार,

साधना की गूंजे झनकार।

"वेद"स्वर-शब्दों के उपहार,

रसिक जन करो इन्हें स्वीकार।।

सरस यह "चिन्तन का नवनीत",

रहेगा रुचिर सभी को ज्ञात।

बदल जायें सबके दिनमान,

सृजन का दीप जले दिन-रात।12

सृजन के रहें शुद्ध आयाम",

सृजन को करते सभी प्रणाम

सजग हों निर्माणों के मन्त्र,

सृजन से धन्य हुआ हर धाम

सृजन में होती अद्भुत शक्ति

सृजन में लीन साधना-भक्ति।

*सृजन से अमर हुआ है व्यक्ति,

सृजन है ईश्वर में अनुरक्ति।।

सृजन में सौख्य शील सौन्दर्य,

सृजन से उज्ज्वल अरुण- प्रभात।

बदल जायें सबके दिनमान,

सृजन का दीप जले दिन-रात।13

वेदप्रकाश शर्मा "वेद"

 नगर भरतपुर राजस्थान

दुनिया में सुख शांति लाना है तो आर्जव धर्म अपनाना चाहिए




डॉ. महेन्द्रकुमार जैन ‘मनुज’
22/2, रामगंज, जिंसी, इन्दौर 9826091247

सरल और निष्कपट विचारवान होकर वैसा आचरण करना आर्जव है। आज व्यक्ति, समाज, संगठन से लेकर देश दुनिया में कहते कुछ और हैं तथा करते कुछ और हैं। कथनी करनी में अन्तर, छल-कपट, बंचना, अत्यधिक महत्वाकांक्षाओं के कारण ही विद्वेष, वैमनस्य, अशान्ति जन्म लेती है। कभी देश आपस में टेबुल पर शांतिवार्ता कर रहे होते हैं और सीमाओं पर उन्हीं की सेनाएं घुसपैठ या आक्रमण की तैयारी में लगीं होतीं हैं। ये सब मायाचार है। मायावी की एक न एक दिन कलई खुल ही जाती है। आचार्यों ने कहा है-

मनस्येकं वचस्येकं वपुष्येकं महात्मनाम्।
मनस्यन्यत् वचस्यन्यत् वपुष्यन्यत् दुरात्मनाम्।।
महान् व्यक्ति की पहचान है कि वह जो मन में सोचता है वह कहता है और जो कहता है वही करता है। इसके उलट जो व्यक्ति मन में तो कुछ और वचन से कुछ और, करै कछु और ऐसे व्यक्ति को दुरात्मा की संक्षा दी गई है।
जैन धर्मावलम्बी पूजा आराधना में भी पढ़ते हैं-
‘मन में होय सो वचन उचरिये, वचन होय सो तन सौं करिये।

    भगवान् श्री राम में बहुत सरलता थी। एक प्रसंग आता है कि- जब राम और लक्ष्मण वनवास में थे, तब राम ने सरोवर में किनारे को ध्यानस्थ एक बगुले को देखा, तो उन्होंने उस बगुले की सरलता की प्रशंसा लक्ष्मण से करते हुए कहा- ‘पश्य लक्ष्मण! पम्पायां बकोयं परम धार्मिकः।’ हे लक्ष्मण! देखो सरोवर में यह बगुला कितना धार्मिक है? एक पैर पर खड़ा होकर ध्यान कर रहा है। इसी बीच उस बगुले ने धीरे से उठाया हुआ पैर पानी में रखा, तब लक्ष्मण जी कहते हैं- हां भैया- ‘‘शनैः शनैः पदं धत्ते, जीवानां वधशंकया।’’ वह पानी में धीरे धीरे पैर रख रहा है जिससे जीवों का धात न हो जाए। कहते हैं रामल-क्ष्मण की यह वार्ता उसी सरोवर की एक मछली सुन रही थी, उसने बाहर उछल कर कहा- ‘‘बकः किं स्तूयते राम! येनाहं निष्कुली कृतः, सहवासी हि जानाति, सहवासी विचेष्टितं।’’ हे रामचन्द्रजी! इस बगुले की क्या प्रशंसा कर रहे हैं जिन्होंने हम मछलियों के कुल को ही भक्षण करके नष्ट कर दिया है। दूर से सबको अच्छाई ही दिखाई देती है, सन्निकट रहने वाला ही पास वाले की दुर्जनता जानता है।

श्री गजराज जी जैन गंगवाल का स्वागत

 



पारसनाथ मधुबन में भारतवर्षीय दिगंबर महासभा के अध्यक्ष श्री गजराज जी जैन गंगवाल का स्वागत भारतवर्षीय दिगंबर जैन सराक ट्रस्ट झारखंड शाखा के कमल जैन पाटोदी साडम संजय पाटनी रांची एवं अन्य जैन सराक कार्यकर्ताओं द्वारा किया गया।

समाचार


                        पूजन करते हुए सराक बंधुओ। ।।।🙏🙏🙏 सुन्दरा बांध, पुरुलिया , पश्चिम बंगाल🙏🏻

मेरी मजबूर सी यादें

भुला नहीं पाए हम उसको, मेरी वो मजबूर सी यादें 

याद बहुत आती है हमको, बहुत सारी उसकी बातें 

लाख हमने कोशिश की , सब कुछ वो भुलाने की 

बहुत बुरा सपना था वो तो , दिल को समझाने की 

ना समझा कभी हमने , दिल बड़ा नादाँ होता है 

इससे खेलना किसी का, कितना आसां होता है 

सपनो का महल था मेरा, उसने  कैसे तोड़ दिया 

वादे सारे भूल गया वो , बेवस हमको छोड़ दिया 

बहुत बुरा जालिम था वो ,बहुत सितमगार था 

जुल्म उसने बहुत ढाये , ना कोई मददगार था 

लालची था बहुत बड़ा वो, दौलत का पुजारी था 

वासना का कीड़ा था वो , वो तो एक शिकारी था 

माँ-बाप के दिल को तोड़ा ,बहुत हमें समझाया था 

बहुरूपिये है कितने यहाँ ,सब कुछ तो बताया था 

देखा नहीं उन अश्रु धार को , खुद हमें भरोसा था 

तड़फते छोड़ा था  हमने , कितना उनको कोसा था 

लहू के आँसू पी रहे थे ,उसे कहाँ अहसास था 

कितने हम मजबूर हैं , बस उसका अट्ठास था 

अपनों का भी साथ नहीं,  कैसा ये परिहास था  

हर तरफ बर्बादी दिखती ,  मन बहुत उदास था  

खुद को फिर संभाला हमने, काट दिया हमने वो बंधन 

जीवन नहीं है हार मानना , अपने उर में बसता चंदन

चल पड़े हैं हम तो अकेले ,  अपनी डगर बसाने को 

मज़बूरी हैं वो सब यादें ,  लगे जिन्हें हम भुलाने को 


श्याम मठपाल, उदयपुर

बांसुरी

कर से कर स्पर्श पोर से।

अचक अचक सहलाते हैं।

धर अधरों पर अधर बांसुरी।

को फिर मधुर बजाते हैं।

सप्त स्वरों से लगें थिरकने।

मन दीवाना हो जाता।

स्वर लहरी को सुन ना जाने।

किन ख्वाबों में खो जाता।

मधुर मधुर यादों के सपने।

मन में खूब सजाते हैं।

धर अधरों पर अधर बांसुरी।

को फिर मधुर बजाते हैं।।1।।

मोर पंख में प्रियतम की।

आभा नयनों से निरख रही।

मधुर मिलन की मधुर कल्पना।

से मन ही मन थिरक रही।

कब बाहों में लेकर मुझसे।

नैन से मिलाते हैं।

धर अधरों पर अधर बांसुरी।

को फिर मधुर बजाते हैं।।2।।

काली काली अलकें लम्बी।

महक रहा जिन पर गजरा।

सुरमई गोल गोल आंखों पर। 

चहक रहा काला कजरा।

थिरक रहे हैं होठ नशीले।

मानो उन्हें बुलाते हैं।

धर अधरों पर अधर बांसुरी।

को फिर मधुर बजाते हैं।।3।।

ग्रीवा पर है हार शुशोभित।

बाजूबंद कलाई में।

ध्यान मग्न है पागल मनुआं।

केवल कृष्ण कन्हाई में।

लगा लगा मस्तक पर चंदन।

कान्हा खूब रिझाते हैं।

धर अधरों पर अधर बांसुरी।

को फिर मधुर बजाते हैं।।4।।

चढता प्रीत रंग तन मन पर।

मन ही मन बतियाते हैं।

नींद नहीं आती पल भर भी।

तनिक ना खाना खाते हैं।

रोम रोम प्रियतम की यादों।

के रंग में रग जाते हैं।

धर अधरों पर अधर बांसुरी।

को फिर मधुर बजाते हैं।।5।।


     🙏हरीश चंद्र हरि नगर🙏

प्रथम पूज्य आराध्य गजानन

प्रथम पूज्य आराध्य गजानन 

आप     पधारें   मेरे   आँगन ,

मन में , घर में  , आप पधारें 

निर्विघ्न  सब   काज  संवारें ,

प्रथम  आपकी  पूजा  करते 

शुभ  संकल्प  से कार्य रचते ,

जलतत्व के आप हैं अधिपति 

देवताओं   के   देव  गणपति ,

आप  सब  के  हैं सिद्धिदाता

सदा कृपा  हो भाग्य विधाता ,

मंगल  मूरत  सिद्धि विनायक 

रिद्धि सिद्धि सँग विध्न विनाशक ,

अधिष्ठात्र    देव   हैं  गणों  के 

बस ध्यान प्रभु आप चरणों के,

मैं   शरण  आपकी  लम्बोदर

रखिये आशीष आप मुझ पर,

शिव   पार्वती   के  हैं  दुलारे 

भक्तों    के   सदैव   रखवारे,

मंगल कार्य के शुभ शुभंकर

कष्टों  से  हो  रक्षा  हम  पर ,

बसी है छवि आपकी मन में 

यह शुभ लाभ रहें जीवन में,

पंडालों  में   देखिये , गणेश  विराजमान 

श्रद्धा  पूजा से  करें, हम इनका सम्मान,

हम इनका सम्मान,इनकी कृपा हो जाये 

घर में सुख  सम्पत्ति, और प्रेम चैन छाये,

कह संजय देवेश,भजन कीर्तन वालों में

अब  उनके  है संग , नाचता   पंडालों में।

संजय गुप्ता देवेशगणेश चतुर्थी की हार्दिक शुभकामनायें 🙏

विधा     चौपाइयाँ + कुंडली 

शीर्षक   प्रथम पूज्य आराध्य गजानन

प्रथम पूज्य आराध्य गजानन 

आप     पधारें   मेरे   आँगन ,

मन में , घर में  , आप पधारें 

निर्विघ्न  सब   काज  संवारें ,

प्रथम  आपकी  पूजा  करते 

शुभ  संकल्प  से कार्य रचते ,

जलतत्व के आप हैं अधिपति 

देवताओं   के   देव  गणपति ,

आप  सब  के  हैं सिद्धिदाता

सदा कृपा  हो भाग्य विधाता ,

मंगल  मूरत  सिद्धि विनायक 

रिद्धि सिद्धि सँग विध्न विनाशक ,

अधिष्ठात्र    देव   हैं  गणों  के 

बस ध्यान प्रभु आप चरणों के,

मैं   शरण  आपकी  लम्बोदर

रखिये आशीष आप मुझ पर,

शिव   पार्वती   के  हैं  दुलारे 

भक्तों    के   सदैव   रखवारे,

मंगल कार्य के शुभ शुभंकर

कष्टों  से  हो  रक्षा  हम  पर ,

बसी है छवि आपकी मन में 

यह शुभ लाभ रहें जीवन में,

पंडालों  में   देखिये , गणेश  विराजमान 

श्रद्धा  पूजा से  करें, हम इनका सम्मान,

हम इनका सम्मान,इनकी कृपा हो जाये 

घर में सुख  सम्पत्ति, और प्रेम चैन छाये,

कह संजय देवेश,भजन कीर्तन वालों में

अब  उनके  है संग , नाचता   पंडालों में।


            संजय गुप्ता देवेश

धूप और छाँव

ज़िन्दगी बिताने का क्या है मज़ा,

बिना धूप और छाँव का लिए  मज़ा, 


धूप रूपी हो सुख यहाँ या छाँव रूपी हो दुख यहाँ, 

विचलित ना होना पथ से  होकर अधीर यहाँ, 


धूप और छाँव तो है भास्कर की महिमा अनूठी, 

सुख और दुख तो है जीवन की चमकीली अंगूठी, 


मेरे जीवन की बहुत ही खट्टी और मीठी है कहानी, 

धूप और छाँव तो है जीवन की आती और जाती सुनामी, 


दुख -सुख के बिना तो जीवन की महत्ता है अधूरी, 

गम को चखकर ही तो लगती खुशी की महत्ता पूरी, 


प्यार का बंधन है जितना मज़बूत होता, 

दुख का समुंद्र है उतना कमज़ोर होता, 


गर्म और ठन्डे अहसास से होते है ये  फूल और कांटे, 

कभी आँसू तो कभी फुआर है हँसी की  ये न्यारे छींटे, 


धूप और छाँव की बगिया में दिखते फूल रंगीले, 

कभी हल्के तो कभी भडकीले लगते बहुत ही सजीले, 


दीपाली मित्तल

 

 गणाचार्य श्री विरागसागर जी महामुनिराज के सुयोग्य शिष्य  श्रमण रत्न वात्सल्य मूर्ति, मनोज्ञ, निर्यापक मुनि श्री विभंजनसागर जी मुनिराज ससंघ अभी 

श्री दिगम्बर जैन मन्दिर,

 A-ब्लॉक, सूरजमल विहार, दिल्ली-92

में विराजमान हैं


 🌹 23 अगस्त 2021 से सोलह कारण व्रत प्रारम्भ हो गए है


🌹 10 सितम्बर 2021 से 19 सितम्बर 2021 तक दस लक्षण पर्व रहेंगे


मुनि श्री की दिनचर्या


प्रातः 06.15 बजे अभिषेक, 

प्रातः 06.40 बजे शान्तिधारा

प्रातः 07.00 बजे से भक्ति, स्तुती, पाठ और आचार्य वंदना आदि

प्रातः 07.10  "बारह भावना" पर मंगल प्रवचन

प्रातः : 09.30 बजे आहार चर्या

दोपहर: 12.15 बजे सामायिक

दोपहर: 03.30 बजे रत्नकरण्ड श्रावकाचार की क्लास

दोपहर: 04.40 बजे से रयणसार ग्रंथ का स्वाध्याय

शाम: 06.30 गुरु भक्ति और जिज्ञासा समाधान ।


 आप सभी पूज्य मुनिवर विभंजन सागर जी मुनिराज की मंगल वाणी को हमारे youtube channel के माध्यम से Live सुने ...हमारा *youtube channel :

Vibhanjan sagar muniraj

https://www.youtube.com/user/vibhanjansagar

आप सभी इस पर Live धर्म देशना सुनकर पुण्यार्जन करें।

आप सभी को प्रोग्राम और Live प्रवचन की update मिलती रहे उसके लिए Channel  को subscribe करें।

जो भी धर्मानुरागी श्रावक है ,जो जिनवाणी सुनने के इच्छुक है उनके साथ भी share करे।

प्रतिदिन प्रवचन का समय:-

प्रातः 08.15 से 08.55

दोपहर 04:40 से 05:20

पूज्य गुरुदेव मंगल प्रवचन, आहार चर्या एवं सभी कार्यक्रम देखने के लिए ;―youtube पर जा कर vibhanjansagar channel

https://www.youtube.com/user/vibhanjansagarलिख कर इस चैनल को अधिक से अधिक  SUBSCRIBE करें....।और bell 🔔 icon पर click करें....| 

 आप भी मुनिराज के मुखारबिन्द से प्रतिदिन की शान्तिधारा को देख सकते है और अन्य भी आहार विहार के सभी कार्यक्रम और कुछ विशेष भी देख सकते है....

मुनिश्री की सभी जानकारी और जैन धर्म के बारे में नयी-नयी जानकारी प्राप्त करने के लिए आप भी हमारे

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उज्जैन 27 नवम्बर 2022। महावीर तपोभूमि उज्जैन में ‘उज्जैन का जैन इतिहास’ विषय पर आचार्यश्री पुष्पदंत सागर जी के प्रखर शिष्य आचार्यश्री प्रज्ञ...

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